हमार पापा को बचा लिहूं सरकार

संजय कृष्ण
शनिवार (26 दिसंबर) की रात एक बेटे की अपने पिता को माओवादियों से बचानेे की पुलिस से लगाई गुहार आखिरकार दम तोड़ गई। पुलिस ने उसके पिता को बचाने की कोई कवायद नहीं की। अलबत्ता बेटे को, जैसा कि पुलिस का अधिकार है, उसे गालियां देकर वहां से भगा दिया। इसके बाद माओवादियों ने जो किया, वह उनकी क्रूरता की सारी सीमाएं तोड़ देता है।
झारखंड का एक जिला है पलामू। पलामू का एक प्रखंड है छतरपुर। छतरपुर के एक गांव सरइडीह में शनिवार को करीब नौ बजे माओवादियों का एक जत्था पहुंचा और दिनेश सिंह के घर का दरवाजा खुलवाने लगा। दरवाजा नहीं खुलने पर जोर-जर्बदस्ती के बाद उसेेेे तोड़़़़ दिया और घर के भीतर प्रवेश कर गया। जब दिनेश सिंह ने इसका विरोध किया तो उसे गोली मार दी। घर के भीतर मौजूद उसकी पत्नी देवरती देवी ने अपने सामने सुहाग को दम तोड़ता देख उसने माओवादियों पर हमला कर दिया और उसे भी माओवादियों ने वहीं ढेर कर दिया। इसके बाद उनकी क्रूरता यहीं नहीं रुकी। दोनों को खाट से बांधा और आग लगा दी। फिर उनके घर को डायनामाइट से उड़ा दिया। करीब दो घंटे तक उनका तांडव चला और चलते-चलते वे उनके मंझले बेटे अजीत (17 साल) को भी साथ लेते गए, जिसका मंगलवार को दोपहर तक कुछ भी सुराग नहीं लग पाया था।
माओवादियों ने जब गांव में प्रवेश किया तो दिनेश सिंह के बड़े बेटे रंजीत ने, जो मुहर्रम की तैयारी देख रहा था, उन्हें देख लिया। वह अनहोनी को भांप गया और सीधे घर से पचास गज की दूरी पर बने पुलिस पिकेट पर चला गया और पुलिस से अपने पिता को बचाने की गुहार लगाई। पर, पुलिस ने कोई कार्रवाई करने की अपेक्षा अपने बैरक में दुबके रहना ही उचित समझा। इस गांव में यह पिकेट इसीलिए बना था ताकि वे माओवादियों के आतंक से गांव-क्षेत्र को मुक्त रख सकेंगे। लेकिन पुलिस तो नपुंसक निकली। उसकी मर्दानगी तो निर्दाेष आदिवासियों-ग्रामीणों को फर्जी मुठभेड़ के दौरान मार गिराने में दिखाई देती है। इस घटना के बाद भी पुलिस सुबह आठ बजे घटनास्थल पर पहुंची।
यही नहीं, 13 दिसंबर की रात भी इसी गांव में महज सौ मीटर की दूरी पर अवस्थित उदय साव के घर को नक्सलियों ने उड़ा दिया और घर के सभी सामान दो टै्रक्टर पर लाद चलते बने। इस घटना के बाद भी पुलिस नींद से नहीं जागी। इसके पंद्रह दिन बाद ही नक्सलियों ने दूसरी बड़ी लोमहर्षक घटना को अंजाम दे दिया। ऐसे पुलिस को वहां के ग्रामीण हिजड़ा कहें, निकम्मा कहें तो भला किसे आपत्ति हो सकती है...।
खैर, दंपति को जिंदा जलाने के पीछे जमीन संबंधी विवाद बताया जाता है। लेकिन इस विवाद को सुलझाने का तरीका माओवादियों के पास अब यही रह गया है! क्या आपसी दुश्मनी को माओवादी अब इसी तरह की क्रूरतम घटना को अंजाम दे समाप्त करेंगे? क्या अब इनके पास कोई विचारधारा भी बची है या फिर लेवी लेना और आतंक पैदा करना ही अब इनका मकसद रह गया है? झारखंड में तो यही लगता है। पलामू में आधा दर्जन नक्सली गुटों का होना भी यही साबित करता है। इस टिप्पणी को लिखते समय तक माओवादियों ने अभी तक इसकी जिम्मेवारी नहीं ली है और न कोई घटनास्थल पर पर्चा ही छोड़ा है। जबकि माओवादी कोई भी वारदात करते हैं तो पर्चा जरूर छोड़ते हैं या फिर घटना की जिम्मेवारी लेते हैं। चूंकि यह घटना को निजी हित में अंजाम दिया गया है, सो, माओवादी इसकी जिम्मेदारी लेेने से बच रहे हैं। क्या पता, ये माओवादी अपने ऊपर के आका से डरते हों। लेकिन इस घटना ने उनके चेहरे पर कालिख पोतने का काम जरूर किया है।