कहां गए बाघ

संजय कृष्ण : वन्य जीव कोष ने इस साल को बाघ वर्ष घोषित किया है और इसी साल के पहले दिन टाइगर मैन बिली अर्जुन सिंह इस दुनिया से रुखसत हो गए। यह अजीब संयोग ही है। इस घोषित बाघ वर्ष में जाहिर है, सरकार की देश भर में बाघों को बचाने की कवायद शायद इस साल परवान चढ़े। जिस तेजी से बाघ इस धरती से विदा हो रहे हैैं, इसकी चिंता न केंद्र सरकार को है और उन राज्यों की सरकारों को, जहां बाघों के अभ्यारण्य हैं। कम से कम पलामू व्याघ्र आरक्ष (पलामू टाइगर रिजर्व, बेतला नेशनल पार्क)

में यही स्थिति है। यहां का वन्य प्राणी विभाग झूठे आंकड़ों जरिए अपनी पीठ थपथपाता है। राज्य की सरकार और विभागीय अधिकारी भी वन्य प्राणियों को बचाने की कवायद को लेकर तनिक भी गंभीर नजर नहीं आते। इसी का नतीजा है कि चालीस बाघों की संख्या से घटकर मात्र एक बाघिन ही बची रह गई है। वैसे, विभाग के अधिकारी सत्रह बाघों के होने का दावा करते हैं, लेकिन उनके इस दावे पर देहरादून स्थित संस्था ने सवाल उठा दिया है।

पलामू व्याघ्र आरक्ष तीन जिलों लातेहार, गढ़वा, गुमला जिलों के 1026 वर्ग किमी वनक्षेत्र में फैला हुआ है। छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले से भी यह सटा हुआ है। इसका सृजन 1974 में हुआ था। यहां बाघ सहित कई अन्य जानवर भी हैं। पर यहां के अधिकारी इसको लेकर संजीदा नहीं है। वनों की अंधाधुंध कटाई से वन्य प्राणी अपने अस्तित्व से जूझ रहे हैं। बेतला नेशनल पार्क के भीतर वनों की कटाई रेंजरों के माथे पर शिकन पैदा नहीं करती। भीतर के कीमती पेड़ भी वन माफियों की भेंट चढ़ गए हैं। यह सिलसिला जारी है। सरकार और वन विभाग भी इस मामले में शुतुरमुर्गी रवैया अपनाए हुए है। सो, वन्य प्राणी दोहरी मार झेल रहे हैं। कहने वाले कहते हैं कि यह सब सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत से होता है। पिछली गर्मी में बेतला के भीतर जानवरों के पीने के लिए पानी की कोई समुचित व्यवस्था नहीं थी। चढ़ती गर्मी ने जानवरों का जीना मुहाल हर दिया था। सो, जानवर जंगल से निकल गांवों में पानी के लिए भटकते रहे। इस क्रम में कई जानवर ग्रामीणों के हाथों मारे गए तो कई वाहनों की चपेट में आकर अपनी जान गंवाए। पर, संवेदनहीन अधिकारी जानवरों की मौतों पर लीपापोती करने में जुटे रहे। लाख टके का सवाल है, क्या इसी तरह हम लुप्त हो रहे बाघों बचाएंगे?

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