बीस रुपये में गुजारा करती लुप्त होती जनजाति

 

संजय कृष्ण : केंद्र और राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाएं भी आदिवासियों के जीवन स्तर में सुधार नहीं ला पा रही हैं। सो, यहां की अधिकांश आबादी आज भी आदिम युग में जीने को अभिशप्त हैं। उनकी रोजाना आय बीस रुपए से भी कम है। आंकड़े बताते हैं कि पांच सौ रुपए आय वर्ग में कुल आबादी का 70.28 प्रतिशत है। छह सौ रुपए कमाने वालों की संख्या 10.88 है। सात सौ कमाने वालों की संख्या 8.49 है। आठ सौ कमाने वाले 6.24, एक हजार कमाने वाले 2.72 और एक हजार से ऊपर कमाने वाले 1.09 प्रतिशत हैं। यह अलग बने झारखंड की कहानी है। राज्य की कुल आबादी 2,69,09,428 है। इनमें लुप्तप्राय जनजातियों की संख्या 1,92,425 है। यानी 0.72 प्रतिशत। इनमें बिरहोर (6579), परहिया (13848), माल पहाडि़या (60783), सावर (9949), सौरिया पहाडि़या (61121), हिल खडि़या (1625), कोरवा (24027), असुर (9100), बिरजिया (5393)हैं। आदिम जनजातियों की सर्वाधिक संख्या साहेबगंज में 35,129 है और सबसे कम धनबाद में महज 137। इनकी आजीविका जंगल पर निर्भर है। जंगल में वन विभाग और माओवादियों की चलती है। 2006 में वन अधिकार कानून लागू हुआ लेकिन सरकारी महकमा इसे लागू करने के प्रति उदासीन है। जिसके कारण आदिवासियों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है। खेती से इनकी जीविका में सुधार हो सकता है, लेकिन सिंचाई के अभाव में इनकी अधिकांश भूमि असिंचित ही रह जाती है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि लुप्तप्राय जनजातियों के पास कृषि योग्य भूमि 23,876 एकड़ है। इनमें सिंचित भूमि 6594 एकड़ हैं और 17282 एकड़ भूमि पर सिंचाई नहीं हो पाती है। ये आंकड़े सरकार को ही मुंह चिढ़ाते हैं। उनकी योजनाओं के हश्र की कहानी बयां करते हैं। पिछले दिनों अर्जुन सेन गुप्ता ने भी अपने रिपोर्ट में लिखा था कि देश की आबादी का 80 प्रतिशत 20 रुपए रोज पर गुजारा करती है।

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