प्रेम गली अति साकरी

 संजय कृष्ण : हर युग में प्रेम की परिभाषा और उसकी कसौटियों को लेकर विमर्श के बिंदु उभरते रहे हैं। द्वापर के कृष्ण ने तो प्रेम की परिभाषा के बजाय उसे करना ज्यादा बेहतर समझा। वे इंद्र की तरह वासना से पीडि़त नहीं थे, बल्कि वे प्रेम के स्वस्थ प्रतीक बनकर उभरे। राधा, उनकी प्रेमिका थी, इसके अलावा उनकी चार पत्नियां भी थीं, लेकिन प्रेम किसी से कम न था। वैसे उनकी सोलह हजार पटरानियों का जिक्र भी मिलता है। लेकिन मिथक के इस अतिरेक में न भी जाएं तो, यह मानने में किसी को गुरेज नहीं होगा कि पत्नि के अलावा राधा उनकी चाह थी। राम चूंकि मर्यादा में बंधे हुए थी, इसलिए मर्यादा को तोडऩे की शक्ति उनमें नहीं थी। समाज के बंधे-बंधाए नियम राम के लिए सब कुछ था। दूसरे शब्दों में आप कह सकते हैं कि राम समाज के पीछे-पीछे चलने वाले व्यक्ति थे तो कृष्ण समाज के आगे-आगे चलने वाले प्रेरणा के पुंज। इसे काल और समय का अंतर भी मान सकते हैं। संस्कृत के महाकाव्य तो प्रेमगाथाओं से भरे पड़े हैं। यम-यमी से लेकर उर्वशी-पुरुरवा तक। लेकिन यहां प्रेम देह से ऊपर नहीं उठ पाता है। मध्यकालीन संत तो प्रेम में पूरे पगे नजर आते हैं। मीरा गली-गली अपने प्रेम की पीड़ा का अहसास कराती घूम रही हैं तो कबीर प्रेम गली को इतना संकरा बताते और कहते हैं कि उसमें दो का प्रवेश नहीं  सकता। प्रेम के मामले में 'दोÓ बड़ा अर्थपूर्ण है। इसे समझने की जरूरत है। किसी ने कहा है कि दो जब एक हो जाए तभी प्रेम की सार्थकता है। जब तक शरीर का भान है, दो का बोध है, समझिए प्रेम में कोई कसक रह गयी है। कबीर ऐसे प्रेम के कायल हैं, जहां दो का अस्तित्व ही न बचे, ऐसा प्रेमी ही प्रेम की गली में प्रवेश कर सकता है और उसे पा सकता हैै।
वस्तुत: प्रेम आकर्षण से उपजता है। यह आकर्षण ईश्वर के प्रति हो, गुरु के प्रति हो या विपरीत लिंगी हो। यह सच है कि प्रेम चाहना से उत्पन्न होता है, लेकिन चाहकर आप प्रेम नहीं कर सकते। यह अनायास-अचानक घट जाता है। लेकिन समाज की अपनी आचार-संहिता होती है, जहां दो स्त्री-पुरुष के प्रेम को समाजविरोधी करार दे दिया जाता है। चूंकि समाज का अपना तर्क है। उसने विवाह नामक संस्था बनायी है। और इस संस्था से बाहर यदि कोई प्रेम करने की जुर्रत करता है तो उसे सामाजिक मर्यादाओं के उल्लंघन का दोषी माना जाता है, और इसकी सजा हर समाज ने अलग-अलग से मुकर्रर कर रखी है। प्रेम के संदर्भ में समाज की प्रकृति दरअसल तानाशाह की है। वह अपने ऊपर किसी भी प्रकार के व्यवधान का प्रतिरोध करता है। कभी-कभी आक्रामक की मुद्रा में तो कभी उसे नष्टï करने की चेतना से लैस होकर। जबकि प्रेम सारे व्यवधानों, सीमाओं या बंधनों को दरकिनार कर स्वयं में ही केंद्रित रहता है। उसके लिए किसी भी प्रकार के बंधन अस्वीकार्य हैं। एक अर्थ में यह मनुष्य की स्वतंत्रता की परम अभिव्यक्ति के रूप में उभरता है। पर समाज इस स्वतंत्रता को अपने लिए घातक समझता है। समाज की अपनी चिंताएं होती हैं तो प्रेमियों की अपनी चाह। हां, समर्थवानों को कोई समस्या नहीं है। उच्च मध्यवर्ग के लिए प्रेम कोई बड़ी समस्या नहीं है। वहां प्रेम अंतत: परिणय में परिणित हो जाता है। न भी हो तो वे एक दूजे में रस तो लेते ही हैं। सारी समस्या मध्यवर्ग के लिए है, जो रूढिय़ों और परंपराओं से चिपके रहना भी चाहता है और आधुनिकता की वकालत भी करता है। इन दोनों के बीच द्वंद्व से सबसे अधिक प्रभावित होने वाला भी यही वर्ग है। दूसरे समाजों में इस तरह की बंदिशें नहीं है। आदिवासी समाज में 'घोटुलÓ नामक प्रथा स्त्री प्रेम की स्वतंत्रता का ही पक्षधर है। इस प्रथा के अंतर्गत गांव के बाहर युवक-युवतियों को एक साथ रहने के लिए छोड़ दिया जाता है। वे जरूरी चीजें लेकर रहने के लिए चले जाते हैं। मौज-मस्ती करते हैं, हडिय़ा पीते हैं, नाचते-गाते हैं, तब यह फैसला होता है कि वे एक साथ रह सकते हैं कि नहीं। यदि नहीं तो, फिर किसी और के साथ।
हमारे समाज की त्रासदी यह है कि मन-मिजाज से तो हम आधुनिक दिखना चाहते है, लेकिन अपने जड़ संस्कारों पर पुनर्विचार भी करने से परहेज करते हैं। कभी ग्रंथों का हवाला देते हैं कभी सामाजिक मर्यादाओं का। लेकिन खुद इन हवालों से दूर ही रहते हैं और बार-बार नैतिकता की लाठी से प्रेम को लहूलुहान करते रहते हैं।
                                          

1 टिप्पणी:

  1. Ek gambhir aur manan karne, vichar karne, sochne yogya rachna jiski saraahna ki jani chaahiye. aaj ki smasyaa yahi hai -

    हमारे समाज की त्रासदी यह है कि मन-मिजाज से तो हम आधुनिक दिखना चाहते है, लेकिन अपने जड़ संस्कारों पर पुनर्विचार भी करने से परहेज करते हैं। कभी ग्रंथों का हवाला देते हैं कभी सामाजिक मर्यादाओं का। लेकिन खुद इन हवालों से दूर ही रहते हैं और बार-बार नैतिकता की लाठी से प्रेम को लहूलुहान करते रहते हैं।

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