मौन हो गई मुखर आवाज

संजय कृष्ण : संस्कृति पुरुष डा. रामदयाल मुंडा पिछले महीने की तीस तारीख को अलविदा कह गए। पिछले कई महीनों से वे कैंसर से ग्रस्त थे। अमेरिका में भी इलाज कराया गया, पर उन्हें बचाया नहीं जा सका। पद्मश्री डा. मुंडा के निधन पर मुख्यधारा का मीडिया बहुत मुखर नहीं हुआ। दिल्ली के किसी बड़े अखबार में भी कुछ बड़ी चीज देखने को नहीं मिली। संगीत नाटक अकादमी सम्मान से नवाजे गए डा. रामदयाल मुंडा जितना अच्छा बांसुरी बजाते थे, उतना ही अच्छा मांदर और नगाड़ा भी। मांदर की थाप जब उनके कानों में घुलने लगती, उनके पैर खुद ब खुद थिरकने लगते। नृत्य और गीत भी उनके जीवन का हिस्सा थे। जहां चलना ही नृत्य और बोलना ही गीत हो वहां मुंडा जी कैसे इनसे बचे रह सकते थे। दर्जनों छोटी-बड़ी बांसुरियां व दस-बारह किस्म के नगाड़े व मांदर उनके बैठके की शान थे।
आज भी उनका मुस्कराता चेहरा बार-बार आंखों में घूम जाता है। जब भी मिलते, मुस्कराते मिलते। आधी बांह का खादी का कुर्ता, गर्दन तक अनुशासित घुंघराले खिचड़ी बाल और आंखों पर चश्मा यही उनकी पहचान थी। सादगी में लिपटा उनका व्यक्तित्व था। अगर आप उनके व्यक्त्वि से पूर्व परिचित नहीं हैं तो भ्रम होना स्वाभाविक है जो आदमी इतना सरल दिखाई दिखाई दे रहा है, उसने अमेरिका में पढ़ा-पढ़ाया होगा, भाषा का बेजोड़ विद्वान होगा और उतना ही अपनी माटी से भी जुड़ा होगा...।
आधुनिकता और विद्वता के भारी-भरकम आभा मंडल में लोग अपनी संस्कृति भूल जाते हैं। मुंडाजी इस माने में अपवाद थे। राज्यसभा में चुने जाने व राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य होने के बावजूद न बांसुरी में फूंक मारना छोड़ा न मांदर पर थाप देना। मुंडा जी भाषा के जितने बड़े विद्वान थे, उतना ही बड़ा वे कवि भी थे। मुंडारी-हिंदी में उनका एक संग्रह 2005 में आया था सेलेद यानी विविधा। जी तोनोल (मन बंधन), जी रानाड़ा (मन बिछुडऩा), एनेओन(जागरण)। राग जदुर में उनका एक गीत है...मैंने तुम्हें बचपन में देखा था/तुम सुकान पहाड़ की तरह ऊंची हो गई/ मैंने तुम्हें छुटपन में देखा था/ तुम बुंडू बांध की तरह गहरी हो गई...। राग काराम का एक गीत सुनिए...काश, यह संभव होता...काश, यह संभव होता! मैं प्रेत बन जाता, प्रिय, मैं प्रेत बन जाता! दिन-रात तुम्हारे पीछे पड़ता। ...तुम्हारी छाया का पीछा करता।...गीत के अंतिम बोल हैं...प्रिय, तुम्हारे साथ भागकर खो जाता, मैं हटिया कारखाने में मजदूरी करता। हटिया कारखाने में मजदूरी करता...। प्रेम से भीगी कविताओं में मुंडाजी हृदय खुलता है। गीत-संगीत के जरिए आदमी अपनी मूल प्रकृति को अभिव्यक्त करता है। यहां कोई बनावटीपन नहीं होता। समय का कोई बंधन नहीं। इन क्षणों में सत्य और शाश्वत में जीता है। मुख्यधारा का समाज नहीं जानता कि डा. रामदयाल मुंंडा न सिर्फ एक अंतरराष्ट्रीय स्तर के भाषाविद, समाजशास्त्री और आदिवासी बुद्धिजीवी थे, बल्कि वे एक अप्रतिम कलाकार भी थे। वे झारखंड नहीं, दस करोड़ आदिवासियों की आवाज थे। बोड़ो-संताल संघर्ष विराम में महती भूमिका निभाई। उनके चाहने वाले देश ही नहीं विदेश में भी हैं, लेकिन अपने देश का गैरआदिवासी समाज उन्हें आज भी नहीं समझ पा रहा है।