डा. दिनेश्वर प्रसाद : नए पथ के खोजी

संजय कृष्ण : डा. दिनेश्वर प्रसाद हिंदी जगत के लिए अपरिचित नहीं है। अपनी प्रतिबद्धता, विषयों की विविधता, सीमाओं में न बंधने की उनकी अपनी जिद, चुनौतियों को स्वीकार करने और आगे बढऩे का लगातार साहस और बिना किसी हो-हल्ला किए अपनी साधना में लीन। वे ऐसे एकनिष्ठ साधक हैं कि उनकी स्थापनाओं को कुछ देर के लिए ओझल किया जा सकता है, लेकिन अलक्षित नहीं। चाहे लोक साहित्य की बात हो, या प्रसाद की विचारधारा की, चाहे मुंडारी भाषा के जरिए सांस्कृतिक निरंतरता की खोज की, वह हर कसौटियों पर खरे उतरते हैं।
  वे जटिल विषयों के अध्येता जरूर हंै लेकिन उनका व्यक्तित्व जटिल नहीं है। बहुत ही सहज, सरल और मिलनसार। न किसी प्रकार का अहं न कोई बनावटीपन। यह उनकी विशेषता नहीं, उनके व्यक्तित्व के सहज गुण हंै। जब रांची आया तो उनसे मिलने की इच्छा जगी। कहीं से फोन नंबर मिला। बात की और चल पड़ा उनके बताए पते पर। बिना दरस-परस के मन में जो उनकी छवि बनी थी वह पचास-पचपन के उम्र की थी। जब उन्होंने दरवाजा खोला और मैंने उन्हीं से पूछा कि दिनेश्वर प्रसाद जी हैं तो उनका जवाब था- मैं हूं। मैं चकित हुआ। मन की छवि टूट गई। यह भी बोध हुआ बिना देखे मन में जो छवि बनेगी, खंडित होगी। उन्नत ललाट, आंख पर चश्मा, कोमल स्वर, कुर्ता और लुंगी इसी वेश में मिले। घर पर वे इसी सहज वेश में रहते हैं। इसके बाद उनसे मिलने का सुअवसर मिलता रहता है-किसी न किसी बहाने। पास जब उनके होता हूं तो साहित्य जगत की पुरानी बातें सुनने को खूब मिलती हैं। अनुभव और स्मृतियों के पट को खोलते हैं तो बड़े अनमोल खजाने निकलते हैं। घंटों उनको सुनने के बाद भी मन रीता का रीता ही रहता है। एक अतृप्त प्यास। 
दिनेश्वर प्रसाद माक्र्सवादी हैं, लेकिन रूढि़बद्ध नहीं हैं। इसीलिए उनके पसंदीदा कवि प्रसाद हैं।
वे अन्य माक्र्सवादियों की तरह प्रसाद से परहेज नहीं करते हैं। उनका जन्म ही उस काल में हुआ, जब साहित्य में अन्य छायावादी कवियों तरह की प्रसाद की कविताएं छायी हुई थीं। जाहिर है, यह दौर छायावाद का था। इस 'वादÓ के वातावरण में दिनेश्वर बाबू प्रसाद की छाया से कैसे बच सकते थे! जैसे-जैसे उनकी कविताओं को पढ़ते गए, वैसे-वैसे उनके आकर्षण में बंधते गए। इसके पीछे इस कारण को भी तलाशा जा सकता है जिसे कभी आइ ए रिचर्ड ने कहा था, सच्ची कविता अपने अर्थ का बोध बाद में कराती है, अपने सौंदर्य विशिष्ट लय विधान के कारण सबसे पहले अर्थ का बोध कराने से पहले ही संप्रेषित हो जाती है। कहना न होगा कि प्रसाद इस उक्ति की कसौटी पर खरे उतरते हैं। संभव है प्रसाद की भाषा और सांगितिकता का सम्मोहन ही दिनेश्वर बाबू को उधर ले गई हो? उल्लेखनीय है कि मैट्रिक पास करने के पूर्व ही प्रसाद साहित्य को वे कई बार पढ़ चुके थे। उनका कहना है कि, बाद में जब बौद्धिक विश्लेषण के स्तर पर उसे समझने का प्रयत्न किया तो धीरे-धीरे इस प्रसंग में मेरी एक दृष्टि बनती गई और यह कहते हुए मुझे कोई संकोच नहीं कि वह दृष्टि अन्य आलोचकों से बहुत भिन्न होती गई। और, इसी दृष्टिभिन्नता के कारण उन्होंने प्रसाद पर काम किया और हिंदी जगत को 'प्रसाद की विचारधाराÓ नामक पुस्तक दी।
वस्तुत: इस पुस्तक को लिखने के पीछे यह भी उद्देश्य हो सकता है कि प्रसाद की स्थापनाएं नितांत मौलिक हैं, लेकिन उन्हें उतना महत्व नहीं दिया गया, जिसकेवे हकदार थे। उन्हें प्रगतिविरोधी सिद्ध करने की हर संभव कोशिश की गई, लेकिन सत्य को बहुत दिनों तक ओझल नहीं किया जा सकता है। वह देर-सबेर अपना प्राप्य लेकर ही रहता है। दिनेश्वर बाबू ने अपनी उस कृति में उन पक्षों पर ध्यान दिया, जिसे प्राय: आलोचकों ने लक्षित नहीं किया या जानबूझकर उपेक्षित छोड़ दिया। पर हमें यह ध्यान देना चाहिए कि किसी भी कृति का असली मूल्यांकन आलोचक नहीं, 'समयÓ करता है। और समय ही, ऐसे आलोचकों को पैदा करता है, जो हाशिए की आवाज बनकर उभरते हैं या उपेक्षितों के समाजशास्त्र पर काम करते हैं। कबीर से लेकर निराला, मुक्तिबोध और धूमिल तक अपने समय में उतना ख्यात नहीं हुए, जितना अपना दैहिक अस्तित्व के न रहने पर। प्रसाद भी उसी कड़ी में थे। ऐसे कवि के महत्व को इतने आसान तरीके से नहीं खारिज किया जा सकता है। मुक्तिबोध ने भले ही वैचारिक स्तर कामायनी की कटु आलोचना की हो, लेकिन उससे उसका महत्व कम नहीं हो सका। आज भी वह उतना ही लोकप्रिय है। अब तो वह हिंदी की क्लासिक रचना का दर्जा भी पा चुकी है। और, यह ऐसी रचना है, जिसे पाठक बार-बार पढ़ता है, पढऩा चाहता है और हर बार उसे नए भाव-बोध और अर्थ-बोध का दर्शन होता है। दिनेश्वर बाबू ने ऐसे ही पक्षों को उठाया, उनके वैशिष्टï्य को रेखांकित किया।
उनका दूसरा काम लोक साहित्य पर है। हिंदी में लोक साहित्य पर अब भी बहुत कम काम हुआ हैै। पहले तो इसकी घोर उपेक्षा की गई, लेकिन जैसे-जैसे पश्चिम ने अपने लोक के महत्व, उसकी ऐतिहासिक अन्विति और बहुआयामी भूमिका पर प्रकाश डाला, अपने हिंदी के लेखकों ने भी उधर ध्यान देना उचित समझा। हम तो सदैव पश्चिम के मुखापेक्षी रहे हैं। जब तक वहां से कोई नया विचार न आए, अपना विचार हीन लगता हैै। दिनेश्वर प्रसाद इस विचारधारा के कायल नहीं हैं। वे पश्चिम से प्रभाव जरूर ग्रहण करते हैं, लेकिन वे भारतीय भूमिका के सूत्र तलाशते हैं।
उन्होंने लोक के ऐसे ही पक्षों पर हमारा ध्यान आकर्षित किया, जो अमूमन हमारी पकड़ से बाहर थे या उस तरफ हमने ध्यान नहीं दिया। वह पक्ष था-लोक साहित्य की सैंद्धातिकी। भारतीय भाषाओं में लोक साहित्य बिखरा पड़ा हैै। 1857 की क्रांति के अनेक नायकों को इतिहास से पहले लोक ने जगह दी। झांसी की रानी की अमर कहानी को सुभद्रा कुमारी चौहान से पहले बुंदेलखंडी समाज ने अपने लोक में स्थान दे दिया।
बाबू कुंअर सिंह भी इतिहास से पहले भोजपुर के इलाके में गीतों में सुरक्षित हो चुके थे। उनकी साहस की कथा अब भी उस इलाके में गाई जाती है। यानी, ये नायक इतिहास के पन्नों पर दर्ज होने से पहले लोककंठों में अपना स्थान सुरक्षित कर चुके थे। और, ऐसे लोकगीत इतिहास की दृष्टि से बड़ा अर्थवान साबित होते हैं। यह पुरानी परिपाटी है। ऋग्वेद के जितने सूक्त हैं, वे पहले कंठ में ही विराजमान थे। कबीर के सबद बनारस से लेकर पंजाब तक गाए जाते थे। बाद में उनका किताबीकरण किया गया।
इसी तरह झारखंड में मुंडाओं का इतिहास उनके लोकगीतों में ही सुरक्षित था, जिसे कुमार सुरेश सिंह ने इन गीतों के आधार पर उनका इतिहास ही लिख डाला। इस ऐतिहासिक काम के लिए उन्हें मुंडारी सीखनी पड़ी। यानी, धीरे-धीरे लोक साहित्य के महत्व की स्वीकार्यता बढ़ी और उसका महत्व बढ़ता गया। जैसा कि उसे गंवारू मानने की प्रवृत्ति थी, यह धारणा धीरे-धीरे निर्मूल होने लगी। इसके महत्व को दर्शाने के लिए ही दिनेश्वरजी ने उसके सैद्धांतिक पक्ष को पकड़ा और उसके विभिन्न आयामों पर प्रकाश डाला। यह ध्यान रखना चाहिए कि लोक साहित्य के सभी स्वरों को तभी समझा जा सकता है, जब हम सामाजिक जीवन, संस्कृति और रचनात्मक मानकों की एकत्र पृष्ठभूमि में कार्य करें। 'लोक साहित्य एवं संस्कृतिÓ उनकी ऐसी ही किताब है, जो लोक साहित्य के सैद्धांतिक प्रश्नों से जूझती है। यह कृति इतनी महत्वपूर्ण है कि इसके कारण ही उनकी एक पहचान बनी। 1973 में प्रकाशित इस किताब की मांग अब भी बनी हुई है और उसके संस्करण रह-रह कर निकलते रहते हैं।
छात्र जीवन से ही मेधावी दिनेश्वर प्रसादजी ने एमए पास करने के बाद दो सालों तक पटना विवि में पढ़ाया। यहां उन्होंने अपने ज्ञान का विस्तार किया। प्रेमाख्यान पढ़ाने के क्रम में 'इनसाइक्लोपीडिया आफ इस्लामÓ, 'कुरआनÓ, 'गुलशन-ए-राजÓ, 'रूमीÓ, और 'हाफिजÓ, की मसनवियों का अंगरेजी अनुवाद, सर इकबाल का 'सिक्रेट आफ द सेल्फÓ आदि ढेर सारे गं्रथों का अध्ययन किया। इससे उन्हें दूसरे धर्मांे की बारीकियों को समझने में मदद मिली। इसके साथ ही उन्होंने कश्मीरी शैव दर्शन, शंकराचार्य, वैदिक साहित्य का भी अध्ययन किया। इससे उनके दृष्टिकोण में एक लोच आया। ïचीजों को देखने की उनकी एकांगी दृष्टिï जाती रही। एक तरह से खुद का आत्मविस्तार करते रहे।
रांची विवि में 36 वर्षों तक अध्यापन करने के बाद यहीं से अवकाश लिया। यहां आने के बाद अपने
कार्यकाल के दौरान एक और महत्वपूर्ण कार्य किया-जनजातीय भाषाओं को लेकर। झारखंड मानव विज्ञान के अध्ययन की दृष्टि से बड़ा अनुकूल जगह है। यहां कई प्राचीन जनजातियों से लेकर हाल-हाल तक की जातियां मिलती हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि रांची ही नहीं पूरा झारखंड एक चलता-फिरता संग्रहालय है। अध्ययन और लेखन के लिहाज से अब भी बहुत संभावनाशील राज्य है। मानव विज्ञान की दृष्टिï से तो कई अजूबों को समेटे है। इस तरफ काफी काम किया, शरतचंद्र राय ने। वे यहां एक वकील थे, लेकिन वे बहुत बड़े मानव विज्ञानी भी थे। उनके पास अपनी निजी लाइब्रेरी थी और मानव विज्ञान और संस्कृति पर 1880 से अब तक जितनी पुस्तकें प्रकाशित थीं, वे सारी पुस्तकें उनकी लाइब्रेरी में मौजूद थीं। इस रिच लाइब्रेरी का लाभ दिनेश्वर बाबू को भी मिला। वहां उपलब्ध पुस्तकों के अध्ययन से एक खास दृष्टि बनी। जनजातीय समाज को लेकर एक समझ पैदा हुई। ऐसी समझ जिसने पूर्व की धारणाओंको खंडित किया। पूर्वग्रह से मुक्त किया। पश्चिम ने कई स्थापनाएं ऐसी दे रखी हैं, जो भारत के संदर्भ में लागू होती ही नहीं है, लेकिन हमारे देश के तथाकथित विद्वान उनकी स्थापनाओं को हूबहू यहां पर लागू करने का बेमतलब प्रयास करते हैं। पश्चिम की यह अंधभक्ति का ही परिणाम है कि अभी तक हम 1857 को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहने से हिचकते हैं। इसी तरह की धारणा आदिवासियों को लेकर रही है। आदिवासी बनाम गैरआदिवासियों में भेद करने की दृष्टिï या विचार पश्चिम से आया। लेकिन यह भारत के संदर्भ में बेबुनियाद है। भाषाई दृष्टिï से देखें तो आदिवासी और गैरआदिवासी हजारों साल से साथ रहते आए हैं। भाषाओं के आदान-प्रदान से यह बात समझ में आती है। संस्कृति की दृष्टिï से भी यह महत्वपूर्ण है। यहां दोनों संस्कृतियां समानांतर रूप में नहीं बल्कि एक दूसरे से सामंजस्य निरूपित करती हुई देखी जा सकती हैं। इस दृष्टि से उनकी 'मुंडारी शब्दावली: अखिल भारतीय संदर्भÓ देखने योग्य पुस्तक है। पुस्तक की स्थापना ने पूर्व प्रचलित स्थापनाओं को खंडित किया। मसलन यह कि गैरआदिवासी और आदिवासी संस्कृतियों में सन्निकटता व अंतरावलंबन भारतीय जीवन का एक बड़ा यथार्थ है। लेकिन इस यथार्थ को देखने वाली आंखें चाहिए। ऐसी आंखें, जो खुली हों, पूर्वाग्रह से मुक्त हों, निद्र्वंद्व हों।
दिनेश्वर बाबू की यह कृति पूर्व प्रचलित अवधारणा कि आदिवासी और गैरआदिवासी अलग-अगल समुदाय हैं, का पुरजोर खंडन करती है। कृति आस्ट्रिक (आग्नेय) परिवार की एक महत्वपूर्ण भाषा मुंडारी की शब्दावली के अखिल भारतीय भाषिक-सांस्कृतिक प्रसंगों एवं अभिप्रायों का विश्लेषण करते हुए यह स्पष्टï करती है कि हमारे जनजातीय और गैरजनजातीय समुदायों के बहुप्रचारित पार्थक्य की अवधारणा बिल्कुल निराधार और अतार्किक है। उन्होंने इसके लिए भाषा को माध्यम बनाया। उन्होंने बताया है कि 'मुंडारी में अनेक ऐसे शब्द मिलते हैं, जिनके रूप को, परिवर्तन के बावजूद, संस्कृत में पहचाना जा सकता है। मुुंडारी में ऐसे कई शब्दों का अस्तित्व निश्चय ही प्राचीन है। ऐसे कुछ शब्द हैं अंद मनोआ(अंध मानव), अंगोर(अंगार), कंता(कंधा), चन्दि(छंद), दिसुम(देशम्), दुखम्-सुखम्(दु:खम्-सुखम्), सिसिर (शिशिर) आदि।Ó ध्वनियों, उच्चारणों की दृष्टि से भी इस कृति में विचार किया गया है और पूर्व की अतार्किक स्थापनाओं को निर्मूल किया गया है।
आदिवासी और गैरआदिवासी का जो विभाजन किया गया, वह किसी तर्र्क की परिणति नहीं, राजनीति से निकला सिद्धांत है। वे जातियां जो विभाजन का बीज बोती हैं, उन्हें झारखंड में पहचानना आसान है। कुछ बुद्धिजीवी हमेशा यही राग ही अलापते हैं। कुछ तो ऐसे अतिरेकी हुए कि सदानों को ही बाहरी करार दिया। लेकिन ऐसी स्थापनाओं को डा. वीपी केशरी ने खारिज कर दिया। दिनेश्वर बाबू ने भाषा को आधार बना कर उनकी प्राचीनता और सहअस्तित्व को रेखांकित किया।
  दिनेश्वरबाबू  'हॉफ़मैन से प्रभावित हैं। 'हॉफ़मैन ऑन मुंडारी पोएट्रीÓ पर काम भी किया। हॉफ़मैन  की इस पुस्तक की विशेषता यह है कि यह लोक साहित्य के अध्ययन की एक नई दिशा का संकेत करती है। अब तक लोक कविता में अंतरभुक्त प्रतिमानों का संधान बहुत कम हुआ है। हॉफ़मैन पहले व्यक्ति हैं जो यह स्पष्ट करते हैं कि लोकगीत तथा लोक कविता के अपने प्रतिमान होते हैं और वे लिखित या शिष्टï कविता के प्रतिमानों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।
दिनेश्वर बाबू उन कार्यों से बचने का प्रयास करते रहे हैं जो दूसरे लोग करते हैं। यानी चुनौतियों को स्वीकार करने की प्रवृत्ति और कुछ विशिष्ट की उपलब्धि के प्रति सक्रियता। उन विषयों पर अपनी नजरें गड़ाई, जिधर, लोग जल्दी देखना नहीं चाहते। जो लोग बनी-बनाई लीक या पंगडंडियों पर चलने के आदी हैं, उन्हें दिनेश्वर बाबू का कर्म जरूर असहज लगेगा, लेकिन साहसभरा। लेकिन जो लोग अपनी लीक खुद बनाते हैं, उन लोगों के लिए इनकी महत्ता निर्विवाद है। कहने का आशय यही है कि ज्ञान के क्षेत्र मेंजो छूटे हुए हाशिए हैं, उनके प्रति उनका अनुराग प्रकृतिगत हैै, स्वाभाविक है। नए पन की खोज उनकी प्रवृत्ति रही हैै।
इस प्रवृत्ति ने ही उन्हें फादर कामिल बुल्के का सानिध्य दिलवाया। उनके साथ बाइबल के हिंदी अनुवाद का कार्य किया। उनके जीवन काल में ही कभी उनके अनुवाद के  परामर्शदाता तो कभी सह अनुवादक की भूमिका में कार्य किया। फादर कामिल बुल्के के निधन के बाद बाइबल के बचे शेष प्रसंगों का स्वतंत्र रूप से अनुवाद किया। यह एक तरह से एक भिन्न धर्म को जानने और उससे भारत के अन्य धर्मावलंबियों को परिचित कराने का कार्य है तो दूसरी ओर नई सांस्कृतिक दुनियाएं हिंदी के पाठक को साक्षात्कार कराने का प्रयत्न भी है। जिस दुनियाओं को उसे जानना चाहिए, लेकिन वह नहीं जानता है।
  दिनेश्वर बाबू ने एक और महत्वपूर्ण काम उनके साथ मिलकर किया, वह है अंग्रेजी-हिंदी कोश। इस कोश निर्माण में वे उनके सहयोगी रहे। इधर, उनके निधन के बाद इन्हीं की देख-रेख में उसका परिवद्र्धित संस्करण आया हैै। साहित्य अकादमी के लिए फादर कामिल बुल्के के ऊपर मोनाग्राफ भी लिखा। अनुवाद में इनकी दिलचस्पी शुरू से रही है। यही कारण है अनुवाद के लंबे अनुभव ने इन्हें अमेरिका के सबसे बड़े अंगरेजी कवि वाल्ट ह्विïटमैन की कविताओं का अनुवाद करने के लिए प्रेरित किया। कुछ अनुवादों के अंश विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए हैं। अभी हाल मेंफादर कामिल बुल्क के निबंधों को संपादित करके 'एक ईसाई की आस्था: रामकथा और हिंदीÓ का प्रकाशन कराया।