ग्लोबलाइजेशन की आंधी में बहे तो मिट जाएगी हमारी पहचान


संजय कृष्ण :
खिलता हुआ गेहुंआ रंग, लंबी काया पर चमकता कुर्ता और सफेद घुंघराले-बंकिम बाल, उंगलियों में कीमती रत्न, मनोहर व्यक्तित्व...ऐसी ही आभा के साथ महान संतूर वादक पं शिव कुमार शर्मा से रांची के रैडिशन ब्लू होटल में मुखातिब होने का मौका मिला। बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो बात झारखंड के तार वाद्य टुहिला पर भी हुई, जिसे बजाने वाले मात्र एक दो लोग ही बचे हैं। बताया कि झारखंड का यह एक तार वाद्य अंतिम सांसे गिन रहा है। ऐसे लोक वाद्यों के बचाने का क्या प्रयास होना चाहिए? छूटते ही बोले, यह सिर्फ झारखंड की बात नहीं है। ऐसे तमाम लोक वाद्यों, लोकगीतों और लोक रागों, लोक साहित्य को बचाने की कवायद होनी चाहिए और इसमें सरकार को, मीडिया को और कारपोरेट हाउस को आगे आना चाहिए। बिना इसके इनका संरक्षण नहीं हो सकता। अभी स्पीक मैके यह काम पिछले 37 सालों से कर रहा है। हर साल वह छह हजार कार्यक्रम आयोजित करता है।
बात संतूर पर चली तो इसके पूरे इतिहास से परिचित कराया कि यह कितना प्राचीन है और देश-विदेशों में पुराने समय में अलग-अलग नामों से यह पुकारा जाता था। हालांकि यह भारत से ही पश्चिम गया। पं शर्मा ने यह भ्रम भी दूर किया कि यह एक कश्मीरी लोक वाद्य नहीं, बल्कि सूफियाना मौशिकी में बजाया जाने वाला वाद्य है। कश्मीर इसका जन्म स्थान है, लेकिन इसे लोग जम्मू में भी साठ साल पहले नहीं जानते थे। पर, ईश्वर ने मुझे निमित्त बनाया और इसे एक शास्त्रीय वाद्य के रूप में पहचान दिलाई।
 तबले और गायन से शुरुआत करने वाले पद्म विभूषण पं शिव कुमार ने कई फिल्मों में संगीत भी दिया पं हरि प्रसाद चौरसिया के साथ मिलकर। रूपहले पर्दे पर प्रेम का महाकाव्य रचने वाले स्व यश चोपड़ा ने 'सिलसिलाÓ में शिव-हरि की जोड़ी को पहला मौका दिया। इसके बाद चांदनी, 'लम्हेंÓ और 'डरÓ आदि फिल्में कीं। बाद में 'हम आपके हैं कौनÓ को भी अपने मधुर संगीत से संवारने वाले थे लेकिन समयाभाव के कारण वे इस फिल्म को नहीं कर सके।
पंडिती ने फिल्मी दुनिया का एक वाकया भी सुनाया। बताने लगे कि एक बार एक फिल्म की रिकार्डिंग हो रही थी। उसमें मैं भी मौजूद था। ख्वाजा अहमद अब्बास मेरे पास आए और एक कोने में ले जाकर कहने लगे, मैं एक फिल्म बना रहा हूं, 'सात हिंदुस्तानीÓ। उसमें आप काम करें। उस रोल में आप एकदम फिट हैं। पं शर्मा ने बड़ी शाइस्तगी से काम करने से इनकार कर दिया। खैर, वे अभिनेता बन जाते तो दुनिया संतूर के सात स्वर से अपरिचित नहीं रह जाती! वह भी मानते हैं कि भगवान तो मुझसे कुछ और ही कराना चाहता था।
सौ तारों वाले इस वाद्य को सात सुरों में पिरोना आसान काम तो नहीं था। जब इसे वे सात सुरों में पिरो रहे थे कई ने आलोचना भी की। इसके बाद इसमें कुछ फेरबदल कर इसे शास्त्रीय मंच तक ले गए। इसके पीछे उनकी लंबी साधना और पिता की इच्छा भी शामिल थी।
जब 1952 में इस वाद्य को कश्मीर रेडियो स्टेशन से बजाया तो थोड़ा आत्मविश्वास जगा। इसके बाद 1955 में गुरु भाई डा. कर्ण सिंह ने इन्हें तब  बांबे भिजवाया। शुरू में फिल्मों में भी बजाया। 1956 में कोलकाता में भी अपनी प्रस्तुति दी। इसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। 
आज की युवा पीढ़ी और संगीत को हमसफर बनाने वालों से यह जरूर कहते हैं कि शास्त्रीय वादन समर्पण, साधना और प्रतिबद्धता की मांग करता है। ऐसे कलाकारों में तारीफ को जज्ब करने की क्षमता भी होनी चाहिए। यह अपेक्षा रखना बेमानी है कि ऐसी विधाओं में हजारों कलाकार पैदा हो सकते हैं। यह ईश्वर की कृपा और पूर्व जन्म का संस्कार होता है। जैसे क्रिकेट में सब धौनी नहीं बन सकते।  जबकि यह गांव से लेकर शहर में खेला जा रहा है। फिर यह तो शास्त्रीय वादन का क्षेत्र है। स्कूलों में कलाकार पैदा नहीं हो सकते। यह ध्यान रखनी चाहिए। इसके लिए तो गुरु-शिष्य परंपरा की एकमात्र गुरुकुल है। 
हां, वे इस बात पर संतोष जताते हैं कि उनके पुत्र राहुल शर्मा उनकी परंपरा को आगे बढ़ा रहे और उसमें काफी प्रयोग भी कर रहे हैं। साथ ही जापान से आए ताका हीरो आराइ भी 2007 से उनके साथ हैं और संतूर की की बारीकी सीख रहे हैं। बातें और भी हैं। फ्यूजन से लेकर फिल्मी संगीत तक। इस पर भी अपनी बेबाक और ईमानदार राय रखी। बताया कि फ्यूजन वही है, जहां दो अलग-अलग विधाएं मिलें तो एक तीसरा खूबसूरत रंग पैदा हो। हिंदी सिनेमा में अनिल विश्वास, एसडी बर्मन, पंकज मल्लिक आदि ने इसका प्रयोग किया है। 
जाते-जाते मीडिया के लिए यह नसीहत भी दिए कि मीडिया को भी इस क्षेत्र में आगे आना चाहिए। संस्कार और रुचि निर्माण मीडिया ही कर सकता है। सो, यदि देश को लीडर बनना देखना चाहते हैं तो अपनी कलम का इस्तेमाल सकारात्मक काम के लिए करिए। उपभोक्तावादी और वैश्वीकरण की आंधी हमारे मूल्यों, संस्कृति और संस्कार को ध्वस्त कर रही है। इसे बचाने के लिए आगे आना चाहिए। देश की पहचान यहां के शास्त्रीय व लोक गीतों से हैं। ग्लोबलाइजेशन की आंधी में बह गए तो हमारी पहचान भी मिट जाएगी।