सौ साल पहले रांची की आबादी थी पांच हजार

संजय कृष्ण : दोमिनिक बाड़ा ऐसी शख्सियत हैं, जो मुंह से कम और कलम से ज्यादा बोलते हैं। कलम भी लीक पर नहीं चलती, लीक से हटकर चलती है। लीक पर चलने वाले बहुत हैं। झारखंड के स्वयंभू जानकार भी बहुत हैं, लेकिन उनका काम कुछ अलहदा किस्म का है। सो, इन दिनों उनकी छोटी सी अंगरेजी पुस्तक  'ग्लिपंस आफ लाइफ एंड मिलेयू इन नाइंटींथ सेंचुरी झारखंडÓ चर्चा में है, जिसमें है सौ साल पहले का आंखों देखा हाल। यह ऐसी पुस्तक है, जिसे एक बैठकी में पढ़ा जा सकता है, पर ज्ञान का जो खजाना यह पुस्तक मुहैया कराती है, वह दुर्लभ और खासी महत्वपूर्ण है। 
मूल जर्मन से अनुदित इस पुस्तक में जर्मन लोगों की आंखों से देखा 19 वीं शताब्दी का चुटिया या कहें झारखंड कैद है। सौ साल के इतिहास से गुजरना अपने आप में काफी दिलचस्प है। हालांकि 1895 में मिशन इंस्पेक्टर काउश व मिशनरी एफ हान ने एक मोनोग्राफ लिखा था। उन्होंने जर्मन के गोथिक लिपि में लिखा था। इस पुस्तक पर किसी झारखंडी का ध्यान नहीं गया। जाता भी कैसे, जर्मन में लिखी पुस्तक को वही पढ़-समझ सकता है, जिसे जर्मन भाषा आती हो, जिसे जर्मन का ज्ञान हो, उसके लिए जरूरी नहीं कि उसे झारखंड में रुचि हो। आखिर, क्यों कोई अपनी मेहनत बेमतलब के कामों में जाया करेगा, पर आधी दुनिया घूम चुके, इंग्लैंड और कनाडा के विश्वविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण कर चुके दोमिनिक झारखंडी भी हैं और आदिवासियों की संस्कृति में गहरी रुचि भी रखते हैं। उसी परिवेश और गांव-घर में उनकी पैदाइश हुई है।
सो, उनके हाथ में जब जर्मन में लिखी पुस्तक लगी तो उनके अध्यायों को देख उनकी आंखें चमक उठीं। अपने संगठन के कामों से अक्सर जर्मनी की यात्रा करने वाले बाड़ा ने जर्मन भी सीखी और गोथिक के बारे में काफी जानकारी भी एकत्र की।  फिर क्या था, लग गए उसे अनुवाद करने में। पहले उसे हिंदी में किया और बाद में अंगरेजी में। हिंदी में नाम है: उन्नीसवीं सदी का आंखों देखा चुटियानागपुर (1845 से 1895 तक)। अंगरेजी में इसका नाम 'ग्लिपंस आफ लाइफ एंड मिलेयू इन नाइंटींथ सेंचुरी झारखंडÓ। 
पुस्तक में उल्लेख है कि चुटिया नागपुर राजनीतिक दृष्टि से पांच जिलों, आठ सब डिवीजन और नौ कचहरियों में बंटा था। लोहरदगा को उस समय खास चुटियानगर कहा जाता था। इसके अलावा अन्य जिले थे हजारीबाग, पलामू, मानभूम, सिंहभूम। हालांकि अंगरेजी सरकार की देखरेख में वर्तमान झारखंड के सरायकेला खरसांवा के अलावा छत्तीसगढ़ के सरगुजा, गांगपुर, जशपुर, कोरया, बोनाई, उदयपुर, चांगभुकार भी शामिल था। 
रांची की उस समय आबादी लगभग 15 हजार थी, जबकि लोहरदगा, चतरा, झालदा आदि की आबादी महज चार हजार। चुटियानागपुर की पूरी आबादी 55,12,151 बताई गई है। इनमें से 8,83,359 लोग इसके सहायक राज्यों से आते हैं। ( 55 लाख की आबादी संशय पैदा करती है। संभव है जानकारी देने वालों ने उन्हें गलत जानकारी दे दी हो।) पुस्तक में सहायक राज्यों का उल्लेख नहीं है। अलबत्ता आदिवासी संख्या के बारे में जानकारी दी गई है, जिसमें चुटियानागपुर में वास्तविक आदिवासियों की संख्या 15,89,825 बताई गई है। उस समय उरांव 4,56,978, संताली 3,74,449, मुंडारी 3,12,291 हो अथवा लरका 1,49,660 बताई गई है। चुटियानागपुर में गोंड जनजाति का भी उल्लेख किया गया है, जिसकी आबादी 1,30,000 बताई गई और खडिय़ा 47,000, कोरवा 9,700। लेकिन यह आज का चुटियानागपुर नहीं लगता है। उस समय इसकी चौहद्दी में मध्यप्रदेश, उड़ीसा, पं बंगाल, उत्तरप्रदेश के कुछ हिस्से भी इसमें शामिल थे। इसे अंगरेजों ने प्रशासनिक ढंग से बांटा था। इसलिए पूरी आबादी इसमें शामिल कर ली गई है। हिंदू-मुस्लिम आबादी के बारे में बस इतना की कहा गया है ये सब जगह फैले हुए हैं। पुस्तक ईसाई दृष्टि से ही लिखी गई है। कितने लोग मिशन के प्रति उत्सुक हैं, कितनों ने बपतिस्मा लिया। लेखक लिखता है, समस्त चुटियानागपुर में 1893 के अंत तक गोस्सनर मिशन में 35,778 व्यक्तियों ने बपतिस्मा लिया और 3,696 ने धर्म जानने की उत्सुकता दिखाई। पुस्तक में आदिवासी संस्कृति, उनके पहनावे, हुंडरू जलप्रपात, नदी-नाले, खान-पान, खेत-खलिहान आदि का भी जिक्र किया गया है। तब नदियों को पार करने के लिए कोई पुल नहीं थी। घने दुर्गम जंगल थे। जंगलों में खूंखार जानवर थे। इन सबका हवाला है। सौ साल पहले के अपने समय का अक्स इसमें दिखाई पड़ता है। हालांकि पुस्तक में सौ साल पूर्व के पहनावे को देखा जा सकता है। हां, अंगरेजी पुस्तक में शिशिर लाल ने अपने रेखांकन से पुस्तक को सजाया है। दोमिनिक झारखंड की जमीन को लेकर अगली पुस्तक लिख रहे हैं।