वैद्यनाथ की यात्रा

 यह यात्रा विवरण हरिश्चंद्र चन्द्रिका और मोहन चन्द्रिका खं 7, संख्या 4, आषाढ़ शुक्ल एक सम्वत 1937 यानी सन् 1880 में प्रकाशित था। मंदिर के बारे में संस्‍क़त के श्‍लोकों को यहां नहीं दिया गया है। सावन के महीने में इसका महत्‍व कुछ बढ गया है। भारतेंदु ने यह यात्रा काशी नरेश के साथ की थी। उनकी मजेदार भाषा का यहां दर्शन तो होता ही है, मौका मिलने पर अंगरेजी राज को भी कोसना नहीं भूलते। रेल की यह यात्रा काफी रोमांचक भी है।

                                         भारतेंदु हरिश्‍चंद्र                       
श्री मन्महाराज काशीनरेश के साथ वैद्यनाथ की यात्रा को चले। दो बजे दिन के पैसेंजर ट्रेन में सवार  हुए। चारांे ओर हरी हरी घास का फर्श, ऊपर रंग रंग के बादल, गड़हों में पानी भरा हुआ, सक कुछ  सुंदर। मार्ग में श्री महाराज के मुख से अनेक प्रकार के अमृतमय उपदेश सुनते हुए चले जाते थे। सांझ को बक्सर के आगे बड़ा भारी मैदान, पर सब्ज काशानी मखमल से मढ़ा हुआ। सांझ होने से बादल  छोटे छोटे पीले नीले बड़े ही सुहाने मालमू पड़ते थे। बनारस कालिज की रंगीन शीशे की खिड़कियों का सा सामान था। क्रम से अंधकार होने लगा, ठंढी ठंढी हवा से निद्रा देवी अलग नेत्रों से लिपटी जाती थी। मैं महाराज के पास से उठकर सोने के वास्ते दूसरी गाड़ी में चला गया। झपकी का आना था कि     बौछारों ने छेड़छाड़ करनी शुरू कक, पटने पहुंचते-पहुंचते तो घेर घार कर चारों ओर से पानी बरसने ही लगा। बस पृथ्वी आकाश सब नीरब्रह्ममय हो गया। इस धूमधाम में भी रेल, कृष्णाभिसारिका सी   अपनी धुन में चली ही जाती थी। सच है सावन की नदी और दृढ़प्रतिज्ञ उद्योगी और जिनके मन पीतम के पास हैं वे कहीं रुकते हैं? राह में बाज पेड़ों में इतने जुगनू लिपटे हुए थे कि पेड़ सचमुच ‘सर्वे  चिरागां’ बन रहे थे। जहां रेल ठहरती थी, स्टेशन मास्टर और सिपाही बिचारे टुटरू टूं छाता, लालटेन  लिए रोजी जगाते भीगते हुए इधर उधर फिरते दिखाई पड़ते थे। गार्ड अलग ‘मैकिंटाश कवच पहिने’ अप्रतिहत गति से घूमते थे। आगे चलकर एक बड़ा भारी विघ्न हुआ, खास जिस गाड़ी पर श्री महाराज सवार थे, उसके धुरे घिसने से गर्म होकर शिथिल हो गए। वह गाड़ी छोड़ देनी पड़ी। जैसे धूमधाम से अंधेरी, वैसी ही जोर शोर का पानी। इधर तो यह आफत, उधर फरऊन क्या फरऊन के भी बाबाजान  रेलवालों को जल्दी, गाड़ी कभी आगे हटै, कभी पीछे। खैर, किसी तरह सब ठीक हुआ। इस पर भी बहुतसा असबाब और कुछ लोग पीछे छूट गए। अब आगे आगे बढ़ते तो सबेरा ही होने लगा। निद्रा वधू का संयोग भाग्य में न लिखा था, न हुआ। एक तो सेकंेड क्लास की एक ही गाड़ी, उसमें भी लेडीज कंपार्टमेंट निकल गया, बाकी जो कुछ बचा उसमें बारह आदमी। गाड़ी भी ऐसी टूटी फूटी, जैसी हिदंुओं की किस्मत और हिम्मत। इस कम्बख्त गाड़ी से और तीसरे दर्जे की गाड़ी से कोई फर्क नहीं, सिर्फ एक ही धोके की टट्टी का शीशा खिड़कियों में लगा था। न चैड़े बेंच न गद्दा न बाथरूम। जो लोग मामूली से तिगुना रुपया देें उनको ऐसी मनहूस गाड़ी पर बिठलाना, जिसमें कोई बात भी आराम की न हो, रेलवे कंपनी की सिर्फ बेइंसाफी ही नहीं, वरन धोखा देना है। क्यों नहीं ऐसी गाडि़यों को आग लगाकर जला देती। कलकत्ते में नीलाम कर देती। अगर मारे मोह के न छोड़ी जाए तो उसमें तीसरे दर्जे का काम ले। नाहक अपने गाहकों को बेवकूफ बनाने से क्या हासिल। लेडीज कंपार्टमेंट खाली था, मैंने गार्ड से कितना कहा कि इसमें सोने दो, न माना। और दानापुर से दोचार नीम अंगरेज (लेडी नहीं सि। लैड) मिले। उनको बेतकल्लुफ उसमें बैठा दिया। फस्र्ट क्लास की सिर्फ दो गाड़ी-एक में महाराज, दूसरी में आधी लेडीज, आधी में अंगरेज। अब कहां सोवैं कि नींद आवै। सचमुच अब तो तपस्या करके गोरी गोरी कोख से जन्म लें तब संसार में सुख मिलै। मैं तो ज्यों ही फस्र्ट क्लास में अंगरेज कम हुए कि सोने की लालच से उसमें घुसा। हाथ फैलाना था कि गाड़ी टूटने वाला विघ्न हुआ। महाराज के इस गाड़ी में आने से फिर मैं वहीं का वहीं। खैर इसी सात पांच में रात कट गई। बादल के परदों को फाड़ फाड़कर ऊषा देवी ने ताकझांक आरंभ कर दी। परलोकगत सज्जनों की कीर्ति की भांति सूय नारायण काप्रकाश पिशुन मेघों के वागाडंबर से घिरा हुआ दिखलाई पड़ने लगा। प्रकृति का नाम काली से सरस्वती हुआ, ठंढी ठंढी हवा मन की कली खिलाती हुई बहने लगी। दूर से धनी और काही रंग के पर्वतों पर सुनहरापन आ चला। कहीं आधे पर्वत बादलों से घिरे हुए, कहीं एक साथ वाष्प निकलने से चोटियां छिपी हुईं और कहीं चारों ओर से उनपर जलधारा पात से बुक्के की होली खेलते हुए बड़े ही सुहाने मालूम पड़ते थे। पास से देखने से भी पहाड़ बहुत ही भले दिखलाई पड़ते थे। काले पत्थरों पर हरी हरी घास और जहां तहां छोटे बड़े पेड़, बीच बीच में मोटे पतले झरने, नदियों की लकीरें, कहीं चारों ओर सघन हरियाली, कहीं चट्टानांे पर ऊंचे नीचे अनगढ़ ढोंके और कहीं जलपूर्ण हरित तराई विचित्रा शोभा देती थी। अच्छी तरह प्रकाश होते होते तो वैद्यनाथ के स्टेशन पर पहंुच गए। स्टेशन से वैद्यनाथ जी कोई तीन कोस हैं।  बीच में एक नदी उतरनी पड़ती है जो आजकल बरसात में कभी घटती और कभी बढ़ती है। रास्ता पहाड़ के ऊपर ही ऊपर बरसात से बहुत सुहावना हो रहा है। पालकी पर हिलते हिलते चले। श्रीमहाराज के सोचने के अनुसार कहारों की गतिध्वनि में भी परदेश की ही चर्चा है। पहले ‘कोह कोह’ की ध्वनि सुनाई पड़ती है फिर ‘सोह सोह’ की एकाकार पुकार मार्ग में भी उसमें तन्मय किए देती थी। मुसाफिरों को अनुभव होगा कि रेल पर सोने से नाक थर्राती है और वही दशा कभी कभी सवारियों पर होती है। इससे मुझे पालकी पर भी नींद नहीं आई और जैसे तैसे बैजनाथ जी पहुंच ही गए।
       बैजनाथ जी एक गांव है, जो अच्छी तरह आबाद है। मजिस्ट्रेट, मुनसिफ वगैरह हाकिम और जरूरी सब आफिस हैं। नीचा और तर होने से देश बातुल गंदा और ‘गंधद्वारा’ है। लोग काले काले और हतोत्साह मूर्ख और गरीब हैं। यहां सौंथाल एक जंगली जाति होती है। ये लोग अब तक निरे वहशी हैं। खाने पीने की जरूरी चीजें यहां मिल जाती हैं। सर्प विशेष हैं। राम जी की घोड़ी जिनको कुछ लोग ग्वालिन कहते भी कहते हैं एक बालिश्त लंबी और दो दो उंगल मोटी देखने में आईं।
      मंदिर वैद्यनाथ जी का टोप की तरह बहुंत ऊंचा शिखरदार है। चारांे ओर देवताओं के मंदिर और बीच में फर्श है। मंदिर भीतर से अंधेरा है क्योंकि सिर्फ एक दरवाजा है। बैजनाथ जी की पिंडी जलधरी से तीन चार अंगल ऊंची बीच में से चिपटी है। कहते हैं कि रावण ने मूका मारा है इससे यह गड़हा पड़ गया है। वैद्यनाथ बैजनाथ और रावणेश्वर यह तीन नाम महादेवजी के हैं। यह सिद्धपीठ और ज्योतिर्लिंग स्थान है। हरिद्रापीठ इसका नाम है और सती का हृदयदेश यहां गिरा है। जो पार्वती अरोगा और दुर्गा नाम की सामने एक देवी हैं वही यहां की मुख्य शक्ति हैं। इनके मंदिर एवं महादेव जी के मंदिर से गांठ जोड़ी रहती है रात को महादेव जी के ऊपर बेलपत्रा का बहुत लंबा चैड़ा एक ढेर करके ऊपर से कम खाब या ताश का खोल चढ़ाकर शृंगार करते हैं या बेलपत्रा के ऊपर से बहुत सी माला पहना देते हैं सिर के गड़हे में भी रात को चंदन भर देते हैं।
   वैद्यनाथ की कथा यह है कि एक बेर पार्वतीजी ने मान किया था और रावण के शोर करने से वह मान छूट गया। इस महादेव जी ने प्रसन्न होकर वर दिया कि हम लंका चलंेगे और लिंग रूप से उसके साथ चले। राहमें जब बैजनाथ जी पहुंचे तब ब्राह्मण रूपी विष्णु के हाथ में वह लिंग देकर पेशाब करने लगा। कई घड़ी तक माया मोहित होकर वह मूतता ही रह गया और घबड़ाकर विष्णु ने उस लिंग को वहीं रख दिया। रावण का महादेव जी से यह करार था कि जहां रख दोगे वहां से आगे न चलेंगे। इससे महादेव जी वहां रह गए वरंच इसी पर खफा होकर रावणने उनको मूका भी मार दिया।
   वैद्यनाथ जी मंदिर राजा पूरणमल्ल का बनाया हुआ है। लोग कहते हैं कि रघुनाथ ओझा नामक एक तपस्वी इसी वन में रहते थे। उनको स्वप्न हुआ कि हमारी एक छोटी सी मढ़ी झाडि़यों में छिपी है तुम उसका एक बड़ा मंदिर बनाओ। उसी स्वप्न के अनुसार किसी वृक्ष के नीचे उनको तीन लाख रुपया मिला। उन्हांेने राजा पूरणमल को वह रुपया दिया कि वे अपने प्रबंध में मंदिर बनवा दें। वे बादशाह के काम से कहीं चले गए और कई बरस तक न लौटें, तब रघुनाथ ओझा ने दुखित होकर अपने व्यय से मंदिर बनवाया। जब पूरणमल लौटकर आए और मंदिर बना देखा तो सभा मंडप बनवाकर मंदिर के द्वार पर अपनी प्रशस्ति लिखकर चले गए। यह देखकर रघुनाथ ओझा ने दुखित होकर कि रुपया भी गया कीर्ति भी गई, एक नई प्रशस्ति बनाई और बाहर के दरवाजे खुदवाकर लगा दी। वैद्यनाथ महात्म्य से मालूम होता है कि इन्हीं महात्मा का बनाया हुआ है क्योंकि उसमें छिपाकर रघुनाथ ओझा को श्रीरामचंद्र जी का अवतार लिखा है। प्रशस्ति का काव्य भी उत्तम नहीं है जिससे बोध होता है कि ओझा जी श्रद्धालु थे किंतु उद्वत पंडित नहीं थे। गिद्धौर के महाराज सर जयमंगलसिं के सीएसआइ कहते हैं कि पूरणमल उनके पुरखा थे। एक विचित्रा बात यहां और भी लिखने योग है। गोवर्धन पर श्रीनाथ जी का मंदिर सं 1556 में एक राजा पूरणमल्ल ने बनाया और यहां संवत् 1652 सन् 1595 ई मेंएक पूरणमल्ल ने वैद्यनाथ जी का मंदिर बनाया। क्या यह मंदिरों का काम पूरणमल्ल ही हो परमेश्वर को सौंपा है?
               निज मंदिर का लेख
अचल शशिशायके लसित भूमि शकाब्दके।
         वलति रघुनाथके वहल पूजक श्रद्धया।।
विमल गुण चेतसा नृपति पूणेनाचितं।
          त्रिपुरहरमंदिरं व्यरचि सर्वकामप्रदम्।।
                     नृपतिकृत पद्यमिदम्।।

    मंदिर के चारों ओर देवताओं के मंदिर हैं। कहीं प्राचीन जैन मूर्तियां हिंदू मूर्ति बनकर पूजती हैं एक पद्मावती देवी की मूर्ति बड़ी सुंदर है जो सूर्य नारायण के नाम से पुजती है। यह मूर्ति पद्म पर बैठी है और वे बड़ी सुंदर कमल की लता दोनों ओर बनी है। इस पर अत्यंत प्राचीन पाली अक्षर में कुछ लिखा है जो मैंने श्री बाबू राजेंद्रलाल के पास पढ़ने को भेजा है। दो भैरव की मूर्ति, जिससे एक तो किसी जैन सिद्ध की और एक जैन क्षेत्रापाल की है, बड़ी ही सुंदर है लोग कहते हैं कि भागलपुर जिले में किसी तालाब में से निकली थी।
                                                                  ------