साझी विरासत का पर्व है होली

होली साझी विरासत का पर्व है। जब दो संस्कृतियों का मिलन हुआ तो संस्कृति के साथ-साथ पर्व-त्योहार भी एक दूसरे के हो लिए। होली की बात करें तो यह भले हिंदुओं का पर्व है, लेकिन इसने अपनी सीमाएं तोड़ी हैं। यह मुसीबतों में भी मस्ती का एहसास कराता है। इस पर्व पर शायरों ने भी अपनी खूब कलम तोड़ी है। यह हमारी अनमोल साझी विरासत और इंसानी रिश्तों को एक सूत्र में बांधता है। फ़ाइ$ज देहलवी ने फरमाया है, आज है रोज़े-वसंत अय दोस्तां, सर्व $कद हैं, बोस्तां के दरमियां...अज अबीर-ओ-रंगे-केशर और गुलाल, अब्र छाया है सफेद-ओ-जर्द-ओ-लाल।
मीर तकी मीर की तो पूछिए ही मत। फरमाते हैं-होली खेला आसिफुद्दौला वजीर, रंगे-सुहबत से अजब है खुर्द और पीर। एक और नज्म देखिए-जश्ने नौरोजे हिंद होली है, राग-ओ-रंग और बोली-ठोली है। जश्ने नौरोजे यानी नए साल का समारोह। होली के साथ ही नया साल भी प्रारंभ हो जाता है।
नज़ीर अकबराबादी के फन से तो वाकिफ ही होंगे-जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की। और दफ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की। परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की...लड़-भिड़ के नजीर फिर निकला, कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो, जब ऐसे ऐश झमकते हों, तब देख बहारें होली की।
शाह 'हातिमÓ लिखते हैं, मुहैया सब है अब अस्बाबे होली, उठो यारों भरो रंगों से झोली...कोई है सांवरी कोई है गोरी, कोई चंपा बरन उम्रों में थोड़ी। सआदत यार खां 'रंगींÓ पिचकारी में रंग भरने की बात कहते हैं, भर के पिचकारियों में रंगीं रंग, नाजनीं को खिलाई होली सं...और...यह हंसी तेरी भाड़ में जाए, तुझको होली न दूसरी आये। इस तरह बहुत से उर्दू शायरों ने होली पर नज्म कही है। 

मरंग गोड़ा वाया आदित्य श्री

अपने पहले ही उपन्यास से चर्चित, प्रशंसित, पुरस्कृत महुआ माजी का दूसरा उपन्यास 'मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआÓ राजकमल प्रकाशन से अभी-अभी आया है। छपने से पहले इसकी पांडुलिपि भी पुरस्कृत हो गई। उपन्यास का टैग लाइन है, विकिरण, प्रदूषण व विस्थापन से जूझते आदिवासियों की गाथा। यह गाथा कोल्हान के उस क्षेत्र की है, जहां के आदिवासी पिछले कई दशकों से यूरेनियम के कचरे का शिकार हो जवानी में ही दम तोड़ दे रहे हैं। कई तरह की बीमारियां, गर्भपात हो जाना, लाइलाज चर्म रोग और असमय बुढ़ापे की मार...ये सब अतिरिक्ति सौगातें हैं। विकास का एक भयावह चेहरा यहां दिखाई देता है। हालांकि कंपनी इससे अपना पल्ला झाड़ती रही है, लेकिन देश-विदेश के कई विशेषज्ञों की टीम ने इस क्षेत्र का दौरा किया और पाया कि ये सारी बीमारियां यूरेनियम के कचरे की वजह से पैदा हो रही हैं। महुआ माजी ने अपने उपन्यास में इसी विषय को उठाया है। पिछले तीन-चार साल से वह इस विषय पर काम कर रही थीं।
कहना न होगा कि जब हिंदी की मुख्यधारा में अभी तक आदिवासी ही नहीं आ पाए हैं तो उनकी समस्याएं कहां से आ पातीं? वह भी जादूगोड़ा के आदिवासी। कहा जा रहा है कि पहली बार जादूगोड़ा के आदिवासियों को आवाज मिली है। तब, महुआ इसके लिए वाकई बधाई की पात्र हैं।    मरंग गोड़ा को आप यहां जादूगोड़ा भी पढ़ सकते हैं। पर, पर मरंग गोड़ा नीलकंठ कैसे हो गया? यह समझ से परे है। नीलकंठ तो भगवान शिव का एक नाम है, जिन्होंने समाज के लिए विष पिया था। इन आदिवासियों को तो जबरन विष पिलाया जा रहा है।
402 पेज के उपन्यास में लेखिका ने 167 पेज तो अपनी आंखों से मरंग गोड़ा को देखने की कोशिश की है। दृष्टि भले आधी-अधूरी हो। लेकिन 168 पेज से लेखिका मरंग गोड़ा को कैमरे की आंख से देखती हंै। कैमरामैन का मना है आदित्यश्री। तआरुफ देखिए...'इनसे मिलिए, यही है वो फिल्म बनाने वाला पत्रकार-आदित्यश्री।Ó लेखिका के कृतज्ञता से भरे शब्द हैं, 'पहले दिन मरंग गोड़ा में कदम रखते ही उस युवा पत्रकार आदित्यश्री ने देखा था, ढेर सारे औरत, मर्द, बच्चे, बूढ़े एक तालाब में उछल कूद करते हुए हाथ से ही मछली पकड़ रहे हैं। बड़ा आश्चर्य हुआ था उसे। अपने वीडियो कैमरे से शॉट लेते हुए उसने जाना था कि अचानक उस दिन तालाब की तमाम मछलियां मर मरकर पानी की सतह पर चली आई थीं। तभी इतनी आसानी से लोग उन्हें पकड़ पा रहे थे। बाद में सगेन ने खुलासा किया था-'तालाब में टेलिंग डैम का जहरीला पानी कुछ ज्यादा ही चला आया था शायद...ÓÓ
सगेन उपन्यास का नायक है। सगेन को ततंग यानी उसके दादा पत्थरों का डाक्टर बनाना चाहते थे, लेकिन जैसे-जैसे सगेन बड़ा होता है, उसे जादूगोड़ा का सच दिखाई देने लगता है और फिर लोगों को जागरूक करने, एकजुट करने के लिए कमर कस लेता है। सगेन की भेंट जब आदित्यश्री से होती है तब जादूगोड़ा के सच से देश-दुनिया परिचित होती है। आदित्यश्री जादूगोड़ा पर कई डाक्यूमेंट्री बनाता है। उसका प्रदर्शन जापान सहित कई अन्य देशों में होता है। इस डाक्यूमेंट्री के माध्यम से आदिवासियों का दर्द लोगों के सामने आता है। जब देश-दुनिया में कंपनी की करतूतों का पता चलता है तो कंपनी वाले भी थोड़ा मानवीय रुख अपनाने को बाध्य होते हैं। 
आदित्यश्री एक एनजीओ की मदद से ही डाक्यूमेंट्री बनाता है। एनजीओ का नाम देने से लेखिका ने परहेज किया गया है। वहीं, एनजीओ के मुख्य कर्ता-धर्ता का नाम भी यहां बदल दिया गया है, जबकि उपन्यास में कुछ पात्र अपने सही नामों के साथ उपस्थित हैं। जादूगोड़ा के साथ ही सारंडा की कहानी भी कही गई है। साल बनाम सागवान की लड़ाई को भी उठाया गया है, लेकिन उस समय के एक बहुत बड़े आंदोलन कोल्हान विद्रोह को छोड़ दिया गया है।
1977 में केसी हेम्ब्रम और उस समय के मानकी मुंडा के प्रमुख नारायण जोंको ने कोल्हान रक्षा संघ का गठन किया था। आंदोलन की लपटें बहुत दिनों तक उठती रहीं। 1981 में अलग कोल्हान की मांग की गई। यहां तक कि कॉमनवेल्थ सचिव के सामने इसकी मांग रख दी गई। इसकी मांग यूएनओ में भी गूंजी। केसी हेम्ब्रम पर राष्ट्रदोह का मुकदमा भी चला। शुरुआत में इस संगठन के लोगों ने जादूगोड़ा में विकिरण के दुष्प्रभावों को सामने लाने की कोशिश की। आंदोलन को वैचारिक धार देने के लिए ही उक्त एनजीओ का गठन किया गया। पर उपन्यास में इस आंदोलन का कहीं जिक्र ही नहीं है। लेखिका ने आदित्यश्री के माध्यम से  जो देखा, सुना, समझा, बताया, या जो दिखाया गया, वही उपन्यास में परोस दिया गया। और, इस उपन्यास की सबसे बड़ी कमी तो यह है कि  उपन्यास उत्तराद्र्ध मरंग गोड़ा की कथा न होकर आदित्यश्री की संघर्ष गाथा लगने लगती है। फिल्म निर्माण, उसका विदेशों में प्रदर्शन, प्रेम का घटना और इसका शरीर के तल पर घटित होना ...। शक होने लगता है कि हम मरंग गोड़ा की कथा पढ़ रहे हैं या आदित्यश्री की। कहीं-कहीं उपन्यास में शोध इतना हावी हो गया है कि कथा पीछे छूट जाती है। दिल्ली वालों के लिए भले ही यह उपन्यास अंतरराष्ट्रीय लगे, जिनका कभी न आंदोलन से वास्ता रहा न आदिवासी समाज से, लेकिन झारखंडवासियों के लिए इसे पचाना मुश्किल ही होगा। फिर भी, उपन्यास को इसलिए पढ़ा जाना चाहिए ताकि हम जादूगोड़ा के दर्द को समझ सकें। दूसरा यह कि जापान ने अपनी जनता के विरोध के कारण विकिरण के खतरे को देखते हुए परमाणु संयंत्रों को बंद कर दिया। उपन्यास हमें विकिरण के खतरे से आगाह करता है। बताता है कि 'यूरेनियम को धरती के भीतर ही पड़े रहने दो। उसे मत छेड़ो। वरना सांप की तरह वह हम सबको डंस लेगा।Ó  

टैगोर हिल सुनाती है ज्योतिरींद्र की गाथा

संजय कृष्ण, रांची
टैगोर हिल के शिखर पर ब्रह्म मंदिर के खुले स्थान पर जैसे आज भी कोई ध्यान मुद्रा में बैठा है। सैकड़ों सीढिय़ां चढऩे के बाद इस एहसास से आप अलग नहीं हो सकते। सीढिय़ों के दाए-बाएं शिलाखंड, पेड़, पौधे, पत्तियां जैसे आज भी अपनी कहानी सुनाने को बेताब हों कि वह व्यक्ति कहां-कहां टहलता रहा। पेड़-पौधों और शिलाओं से कैसे बातचीत करता रहा? वह कुसुम का विशाल वृक्ष भी, जिसकी सौ साल से ऊपर उम्र हो गई है, उसकी चरणों में बैठक ज्योतिरींद्रनाथ टैगोर ध्यान लगाया करते थे। यहां आने पर कुछ भी अबूझ, अज्ञात और अव्यक्त नहीं है। कोई मौन नहीं, सब मुखर हैं।

वह आवास जहां ज्‍योतिरींद्र रहते थे
कण-कण बोलते हैं। हृदय को स्पंदित करते हैं। कभी-कभी यादों के झरोखें से झांकने पर बेचैन भी। कुसुम वृक्ष न जाने कितनी घटनाओं का साक्षी है। यहीं पर बैठकर ज्योति दा बाल गंगाधर तिलक की गीता रहस्य का अनुवाद करते थे। यहीं पर बैठकर नई-नई धुनें बनाते थे। यह धुन आज भी सुनाई देता है। रात के सन्नाटे में जब आप यहां से गुजरें तो लगेगा कि ज्योति दा की धुनों के साथ पेड़-पौधे, शिलाएं कोरस गा रही हैं।
सूरज की पहली किरण और फिर आखिरी किरण पड़ते ही इस पहाड़ी में चैतन्यता आ जाती है। सूरज का स्वागत भी करती है और संध्या विदा भी। अब आप सोच रहे हैं, क्यों निर्जीव की कथा सुना रहे हैं और यह ज्योतिरींद्रनाथ हैं कौन?  
ज्योतिरींद्रनाथ महर्षि देवेंद्रनाथ के पांचवें पुत्र थे और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से 12 साल बड़े थे। संगीतज्ञ, गायक, पेंटर, अनुवादक, नाटककार, कवि...कला के जितने रूप हो सकते हैं, उनमें वे सिद्धहस्त थे। रवींद्रनाथ पर इनका गजब का प्रभाव था। 1868 में कादंबरी देवी से इनका विवाह हुआ। पर, कादंबरी देवी ने 19 अप्रैल, 1884 को आत्महत्या कर ली। इससे ये बड़े दुखी हुए। इसके बाद इनका मन उचटने लगा। वे ठाकुरबाड़ी छोड़कर कुछ दिनों तक अपने अग्रज भारत के पहले आईएएस सत्येंद्रनाथ टैगोर के साथ रहने लगे।
 1905 में अपने पिता महर्षि देवेंद्र नाथ के निधन के बाद उन्होंने कुछ दिनों तक विरागी होकर विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया। बड़े भाई सत्येंद्रनाथ टैगोर के साथ पहली बार वे 1905 में रांची आए। यहां की आबोहवा उनके मन के अनुकूल लगी। कुछ दिन रहने के बाद वे चले गए। फिर तीन साल बाद एक अक्टूबर, 1908 को रांची रहने के लिए ही आ गए। यहां पर मोरहाबादी स्थित पहाड़ी इन्हें पसंद आ गई। तब तक यह वीरान था। यहां पर 1842 से 48 तक कैप्टन एआर ओस्ली रहे। उन्होंने ही यहां पर एक रेस्ट हाउस बनवाया था। ओस्ली यहां 1839 में रांची आए। वे प्रतिदिन प्रात:काल काले घोड़े पर सवार होकर मोरहाबादी मैदान टहलने जाते थे। फिर रेस्ट हाउस में आकर विश्राम करते थे। उनके भाई ने किसी अज्ञात कारण से इस रेस्ट हाउस में आत्महत्या कर ली। इसके बाद ओस्ली का मन यहां से उचट गया और इसके बाद फिर वे कभी नहीं आए। इसके बाद यह वीरान हो गया।
प्रवेश द्वार
ज्योतिंद्रनाथ आए तो उन्होंने यहां के जमींदार हरिहरनाथ सिंह से मुलाकात की और 23 अक्टूबर 1908 को पंद्रह एकड़ अस्सी डिसमिल जमीन पहाड़ी के साथ बंदोबस्त कराई। यह जमीन उन्होंने अपने भाई सत्येंद्रनाथ ठाकुर के पुत्र सुरेंद्रनाथ ठाकुर यानी भतीजे के नाम से लिखा-पढ़ी कराई। इसका सालाना लगान 295 रुपये वार्षिक था। लेने के बाद टूटे-फूटे रेस्ट हाउस को दुरुस्त करवाया। पहाड़ पर चढऩे के लिए काफी धन खर्च कर सीढिय़ां बनवाई। मकान के प्रवेश द्वार पर एक तोरण द्वार बनवाया। द्वार के निकट विभिन्न प्रजातियों की चिडिय़ां, कुछ हिरण, कुछ मोर रखकर एक आश्रम का रूप दिया गया। वे ब्रह्म समाजी थे। इसलिए बुर्ज पर एक खुला मंडप बनवाया ध्यान-साधना के लिए। नाम रखा शांतालय। पहाड़ के नीचे सत्येंद्रनाथ एक मकान बनवाए थे, जिसका नाम रखा था 'सत्यधामÓ। कहा जाता है कि रांची में हाथ रिक्शा का प्रचलन इन्हीं के कारण हुआ। हाथ रिक्शे से ही वे रांची घूमते थे। कभी-कभी वे अपनी पॉकिट घड़ी का समय मिलाने के लिए रांची डाकघर तक आते थे, जो उन दिनों सदर अस्पताल के पास था। आर. अली साहब की दुकान से केक, बिस्कुट आदि खरीदते थे। हजारीबाग रोड के किनारे कुमुद बंधु चक्रवर्ती के अन्नपूर्णा भंडार से अपनी जरूरत की चीजें लेते थे। कुमुद बाबू उनके बायोकेमिक चिकित्सक थे। और, विष्णुपुर घराने के सुविख्यात सितार वादक नगेंद्रनाथ बोस से वे सितारवादन सीखते थे। जब अवनींद्रनाथ ठाकुर सपरिवार रांची आते थे तब उनकेच्बच्चों के लिए ढेर सारी चीजें खरीदकर खिलाया करते थे। ऐसे अवसरों पर उनके आवास में हंसी-खुशी का माहौल छा जाता।
कुसुम ताल
ज्योतिरींद्र नाथ की डायरी से पता चलता है कि उन दिनों रांची के गणमान्य लोग उनके भवन में प्राय: आते थे तथा साहित्य, संगीत, उपासना आदि कार्यक्रमों में शामिल होते थे। और, वे खुद भी दूसरों के यहां जाया करते थे। थड़पकना हाउस के उद्धव रॉय, नवकृष्ण राय, भूपालचंद्र बसु, त्रिपुराचरण राय उनमें प्रमुख हैं।
मंजरी चक्रवर्ती ने लिखा है कि 'स्वतंत्रता संग्राम के अन्यतम योग्य नेता विपिनचंद्र पाल के मध्यम पुत्र मेरे पिता ज्ञानांजन पाल, मेरी छोटी फूफी वीणा चौधुरी, जब पुरुलिया के देशबंधु सी आर दास के घर आए थे, तब वे ज्योतिरींद्रनाथ से मिलने रांची भी आए। तब पहाड़ों पर घूमते समय ज्योति दा ने मेरी फूफी और सास के चित्र भी बनाए थे।Ó
एक बात यहां उल्लेखनीय है कि रवींद्रनाथ टैगोर यहां भले न आए लेकिन उनके परिवार का नाता इस धरती से बहुत पुराना है। रवींद्रनाथ टैगोर के दादा द्वारिका नाथ टैगोर ने पलामू के राजहरा में एक अंग्रेज व्यापारी से मिलकर कोलियरी चलाई थी। फर्म का नाम था मेसर्स कार्र-टैगोर एंड कंपनी। 1834 में इस फर्म के जरिए कोयले का व्यापार शुरू किया गया। विलियम कार्र एवं विलियम प्रिंसेप का इंग्लैंड के साथ सिल्क व नील का व्यापार था। इन्होंने ही कोयले का व्यापार भी शुरू किया। 1936 में रानीगंज कोलियरी खरीदा गया। इसे मूलत: विलियम जान्स ने खोला था। इस कोलियरी को खरीदने के बाद कार्र-टैगोर फर्म ने अपनी कंपनी का विस्तार किया। इसके साथ डीन कैंपवेल एवं डा. मैकफर्सन इसके अतिरिक्त पार्टनर बन गए। कलकत्ता (अब कोलकाता) कार्यालय का काम डोनाल्ड मैकलियोड गार्डन देखते थे और कोलियरी का काम सीबी टेलर। खैर, आगे चलकर द्वारिका नाथ इस व्यवसाय से अलग हो गए। धु्रब मित्र बताते हैं कि 1920 के आस-पास गुरुदेव के भाई अवनींद्रनाथ ठाकुर कोकर में दो बेहद खूबसूरत मकान बनवाए थे, जिसका नाम रखा था सन्नी नूक। भवन विभिन्न प्रकार के फूलों, वृक्षों, पौधों से पटा था। इसी भवन पर बाद में रामलखन सिंह कालेज बना। दूसरा भवन भी सड़क के ठीक विपरीत में था, जिसे कुछ लोगों ने प्लाटिंग करके बेच दिया। इनके साथ ही सत्येंद्रनाथ की सुपुत्री इंदिरा देवी एवं उनके पति प्रख्यात साहित्यकार प्रमथ चौधुरी ने भी एक मकान रांची में खरीदा था और वे लोग अक्सर यहां रहा करते थे। आज जहां रामकृष्ण मिशन का पुस्तकालय है, वहीं पर उनका मकान हुआ करता था। यही नहीं, गुरुदेव की एक भतीजी सुप्रभा एवं उनके पति सुकुमार हालदार सामलौंग, रांची में ही रहते थे। ये सभी गुरुदेव को रांची आने को कहते। ज्योति दा की डायरी से पता चलता है कि उनका कार्यक्रम भी बना, लेकिन वे यहां नहीं आ सके। हालांकि गुरुदेव ने एक पारिवारिक तनाव से दूर रहने को लेकर पत्र में लिखा था कि कलकत्ता की अपेक्षा रांची में रहना बेहतर होगा। खैर, गुरुदेव नहीं आ सके। ज्योति दा ने यहीं पर अपनी अंतिम सांसें ली। चार मार्च 1925 को सदा-सदा के लिए चले गए। उनकी यादों को सहेजने का प्रयास किया जा रहा है।

साठ साल की सक्रियता ने रचा शोध का नया आयाम


संजय कृष्ण, रांची
डॉ.बीपी केशरी। बहुमुखी प्रतिभा का स्थापित मानदंड। बिरल व्यक्तित्व। उम्र के पड़ाव का आठवां दशक। चिंतन और विचार से तेजस्क्रिय। यह जमाना उन्हें किस रूप में याद करना चाहेगा- एक संस्कृतिकर्मी के रूप में, झारखंड आंदोलन के बौद्धिक अगुवा के रूप में या एक गहन साहित्य के शोधार्थी के रूप में। इन तीनों रूपों में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है। किसी में कमतर नहीं। इतिहास में एक मुकम्मल जगह उन्होंने बना ली है। लेकिन, एक काम ऐसा है, जिसे करने के बाद उन्हें असीम संतुष्टि मिली। वह है- नागपुरी कवियों पर काम। यह काम पिछले पचास वर्षों से चल रहा था।  हौले-हौले। कई तरह की बाधाएं भी आईं। झारखंड आंदोलन में व्यस्तता रही। फिर भी पूरा हुआ। निस्संदेह यह एक शलाका पुरुष की सारस्वत साधना का सद्परिणाम है। रांची विवि में जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग की स्थापना...बीच-बीच में ऐसे काम आए, जो वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं थे। फिर यह काम बंद नहीं हुआ। एक हसरत जरूर थी कि यह ऐतिहासिक काम उनके जीते जी हो जाए और हो भी गया। पांच मार्च को जब वे अशोक पागल के यहां बैठे थे और बार-बार उनका फोन आ रहा था कि मैं इंतजार कर रहा हूं तो भागा-भागा बीमारी में भी उनसे मिलने गया। उनके चेहरे पर एक असीम खुशी तैर रही है। काम की पूर्णता का एहसास उनकी बातों से लग रहा था। उन्होंने एक प्रति दी। छाप-छपाई और कवर देखकर बहुत आनंद हुआ।

इस महती योजना का प्रारंभ कैसे किया। यह काम कितने दिनों में हुआ और कैसे मन में विचार आया?
केशरी : 1951 का साल। आइए की परीक्षा देकर घर आया था। एक चचेरी बहन की शादी थी। गर्मी का मौसम था। चांदनी रात में घर और पास-पड़ोस की मां-बहनें शादी पर झूमर खेल रही थीं। आंगन नागपुरी गीतों से नहा रहा था। अचानक कुछ पंक्तियों पर मेरा कान लग गया-
अम्बा मंजरे मधु मातलयं रे,
तइसने पिया मातल जाय।
नाग-नागिन कांचुर छोड़लयं रे,
तइसने पिया छोड़ल जाय।

इस झुमटा गीत की लय, शब्द रचना और अर्थ-व्यंजना ने मुग्ध कर दिया। दिल-दिमाग एकमेक हो गए और सोचने लगा, इतनी सुंदर पंक्तियों का रचयिता कौन है? छिटक रही चांदनी की उस रात ने ऐसा बेचैन किया कि फिर इस तरह के गीतों की तलाश में जुट गया। आस-पास के गांव, घर, खेत-खलिहान और संगी-साथियों से अनायास ही कुछ गीत मिल गए। इस काम में आदिवासी पत्रिका से भी सहायता मिली। काम आगे बढ़ा। फिर जीएल कालेज डालटनगंज में नियुक्ति हो गई। इसके बाद छुट्टियों में ही कुछ काम कर पाता।
कवियों की खोज कैसे की और कहां-कहां गए?
डॉ.केशरी बताते हैं कि 1957 में आकाशवाणी की स्थापना हुई। इसके तीन साल बाद 1960 में रांची विवि की। इससे नागपुरी जगत में हलचल हुई। 1960 में ही नागपुरी भाषा परिषद का गठन भी हुआ। नागपुरी पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ। इससे काम आसान हुआ। कई लेख इसमें छपे। गीतों के संग्रह में भी आसानी हुई। 1964-65 में नागपुरी क्षेत्र का व्यापक दौरा किया। नागपुरी जानने वालों से संपर्क किया, साक्षात्कार लिया। पांच सौ नए-पुराने कवियों के लगभग 15000 गीत मिले। काम को आगे बढ़ाने के लिए 1967 में एक पुस्तिका छपाई-नगपुरिया कविमनक सूची। धीरे-धीरे काम बढ़ रहा था।

नागपुरी गीतों में ही पीएचडी करने का विचार कैसे आया?
नागपुरी में काम कर रहा था। इसलिए इसी में पीएच डी करने का मन बनाया। 1971 में रांची विवि से नागपुरी गीतों में शृंगार रस पर पीएच डी की डिग्री मिली। इसके पहले जर्मनी के बौन विवि से मोनिका जॉर्डन और रांची विवि से डॉ.श्रवणकुमार गोस्वामी को नागपुरी में यह डिग्री मिली थी। इस बीच झारखंड आंदोलन भी तेज हो रहा था। शोषण का क्रम जारी था। एक तरह से यह आंतरिक उपनिवेश बन गया था। इस बीच झारखंड का इतिहास लेखन, झारखंड पार्टी की सदस्यता लेना, पार्टी का मैनिफेस्टो लिखना, नागपुरी में जय झारखंड पत्रिका निकालना, यहां की भाषाओं की समस्याओं एवं संभावनाओं पर आलेख तैयार करना आदि काम करने पड़े।
आंदोलन के साथ रचनात्मक काम कैसे करते रहे?
 1972 में झारखंड मुक्ति मोर्चा के गठन से लेकर छोटानागपुर सांस्कृतिक संघ, नागपुरिया संघ, शालपत्र के प्रकाशन की कहानी बताई। रांची विवि के जनजातीय भाषा विभाग में आने और स्नातकोत्तर विभाग की स्थापना भी रोचक कहानी है। विभाग की स्थापना में कुमार सुरेश सिंह का विशेष योगदान रहा। फिर डॉ. रामदयाल मुंडा ने इस बिरवे को वृक्ष बनाया। विभाग ने सांस्कृतिक नवजागरण की भूमिका निभाई।
फिर नागपुरी संस्थान की स्थापना की बात दिमाग में कैसे आई?
1993 में अवकाश प्राप्ति के बाद भी शोध का काम आगे चलता रहा। उम्र बढ़ रही थी और शैक्षिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व्यस्तताएं पीछा नहीं छोड़ रही थीं। काम आगे बढ़ाने के लिए किसी तरह अपने गांव में ही नागपुरी संस्थान की स्थापना की। इसके बाद लोगों के सहयोग से काम को तेज किया। अथक परिश्रम के बाद 650 कवियों की सूची बनी। लेकिन पुस्तक में 248 कवियों एवं उनकी रचनाओं को ही शामिल कर सका।
इस उपलब्धि पर क्या कहना चाहेंगे?
केशरी जी कहते हैं कि शोधयात्रा के दौरान लगभग 35 हजार नागपुरी गीत-कविता, 61 कवियों-संपादकों की 119 पुस्तक-पुस्तिकाएं मिलीं, जो नागपुरी संस्थान में उपलब्ध हैं। संग्रह में 1600 ईस्वी से लेकर 2000 ईस्वी के रचनाकारों को शामिल किया गया है। अभी मुझे बस फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट की पंक्तियां याद आ रही हैं। इसे मेरा भावोच्छवास भी कह सकते हैं। कविता की पंक्तियों का आशय है-'आनंद मात्र धन संग्रह में नहीं। यह रचनात्मक प्रयासों के रोमांच में, उपलब्धियों के उल्लास में है।Ó यह उपलब्धि मेरे लिए कुछ ऐसा ही अर्थ रखती है।