'जनता ने मेरे चीते को बाघ बना दिया और मीडिया ने आदमखोरÓ

 मनातू मउवार को लोग 'आदमखोरÓ मानते हैं। कहते हैं मनातू की फिजाओं में उनके आतंक के किस्से अब भी तैरते हैं। उनकी दबंगई और क्रूरता से आस-पास का पूरा इलाका ही नहीं, पूरा प्रदेश थर्रा उठता था। साठ-सत्तर के दशक में देश की कोई ऐसी पत्रिका नहीं, अखबार नहीं, जो मनातू के इस कथित आदमखोर के किस्सों से अटा पड़ा न हो। लेकिन मउआर साहब इन आरोपों-विशेषणों को खारिज करते हैं। कभी किसी का विरोध नहीं किया। क्यों? कहते हैं 'कीचड़ से कीचड़ नहीं साफ किया जा सकता है।Ó ऊपर से दिखाई देने वाले इतने विनम्र आदमी के बारे में जो किस्से सुनाई पड़ते हैं, उससे मउवार साहब का मेल बिठाना मुश्किल है। कभी आतंक का पर्याय यह व्यक्ति अपनी विनम्रता से किसी को भी आकर्षित कर सकता है। जब मैंने पूछा, आपने बाघ पाला था और जो आपका विरोध करता, उसे बाघ के हवाले कर देते थे। मउवार साहब कहते हैं, बाघ नहीं चीता। मीडिया ने मेरे चीते को बाघ बना दिया और मुझे आदमखोर। भला मैं आदमखोर दिखता हूं। बड़ी विनम्रता से वे जवाब देते हैं। फिर मीडिया ने आपको ही निशाना क्यों बनाया? इसके पीछे जाति और राजनीतिक कारण रहे हैं। वह कहते हैं, 'पलामू के ही भीष्म नारायण सिंह जो एक समय बिहार में मंत्री रहे, बाद में राज्यपाल बने, इसी डालटनगंज के सर्किट हाउस में उनसे किसी बात पर अनबन हो गई। लिहाजा, उनके इशारे पर उस समय हमारे खिलाफ अखबारों में लिखा जाने लगा। बिहार से निकलने वाला 'शानदारÓ नामक अखबार ने मेरे खिलाफ खूब लिखा। जितनी गालियां देना संभव थी, दी। यह सब उनके इशारे पर हुआ। पलामू में एसपी से लेकर डीसी तक उनकी पसंद के आते और उनका एक ही मकसद था मउवार को परेशान करना।Ó

हालांकि आस-पास के इलाके वाले उनकी दबंगई की बात तो स्वीकारते हैं, लेकिन मीडिया ने जिस ढंग से उन्हें प्रस्तुत किया, उसे अतिरंजित बताते हैं। बाघ के बाबत वे कहते हैं, मैंने चीता पाला था। चीता ही नहीं, हाथी, घोड़े, कुत्ते आदि भी पाले थे। यह मेरा शौक था। अब चूंकि उनकी देखभाल नहीं कर सकता, इसलिए इस शौक को तिलांजलि देनी पड़ी। वैसे, अब समय भी नहीं रहा।
मउवार यानी जगदीश्वरजीत सिंह। अस्सी की अवस्था है। अब वे महादेव की शरण में हैं। किसी तरह अपने विशाल खपरैल के मकान में दिन काट रहे हैं। उनके पास पुरानी एक डाज कार है। इस कार ने वर्षों से सड़क का मुंह नहीं देखा है। लोग कहते हैं उनकी हालत भी इसी कार की तरह हो गई है। कभी मनातू तो कभी डालटनगंज उनका हाल मुकाम है। 

जमीन के मामले कहते हैं कि मेरे पास अब केवल चार सौ एकड़ जमीन है। हम बारह लोग हैं। कानून प्रति व्यक्ति 40 एकड़ जमीन रखने का अधिकार देता है। खेती-बारी के बारे में वे कहते हैं, सारी जमीन माओवादियों के कब्जे में है। किसी तरह कुछ जमीनों पर खाने-पीने भर उगा लिया जाता है। बहुत सालों बाद इस बार खेती की है। माओवादियों को लेकर वे कुछ नहीं बोलते। इतना ही कहते हैं कि जब उनके एक आह्वïान पर झारखंड की सरकार थथम जाती है, तो हम क्या हैं? मउआर साहब सैकड़ों मुकदमा लड़े। जमीन से लेकर बंधुआ मजदूर रखने के आरोपों को झेला। जिले से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक गए। कुछ मुकदमे खारिज हो गए, कुछ में जीत हासिल हुई। पर, बंधुआ मजदूरों से बेेगारी कराने के आरोप का खंडन करते हुए कहते हैं कि मेरा कसूर इतना ही कि मैंने मजदूरों को अपनी जमीन पर बसाया, दुख-दर्द, बीमारी-परेशानी में उनका साथ दिया, मदद की। अब यह लोगों की नजर में अपराध है तो मैं क्या कर सकता हूं। हम एक ऐसे युग में रह रहे हैं, जब बेटा बाप से भी बंधा रहना नहीं चाहता तो भला मजदूरों को कैसे बंधुआ बना सकता था!


उनके होठों पर मुस्कराहट हमेशा तैरती है और आंखें कुछ ढूंढती लगती हैं। गौर वर्ण और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी मउआर साहब बड़ी शाइस्तगी से कहते हैं, 'नेचर से प्रेम करने वाला निर्दयी नहीं हो सकता है।Ó महाश्वेता देवी के 'भूखÓ और मनमोहन पाठक के 'गगन घटा घहरानीÓ जैसे उपन्यासों में मनातू के मउआर का अक्स है। एक समय मनातू मउआर के कारण सुर्खियों में रहा तो आज माओवादियों के कारण सुर्खियों में है।