मरंग गोड़ा वाया आदित्य श्री

अपने पहले ही उपन्यास से चर्चित, प्रशंसित, पुरस्कृत महुआ माजी का दूसरा उपन्यास 'मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआÓ राजकमल प्रकाशन से अभी-अभी आया है। छपने से पहले इसकी पांडुलिपि भी पुरस्कृत हो गई। उपन्यास का टैग लाइन है, विकिरण, प्रदूषण व विस्थापन से जूझते आदिवासियों की गाथा। यह गाथा कोल्हान के उस क्षेत्र की है, जहां के आदिवासी पिछले कई दशकों से यूरेनियम के कचरे का शिकार हो जवानी में ही दम तोड़ दे रहे हैं। कई तरह की बीमारियां, गर्भपात हो जाना, लाइलाज चर्म रोग और असमय बुढ़ापे की मार...ये सब अतिरिक्ति सौगातें हैं। विकास का एक भयावह चेहरा यहां दिखाई देता है। हालांकि कंपनी इससे अपना पल्ला झाड़ती रही है, लेकिन देश-विदेश के कई विशेषज्ञों की टीम ने इस क्षेत्र का दौरा किया और पाया कि ये सारी बीमारियां यूरेनियम के कचरे की वजह से पैदा हो रही हैं। महुआ माजी ने अपने उपन्यास में इसी विषय को उठाया है। पिछले तीन-चार साल से वह इस विषय पर काम कर रही थीं।
कहना न होगा कि जब हिंदी की मुख्यधारा में अभी तक आदिवासी ही नहीं आ पाए हैं तो उनकी समस्याएं कहां से आ पातीं? वह भी जादूगोड़ा के आदिवासी। कहा जा रहा है कि पहली बार जादूगोड़ा के आदिवासियों को आवाज मिली है। तब, महुआ इसके लिए वाकई बधाई की पात्र हैं।    मरंग गोड़ा को आप यहां जादूगोड़ा भी पढ़ सकते हैं। पर, पर मरंग गोड़ा नीलकंठ कैसे हो गया? यह समझ से परे है। नीलकंठ तो भगवान शिव का एक नाम है, जिन्होंने समाज के लिए विष पिया था। इन आदिवासियों को तो जबरन विष पिलाया जा रहा है।
402 पेज के उपन्यास में लेखिका ने 167 पेज तो अपनी आंखों से मरंग गोड़ा को देखने की कोशिश की है। दृष्टि भले आधी-अधूरी हो। लेकिन 168 पेज से लेखिका मरंग गोड़ा को कैमरे की आंख से देखती हंै। कैमरामैन का मना है आदित्यश्री। तआरुफ देखिए...'इनसे मिलिए, यही है वो फिल्म बनाने वाला पत्रकार-आदित्यश्री।Ó लेखिका के कृतज्ञता से भरे शब्द हैं, 'पहले दिन मरंग गोड़ा में कदम रखते ही उस युवा पत्रकार आदित्यश्री ने देखा था, ढेर सारे औरत, मर्द, बच्चे, बूढ़े एक तालाब में उछल कूद करते हुए हाथ से ही मछली पकड़ रहे हैं। बड़ा आश्चर्य हुआ था उसे। अपने वीडियो कैमरे से शॉट लेते हुए उसने जाना था कि अचानक उस दिन तालाब की तमाम मछलियां मर मरकर पानी की सतह पर चली आई थीं। तभी इतनी आसानी से लोग उन्हें पकड़ पा रहे थे। बाद में सगेन ने खुलासा किया था-'तालाब में टेलिंग डैम का जहरीला पानी कुछ ज्यादा ही चला आया था शायद...ÓÓ
सगेन उपन्यास का नायक है। सगेन को ततंग यानी उसके दादा पत्थरों का डाक्टर बनाना चाहते थे, लेकिन जैसे-जैसे सगेन बड़ा होता है, उसे जादूगोड़ा का सच दिखाई देने लगता है और फिर लोगों को जागरूक करने, एकजुट करने के लिए कमर कस लेता है। सगेन की भेंट जब आदित्यश्री से होती है तब जादूगोड़ा के सच से देश-दुनिया परिचित होती है। आदित्यश्री जादूगोड़ा पर कई डाक्यूमेंट्री बनाता है। उसका प्रदर्शन जापान सहित कई अन्य देशों में होता है। इस डाक्यूमेंट्री के माध्यम से आदिवासियों का दर्द लोगों के सामने आता है। जब देश-दुनिया में कंपनी की करतूतों का पता चलता है तो कंपनी वाले भी थोड़ा मानवीय रुख अपनाने को बाध्य होते हैं। 
आदित्यश्री एक एनजीओ की मदद से ही डाक्यूमेंट्री बनाता है। एनजीओ का नाम देने से लेखिका ने परहेज किया गया है। वहीं, एनजीओ के मुख्य कर्ता-धर्ता का नाम भी यहां बदल दिया गया है, जबकि उपन्यास में कुछ पात्र अपने सही नामों के साथ उपस्थित हैं। जादूगोड़ा के साथ ही सारंडा की कहानी भी कही गई है। साल बनाम सागवान की लड़ाई को भी उठाया गया है, लेकिन उस समय के एक बहुत बड़े आंदोलन कोल्हान विद्रोह को छोड़ दिया गया है।
1977 में केसी हेम्ब्रम और उस समय के मानकी मुंडा के प्रमुख नारायण जोंको ने कोल्हान रक्षा संघ का गठन किया था। आंदोलन की लपटें बहुत दिनों तक उठती रहीं। 1981 में अलग कोल्हान की मांग की गई। यहां तक कि कॉमनवेल्थ सचिव के सामने इसकी मांग रख दी गई। इसकी मांग यूएनओ में भी गूंजी। केसी हेम्ब्रम पर राष्ट्रदोह का मुकदमा भी चला। शुरुआत में इस संगठन के लोगों ने जादूगोड़ा में विकिरण के दुष्प्रभावों को सामने लाने की कोशिश की। आंदोलन को वैचारिक धार देने के लिए ही उक्त एनजीओ का गठन किया गया। पर उपन्यास में इस आंदोलन का कहीं जिक्र ही नहीं है। लेखिका ने आदित्यश्री के माध्यम से  जो देखा, सुना, समझा, बताया, या जो दिखाया गया, वही उपन्यास में परोस दिया गया। और, इस उपन्यास की सबसे बड़ी कमी तो यह है कि  उपन्यास उत्तराद्र्ध मरंग गोड़ा की कथा न होकर आदित्यश्री की संघर्ष गाथा लगने लगती है। फिल्म निर्माण, उसका विदेशों में प्रदर्शन, प्रेम का घटना और इसका शरीर के तल पर घटित होना ...। शक होने लगता है कि हम मरंग गोड़ा की कथा पढ़ रहे हैं या आदित्यश्री की। कहीं-कहीं उपन्यास में शोध इतना हावी हो गया है कि कथा पीछे छूट जाती है। दिल्ली वालों के लिए भले ही यह उपन्यास अंतरराष्ट्रीय लगे, जिनका कभी न आंदोलन से वास्ता रहा न आदिवासी समाज से, लेकिन झारखंडवासियों के लिए इसे पचाना मुश्किल ही होगा। फिर भी, उपन्यास को इसलिए पढ़ा जाना चाहिए ताकि हम जादूगोड़ा के दर्द को समझ सकें। दूसरा यह कि जापान ने अपनी जनता के विरोध के कारण विकिरण के खतरे को देखते हुए परमाणु संयंत्रों को बंद कर दिया। उपन्यास हमें विकिरण के खतरे से आगाह करता है। बताता है कि 'यूरेनियम को धरती के भीतर ही पड़े रहने दो। उसे मत छेड़ो। वरना सांप की तरह वह हम सबको डंस लेगा।Ó