रांची में मजाज के चंद महीने

1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के तीन साल बाद 18 वर्षीय एक नौजवान ने अपना तआरुफ कुछ इस तरह कराया- खूब पहचान लो असरार हूं मैं, जिन्स-ए-उल्फत का तलबगार हूं मैं।
फित्न-ए-अक्ल से बेजार यह असरार जब मजाज बना तो उसकी राह स्पष्ट हो चुकी थी। दुर्भाग्य यह कि हमारे देश के नक्काद (आलोचक) उन्हें कभी इंकलाब के सांचे में फिट करते तो कभी उर्दू का कीट्स करार दे अपनी ऊर्जा जाया करते रहे। मजाज को मजाज की नजर से देखने की कोशिश नहीं की गई। देखा जाए तो मजाज की जिंदगी में सुर्ख रंग ही छाया रहा। इश्क, इंकलाब या शराब, सभी रूपों में। एक नजरिए से देखें तो इसी सुर्ख रंग ने उनकी जिंदगी गर्क कर दी जबकि दूसरे से इसी ने मजाज को मजाज बनाया। शायद, बड़ा व्यक्तित्व विरोधाभासों से ही बनता है।

मजाज की जिंदगी ने बड़े-बड़े उतार -चढ़ाव देखे। उनका समय भी कुछ ऐसा ही था। उनकी नज्में इस बात की तसदीक करती हैं। जुनूने इश्क और शराबनोशी ने उन्हें पागलखाने तक का सफर कराया। मजाज जब रांची के पागलखाने (अब उसका नाम केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान है) में भरती थे तो सलाम मछलीशहर ने एक पुरदर्द नज्म कही थी, जिसके कुछ मिसरे यूं हैं- ...जैसे रांची की पहाड़ी से ये आती हो सदा... अब भी कुछ हेाश है बा$की तेरे दीवाने में, तेरा दीवाना गमे दह्र पे छा जाएगा...।

कहने की जरूरत नहीं कि आज मजाज दह्र पे छा गए हैं। लेकिन, हिंदी हो या उर्दू अदब, मजाज का मूल्यांकन आज भी बाकी है। एक तरक्कीपसंद शायर, जिसने कभी नरगिस को देखकर कहा था- तेरे माथे पे यह आंचल बहुत ही ख़ूब है... लेकिन, तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था...।
महान शायरों की रचनाओं की तो चर्चा खूब होती है, लेकिन वह किन- किन हालात से गुजरा, इस पर कितने लोगों का ध्यान जा पाता है। कम ही लोग जानते हैं कि इस महान शायर को तीन-तीन बार नर्वस ब्रेकडाउन का शिकार होना पड़ा। मजाज पर बीमारी के बार-बार हमले से परिवार को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता। बेटे के हाल पर मां को रोना आता। वह खुदा से कहने लगतीं- या इलाही, या तो मुझे उठा ले या मेरे बेटे को। मां के सीने में उभरता दर्द, पिता की बेबसी और बहनों की लाचारी... बहुत कुछ कह जाती है। इसकी जानकारी उनसे संबंधित पत्रों और संस्मरणों से होती है। मजाज की बहन सफिया अख्तर के पत्रों से ऐसी जानकारी हासिल होती है। उनकी बीमारी को लेकर परिवार कितना परेशान था और उर्दू वाले इसे भी भुनाना चाहते थे।
सफिया की कैफियत यह है कि वह आज के मशहूर गीतकार जावेद अख्तर की मां थीं। उनके पति का नाम जांनिसार अख्तर था, जो खुद भी एक बड़े शायर थे और मजाज के दोस्तों में शुमार थे। सफिया के पत्रों का संग्रह पाकिस्तान से प्रकाशित है। नाम है 'सफिया के खुतूत जांनिसार अख्तर के नामÓ। प्रकाशक है तरतीब पब्लिशर्स, मियां मार्केट, गजनी स्ट्रीट, उर्दू बाजार, लाहौर। मंसूर अहमद भट्ट और ताहिर एस मलिक ने इसका संपादन किया है। पत्र तो काफी हैं, लेकिन दो पत्र मजाज से संबंधित और खास हैं। ये पत्र मजाज की दिमागी हालत, उर्दू अदब की बेगैरत दुनिया से बावस्ता कराते हैं।
पहले पत्र 12 मई, 1952 को जां निसार अख्तर को लिखा गया पत्र है। मजमून देखें-
अच्छे अख्तर,
बहुत सा प्यार
खत मिला। चलो, एक खत तो मेरा तुम तक मेरा पहुंच गया। गनीमत है। इस डाक के इंतजाम को अल्लाह समझे।
यहां इस तरफ तकरीबन हर रोज शाहिद परवेजी, यूसुफ इमाम, सुहैल अजीमाबादी की तहरीरें आती रहीं। इसरार भाई (मजाज) की दिमागी हालत का ये आलम हो गया था कि कलकत्ता (अब कोलकाता) की सड़कों पर भीख मांगने की नौबत थी। अंसार भाई यूसुफ इमाम को हमराह लेकर कल रांची पहुंचे हैं और कल रात ही दाखिला की इत्तिला का तार आया है। उनकी दिमागी हालत को देखते हुए हवाई जहाज से ये सफर मुकम्मल करना पड़ा। पूरा एक हजार इस सई व काविश की नजर उबाला हो चुका है। इस जईफी के आलम में जिस इस्तकलाल से वो इन तमाम परेशानियों को बर्दाश्त कर रहे हैं। इससे मेरे जेहन पर उनकी अज्मत का नक्श बहुत गहरा होता जा रहा है। तुम लिखना कि सुहैल से तुम्हारी कैसी वाकफियत है और ये किस तरह के आदमी हैं। अब इसरार भाई की देखभाल का जरिया उन्हीं को बनाया जा सकता है।
आज ही जोश साहेब (जोश मलीहाबादी)का खत फिर मिला अम्मा के नाम, इसी सिलसिले में आया है। उन्हें भी जवाब लिखना है।
पत्र में अब घरेलू बातों की चर्चा है और अंत में लिखा है-
अच्छा अख्तर मुझे और अपनी अजीज अमानतों को अपने प्यार से जिंदा कर जाओ।
तुम्हारी
सफ्फो

अब दूसरा पत्र भी देखें-
तारीख है 3 नवंबर 1952
...प्रकाश (प्रकाश पंडित)का खत आया है। उसने लिखा है कि 'मजाज फंडÓ की अपील शाया करने की इजाजत उसने तुमसे कलकत्ता में ले ली थी। दिलचस्प बात है मैंने खत लिखवा दिया है कि मुझे अख्तर की गय्यूर तबीयत पर इस दर्जा एतमाद है कि यकीन नहीं आता कि उन्होंने मजाज के जुनून और बेजरी का ढिंढोरा रिसाले के जरिए पीटकर पढऩे वालों से दो-दो चार-चार रुपयों का चंदा वसूल करने का मशविरा दिया हो।
अख्तर, तुम जानते हो इसरार भाई अस्पताल से डिस्चार्ज होने वाले हैं। अब इस एक महीने के लिए दूसरों के आगे हाथ फैलाने से क्या हासिल?
शाहरार (पत्रिका)वाले अपने सर सेहरा बांधना चाहते हैं, लेकिन मजाज फंड का हश्र तो सुनो कि मजाज के नाम पर यहां पिछले महीने सिर्फ 17.25 पैसे जमा हो सके। इससे उर्दू वालों की अदब दोस्ती का भी अंदाजा कर लो।
बहुत सा प्यार
तुम्हारी सफिया

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पत्र से उर्दू वालों की दरियादिली की भी जानकारी मिलती है कि कितने दरियादिल थे मजाज को लेकर। पत्र में कई शायरों का जिक्र है। सुहैल अजीमाबादी, प्रकाश पंडित, जोश मलीहाबादी आदि। प्रकाश पंडित और जोश किसी परिचय के मोहताज नहीं है। दोनों उनके मित्र थे। सुहैल भी नहीं। सुहैल तब रांची में रहते थे और उर्दू के प्रचार-प्रसार के लिए काफी सक्रिय थे। रांची में मजाज की देखभाल सुहैल और अपने जमाने के मशहूर कथाकार राधाकृष्ण करते थे। राधाकृष्ण के पुत्र सुधीर लाल बताते हैं कि दोनों रिक्शे से पागलखाना जाते और उनका हालचाल लेते रहते।

रांची में भर्ती के वाकये का जिक्र उनकी छोटी बहन हलीमा भी करती हैं। लिखती हैं, 'दिल्ली से 'जोशÓ साहब का खत आया कि मजाज को आगरा भेज दिया जाए। मजाज और आगरा का पागलखाना? दिल पर कैसी चोट लगी। लेकिन मजाज पागल था। इस हकीकत से क्योंकर इनकार हो सकता था। पागल को आखिर कहां तक और कैसे भुगता जाता। जोश साहब को मैंने पत्र लिखा कि अपनी पहुंच का इस्तेमाल कर रांची में जगह दिलवा दें। जोश साहब को खत मिला या नहीं, मैं जवाब के इंतजार ही में रही। डाक्टर दिवेश, रांची हस्पताल के इंचार्ज से सीधे पत्रों से संबंध साधा और जगन भय्या (मजाज को वे जग्गन ही बुलातीं) की लाइफ हिस्ट्री लिखकर भेजी। शायद उनके जीवन की घटनाओं से असर लेकर उसने बी क्लास वार्ड में एक बेड दे ही दिया।...मजाज को मुश्किल से रांची भेजा गया। पिता ने अपनी पूंजी की आखिरी कौड़ी उन्हें बचाने में लगा दी। और छह महीने बाद वह बचकर आ गए।Ó
हालांकि मजाज की वापसी के एक महीने बाद ही सफिया अख्तर का निधन हो गया। इस सदमे का असर उन पर बिजली गिरने जैसा हुआ।

रांची में जब भर्ती हुए तब उन्हें तीसरा और अंतिम नरवस ब्रेक डाउन का हमला हुआ था। पहला, 1940 में हुआ। दिल्ली के कयाम के दौरान उनके दिल पर जो चोट लगी उसी का नतीजा था। मुहब्बत में नाकामी आदमी को आदमी नहीं रहने देती। इलाज ह़ुआ। चार-छह महीने के लिए बड़ी बहन के साथ नैनीताल चले गए और वहां से तंदुरुस्त होकर आ गए। जिंदगी आहिस्ता-आहिस्ता पटरी पर आने लगी। पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। मजाज के पैरों में शादी की बेडिय़ा डालने की कोशिशें शुरू हुईं। शायद, जीवन के पतझड़ में बसंत के फूल खिल सके। बात आगे बढ़ी। पर, लड़की के प्रिंसिपल पिता को यह गवारा न हुआ कि मजाज डेढ़ सौ रुपये महीना कमाते हैं। रिश्ता बनने से पहले टूट गया। इसका असर यह हुआ कि मजाज को दूसरी बार 1945 में दीवानगी का हमला हुआ। डाक्टरों की कोशिश और जीतोड़ तीमारदारी और दिलजोई से किसी तरह काबू में आ गए। लेकिन जिंदगी का ढर्रा बदल न सका। तीसरी बार हमला 1952 में हुआ। इस बार उन्हें रांची में भर्ती कराया गया। यहां से भी ठीक-ठाक होकर वापस चले गए। पैरों में बेड़ी डालने की कोशिशें फिर की गईं, लेकिन नाकाम रहीं। इश्क की नाकामी, तन्हाई शराबनोशी की ओर ले गई। दोस्तों ने भी आग में घी डालने का काम किया। और एक दिन, उन्हें जाड़े की ठिठुरती रात में पीने-पिलाने के बाद उनके दोस्तों ने सड़क पर छोड़ दिया। दिमाग की नसें फट गईं। किसी राहगीर की नजर पड़ी। उन्हें सीधे बलरामपुर अस्पताल पहुंचाया गया। तब तक बहुत देर हो चुकी थी। 5 दिसंबर, 1955 का वह मनहूस दिन इस महान शायर की जिंदगी का आखिरी दिन साबित हुआ, जिसने कभी लिखा था- खूब पहचान लो असरार हूं मैं/ हुस्ने उलफत का तलबगार हूं मैं।
....न तूफान रोक सकते हैं, न आंधी रोक सकती है/ वह मुझको चाहती है और मुझ तक वह आ नहीं सकती/ मैं उसको पूजता हूं और उसको पा नहीं सकता...। तड़प, चाहत, बेचैनी, तन्हाई, आवारगी से बेजार आखिरकार 44 की उम्र में मजाज बज्मे-नाज से चला ही गया।