पहाड़ों का मौन आमंत्रण

झारखंड के पहाड़ों, पठारों, झरनों, नदियों के पास हजारों साल की अनमोल कहानियां हैं। इन कहानियों का एक सिरा पाषाण काल तक जाता है तो दूसरा सिरा आज के वर्तमान तक फैला हुआ है। इन दोनों के बीच हजारों साल का फासला है। इन फासलों से जब होकर गुजरेंगे तो झारखंड का एक दूसरा ही चेहरा दिखेगा, जिसे आज तक पढ़ने की कोशिश मुख्यधारा के इतिहासकारों ने कतई नहीं की है। जैसे प्राचीन काल में लोगों के लिए यह प्रदेश गूढ़ रहा, वैसे ही आज के इतिहासकारों के लिए भी यह प्रदेश सिर्फ झाड़-झंखाड़ तक ही सीमित रहा है। राज्य का विकास कितना हुआ, कैसे हुआ, यह हम सब जानते हैं।

देश को यहां का लोहा चाहिए, खनिज चाहिए, अभ्रक चाहिए, पत्थर चाहिए, कोयला चाहिए बिजली पैदा करने के लिए, लेकिन यहां का विकास उनकी प्राथमिकता में नहीं हैं। यहां के कोयले से देश रोशन होता है और अपना झारखंड अंधेरे में? 12 साल के झारखंड में भी यहां के शासनकर्ताओं ने विकास की कोई बड़ी लकीर नहीं खींची। फिर भी झारखंड चल रहा है, जैसे देश चल रहा है। चलना इसकी नियति है। ऐसा इसलिए कि इसकी संस्कृति और समाज बेहद गतिशील है। इनमें बड़ी भूमिका आदिवासी-सदान समाज की है। इनकी परंपराएं और पर्व इन्हें एक सूत्रा में बांधती और पिरोती हैं और निरंतर चलने की प्रेरणा देती हैं। ये परंपराएं ही सामूहिक चेतना का निर्माण करती हैं। सामूहिकता इनके जीवन का केंद्रीय राग है। यहां कुछ भी निजी नहीं। न गोपन है। न रहस्य भरा। सब कुछ खुला और मिल-बांटकर खाने-रहने, पहनने का जीवंत सामाजिक दर्शन। हालांकि आधुनिकता यहां भी धीरे-धीरे पांव पसार रही है, जिसके कारण अखरा संकुचित और सिकुड़ रहा है। संस्कृति के ध्वंस का खेल भी जारी है। संस्कृति बिखरी तो समाज बिखरने में देर नहीं लगता। ये बाहरी तबका जानता है। संस्कृति ही वह धागा है, जो सबको एक सूत्रा में पिरोती है।

यह पुस्तक इसी दिशा में एक छोटी सी पहल है। हम अपने अनमोल विरासत को जाने, समझे और बचाएं।

झारखंड में सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक स्थलों की भरमार है। पर पुरातात्विक और ऐतिहासिक दृष्टि से झारखंड में जो काम होना चाहिए, वह 12 सालों में न के बराबर हुआ है। जो हुआ है, वह मानवविज्ञान के क्षेत्रा में। अब तो मानवविज्ञान भी कुंद पड़ गया है।

झारखंड इस माने में भी महत्वपूर्ण है कि यहां पर धर्म-धार्मिकता के प्राचीन अवशेष मिलते हैं। यहां के छोटानागपुर के पठारों पर शिवलिंगों की बहुतायत है। वहीं, बौद्ध एवं जैन धर्म से जुड़े प्राचीन स्थलों की भी कमी नहीं है। हजारों साल पुराने मेगालिथ यहां मिलते हैं। ऐसे स्मारक हजारीबाग, रांची, चतरा, लोहरदगा आदि जिलों में हैं। मेगालिथ के संबंध में दुखद बात यह रही कि 17वीं-18वीं शताब्दी से ही इनके विषय में कई तरह के भ्रम फैलाए जाते रहे हैं। कुछ लोगों ने असुर जनजाति से संबंधित स्मारक बताया तो कुछ और ही कल्पना करते रहे। अधकचरे ज्ञान के कारण झारखंड में मेगालिथ मात्रा रोमांचक पुरातात्विक सामग्री भर बन कर रह गए हैं।

मेगालिथ दो यूनानी शब्द मेगा और लियोस का मिला-जुला रूप है, जिसका अर्थ होता है बड़ा पत्थर। मेगालिथ उन प्राचीन शवागारों को कहते हैं, जिनमें विशालकाय प्रस्तर खंडों का इस्तेमाल किया जाता है। प्राचीनतम मेगालिथ लंदन के समीप स्टोनहेंज नामक स्थान पर पाए गए हैं, जिन्हें आज से लगभग 5000 वर्ष पुराना माना जाता है। भारत में प्राचीनतम मेगालिथ कश्मीर घाटी में बुर्जहोम नामक स्थान पर पाए गए हैं, जो लगभग 1800 ईपू बनाए गए थे। जहां तक झारखंड में मेगालिथ का सवाल है, यहां भी बड़ी संख्या में मेगालिथ लगभग हर जिले में खोज लिए गए हैं। यहां के संदर्भ में सबसे उत्साहवर्द्धक बात यह है कि झारखंड की कई जनजातियों में मेगालिथ की परंपरा अब भी जीवित है। विशेषकर मुुंडा एवं उरांव जनजातियों में ससनदिरी की परंपरा कुछ और नहीं, बल्कि मेगालिथिक पंरपरा का आधुनिक एवं जीवंत रूप है।

झारखंड में शैल चित्रा और गुफा चित्रा भी काफी पुराने मिलते हैं। हजारीबाग-पलामू-लोहरदगा, गुमला, पूर्वी एवं पश्चिमी सिंहभूम जैसे इलाकों में इन्हें देखा जा सकता है। हजारीबाग के इस्को गांव में मिली राॅक पंेटिंग दो से पांच हजार ईसा पूर्व की बताई जाती है। अभी हाल में गुमला जिले के कोजेंगा के जंगल में हजारों साल पुरानी एक राॅक पेंटिंग खोज निकाली गई है। पुराविद्ों का मानना है कि यह पेंटिंग इस्को से भी ज्यादा उत्कृष्ट है। इन पेंटिंगों पर काम करने की जरूरत है। इसी तरह पलामू के लिखलाही पहाड़ की एक गुफा में बने शैल चित्रा को देखकर बनाने वाले की कलात्मक बोध को समझ सकते हैं, जो आज के आधुनिक कलाकारों से कतई कम नहीं थे। अभी सरकारी मशीनरियों ने विधिवत झारखंड के बारे में जानने का प्रयास नहीं किया है। यह सब खोजी और उत्साही लोगों ने कर दिखाया है।

झारखंड की प्रमुख आदिम जनजाति असुर हैं। ये प्राचीनतम जनजाति में शामिल हैं। यही यहां के सबसे पुराने बाशिंदे माने जाते हैं। ऋग्वेद में इन्हें पुर निर्माता कहा गया है। लोहा गलाने की पद्धति सबसे पहले इन्होंने ही ईजाद की थी। इनसे जुड़े ऐतिहासिक स्थल भी जमींदोज हो रहे हैं। राज्य सरकार की उदासीनता इन ऐतिहासिक स्थलों के लिए भारी पड़ रही है। रांची, खूंटी, लोहरदगा, हजारीबाग, चाइबासा आदि में अनेक असुर साइट हैं। खूंटी जिले में ही कुथारटोली, कुंजला, सारीदकेल, कठारटोली एवं हांसा को संरक्षित स्मारक घोषित किया जा चुका है। सारीदकेल करीब पचास एकड़ में फैला है। सारीदकेल खूंटी-तमाड़ रोड पर स्थित है। तजना नदी के तट पर एक विशाल टीला आज भी मौजूद है। वहां से कई प्रकार के अवशेष मिलते रहते हैं। इसकी खोज सबसे पहले एससी राय ने 1915 में खूंटी के बेलवादाग में की थी। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा खुदाई में यहां से मनके, चूडियां, चाकू, भाला, मकानों के अवशेष, मृदभांड आदि मिले हैं। विशाल टीले को देखकर उस बस्ती का अंदाजा लगा सकते हैं। कुंजल खूंटी से पश्चिम में है। तीन एकड़ में फैले इस साइट की खोज भी शरतचंद्र राय ने ही की। कठारटोली रांची से दक्षिण चाइबासा रोड पर है। चैबीस एकड़ में फैले इस साइट से भी खुदाई में तांबे की चूडियां मिली हैं, जो पटना संग्रहालय में रखी हैं। खंूटी टोला भी तीन एकड़ में है। कोटरी नदी के किनारे। यहां भी मिट्टी के दीये, चूडि़यां, घंटी, अंगूठी आदि मिले हैं। हांसा रांची से दक्षिण दिशा में है। 1944 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के निदेशक ने खोज की। इनके मकान ईंटों से बनाए गए हैं। ईंटों का आकार काफी बड़ा है, पर दुर्भाग्य से इतिहास में नया मोड़ ले आने वाली यह असुर जाति आज धीरे-धीरे इतिहास के पृष्ठों में सिमटती जा रही है।

इसी तरह पलामू के हुसैनाबाद प्रखंड के पंसा व सहराविरा गांव में दो स्तूप मिले हैं। झारखंड में अब तक बौद्धकालीन मूर्तियां व उनके अवशेष तो मिलते रहे हैं, स्तूप पहली बार मिले हैं। स्तूप मिट्टी के बने हैं। इसकी परिधि 15 मीटर हैं और ऊंचाई आठ मीटर। स्तूप के ऊपर ईंटों का भी इस्तेमाल हुआ है जिनका साइज है 10 गुणा 7 गुणा तीन। सात गुणा पांच गुणा तीन। दस गुणा सात गुणा तीन सेंटी मीटर। यहां लाल रंग के मृदभांड भी पाए गए हैं। गांव वाले इस स्तूप पर धान निकालते या ओसावन करते हैं। उन्हें इसकी ऐतिहासिकता की जानकारी नहीं है। उनके लिए यह एक मिट्टी का टीला है। दूसरा स्तूप सहारविरा गांव में मिला है। यह पंसा गांव से 5 किमी दूर है। इस स्तूप की ऊंचाई तीन मीटर है और परिधि आठ मीटर। इसमें पके ईंटों का भी इस्तेमाल हुआ है। स्तूप के बीच में पत्थर का स्तंभ है। स्तंभ के ऊपरी हिस्से पर बौद्ध की आकृति है। स्तंभ स्तूप में धंसा हुआ है। यह 6वीं-7वीं शताब्दी का माना जा रहा है। स्तूप के ऊपर व आस-पास झाड़-झंखाड़ उग आए हैं। स्तूप से झांकती बुद्ध की प्रतिमा अपनी कहानी खुद की बयां करती है।

लोहरदगा जिले के खखपरता गांव में भी अभी हाल में यहां से मां दुर्गा और भगवान विष्णु की दो प्राचीन मूर्तियां मिली हैं। दोनों मूर्तियां 7वीं से 8वीं सदी की हैं। दोनों मूर्तियां स्थानीय बलुआ पत्थर से निर्मित हैं। खखपरता में नागर शैली के भवन निर्माण कला का उत्कृष्ट उदाहरण मिला है। वहां मिले शिव मंदिर की यह विशेषता है कि यह मंदिर एक चट्टान के ऊपर बनाया गया है। मंदिर की खास विशेषता यह है कि इसका प्रवेश द्वार पूरब दिशा में है, जबकि ऐसा बहुत कम ही होता है। वहीं मंदिर के उत्तरी दिशा में आठ मंदिरों का एक समूह भी मिला है। इसमें से सात मंदिरों की पहचान शिव मंदिर के रूप में हुई है और वहां से शिवलिंग भी प्राप्त हुए हैं। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्राचीन काल से ही स्थानीय लोग शैव धर्म का पालन करते आ रहे हैं।

पश्चिमी सिंहभूम के मझगांव ब्लाॅक में बेनी सागर या बेणु सागर नाम का ऐतिहासिक, धार्मिक एवं पुरातात्विक स्थल मौजूद है। आज यहां ‘हो’ नामक जनजातियों का बाहुल्य है। बेनी सागर जहां स्थित है, यहां से उड़ीसा का क्योंझर 12 किमी दूर है। यहां पर दस हजार साल पुराने अवशेष मिले हैं। प्राप्त अवशेषों से ज्ञात होता है कि बेनीसागर के आस-पास आदि मानव का निवास लगभग दस हजार पूर्व से था। अभी तक के उत्खनन में शिव मंदिर, पंचायतन मंदिर, 35 से अधिक शिवलिंग, सूर्य, भैरव, लकुलिस, अग्नि, कुबेर, गणेश, महिषासुरमर्दिनी एवं द्वारपाल की मूर्तियां प्रमुख हैं। इसके अलावा लोहे की चूडि़यां, अंगूठी, तीर, भाला, चाकू, मिट्टी के मनके आदि भी प्राप्त हुए हैं। पुराविदों का अनुमान है कि यह स्थान पांचवीं सदी ईसा से लेकर सोलहवीं-सत्राहवीं शताब्दी तक लगातार बसा रहा।

झारखंड के कुछ ऐसे प्राचीन मंदिर हैं जो अपनी कहानी खुद बयां करते हैं। झारखंड में मंदिरों के व्यवस्थित निर्माण का सिलसिला गुप्तवंश से हुआ माना जा सकता है, जो आगे निरंतर समृद्ध होता रहा। यही वह दौर था जब मंदिरांे के स्थापत्य पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। सुदूर जंगलांे के भीतर या दुर्गम पहाड़ों पर मंदिर या मूर्ति को देखकर मन आह्लादित हो जाता है। इनमें देवघर के बाबा बैजनाथ, रांची एवं सरायकेला जगन्नाथ मंदिर, गढ़वा का वंशीधर, गुमला का टांगीनाथ, रांची जिले की सोलहभुजी मां दुर्गा का देउड़ी मंदिर, महामाया, चतरा की मां भद्रकाली, पारसनाथ का जैन तीर्थ, पहाड़ी मंदिर, रामगढ़ का रजरप्पा व कैथा, दुमका का बासुकीनाथ व मालूटी आदि मंदिरों के नाम बहुचर्चित हैं। यहां हर साल हजारों श्रद्धालु और पर्यटक आते हैं। कुछ ऐसे भी मंदिर हैं, जो प्राचीन हैं, लेकिन हम उनके बारे में बहुत नहीं जानते।

रांची शहर के अंदर बोड़ेया ग्राम मोरहाबादी स्थित टैगोर हिल से लगभग तीन किलोमीटर उत्तर मदन मोहन मंदिर है, जिसका निर्माण नागवंशी शासक रघुनाथ शाह द्वारा 1665 में कराया गया था। इस पूरबमुखी मंदिर का सिंह द्वार उत्तर दिशा मंे है। उपलब्ध अभिलेख के अनुसार इसका निर्माण अनिरुद्ध शिल्पकार की देख-रेख मंे हुआ था। राधा-कृष्ण को समर्पित इस मंदिर में जो सबसे महत्वूर्ण बिंदु है, वह है इसके स्थापत्य में΄इस्लामिक स्थापत्य का प्रभाव। गर्भ-गृह एवं भोग मंडप के बीच के अंदरूनी ऊपरी हिस्से को देखने से मस्जिद स्थापत्य का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसी प्रकार रांची-कांके मार्ग पर रांची से 16 किलोमीटर उत्तर की ओर पिठोरिया का प्रस्तर मंदिर लगभग 150 साल पुराना कहा जाता है, किंतु स्थापत्य का यह आकर्षक नमूना है। लगभग 40 फीट ऊंचाई का यह प्रस्तर मंदिर एशलर मेसोनरी तकनीक से बना है। अर्थात् इसमें सूर्खी, चूना आदि निर्माण सामग्री का उपयोग नहीं΄ किया गया है। तैयार किए गए प्रस्तर खंडों को एक दूसरे पर सजाते-अड़ाते हुए इसका निर्माण किया गया है। इसका शिखर षष्टाकार है। इसके गर्भ गृह में शिव-पार्वती, राम-सीता-लक्ष्मण और हनुमान की मूर्तियां स्थापित हैं। शिवरात्रि के दिन यहां काफी चहल-पहल होती है।

पूर्वी सिंहभूम जिले में घाटशिला प्रखंड के अंतर्गत महुलिया ग्राम मे रंकिनी देवी का मंदिर भी महत्वपूर्ण है। पूर्व मंे΄ विशेषज्ञों ने इस देवी के संदर्भ में चर्चा करते हुए बताया कि चूंकि इस देवी का नाम प्राचीन धर्मग्रंथों में नहीं आया है, अतः संभवतः यह तत्कालीन स्थानीय शासकांे΄की कुल देवी रही होंगी। मंदिर मंे स्थापित देवी अष्टभुजी हंै, जिनके ऊपर के दो हाथों मंे΄हाथी, एक दाएं हाथ में डाकिनी एवं बाएं हाथ मंे΄जोगिनी तथा अन्य चार हाथों मंे΄ ढाल-तलवार आदि अस्त्रा-शस्त्रा है। रेखा देवल शैली में निर्मित इस मंदिर का निर्माण काल स्थापत्य शैली के आधार पर 14वीं-15वीं शताब्दी बताया जाता है।

हजारीबाग जिले में भी आकर्षक मंदिर समूह पाए गए हैं। कैथा मंदिर के भग्नावशेष रामगढ़-बोकारो मार्ग पर रामगढ़ से ठीक तीन किमी की दूरी पर मुख्य सड़क की बाईं ओर स्थित है, जिसके विषय में काफी कुछ लिखा जा चुका है, किंतु इस बात की जानकारी कम लोागों को होगी कि इसी शैली के 12-14 मंदिर रामगढ़ के आस-पास के क्षेत्रा मंे निर्मित थे, जिन्हें आज भी देखा जा सकता है। टाटी झरिया गांव में भी इसी शैली का मंदिर स्थित है। कहा जाता है कि इसे रामगढ़ के तत्कालीन मंत्राी, जो रीवा मध्यप्रदेश के निवासी थे, द्वारा बनवाया गया था। पं. सिंहभूम के चाइबासा के समीप ईचाक स्थित सप्तचूड़ा का राम मंदिर भी उच्च स्तरीय अलंकरणों से युक्त है। इसका शिखर रेखा देवल तथा अन्य भागांे के शीर्ष पीढ़ देवल शैली में निर्मित है। इस पंचायतन मंदिर का प्रस्तर अलंकरण देखकर इसके शिल्पकारों की सिद्धहस्तता का अनुमान लगाया जा सकता है। इसका निर्माण 1803 में स्थानीय शासक दामोदर सिंह देव ने कराया था।

इसी प्रकार गुमला जिला मुख्यालय से उत्तर-पश्चिम दिशा में डुमरी प्रखंड के मझगांव गांव में टांगीनाथ मंदिर के अवशेष स्थित हैं। यह स्थल पुरातात्विक दृष्टिकोण से राज्य के सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थलों मंे΄से एक है। एक छोटी सी पहाड़ी पर ईंट निर्मित मूल मंदिर का अवशेष यहां आज भी देखा जा सकता है, जिसके इर्द-गिर्द सैकड़ों प्राचीन प्रस्तर मूर्तियां बिखरी पड़ी हैं, जिनमें विभिन्न प्रकार के शिवलिंग, उमा-महेश्वर, महिष-मर्दिनी, सूर्य, गणेश एवं विष्णु आदि की प्रमुखता है।

शिव को समर्पित इस मंदिर स्थल पर प्राचीन प्रस्तर स्तंभ आदि एकत्रित कर सजा कर रखे गए हैं, जहां एक विशाल लौह त्रिशूल भी भग्न अवस्था में है। इसकी तुलना कुतुब मीनार के लौह स्तंभ से की जाती है, जिस पर गुप्तकालीन अभिलेख अंकित हैं। यह मंदिर भी लगभग 8 से 10 सौ वर्ष पुराना कहा जाता है, किंतु इस स्थल की तिथि और पुरानी हो सकती है।

राज्य में किले भी कम नहीं। लेकिन देख-रेख के अभाव में वे दम तोड़ रहे हैं। तेलियागढ़ का किला हो या पलामू का या कंुदा का, सबकी स्थिति एक जैसी है। नवरतनगढ़ के किले को तो झारखंड का हंपी कहा जाता है, जो सौ एकड़ में फैला हुआ है। पलामू के कई प्रखंडों मंे छोटे-छोटे राजे-रजवाड़ों-जमींदारों ने किले बनवा रखे थे, जिनके भग्नावशेष मरम्मती की मांग कर रहे हैं। झारखंड में किला निर्माण का सिलसिला 15वीं शताब्दी से शुरू हुआ। मुगलकाल में यह परवान चढ़ा। इस दौर में कई मस्जिदें भी बनीं।

भगवान बुद्ध का झारखंड से सीधा संपर्क था या नहीं, कहना कठिन है। लेकिन अपने 45 वर्षों के परिभ्रमण काल में वह संभवतः झारखंड भी आए थे, जिस कारण इस क्षेत्रा में भी बौद्ध धर्म का खूब प्रचार-प्रसार हुआ। झारखंड में अनेक स्थानों पर बौद्ध धर्म से जुड़े अवशेष बिखरे पड़े हैं। पलामू में मूर्तियां एवं स्तूप हाल में मिले हैं। लातेहार जिले का बालूमाथ बौद्ध मठ का विकृत नाम ही लगता है। धनबाद क्षेत्रा मंे दालमी तथा बारहमसिया गांवों के बीच लाथोनटोंगरी पहाड़ी पर 20 वीं शती के कुछ बौद्ध अवशेश्ष थे। पुरुलिया के निकट कर्रा व घोलमारा में कुछ बौद्ध खंडहर हैं। रांची-मूरी मार्ग पर गौतमधारा है। यहां पर एक बुद्ध की प्रतिमा भी स्थापित है। चतरा जिले का ईटखोरी अब बौद्ध साइट बनने जा रहा है। वहां पर लंबे समय से खुदाई चल रही है। यहां तीन स्तूप मिले हैं। कई अवशेष भी। आने वाले समय में यह गया के बाद सबसे बड़ा बौद्ध कंेद्र बनने जा रहा है। राज्य सरकार भी इसके लिए प्रयास कर रही है। इसी तरह चतरा के कौलेश्वरी पहाड़ पर भी बौद्ध और जैन धर्म से जुड़ी प्रतिमाएं हैं। यह पहाड़ तीन धर्मों का संगम है। हिंदू, बौद्ध और जैन। पहाड़ पर ही दो हजार फीट की प्राकृतिक झील पर्यटकों को आकर्षित करती है। इस स्थल को दसवंे जैन तीर्थंकर शीतलनाथ का जन्मस्थल भी माना जाता है। इसका उल्लेख डिस्टिक गजेटियर आफ हजारीबाग 1957 में भी है। यहीं पर जिनसेन ने भी तपस्या की थी। जैन धर्मावलंबी कौलेश्वरी देवी के प्राचीन मंदिर को भी पूर्व मंे जैन मंदिर होने की बात करते हैं। लोक मानस में यह सुरक्षित है कि राम अपने वनवास काल में यहां पर अपने भ्राता एवं धर्मपत्नी सीता के साथ रहे। हालांकि इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता है। लेकिन यहां की प्राचीनता और बिखरे पत्थर यहां के पौराणिक इतिहास की गवाही तो देते ही हैं।

पारसनाथ हिल तो जैन धर्म का सबसे बड़ा तीर्थ स्थल है। श्री सम्मेद शिखरजी के रूप में चर्चित इस पुण्य क्षेत्रा में जैन धर्म के 24 में से 20 तीर्थकरों ने मोक्ष प्राप्त किया। यहीं 23 वें तीर्थकर भगवान पाश्र्वनाथ ने भी निर्वाण प्राप्त किया था। सम्मेद शिखर की उत्तरी तलहटी पर प्रकृति की गोद पर मंदिरों की नगरी मधुवन बसा हुआ है। यहां अनेक दर्शनीय स्थल हैं। यहां के घुमावदार रास्ते, पहाड़ों की सुंदरता आंखों को सुकून देती है। शिखर पर पहंुचकर सारी थकानें मिट जाती है। इनके अलावा भी मानभूम जैनियों का गढ़ रहा है। पाकबीरा, पवनपुर, पलमा, चर्रा तथा गोलमारा में उनके समृद्ध मंदिर थे, जिनमें अनेक मूर्तियां स्थापित थीं। बलरामपुर, करा, कतरास में जैनियों के खंडहर आज भी देखे जा सकते हैं। तेलकुप्पी में जैन संस्कृति का विशिष्ट केंद्र था। सिंहभूम के सरक जैन श्रावक ही थे। हो लोगों ने बाद में निकाल बाहर किया। पलामू पर इस धर्म का प्रभाव सबसे कम पड़ा।

राज्य की दूसरी राजधानी दुमका से पूरब 55 किमी दूर शिकारीपाड़ा प्रखंड में मंदिरों का गांव मालूटी है। इस गांव की जानकारी देश-दुनिया को 22-23 साल पहले हुई। गांव से बाहर इस मंदिर के बारे में लोग नहीं जानते थे। यहां पहले 108 शिव मंदिर थे, लेकिन अब 75 से 80 मंदिर ही शेा हैं। बंगाल की सीमा पर स्थित होने के कारण मंदिरों की शैली पर इसका प्रभाव स्पट देखा जा सकता है। यह तंत्रा साधना का बड़ा केंद्र था। 1979 में भागलपुर के तत्कालीन आयुक्त अरुण पाठक ने पहली बार इसे देखा था। तब इसके बाद यह गांव पुरातत्व के नक्शे पर आया। इस गांव को अमेरिकी संस्था के सहयोग से संवारा जा रहा है।

भारत के लोक देवता हनुमान की जन्मस्थली के बारे में देश नहीं जानता। जबकि हनुमान पूरे देश में पूजे जाते हैं। देश को यह पता चल जाए कि हनुमान झारखंड के गुमला जिले में जन्मे थे तो यहां श्रद्धालुओं का तांता लग जाए। हनुमान का जहां जन्म हुआ वह गुमला जिले से 18 कि.मी. दूर आंजन गांव में है। इस गांव का नाम हनुमान की मां अंजनी के नाम पड़ा है। यहां से चार किमी की दूरी पर अंजनी गुफा है जो बहुत आकर्षक है। कहा जाता है कि प्राचीन समय में इस गुफा में हनुमान की मां रहती थीं और यहीं पर उन्होंने हनुमान को जन्म दिया था। अंजनी गुफा के पास एक प्रतिमा भी है जिसमें अंजनी हनुमान को गोद में लिए हुए हैं।

प्राकृतिक सुंदरता के झारखंड में कदम-कदम पर दर्शन होते हैं। हर जिले में ऐसे जलप्रपात हैं, जो सैलानियों को आकर्षित करते हैं। यहां के पहाड़ों का सौंदर्य, गिरते झरनों का संगीत और जंगलों से आती पक्षियों की सुमधुर आवाजें एक नए और स्वर्गिक आलोक की रचना करती हैं। मसानजोर डैम की अथाह जलराशि एक छोटे समुद्र का एहसास कराती है। इसी तरह पंचैत डैम, कांके डैम, हटिया डैम, गेतलसूद डैम और रांची शहर के बीच विशाल तालाब का सौंदर्य तो चकित ही करता है।

बाघों के संरक्षण का काम देश में सबसे पहले झारखंड के पलामू में शुरू हुआ। पहली गणना भी यहीं हुई। आज वह बेतला टाइगर रिजर्व के नाम से जाना है। इसके अलावा भी एक दर्जन पशु-पक्षियों के अभयारण्य राज्य में हैं, जहां हम इन्हें नजदीक से निहार सकते हैं।

यह तो सिर्फ झारखंड का एक झरोखा भर है। यहां संस्कृति की इतनी विविधता और नृत्यों की इतनी शैलियां हैं कि यहां बार-बार आने का मन करता है। झारखंड का हर गांव अपनी एक विरासत के साथ खड़ा है। यहां कुछ भी फालतू नहीं। हो सकता है, आप जिस पहाड़ पर चल रहे हों वह हिमालय से भी पुराना है। यही तो है यहां की गाथा। फिर भी पहाड़, ये झरने आपको आमंत्रित करते हैं। आइए और देखिए। यह ऐसा प्रदेश है, जहां हर बार आने और फिर जाने के बाद लगेगा कि कुछ छूट रहा है। बाजार द्वारा बना दी गई छवि से एकदम उलट और विशिष्ट। क्या ऐसे रमणीय प्रदेश में आना नहीं चाहेंगे?