नजरबंदी में भी रांची में मौलाना ने जलाई शिक्षा और आजादी की अलख

मौलाना अबुल कलाम आजाद हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल हिमायती था। रांची का सौभाग्य रहा कि नजरबंदी में उन्होंने रांची में अपना समय व्यतीत किया और रांची को तो दिया ही, यहां रहकर उन्होंने अपनी नजरबंदी का बेहतर इस्तेमाल भी किया। यहीं पर उन्होंने कुरआन की तरजुमा भी किया। कंधार से एक व्यक्ति उन्हें पैदल ही रांची मिलने आया। रांची में गोवंश को बचाने के लिए हिंदू और मुसलमानों को एक साथ खड़ा किया। कई संस्थाओं को जन्म दिया, जो आज भी हैं। मुसलमानों के शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए मदरसा की नींव रखी।

पांच अप्रैल, 1916 को रांची में रखा कदम 
28 मार्च, 1916 को बंगाल की सरकार ने उन्हें बंगाल छोडऩे का हुक्म दिया और चार दिन का समय। बाद में समय बढ़ाया और इसे चार अप्रैल तक बढ़ा दिया। आदेश के बाद मौलाना पांच अप्रैल को रांची आ गए और डाक बंगला में ठहरे। यहां की पुलिस को कोई खबर नहीं। बड़ी मुश्किल से वह आठ अप्रैल को पता लगा पाई कि मौलाना रांची में हैं। इसके बाद 13 अप्रैल को उनकी बहनें और बहनोई मोइनुद्दीन भोपाल से आए और उनके साथ ठहर गए। 15 अप्रैल को बंबई की राज्य सरकार ने भी अपनी सीमा में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी। उडि़सा-बिहार की सरकार की पुलिस ने भी उनके रांची प्रवास पर आपत्ति जताई। 21 अप्रैल को रिटायर्ड इंस्पेक्टर आफ स्कूल्स, बंगाल सरकार के मौलवी अब्दुल करीम के मोरहाबादी स्थित आवास में स्थानांतरित हो गए। बाद में काफी मशक्कत के बाद उन्हें रांची में रहने की इजाजत मिली मगर कई शर्तों के साथ। 15 अगस्त, 1917 को अंजुमन इस्लामिया की स्थापना हुई। एक सितंबर को हुई बैठक में यहां एक मदरसा स्थापित करने पर सहमति बनी। 27 जनवरी, 1918 को मदरसा इस्लामियां रांची भवन का शिलान्यास किया गया।
मौलाना रांची में चुप नहीं बैठे थे। राजनीतिक गतिविधियों पर रोक लगी थी। इसलिए वे खुले तौर पर कुछ नहीं करते थे। लेकिन उन्होंने मस्जिद में ही तकरीर करनी शुरू कर दी। मुसलमान तो सुनते ही थे, हिंदू भी सुनने के लिए मस्जिद में जाने लगे। जब कुछ लोगों ने हिंदुओं के प्रवेश पर आपत्ति जताई तो एक किताब लिखकर जवाब दिया।
मदरसा का पहला वार्षिक सम्मेलन :
मदरसा इस्लामिया का पहला वार्षिक सम्मेलन तीन से पांच नवंबर, 1918 को हुआ तो उसके उद्घाटन के मौके पर रांची के कई गणमान्य हिंदू भी शामिल हुए। इसमें कलकत्ता, सासाराम, पटना से भी लोग आए थे। उनके नाम देखकर इसका अंदाजा लगा सकते हैं-हाजी गनी लतीफ, इस्माइल मोहम्मद, नूर मोहम्मद जकारिया, दाउद अहमद, फजलुद्दीन अहमद। सभी कलकत्ता से आए थे। साथ ही यहीं से अखबार मोहम्मदी के संपादक मौलवी एकराम भी तशरीफ लाए थे। शाह सुलेमान फुलवारवी पटना से, अब्दुल अजीज, बांकीपुर, मौलाना कादिर बख्श, सहसराम, मौलवी चौधरी नजीर आलम जो उस समय रांची के डीसी थे, मौलवी अब्दुल करीम, राय बहादुर राधा गोविंद चौधरी, कालीपद घोष, राय साहब अमरेंद्र नाथ बनर्जी, राय साहब ठाकुर दास, बाबू गोरखनाथ वकील सभी रांची के। आनरेबल मिस्टर एसके सहाय के अलावा कलकत्ता से बाबू विपिन चंद्र पाल भी आए थे। कई सत्रों में यह सम्मेलन हुआ। ज्योतिंद्रनाथ टैगोर सहित यहां के कई भद्र बंगालियों ने भी हिस्सा लिया और सहयोग किया। उस दौर में रांची घूमने आए सुल्तानपुर, अवध के राजा साहब भी आए थे और उन्हें भी आमंत्रित किया गया।

मौलाना से मिलने कंधार से आया पैदल : 
इस घटना का दिलचस्प विवरण उनकी किताबों में है। घटना 1918 की है। दिसंबर की ठिठुरती ठंड में एक दिन मौलाना आजाद नमाज पढ़कर मस्जिद से बाहर निकले तो उनकी निगाह एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ी जो एक कंबल ओढ़े उनकी प्रतीक्षा में खड़ा था। मौलाना उसके पास गए और उससे पूछताछ की। पता चला कि वह सीमा प्रांत कंधार की ओर से केवल उनसे मिलने के लिए ही रांची आया है। मौलाना आजाद की उत्सुकता बढ़ी और उनके पूछने पर उसने बतलाया कि वह एक निहायत गरीब और साधारण आदमी है। वह पैदल चलकर कंधार से क्वेटा तक आया। वहां उसे अपनी तरफ के कुछ व्यापारी मिल गए। जिन्होंने किसी तरह उसे आगरा भिजवा दिया। आगरा से वह फिर पैदल चलकर रांची पहुंचा। उसकी इन बातों को सुनकर मौलाना काफी द्रवित हो उठे। उन्होंने जब उससे इतना कष्ट उठाकर रांची आने का कारण पूछा, तब उसने कहा कि पवित्र कुरआन की कुछ व्याख्या सुनने के लिए उनके पास आया है। वह व्यक्ति कई दिनों तक रांची में मौलाना आजाद के साथ रहा। लेकिन एक दिन अचानक वह बिना किसी पूर्व सूचना के वापस चला गया। मौलाना को इसका काफी दुख हुआ। मौलाना ने तरजुमानुल कुरआन उसी को समर्पित कर दिया।




गोशाला में दिया अंतिम भाषण
रांची में नजरबंद रहते हुए भी मौलाना आजाद की राजनीतिक और सामाजिक सरगर्मियां ठंडी नहीं पड़ी थी। मौलाना केवल तकरीर ही नहीं करते थे। लोगों में आजादी का जोश तो भरते ही थे, शिक्षा को लेकर अपनी चिंता को भी यहां परवाना चढ़ाया। वे हर जुमे को तकरीर करते थे। नमाज के बाद मस्जिद में हिंदू भी मौलाना का भाषण सुनने के लिए आते थे। रांची के कुछ मुसलमानों ने विरोध प्रकट किया कि ये लोग मस्जिद में क्यों आ जाते हैं? उन लोगों की आपत्ति सुनकर मौलाना ने 'जामिल सवाहिदÓ नाम की किताब लिखी। यह हिंदू मुस्लिम एकता की बेजोड़ पुस्तक मानी जाती है। रांची के गजनफर मिर्जा, मोहम्मद अली, डा. पूर्णचंद्र मित्र, देवकीनंदन प्रसाद, गुलाब नारायण तिवारी, नागरमल मोदी, रंगलाल जालान, रामचंद्र सहाय आदि उनसे अक्सर मिलते-जुलते रहते थे और आजादी पर चर्चा करते थे। 1919 में रांची गोशाला में गोपाष्टमी मेला लगा था। अंतिम दिन अपना अंतिम भाषण देकर वे रांची से चले गए। उस दिन रांची गोशाला, पिंजरापोल में हिंदू-मुसलमानों की इतनी सम्मिलित भीड़ थी, जैसा रांची के इतिहास में पहले कभी भीड़ नहीं जुटी थी। रांची से जाने के बाद दुबारा मौलाना रांची नहीं आ सके। लेकिन रांची उनके दिल में बस गई। कई महत्वपूर्ण और कालजयी काम उन्होंने रांची में ही किया। रांची को बहुत कुछ दिया भी।