संविधान सभा का अध्यक्ष बनने के बाद रांची में एक सप्ताह तक रहे थे राजेंद्र बाबू

जब 1925 में महात्मा गांधी छोटानागपुर का भ्रमण कर रहे थे, चाइबासा, खूंटी, रांची, हजारीबाग आदि क्षेत्रों में लोगों से मिल रहे थे, तभी उन्‍होंने झारखंड में खादी और गोवंश के क्षेत्र में काम करने का मन बना लिया था। ठक्कर बापा को भेजने का यही उद्देश्य था। इसके बाद उनके सपने को पूरा किया राजेंद्र प्रसाद ने। महात्मा गांधी की प्रेरणा से डा. प्रसाद ने 1928 में धुर्वा के तिरिल में नींव डाल दी। 24 एकड़ में यह संस्थान बना और नाम रखा गया, छोटानागपुर खादी ग्रामोद्योग संस्थान। इस संस्थान में खादी की बुनाई, रंगाई का काम शुरू हुआ। आगे चलकर कुछ और चीजें जुड़ीं। मधु पालन, लकड़ी और लोहे के सामान बनने लगे। साबुन का निर्माण होने लगा। सैकड़ों लोगों को रोजगार मिला। गांधी के स्वरोजगार का यह मूर्तिमान प्रतीक था। यह संस्थान खादी के प्रचार-प्रसार का काम ही नहीं करता था, बल्कि उस समय आजादी में अपनी भूमिका निभाने वालों का भी यह एक तरह से केंद्र बन गया था। कई लोग बाहर से भी यहां आकर रहे। इसमें प्रसिद्ध गीतकर शंभूनाथ सिंह, मोती बीए और जगदीश त्रिगुणायत का नाम उल्लेखनीय है। शंभूनाथ सिंह व मोती बीए तो बाद में चले गए, लेकिन जगदीश जी यहीं रह गए। खूंटी में अध्यापन कार्य किया। बाद में एचइसी से जुड़ गए और यहीं से सेवानिवृत्त हुए। जगदीशजी 1941 से 46 तक इसी आश्रम में रहे। उन्होंने लिखा है कि जब राजेंद्र प्रसाद को जुलाई 1946 में संविधान सभा का अध्यक्ष नियुक्त किया गया तो तुरंत बाद वे स्वास्थ्य लाभ के लिए रांची आए और एक सप्ताह तक तिरिल आश्रम में रहे। उनकी सेवा-सुश्रुषा की जिम्मेदारी जगदीशजी की थी। एक सप्ताह तक प्रसाद का सानिध्य जगदीशजी को मिला।
  जगदीशजी यहां रहकर कई ऐतिहासिक काम किया। मुंडारी लोक कथा और लोकगीतों का संकलन किया। इसके बाद डोंबारी बुरू के निर्माण में अहम भूमिका निभाई। खूंटी जिले में लड़कियों के लिए स्कूल का जाल बिछवाया। मुंडारी गीतों की प्रतियोगिता करवाई। 2010 में उनका निधन उनके पैतृक जिले उत्तर प्रदेश के देवरिया में हुआ। यानी, तिरिल आश्रम कई चीजों का गवाह भी है। कई लोगों की स्मृतियां यहां से जुड़ी हैं।
यह अलग बात है कि आज इसकी हालत पतली हो गई है। राज्य सरकार ने इस ऐतिहासिक संस्थान के बारे में तनिक भी ध्यान नहीं दिया। यहां से जुड़े सैकड़ों कातिन-बुनकर धीरे-धीरे बेरोजगार होते गए और साबुन से लेकर लकड़ी के सामान बनने का काम भी बंद होता चला गया। महात्मा गांधी ने घर-घर चरखा का स्वप्न देखा था। राजेंद्र प्रसाद ने इसीलिए इसकी स्थापना की थी कि यह बड़ा केंद्र बनेगा और यहां के आदिवासियों को रोजगार देगा। लेकिन उनका सपना दम तोड़ रहा है। बाबू राजेंद्र प्रसाद को याद करते समय हम उनकी इस नींव को बुलंद इमारत में बदल सकते हैं। हालांकि इसके पास जमीन की कमी नहीं है। शहीद चौक के पास अपना विशाल आउटलेट है। राज्य सरकार ध्यान दे तो वह हजारों लोगों को रोजगार दे सकता है यह संस्थान। डोरंडा में उनकी आदमकद प्रतिमा जरूर है, लेकिन बेहतर हो कि तिरिल आश्रम जिसके लिए बना था, वह पूरा हो।