झारखंड के अंचल में

डॉ रामखेलावन पांडेय
देहात को मैंने प्रेमचंद की आंखों से देखा था-इसे स्वीकार करने में मुझे किसी प्रकार का संकोच नहीं, किसी प्रकार की दुविधा नहीं, अत: मोटरों की पों-पों, और कोलाहल, शहर की उड़ती धूल और गंदगी तथा कर्माकुल व्यस्त जीवन से त्राण या झारखंड के एक अंचल में-सभ्यता और कृत्रिमता से दूर देश में, जब रहने का अवसर मिला तब मुझे मालूम पड़ा जैसे सारी दुनिया पीछे छुट आयी है। यह अंचल जाना हुआ तो है, मगर पहचान नहीं। कभी पहचानने की चेष्टा भी नहीं की थी मैंने। मुझे लगा जैसे यहां की घड़ी की सुइया तक शिथिल हो गई हैं। यहां काल प्रवाह है ही नहीं, एक विचित्र आलस, एक अनुभूति निश्ंिचतता इस रहस्यमय अंचल को घेरे पड़ी है। सघन हरीतिमा की छाया में मानवता जैसे स्वप्न देख रही हो, उस युग का जिसमें संघर्ष न था, संघर्ष का उन्माद न था। नीली-नीली दूर तक फैली पहाडिय़ां धरती की छाती की भांति फूल उठी हैं और उन्हें घर कर उजले, लाल, पीले और अनेक रंगों के बादलों के टुकड़े प्रकृति का सिंगार कर रहे हैं। यह सौंदर्य अपरिचित सा ही लगा मुझे! पहाडिय़ां देखी थी मैंने, उड़ते बादलों के रंगीन पख भी देखे थे, पर जान पड़ा, ऐसा सौंदर्य तो था नहीं उनमें। ऊंचा सा टीला-पत्थरों का जमघट-एक आध लहलहाते पौधे और ऊपर आसमान में शरदपूनों का हंसता हुआ चांद बादलों की गोद में खेलता-सा, फुदकता-सा जान पड़ा। नदी के उस पार से कोई मिलन-संदेश भेज रहा हे-कितना विषादमय कितना करुण, किंतु कितना मादक!  पास में था झरता हुआ क्षीण पहाड़ी झरना, पर स्पष्ट। स्वर के इनके गीत आधी रात में भटकने पर मोहक हो उठे।
इस ऊबड़खाबड़ अंचल की काली-काली चट्टानों को देखकर मैंने सोचा था, यहां के अधिवासी भी उन्हीं पत्थरों की भांति जड़ और शिथिल हैं। यह बात भी नहीं कि वैसे लोगों का अभाव है वहां, जिनके अविराम जीवन में दिन-मास-वर्ष की कोई गणना नहीं। वे चर्चिल और हिटलर को नहीं जानते, शायद गांधी और जिन्ना को भी नहीं! स्वभाव में एक विचित्र रुखाई-मिली सरलता है। सरलता जो मूर्खता की सीमा में घुसती जान पड़ती है। सच मानों, मुझे दो ही चीजें यहां प्रचुर मात्रा में मिली-एक ठंडा पानी और दूसरी सरलता। किंतु उन चट्टानों के बीच से दबकर निकलने वाले झरने भी हैं, सुस्वादु जल से पूर्ण, पर्वत की करुणा और स्नेह के प्रतीक।
गरीबी यहां खुलकर झांकती है-लोगों के चीथड़ों से। उसे किसी प्रकार की लजा नहीं, संकोच नहीं, झिझक नहीं। और, अमीरी उस पर हंसती है, खिलखिला कर, मचल-मचलकर। शहरों की गरीबी जैसी यहां की गरीब नहीं, वह इस तरह खुल कर झांकती भी नहीं-शरमा कर चलती है, लज्जा के भार से झुकी सी। अमीरी यहां धूर्तता की अमरलता है जो गरीबी की डाल पर फैलती है, शोषण ही जिसकी नीति है।
पढ़ा करता था-पहाड़ी देशों के लोग सबल होते हैं, कारण उनका प्रकृति के साथ निरंतर संघर्ष जो चल रहा है और संघर्ष में उसी की रक्षा संभव है, जो सबल है। संघर्ष यहां का जीवन नहीं, जीवन है, सहयोग, प्रकृति के साथ निरंतर सहयोग। बादल पानी बरसाते हैं, ऊंचे-नीचे खेतों की मिट्टी खुरेद लोग धरती माता के पेट में अन्न डाल देते हैं और माता का स्नेह फूट पड़ता है हरियाली के रूप में। हवा के झोंके के चंचल हरीतिमा जैसे जीवन की लहर हो। लोग इसलिए आलसी हैं, नितांत आलसी, निष्क्रियता की सीमा तक पहुंचने वाले आलससागर में निमग्न हैं। पेट में थोड़ा अन्न हो, अंग ढंकने को मात्र आवरण, बस इतना ही पर्याप्त है। उनके लिए अतीत नहीं, भविष्य भी नहीं, केवल वर्तमान है। वर्तमान परिश्रम से चूर, अभाव से पूर्ण, किंतु अभाव उन्हें खलता नहीं, भाव यहां कभी दिखा जो नहीं। निंदा, ईष्र्या, द्वेष और कलह का मूल कारण है यही आलस। शरीर बैठा रहेगा पर मन तो नहीं। और बेकार मन की यही खुराक है। शहरों के कर्म-संकुल जीवन में इतना अवकाश कहां जो लोग दूसरों की ओर देखें। क्या अपनी ही दौड़ कम है?
मैं ऐसी भाषा सीख कर यहां आया था जो भाव छिपाना जानती है, बनावटी है, कृत्रिम है। सभ्यता आखिर अपनी प्रकृति को छिपाने का ही नाम तो है, किंतु यहां की भाषा, इसे जंगली भले न कहूं, सभ्य तो कह नहीं सकता।
बंगाल के संपर्क में आया हुआ यह प्रदेश शक्ति का उपासक है, हिंसा का, बलिदान का। दुर्गा और काली पूजा के अवसरों प मनुष्य की पशुता नाचती सी दीख पड़ी। निकट स्थित गया में आकर गौतम को बुद्धत्व मिला, किंतु मालूम होता है अहिंसा की गंध इस मिट्टी को नहीं मिली।
मनुष्य सभी को अलग-अलग कर देखने का अभ्यस्त है। ऊंच-नीच, राजा-रंक, अमीर-गरीब, काला-गोरा, सुंदर-असुंदर का भेद सर्वत्र है। शिक्षित और अशिक्षित का भेद भी इधर कम नहीं, किंतु वहां का यह भेद इतना प्रबल है कि जर्मनी में जर्मन और यहूदियों में क्या रहा होगा। भय यहां जीवन की कुंजी है, सर्वत्र ही है, किंतु भूतों का भय जैसे यहां दीख पड़ा वैसा कहीं नहीं। लड़कों और स्त्रियों की बात करें, अच्छे खासे तगड़े जवान भी भूतों की कहानी सुन अकेले आंगन में नहीं निकलते।
यह रही झारखंड के एक अंचल की झांकी-धूमिल और स्पष्ट रेखाओं में सीमित सी, किंतु वास्तव में कितनी असीम, कितनी विस्तृ।  

श्‍यामल की कहानियां -कहानी के भीतर कहानी

  कहानी की सिमटती दुनिया और सीमित अनुभव में कहानी रचाव के इस दौर में श्यामल बिहारी श्यामल अपनी कहानियों में सिर्फ एक भूगोल तक सीमित नहीं रहते। उनका दायरा किसी एक शहर तक सीमित नहीं रहता।  वैविध्यपूर्ण विषय और देखने की एक गहरी अंतरदृष्टि हमें समकाल से जोड़ती भी है और समकाल के कथाकारों से विलगाती भी है। हिंदी पाठकांे की लगातार सिमटती दुनिया में, जिसके लिए एक हद तक लेखक और उनका गिरोह  जिम्मेदार है-श्यामल इस बंद गली से निकल एक अलग और अपनी दुनिया आबाद करते हैं। इसलिए, उनकी कहानियां हमारे प्रबुद्ध आलोचकांे की नजर में नहीं चढ़ पातीं। पर जब इन कहानियों से गुजरने की ईमानदार कोशिश हो तो हम अपने समय को इसमें पाते हैं। बनारस से लेकर पलामू, रांची धनबाद की अलग-अलग संस्कृति, भाषा, समाज और उनकी रोजमर्रा की समस्याओं, चिंताआंे, फितूरों से हम रूबरू होते हैं। श्यामलजी पत्रकार हैं। इस नाते इन जगहों और यहां की गलियों, घरों, सड़कों पर घूम रहे पात्रों से बोलते-बतियाते ही इन कहानियां का जन्म हुआ है।
  बारह कहानियों के इस संग्रह में हर कहानी के भीतर एक कहानी छिपी हुई है। इसके कहने का आशय और अर्थ भी है। ‘कागज पर चिपका समय’ संग्रह की पहली कहानी है, जो बनारस पर है और अंतिम कहानी, ‘चना चबेना गंगजल भी बनारस पर। इनके भीतर पलामू, रांची और धनबाद है। पहली कहानी में हमें बनारस की वही चिरपरिचित भाषा की मिठास से साबका होता है-‘अरे भाईजान! गुरुआ ने तो नया किला भी फतह कर लिया! उसके कमरे में काफी देर से रीतिकाल छाया हुआ है। मैं एक बार आधा घंटा पहले टायलेट की तरफ से हो आया हूं, चलिए न एक बार उधर से और हो लिया जाये।’
   कहानी का यह पहला पैराग्राफ पाठक को उत्सुक बना देता है। जो बनारसी रंग को जानते हैं, वह गुरु और रीतिकाल के लक्षणार्थ से भी खूब परिचित होंगे। यह खुसूर-फुसूर बनारस के दूरदर्शन केंद्र के एक आफिस में होती है। इस कहानी में आगे क्या है, उसे आप पढि़ए, पर इसमें एक कंसेप्ट है, जो एक दूसरी कहानी को जन्म दे सकता है। दूरदर्शन के लिए एक कार्यक्रम बनाने की तैयारी चल रही है और यह कार्यक्रम भूमिहीनों और शोषितों पर कंेद्रित है। ये भूमिहीन और शोषित कौन हैं? यह आगे खुलता है-‘अरे भाई, हरहुआ के लमही गांव से लेकर पांडेयपुर और बनारस मेन सिटी में इधर जगतगंज तक का इलाका ही तो मंुशी प्रेमंचद की चौबीस घंटे सक्रियता का मूल क्षेत्रा था। लमही में जन्म और जगतगंज में निधन तो, यहां के ढेरों शोषित-दमित पात्रा उनके साहित्य में अमर हैं, ऐसे पात्रांे की दूसरी और तीसरी पीढ़ी के ज्यादातर लोग आज वैसी ही दशा में जीवन खेप रहे हैं...’
  प्रेमचंद का जब निधन हुआ तो देश गुलाम था। फिर आजादी मिली 1947 में। इसके भी हासिल किए 67 साल हो गए और प्रेमचंद के पात्रा आज भी वैसी ही दशा में हैं। यानी, दूसरी-तीसरी पीढ़ी की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ जबकि न जाने कितनी पंचवर्षीय योजनाएं आईं और चली गईं। गांव में रहने वाली 80 प्रतिशत आबादी की फिक्र देश की किसी भी सरकार ने नहीं की। नारे जरूर लगाए। एक और बात, हमने इतनी जरूर तरक्की कर ली है कि प्रेमचंद के किसानों के सामने संकट जाहे जिस रूप में आए, पर वे आत्महत्या नहीं करते थे, पर हमारी नीतियों ने इतना जरूर विकास किया कि किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है। हमारा बैंक, हमारी सरकार विजय माल्यों जैसों के प्रति बहुत उदार रहती है। कुछ ऐसे पूंजीपती भी हैं, जिनका हजारों करोड़ का कर्ज एक झटके में हमारी सरकार माफ कर देती है और जबकि चंद हजार रुपये के लिए हमारे किसान आत्महत्या कर लेते हैं। जो अन्न देता है, उसे हम भूखा मार देते हैं।
  इसके भीतर एक और कहानी उभरती है-रुखसाना महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से जुड़कर बनारस के बुनकरों पर शोध कर रही है....अखबारों मे रोज आ रहा है कि बनारस के बुनकर पलायन कर रहे हैं। रोज एक न एक की खुदकुशी की खबर दर्दनाक तस्वीर सहित छप रही है उन पर सूदखोरों के जुल्म की बातें भी सामने आती रहती हैं। यह भी शोर कि बनारसी साड़ी उद्योग मर रहा है, लेकिन इसकी मार्केटिंग करने वालों के रुतबे पर तो कोई असर नहीं।’-जो हाल किसानों की, मजदूरों की, वही हाल बुनकरों की। गर्दन में फांस यहां भी है। 67 सालों में जैसे समय ठहर गया है, कागज पर चिपक गया है।
  ‘आना पलामू’ यह संग्रह की चौथी कहानी है। पलामू श्यामलजी का घर भी है। 1998 में पलामू के सूखाड़-अकाल पर ‘घपेल’ नामक उपन्यास उनका आ चुका है। यह कहानी सुखाड़-अकाल पर नहीं है, पर इससे उपजी परिस्थितियों पर है। पलामू एक अजीब जिला है। ऐसा कि इसकी भूमि पत्राकारों की अपनी खींचती रही है-पी साईनाथ, रामशरण जोशी, महाश्वेता देवी, फणीश्वरनाथ रेणु, अज्ञेय...किसने नहीं लिखा और क्या नहीं लिखा, लेकिन पलामू नहीं बदला। 1880 में संजीब चटृोपाध्याय ने ‘पलामू’ लिखी। तब से पलामू यही है, यहां भी समय जैसे कागज पर चिपक गया है। मजा देखिए, यहां से निकले नेता झारखंड और देश में अपनी पहचान बनाए-कोई केंद्रीय मंत्राी बना, कोई राज्यपाल...पर पलामू की किस्मत नहीं बदली। आज स्थिति और भी बदतर है। यहां अकाल से निपटने के लिए चालीस-चालीस से डैम बनाए जा रहे हैं। ये आज तक पूरे नहीं हुए, लेकिन हर साल इसकी राशि बढ़ जाती है। तो पलामू यह है और इस उर्वर पलामू में नक्सलवाद नक्सलबाड़ी से चलकर पड़ाव डाला जो अब अपना घर बना लिया है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि झारखंड में नक्सलवाद का प्रवेश इसी मुहाने से हुआ और आज माओवाद के अलावा एक दर्जन संगठन सक्रिय हैं, जिसे कुछ पुलिस ने भी माओवाद से निपटने के लिए खड़ा किया है। लोहा से लोहा को काटने के लिए हमारी पुलिस के पास यही उपाय है! सो, इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ता है, जो शहर नहीं जंगलों के बीच बसे गांवों में रहते हैं। यह कहानी कुछ ऐसे ही सवाल खड़ा करती है और माओवाद को लेकर द्वंद्व को भी। एक दूसरी कहानी, इसी की पूरक है-छंद में हाहाकार। इस कहानी में बस एक ही दृश्य है-जन अदालत की। जन अदालत चरमपंथी गुट की। खुलासा नहीं किया गया है कि यह माओवादियों की है या दूसरे चरमपंथी गुट की। पलामू में एक दर्जन ऐसे संगठन सक्रिय हैं-ये भी जन अदालत लगाकर अपने दोषियों को अपने ढंग से सजा देते हैं। यहां भी औरंगा नदी के तट पर घने जंगल में जन अदालत लगी है, जिसमें चार मामले आए हैं-गोसाईडीह की पिरितिया के साथ बलात्कार का मामला, गंझू परहिया की पुलिस मुखबिरी का केस, डाकू रामसूरत यादव का मुकदमा और सरकारी संत बनकर जनता को भड़काने वाले कृषि विज्ञानी रामचंद्र मिश्रा का मुद्दा। पिरितिया के साथ बलात्कार कोई सवर्ण नहीं करता है, बल्कि पलामू में चेरो आदिवासी। वह इस तरह की कई वारदातें कर चुका है, बकौल कहानीकार। गंझू परहिया, डाकू रामसूरत। सबको सजा दी जाती है-वह सजा है मौत की, लेकिन रामचंद्र बच जाते हैं क्योंकि उन पर झूठे आरोप लगे थे। वे गांवों में कृषि का कायाकल्प कर गांव के लोगांे को रोजगार मुहैया कराते हैं। जो मजूदर पलायन करते थे, वह रुक गया है। यानी, मिश्रा जी यहां हितचिंतक के तौर पर उभरते हैं और इनका मामला जांच का विषय बन जाता है और इस तरह वे जन अदालत से छूट जाते हैं। गांव की एक महिला बताती है कि ये भले आदमी हैं- ‘ऐ बाबू्! ई सही आदमी हथ! जौना-जौना गांव में इनकर काम चलत हई, उहां के लोगन के अब शहर जाके मजूरी करे के जरूरत नइखे। गांव के जे अदमी पच्चीस-तीस रोपेया कमाये खातिर बीस कोस दूर शहर-बाजार जाइत रहन उ गांव में इनकरा साथ काम करके रोज सौ रोपेया कमात हथिन!...’ इस तरह मिश्रा जी बच जाते हैं। दरअसल दोनों कहानी आपको भी आमंत्रित करती है, आइए पलामू और फिर देखिए, ‘जन्नत’ की हकीकत।
  अंतिम कहानी ‘चना चबेना गंगजल’ है। यह खांटी बनारसी कहानी है। यहां अस्सी का चौराहा भी है और घाट भी है। छल-छद्म की चादर ओढ़े आचार्य। और उनको हर दिन गरियाता उनका एक पूर्व साथी, जिसने गाढ़े समय में उनकी मदद की थी। कहानी अस्सी चौराहे से निकलकर घाट की ओर जाती है जहां एतवारू मिलते हैं-अरे हम कौनो बाबा-फाबा नाहीं हैं! क्ेवल बंस के हैं। गंगाजी में से बूड़ल लाश खोजकर निकालते हैं। यह एतवारू ही उस आचार्य को हर संझा गरियाने जाते हैं। क्यों, इसकी एक कहानी है, जो आहिस्ता-आहिस्ता खुलता है। निश्च्छल और ईमानदार। जिस लाश को गंगाजी में से पुलिस भी नहीं ढूंढ पाती, उसे एतवारू बहुत आसानी से खोज निकालते हैं।  इस विषय पर कोई कहानी दिखाई नहीं दी, जिसने एतवारू जैसे पात्रा पर कहानी लिखी हो, जबकि बनारस से कई ख्यात कहानीकार निकले। कहते हैं, कहानी तो अपने आस-पास बिखरी होती हैं, उसे देखने वाली नजर चाहिए। घुमक्कड़ मन चाहिए। डांइग रूम में बैठकर कहानी नहीं लिखी जा सकती न खूब प्रयास से। इस कहानी में हम बनारस को महसूस कर सकते हैं, उसकी धड़कन को, उसकी संस्कृति को।
  ‘अट्टाहास काल’ हमारी छिजती संवेदना की कहानी है। मणिकर्णिका के बारे में हम सब जानते हैं यहां चिता की आग कभी ठंडी नहीं होती है। 24 घंटे चिता की लपटें उठती रहती हैं। पर, कहानी यह नहीं है। कहानी यह है कि गांव वाले एक स्वाभाविक मृत्यु को कैसे भजाते और लाश पर राजनीति करते हैं और मुआवजा वसूलते हैं। लाश की राजनीति राजनेता करते रहे हैं लेकिन गांव वाले ऐसा करें तो समझना चाहिए शहर की जो बारूदी हवा अब गांवों की ओर मुड़ गई है। गांव अपने भोलेपन के लिए जाना जाता है, लेकिन आज के समय में यह बात अब नहीं कही जा सकती है। कहानियां और भी हैं और पात्रा भी। प्रेत पाठ भी रहस्य के आवरण में लिपटी एक कौतूहल पैदा करती है। पत्तों की रात, निद्रा नदी, सीधान्त, बहुत कुछ अलग-अलग स्वाद रचती हैं। वरिष्ठ कथाकार राजेंद्र राव ने व्लर्ब पर ठीक ही लिखा है, ‘ये कहानियां पाठक को लोकजीवन के नैसर्गिक प्रवाह में बड़ी कुशलता से बहा ले जाती हैं।’ इन कहानियों में कई-कई भूगोल देखते हैं। कई-कई भाषा देखते हैं और इस वैविध्यपूर्ण रोशनी में हम अपने समय और समाज को देखते हैं। हमारे लोकजीवन पर चढ़ता शहरी रंग और इस रंग में बदरंग होते मानवीय रिश्ते, स्वार्थ की परछाइयों में अपना ही बौना होता कद और थरथराती-कांपती नदियों से अपना दुखड़ा सुनाते पलामू के पहाड़-जंगल....बिना किसी लाग-लपेट और बनावटी भाषा के।    

साभार, लमही से।


शहीद शेख भिखारी

सन् 1857 की क्रांति ने भारतीय इतिहास में एक नए अध्याय की शुरुआत की। इसे भारतीय आजादी का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है, लेकिन आदिवासी क्षेत्रों में अंग्रेजों से लड़ाई का सिलसिला 1857 से पहले ही शुरू हो गया था। हां, जंगल की आग मैदानों तक नहीं पहुंच पाई थी। 1857 की क्रांति ने पूरे देश में आजादी की चिंगारी को सुलगा दिया और इस चिंगारी से छोटानागपुर का पहाड़-पठार भी धधकने से बच नहीं सका। यहां तो बहुत पहले से ही चिंगारी रह-रहकर सुलग उठती थी, लेकिन 1857 की कहानी एक नया मोड़ देती है।
इस राष्ट्रव्यापी पहली क्रांति 1857 में शेख भिखारी ने भी अहम भूमिका निभाई। एक निहायत सामान्य बुनकर परिवार में शेख भिखारी का जन्म रांची जिले के ओरमांझी थाना अंतर्गत खुदिया गांव में 1819 में हुआ था। बचपन से वह अपने खानदानी पेशा, मोटे कपड़े तैयार करना और हाट बाजार में बेचकर अपने परिवार की परवरिश में सहयोग करते थे। जब वे 20 वर्ष के हुए तो उन्होंने छोटानागपुर के महाराज के यहां नौकरी कर ली। परंतु कुछ ही दिनों के बाद अपनी प्रतिभा और बुद्धिमत्ता के कारण उन्होंने राजा के दरबार में एक अच्छी मुकाम प्राप्त कर ली। बाद में बड़कागढ़ जगन्नाथपुर के राजा ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव ने उनको अपने यहां दीवान के पद पर रख लिया।  शेख भिखारी के जिम्मे बड़कागढ़ की फौज का भार दे दिया गया। उस फौज में मुस्लिम और आदिवासी नौजवान थे।
1856 ई में जब अंगरेजों ने राजा महाराजाओं पर चढ़ाई करने का मंसूबा बनाया तो इसका अंदाजा देश के राजा-महाराजाओं को होने लगा था। जब इसकी भनक ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को मिली तो उन्होंने अपने वजीर पांडेय गणपतराय, दीवान शेख भिखारी, टिकैत उमरांव सिंह से सलाह-ममशवरा किया।
इन सभी ने अंगरेजों के खिलाफ मोर्चा लेने की ठान ली और जगदीशपुर के बाबू कुंवर सिंह से पत्राचार किया। इसी बीच में शेख भिखारी ने बड़कागढ़ की फौज में रांची एवं चाईबासा के नौजवानों को भर्ती करना शुरू कर दिया। अचानक अंगरेजों ने 1857 में चढ़ाई कर दी।
 विरोध में रामगढ़ के हिंदुस्तानी रेजिमेंट ने अपने अंगरेज अफसर को मार डाला। नादिर अली हवलदार और रामविजय सिपाही ने रामगढ़ रेजिमेंट छोड़ दिया और जगन्नाथपुर में शेख भिखारी की फौज में शामिल हो गए। इस तरह जंगे आजादी की आग छोटानागपुर में फैल गई। रांची, चाईबासा, संताल परगना के जिलों से अंगरेज भाग खड़े हुए।
चाईबासा के अंसारी नौजवान अमानत अली, सलामत अली, शेख हारू तीनों सगे भाइयों ने दुमका के अंगरेज एसडीओ को मार डाला। इस घटना से छोटानागपुर में दहशत फैल गई और यह क्षेत्र अंगरेज अफसरों से खाली हो गया। इस खुशी में ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव रांची डोरंडा में जश्न मनाने लगे। इसी बीच अंगरेजों की फौज जनरल मैकडोना के नेतृत्व में रामगढ़ पहुंच गई और चुट्टूपालू की पहाड़ी रास्ते से रांची के पलटुवार चढऩे की कोशिश करने लगी।
 उनको रोकने के लिए शेख भिखारी, टिकैत उमराव सिंह अपनी फौज लेकर चुट्टूपालू पहाड़ी पहुंच गये और अंगरेजों का रास्ता रोक दिया। शेख भिखारी ने चुट्टूपालू की घाटी पार करनेवाला पुल तोड़ दिया और सड़क के पेड़ों को काटकर रास्ता जाम कर दिया। शेख भिखारी की फौज ने अंगरेजों पर गोलियों की बौछार कर अंगरेजों के छक्के छुड़ा दिय। यह लड़ाई कई दिनों तक चली।
 शेख भिखारी के पास गोलियां खत्म होने लगी तो शेख भिखारी ने अपनी फौज को पत्थर लुढ़काने का हुक्म दिया। इससे अंगरेज फौजी कुचलकर मरने लगे। यह देखकर जनरल मैकडोन ने मुकामी लोगों को मिलाकर चुट्टूघाटी पहाड़ पर चढऩे के लिए दूसरे रास्ते की जानकारी ली। फिर उस खुफिया रास्ते से चुट्टूघाटी पहाड़ पर चढ़ गये। इसकी खबर शेख भिखारी को नहीं हो सकी। अंगरेजों ने शेख भिखारी एवं टिकैत उमराव सिंह को छह जनवरी 1858 को घेर कर गिरफ्तार कर लिया और सात जनवरी 1858 को उसी जगह चुट्टूघाटी पर फौजी अदालत लगाकर मैकडोना ने शेख भिखारी और उनके साथी टिकैत उमरांव को फांसी का फैसला सुनाया।
 आठ जनवरी 1858 को आजादी के आलमे बदर शेख भिखारी और टिकैत उमराव सिंह को चुट्टूपहाड़ी के बरगद के पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गयी। वह पेड़ आज भी सलामत है। यह पेड़ आज भी हमें उनकी याद दिलाता है और यहां पर हर साल शहीद दिवस के मौके पर कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। 

चंपारन, गांधी और रांची

चंपारन आंदोलन का यह सौंवा साल चल रहा है। इन सौ सालों में बहुत कुछ बदला और इसके साक्षी हम सभी हैं। देश को आजाद हुए भी 69 साल हो गए है और समाज ही नहीं, देश की राजनीति ने भी अपना एक नया कलेवर और चरित्रा धारण कर लिया है। यह रोज-रोज दिखाई देता है। इस राजनीति में विलग आज चंपारन को फिर-फिर पढ़ने-देखने की जरूरत महसूस हो रही है ताकि हम देख सकें कि उस दौर में चंपारन के लोगों ने, उस समय के अपने तमाम बड़े नेताओं, खासकर, बिहार में भी, रहते हुए आखिर मोहनदास करमचंद गांधी में अपनी मुक्ति क्यों देखी? जबकि चंपारन के किसानों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं थी। कानपुर का ‘प्रताप’ अखबार और बिहार से प्रकाशित ‘बिहार बंधु’ में चंपारन के दुख-दर्द-दुर्दशा की कहानियां प्रकाशित होती रहती थीं। तब भी कोई ‘बड़ा’ नेता किसानों की समस्याओं को दूर करने की पहल करते नहीं दिखाई देता है। तो क्या, प्रकृति अपना काम कर रही थी या कोई अदृश्य शक्ति? एक लंबे समय से नीलवरों द्वारा प्रताडि़त रैयतों को जब मोहनदास करमचंद गांधी का साथ मिला तो एक दो साल में ही चंपारन नीलवरों के अत्याचार से आजाद ही नहीं हुआ, बल्कि नीलवरों को अपना बोडि़या-बिस्तर भी समेटना पड़ा। यद्यपि, इसी समय यानी 1916-17 में ही नई तकनीक से नील बनाने की कला इजाद हो गई थी, जिसके कारण भी यह धंधा रसातल की ओर जा रहा था। इसलिए भी नीलवरों को अपना धंधा समेटने के अलावा कोई दूसरा विकल्प उनके सामने नहीं था।
यदि इस पूरे आंदोलन पर नजर डालें तो दो बातें निकलकर आती हैं। पहला यह कि भारत लौटने के बाद गांधी ने पहला आंदोलन अपने हाथ में लिया और अहिंसा के अस्त्रा से इस आंदोलन में जीत हासिल की। उनका आत्मविश्वास भी इस आंदोलन से बढ़ा और दूसरा यह कि मोहनदास से महात्मा की राह यहीं से शुरू हुई, जो असयोग आंदोलन में और पुख्ता हुई। गांधी के अध्येता यह भली-भांति जानते हैं। ‘मोहनदास’ से ‘गांधी’ और फिर ‘महात्मा’ की यात्रा का उत्स यही चंपारन ही था। चंपारन एक ऐसा पड़ाव है, जहां से गांधी की प्रतिष्ठा और पहचान जुड़ी है। गांधी के इस आंदोलन में कूदने के कई फायदे हैं और उनके शांतिपूर्ण आंदोलन के कारण अंग्रेजांे को अपनी क्रूरता पर तरस आया और फिर वे अपने शोषण पर तार्किक ढंग से विचार करने और किसानों के पक्ष में कानून बनाने के लिए बाध्य हुए। इसका बहुत कुछ श्रेय गांधी को जाता है और गांधी को नीलहे गोरों की करतूत के बारे में जानकारी देने वाले राजकुमार शुक्ल को भी, जो गांधी को चंपारन ले आए। इसके लिए उन्होंने काफी मुश्किलों का सामना किया। इस आंदोलन में नींव के पत्थर की तरह काम किए राजकुमार शुक्ल। इन्हें भी जानना जरूरी है। यह वही थे, जिन्होंने गांधी को पं चंपारन चलने के लिए बाध्य किया। इसका जिक्र खुद गांधीजी ने भी किया है। गांधीजी ने पूरी ईमानदारी से यह स्वीकार किया है कि चंपारन आंदोलन की सफलता के कारण ही वे भारत से भी अंग्रेजों को खदेड़ने में कामयाब हुए। लुई फिशर ने भी इसका उल्लेख अपनी पुस्तक ‘गांधी की कहानी’ में किया है। लुई के शब्द हैं- ‘जब मैं 1942 में सेवाग्राम आश्रम में गांधीजी से पहलीबार मिला तो उन्होंने मुझसे कहा-‘‘मैं तुम्हें बतलाउ$ंगा कि वह कौनसी घटना थी, जिसके कारण मैंने अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर जोर देने का निश्चय किया। यह घटना 1917 की है।’’
फिशर ने आगे कहा है, -गांधीजी कांग्रेस के दिसंबर 1916 के लखनउ$-अधिवेशन में शामिल होने लिए गए थे। गांधीजी ने लिखा है--‘जब कांग्रेस की कार्रवाई चल रही थी, एक किसान, भारत के अन्य किसानों की तरह गरीब और कृश तन दिखाई देने वाला मेरे पास आया और बोला-मैं राजकुमार शुक्ल हूं। मैं चंपारन से आया हूं और चाहता हूं कि आप मेरे जिले में चलें।’ गांधीजी ने चंपारन का नाम पहले कभी नहीं सुना था। यह लुई जोड़ते हैं।
‘बहुत दिनों से चली आ रही व्यवस्था के अनुसार चंपारन के किसान तीन कठिए थे। राज कुमार शुक्ल भी ऐसे किसानों में थे। वह कांग्रेस-अधिवेशन में चंपारन की इस जमींदारी प्रथा के विरुद्ध शिकायत करने आए थे और शायद किसी ने उसे सलाह दी थी कि गांधीजी से बात करें।’
गांधीजी अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में भी इस घटना का जिक्र करते हैं,- मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि वहां जाने से पहले मैं चंपारन का नाम तक नहीं जानता था। नील की खेती होती है, इसका ख्याल भी नहीं के बराबर था। नील की गोटियां मैंने देखी थीं, पर वे चंपारन में बनती हैं, और उनके कारण हजारों किसानों को कष्ट भोगना पड़ता है, इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं थी।’...‘राजकुमार शुक्ल नामक चंपारन के एक किसान थे। उन पर दुख पड़ा था। यह दुख उन्हें अखरता था। लेकिन अपने इस दुख के कारण उनमें नील के इस दाग को सबके लिए धो डालने की तीव्र लगन पैदा हो गई थी। जब मैं लखनउ$ कांग्रेस में गया तो वहां इस किसान ने मेरा पीछा पकड़ा।’
राजकुमार शुक्ल ने गांधीजी ने चंपारन आने का निवेदन किया और बताया कि इस बारे में वकील बाबू यानी गांधी के प्रिय साथी ब्रजकिशोर बाबू आपको सब बता देंगे। यही हुआ।
गांधीजी आगे लिखते हैं-मैंने उनसे चंपारन की थोड़ी कथा सुनी। अपने रिवाज के अनुसार मैंने जवाब दिया, ‘खुद देखे बिना इस विषय पर मैं कोई राय नहीं दे सकता। आप कांग्रेस में बोलिएगा। मुझे तो फिलहाल छोड़ ही दीजिए।’ राजकुमार शुक्ल को कांग्रेस की मदद की तो जरूरत थी ही। ब्रजकिशोर बाबू कांग्रेस में चंपारन के बारे में बोले और सहानुभूति-सूचक प्रस्ताव पास हुआ।’
गांधी को राजकुमार शुक्ल ने इस बात के लिए मना लिया कि वे अपनी आंखों से चंपारन को देखें। गांधी ने तिथि बता दी और कलकत्ते जाकर गांधी को चंपारन ले आए। गांधी ने चंपारन को देखा। चंपारन के साथ-साथ छुआछूत से सामना हुआ। कई और समस्याआंे को देखा। निलहे के अत्याचार के साथ-साथ छुआछूत और शिक्षा पर भी गांधी ने ध्यान दिया और इस तरफ भी कदम बढ़ाए। पूरे आंदोलन पर दृष्टिपात करें तो इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि एक तरह से चंपारन ने ही गांधी को गढ़ा और आगे का रास्ता दिखाया। चंपारन के अनुभव ने आजादी के आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई।
पर, इस पूरे आंदोलन में राजकुमार शुक्ल के साथ कई लोग जुड़े थे, जो सिर्फ इतिहास में सिमट कर रह गए और रांची, जहां चंपारन की कार्यवाहियां हुई, आंदोलन की रूपरेखा बनी, वह भी भूला दी गई। रांची का जिक्र एकाध जगह राजकुमार शुक्ल की जीवनीकार राय प्रभाकर प्रसाद ने किया है और डॉ राजेंद्र प्रसाद ने भी अपनी आत्मकथा और फिर ‘चंपारन में महात्मा गांधी’ में किया है। यद्यपि गांधी वांगमय में पूरे विस्तार से रांची आती है। यह ध्यान रखने की बात है कि जब राजकुमार शुक्ल गांधी से मिले और चंपारन आने के लिए बार-बार आग्रह कर रहे थे, उस समय उनकी उम्र 41 साल थी और गांधी उनसे छह साल बड़े यानी 47 साल के थे। यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि दक्षिण अफ्रीका से भारत आने से पहले गांधीजी की कहानी भारत पहुंच चुकी थी।

कहते हैं, पं बंगाल के बाद 1813 में चंपारन में नील का पहला कारखाना कर्नल हिक्की चकिया रेलवे स्टेशन के करीब एक किमी दक्षिण बारा या बाराकिया में स्थापित किया था। पहले यहां के किसान गन्ने की खेती करते थे। इससे काफी आय भी होती थी, लेकिन 1850 में नील के भाव काफी बढ़ गए तो चीनी के कारखानों के स्थान पर नील के कारखानों ने जगह ले ली। शुरू-शुरू में जहां जहां नील और ईख की खेती के लिए मिट्टी अच्छी होती है, वहां नील के कारखाने स्थापित होते गए। लेकिन 1875 तक आते-आते निलहे गोरों ने अपना दबदबा कायम कर लिया। 1892-97 में एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि चंपारन में नील के 21 कारखाने तथा उनकी 48 कोठियों में करीब 33 हजार कामगार थे और 95,970 एकड़ अर्थात कुल कृषि भूमि के सात प्रतिशत भाग में नील की खेती हो रही थी। इसी तरह निलहों का अत्याचार भी रैयतों पर बढ़ने लगा था। इसी बीच 1897 में विश्व में कृत्रिम नील बाजार में आ गया। इससे नील का भाव गिर गया। पटना से प्रकाशित ‘बिहार बंधु’ के 20 जनवरी, 1899 के अंक मंे छपा कि आजकल नील बहुत मंदी है। और 20 अगस्त 1899 के अंक में छपा कि इस वर्ष की वर्षा से मुजफ्फरपुर में नील की बहुत बर्बादी हुई, लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ जाने के कारण जर्मनी से कृत्रिम नील आना बंद हो गया और बिहार में नील का भाव उछलकर 675 रुपये प्रति मन हो गया। जिस नील की कीमत 234 रुपये मन रहता था, गिरकर सौ रुपये मन हो जाता है; अचानक उसकी कीमत में इतना भारी उछाल हो जाता है। निलहे गोरों की बांछे खिल जाती है। अब नील की खेती के लिए अत्याचार का दूसरा दौर शुरू हो जाता है। बेतिया राज का प्रबंध यूरोपियों के हाथ में रहने कारण यहां निलहों की मनमानी चलती है। एक तरफ दमन शुरू होता है और दूसरी ओर विरोध के स्वर भी उठने लगते हैं।
चंपारन में नील की खेती के साथ ही इसका विरोध भी शुरू हो गया। कई तरह के लगान भी जबदरस्ती वसूले जाते हैं। इससे किसानों की परेशानी बढ़ती जाती है। जिस बेतिया राजा के अधीन यह क्षेत्रा था, वह पहले ही अंग्रेजों से कर्ज लेकर अपनी सीमा खींच दी थी। अब किसानों के सामने खुद अपनी बात रखने, लड़ने और आंदोलन के अलावा कोई विकल्प नहीं था। धीरे-धीरे कुछ गांवों के किसान नीलहों की कारगुजारी से लड़ने की हिम्मत जुटाते और 1907 तक आते आते सतबरिया के राजकुमार शुक्ल, साठी गांव के शेख गुलाब, मठिया गांव के शीतल राय आगे बढ़ते हैं। शेख गुलाब के नेतृत्व में मुसलमान रैयत मिटिंग करते हैं और नील की खेती छोड़ देते हैं। पर, इतने से ही समस्या का समाधान नहीं होना था। तीनों पीडि़त किसानों से चंदा वसूलकर कुछ राशि एकत्रित करते हैं ताकि मुकदमें लड़े जा सकें। मुकदमा लड़ना भी इन किसानों के बस में नहीं था। लड़ तो रहे थे, लेकिन नीलहों का अत्याचार भी कम नहीं हो रहा था। कहीं कोई रोशनी नहीं दिखाई दे रही थी। वैसाख की तपती दोपहरी की तरह किसानों का जीवन भी तप रहा था। राजकुमार शुक्ल ने दूसरी तरकीब भी निकाली और वे गांव-गांव घूमकर लोगों में अलख जगाने लगे और उस समय के समाचार पत्रों कानपुर के प्रताप, इलाहाबाद के अभ्युदय और नागपुर के हिंद केशरी में नीलहों के अत्याचार और किसानों की दुर्दशा का जिक्र कर पत्रा छपवाने लगे। इसके अलावा तीन अप्रैल, 1915 को छपरा में आयोजित बिहार प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन के मंच से अपना दुखड़ा कह सुनाया। इसी साल मई 1915 में ब्रज किशोर प्रसाद ने विधान परिषद में भी प्रस्ताव रखा, जिसे अनसुना कर दिया गया। पर उसी साल जून में एक अफसर ने रिपोर्ट प्रस्तुत कर नीलहों के अत्याचार को सही ठहराया। इन सबके बावजूद अत्याचार कम नहीं हो रहे थे और न शुक्ल हार मान रहे थे। अगले साल 1916 के दिसंबर के आखिरी सप्ताह में लखनउ$ में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था तो वहां भी ब्रजकिशोर बाबू के साथ शुक्ल जी गांधी के पैरों पर गिर पड़े। उनसे अनुरोध किया कि चंपारन के किसानों की दुर्दशा पर एक प्रस्ताव लाएं, लेकिन गांधी ने जवाब दिया कि जब तक अपनी आंखों से देख न लें, तब तक इस पर अपना विचार नहीं दे सकता। गांधी के जवाब के बाद प्रस्ताव बाबू ब्रजकिशोर ने पेश किया और राजकुमार शुक्ल ने उसका समर्थन किया।
डॉॅ राजेंद्र प्रसाद ‘ बापू के कदमों में’ में इसका उल्लेख इन शब्दों में करते हैं--‘कांग्रेस के बाद सब लोग अपने-अपने स्थान को चले गए, पर राजकुमार शुक्ल ने गांधीजी से वचन ले लिया कि जब वह कभी बिहार की ओर से गुजरेंगे तो चंपारन भी जाएंगे और वहां की हालत देखेंगे। मार्च 1917 में गांधीजी को एक बार कलकत्ता की ओर जाना पड़ा और उन्होंने राजकुमार शुक्ल को पत्रा लिखा कि उनसे वह कलकत्ता में मिलें और वहां से उनको अपने साथ चंपारन ले जाएं। पर दुर्भाग्यवश यह पत्रा राजकुमार शुक्ल को देर से मिला और तब तक गांधीजी कलकत्ता से वापस चले जा चुके थे।’ हालांकि इसका दुख राजकुमार शुक्ल को हुआ, लेकिन इसमें इनकी क्या गलती। डाक विभाग ने पत्रा ही बहुत देर से दिया। हालांकि दूसरा मौका भी जल्द मिल गया। डॉ राजेंद्र प्रसाद लिखते हैं, ‘अप्रैल 1917 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी की बैठक कलकत्ता में, ईस्टर की छुट्टियों में होने वाली थी। गांधीजी उसमें शरीक होने कलकत्ता गए और इस बात की सूचना उन्होंने राजकुमार शुक्ल को दे दी।’ पत्रा समय से मिल गया और राजकुमार शुक्ल भी समय से कलकत्ता पहुंच गए और गांधीजी को पटना लेकर पहुंचे। इस अधिवेशन में डॉ राजेंद्र प्रसाद भी गए थे, लेकिन उस समय तक गांधीजी और राजेंद्र बाबू एक दूसरे से अपरिचित थे। उन्हीं के शब्दों में, -मैं अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी का सदस्य था और उस जलसे में शरीक था। इत्तिफाक से जलसे में में गांधीजी के बहुत नजदीक बैठा था, पर वह मुझे जानते नहीं थे और न मैं यह जानता कि वह कलकत्ता से ही सीधे बिहार जाने वाले हैं। राजकुमार शुक्ल उनके सभा तक ले गए थे, पर बाहर ही ठहर गए थे, इसलिए मेरी मुलाकात उनसे भी नहीं हुई। सभा समाप्त होने पर मैं जगन्नाथपुरी चला गया और इधर गांधीजी राजकुमार शुक्ल के साथ पटना चले आए।’ राजेंद्र बाबू वहां से पुरी चले गए और गांधीजी को शुक्ल जी साथ लेकर राजेंद्र बाबू के घर पटना पहुंचे।
यहां गांधीजी को समझना जरूरी है। गांधीजी का एक व्यक्तित्व बन चुका था और सादगी ने उनके जीवन में प्रवेश कर लिया था। दूसरे नेताओं की तरह चमक-दमक उनके पहनावे में नहीं था। इसलिए जब वे राजेंद्र प्रसाद के आवास पर पहुंचे तो राजेंद्र बाबू का नौकर उन्हें एक देहाती मुवक्किल ही समझा। राजकुमार शुक्ल तो देहाती थे ही और उनकी बोली-बानी भी। इसलिए नौकर की नजर में दोनों ही देहाती थे। गांधीजी का उस समय का पहनावा ग्रामीण भारतीय की तरह ही था। धोती, अचकन और काठियावाड़ी पगड़ी। कभी-कभी वह धोती-कुरता के साथ एक मामूली टोपी भी पहन लिया करते थे, जो बाद में गांधीटोपी के नाम से मशहूर हो गया। और यह टोपी खादी की होती थी। नौकर ने दोनों के साथ मुवक्किल की तरह ही बरताव किया और उस पाखाने का भी इस्तेमाल करने नहीं दिया, जो खास घर के मालिक के इस्तेमाल में रहा करते थे। गांधीजी ने नित्यक्रिया और स्नानादि नहीं किया था। कुछ समय बाद पटना के मजहरूल हक को खबर लग गई कि गांधीजी पटना आए हैं तो वे खुद राजेंद्र बाबू के घर पहुंचकर अपने घर लिवा आए। मजहरूल साहब इंग्लैंड से वकालत पढ़ने के बाद गांधीजी के साथ ही जहाज से वापस आए थे। इसलिए दोनों के एक दूसरे से पूर्व परिचित थे। यहां से फिर चंपारन की यात्रा शुरू होती है। बीच में कृपलानी मिलते हैं। इस तरह चंपारन की धरती पर गांधीजी के कदम पड़े।
लेकिन यहीं पर यह कहना मुनासिब होगा कि आखिर जब बिहार में एक से एक नेता थे, तो उन्होंने चंपारन के किसानों की दुर्दशा को दूर करने के लिए क्यों नहीं कुछ किया? कुछ वकील मुकदमा तो लड़ते रहे, लेकिन उन्हें अपनी फीस से मतलब थी। इसका दुख पीर मुहम्मद मूनिस ने प्रताप के 13 मार्च, 1916 के अंक में ‘दुखी’ नाम से लिखे अपने लेख ‘चंपारण में अंधेरे’ में किया है। लेख की अंतिम पंक्तियां हैं-‘हमारी समझ में यह बात नहीं आती कि जिस प्रांत में मि. मजहरूल हक, सैयद अली इमाम, स. हसन इमाम, मि. दास जैसे प्रभावशाली नेता रहते हैं, वहां की प्रजा भी अनेक दुःखों से ग्रसित रहे। बिहार के नेताओं को लज्जा आनी चाहिए कि उनके 18 लाख भाई इस प्रकार के दुःख भोगे, पशुवत जिंदगी बिताएं और आप मौज से सुख चैन की बंसी बजाते फिरें, उनकी कोई खबर ही न लें। श्रीयुक्त पांडेय जगन्नाथ प्रसादजी से हमारी प्रार्थना है कि जयप्रकाश मैदान में आकर देश के सामने चंपारण की प्रजा का आर्तनाद सुनने की चेष्टा कीजिए, देश अवश्य सहायता करेगा। मगर जरा यह भी ध्यान रहे कि ‘‘जो अपनी सहायता आप करता है, उसकी सहायता परमात्मा भी करता है।’’
पीर मुनिस के बारे में भी जान लेना जरूरी है। आचार्य शिवपूजन सहाय ने इनके बारे में लिखा है, ‘पीर मुहम्मद मुनिस बिहार के चंपारण जिले के निवासी थे। बेतिया नगर में उनका मकान था। उनकी आर्थिक दशा जितनी शोचनीय थी, उतनी ही उनकी देशभक्ति अभिनंदनीय थी। आजीवन वे हिंदी और हिंदुस्तानी की सेवा में निस्पृह भाव से तत्पर रहे। चंपारण के निलहे गोरों के अत्याचार से उत्पीडि़त जनता की आह से द्रवित होकर उन्होंने अपनी वास्तविक स्थिति बिसार दी। कानपुर के हिंदी साप्ताहिक प्रताप में, उसके प्रकाशन के आरंभ काल 1913 से ही, वे पीडि़त प्रजा की दुःखगाथा नियमित रूप से देशवासियों को सुनाने लगे। प्रताप के प्रतापी संपादक श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के उत्तेजन और प्रोत्साहन से वे बड़ी निर्भीकता के साथ आततायी गोरों के भीषण कुकृत्यों का भंडाफोड़ करते रहे।’
ये वही पीर मुनिस थे, जिनसे राजकुमार शुक्ल ने गांधी के नाम पत्रा लिखवाया था। उस पत्रा को भी देख लेना चाहिए ताकि चंपारण के घोर देहात में रहने वाले भी गांधीजी के बारे में क्या-क्या जानते थे। इस पत्रा से भी चंपारण की स्थिति को समझ सकते हैं-
बेतिया
27 फरवरी, 1917
मान्यवर महात्मा,
सुनते ही रोज औरों के
आज मेरी भी दास्तान सुनो।
आपने उस अनहोनी को प्रत्यक्ष का कार्यरूप में परिणत कर दिखाया, जिसे टॉलस्टाय जैसे महात्मा केवल विचारा करते थे। उसी आशा और विश्वास के वशीभूत होकर हम आपके निकट अपनी राम कहानी सुनाने के लिए तैयार हैं। हमारी दुःख भरी कथा उस दक्षिण अफ्रीका के अत्याचार से, जो आप और आपके अनुयायी वरी सत्याग्रही बहनों और भाइयों के साथ हुआ कहीं अधिक है। हम अपना वह दुःख जो हमारी 19 लाख आत्माओं के हृदय पर बीत रहा है, सुनाकर आपके कोमल हृदय को दुखित करना उचित नहीं समझते। बस, केवल इतनी ही प्रार्थना है कि आप स्वयं आकर अपनी आंखांे से देख लीजिए, तब आपको अच्छी तरह विश्वास हो जाएगा कि भारतवर्ष के एक कोने में में यहां की प्रजा, जिसको ब्रिटिश छत्रा की सुशीतल छाया में रहने का अभिमान प्राप्त है, किस प्रकार के कष्ट सहकर पशुवत जीवन व्यतीत कर रही है। हम और अधिक न लिखकर आपका ध्यान उस प्रतिज्ञा की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं, जो लखनउ$ कांग्रेस के समय और फिर वहां से लौटते समय कानपुर में आपने की थी, अर्थात मार्च-अप्रैल के महीने में चंपारण आउ$ंगा, बस अब समय आ गया है। श्रीमान् अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करें। चंपारण की 19 लाख की दुःखी प्रजा श्रीमान् के चरण-कमल के दर्शन की टकटकी लगाए बैठी है। और उन्हें आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि जिस प्रकार भगवान् श्रीरामचंद्र के चरण स्पर्श से अहिल्या तर गई, उसी प्रकार श्रीमान् के चंपारण में पैर रखते ही हम 19 लाख प्रजाओं का उद्धार हो जाएगा। 
श्रीमान का दर्शनाभिलाषी
राजकुमार शुक्ल

ध्यान दें तो इस पत्रा में गांधीजी को महात्मा संबोधित किया गया है। क्या सबसे पहले राजकुमार शुक्ल ने ही उन्हें महात्मा शब्द से संबोधित किया और दूसरा यह कि बिहार में तमाम बड़े नेताओं के रहते हुए भी चंपारण की अनपढ़ जनता आखिर गांधीजी में ही अपनी मुक्ति क्यों देखती थी? दक्षिण अफ्रीका की कहानी जरूर यहां तक पहंुच चुकी थी, लेकिन भारत आने के बाद उन्होंने ऐसा कोई आंदोलन नहीं किया था, जिसे देखकर चंपारण की जनता आंख मंूद कर विश्वास करे, लेकिन पढ़े-लिखों से चंपारण की जनता दूरदर्शी साबित हुई।


महात्मा गांधी ने राजेंद्र प्रसाद, बाबू ब्रजकिशोर के साथ अपना काम शुरू कर दिया और इधर धीरे-धीरे नीलहों में डर भी पैदा होने लगा। किसानों की दर्दभरी कहानियां लिपिबद्ध होने लगी और इसमें काफी समय लगा। गांधी के इस आंदोलन में शामिल हो जाने के बाद अंगरेज अधिकारियों ने अपने स्तर से इसकी निगरानी शुरू कर दी। गांधीजी ने वहां के किसानों में निडरता भरी। अपनी बात किसी के भी सामने खुलकर बोलने का जज्बा पैदा किया। मजिस्ट्रेट ने एक लंबी रिपोर्ट गवर्नमेंट को लिखी, जिसका सारांश यह था कि रैयतों में इतनी खलबली हो गई कि अब वे नीलहों को ही नहीं, बल्कि सरकारी अफसरों को भी कुछ नहीं समझते। करीब दस हजार से अधिक रैयतों का बयान लिया जा चुका था। इसकी खबर अंग्रेज सरकार को थी। इस बीच गवर्नमेंट का एक पत्रा आया कि जांच पूरी हो गई होगी, इसलिए रेवन्यु बोर्ड के मेंबर को, जो उ$ंचे पदाधिकारी होते थे, एक सीनियर सिविलियन अंगरेज अफसर थे, गवर्नमेंट रांची से पटना भेज रही है। गांधीजी उनसे मिलें और बातें करें और अपनी जांच का नतीजा बतावें। गांधीजी बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद के साथ पटना गए और रेवन्यु मेंबर से मुलाकात की। रेवन्यु मेंबर ने रिपोर्ट पाकर, गवर्नमेंट के हुक्म से उसकी प्रतियां नीलवरों, सरकारी कर्मचारियों और कुछ दूसरे लोगों के पास भेज दी। रिपोर्ट के उत्तर में सरकारी कर्मचारियों और नीलहों ने अपने-अपने बयान गवर्नमेंट को भेज दी। खलबली चारों तरफ थी कि इसी बीच फिर एक पत्रा रांची से चंपारन पहुंचा। सरकार अब गांधीजी को चंपारन से हटाने पर विचार कर रही थी। इसलिए रांची में रह रहे लेफ्टिनेंट गर्वनर सर एडवर्ट गेट चाहते हैं कि गांधीजी उनसे मिल लें। पत्रा पाकर गांधीजी रांची में चंपारन के किसानों की समस्याओं को लेकर आड्रे हाउस में लेफ्निेेंट गर्वनर से मिले। इसके बाद मुख्य सचिव आदि से भी मिले, जो उस समय यहीं रहते थे। गांधी की यह छोटी अवधि की यात्रा थी। इसके बाद वे बिहार चले गए। इसके बाद आठ जुलाई को लिखे गए दो पत्रा भी रांची के पते से मिलते हैं। इसके बाद 23 सितंबर, 1917 का पत्रा रांची से लिखा मिलता है, जिसे मगनलाल गांधी को लिखा गया था। वह फिर चंपारन समिति की बैठक के सिलसिले में रांची आए थे। 24 सितंबर को चंपारन समिति की बैठक रांची में ही हुई थी। यह बैठक काफी लंबी चली और आंदोलन को लेकर काफी विमर्श हुआ। 25 जुलाई 1917 को गांधी जी ने लीडर अखबार के संपादक के नाम पत्रा रांची से ही लिखा। इसमें कहा कि दक्षिण अफ्रिका से भारत आए मुझे ढाई साल से कुछ अधिक समय हो गया। इस समय का एक चतुर्थांश मैंने स्वेच्छापूर्वक भारतीय रेलों के तीसरे दर्जे में यात्रा करने में बिताया। यह पत्रा काफी लंबा है, जिसे लीडर ने चार अक्टूबर को छापा। 25 सितंबर को ही जमनालाल बजाज को भी पत्रा लिखा। इसके बाद मगन लाल गांधी को, जिसें जिक्र किया कि बुखार से मुक्त नहीं हुआ हंू। बुखार में भी वे चंपारन समिति की बैठक में भाग लेते रहे। एक पत्रा 27 सितंबर को जीए नटेसन को लिखा और उसमें भी अंत में लिखा कि ‘मेरे ज्वर के कारण आप चिंतित न हों। वह अपने समय से ही जाएगा। वह यहां अक्टूबर के पहले सप्ताह तक रांची रहे। रांची में गांधीजी के रहने के बारे में चार अक्टूबर 1917 तक का जिक्र मिलता है। चंपारन के इस आंदोलन में रांची भी जुड़ गया और यह एक प्रमुख केंद्र बन गया। गेट ने एक कमीशन बना दी और गांधीजी को इसका मेंबर बनाने के लिए राजी कर लिया। इसके बाद कमीशन का काम बेतिया से शुरू हुआ। राजेंद्र प्रसाद लिखते हैं-‘ कुछ सरकारी अफसरों और कुछ नीलवरों ने अपने-अपने लिखित बयान दिए, उनके जबानी इजहार भी लिए गए। कमिशन मोतिहारी में भी कई दिनों तक बैठा। उनके मेंबरों ने कितनी ही नील-कोठियों में जाकर नीलवरों के इजहार लिए और उनके कागज-पत्रा भी देखे गए।...इजहार का काम खत्म हो जाने पर रिपोर्ट लिखने का समय आया। सर एडवर्ड गेट ने महात्माजी से कह दिया कि कमीशन यदि सर्वसम्मति से रिपोर्ट देगा तो उस रिपोर्ट पर गवर्नमेंट आसानी से काम कर सकेगी। पर यदि रिपोर्ट में भिन्न-भिन्न मत सदस्यों ने प्रकट किए तो गवर्नमेंट को उस रिपोर्ट के आधार पर काम करने में कठिनाई होगी।’ अंततः रिपोर्ट सर्वसम्मति से सरकार को भेजी गई। जांच रिपोर्ट की प्रायः सभी बातें मंजूर कर 18 अक्टूबर 1917 को सरकार ने अपना मंतव्य प्रकाशित कर दिया। उसके बाद निलहों में खलबली मच गई। सरकार ने रिपोर्ट के आधार पर एक कानून बनाया, जिसके जरिए तीन कठिया प्रथा गैरकानूनी करार दी गई और लगान में इजाफा भी उपर्युक्त मात्रा में कम कर दिया गया। 19 नवंबर को विधान परिषद में मि मौड ने चंपारण भूमि विधेयक प्रस्तुत किया। इस अवसर पर उन्होंने एक व्याख्यान दिया और 50-60 वर्षों का चंपारन में नील-संबंधी झगड़ों का संक्षिप्त इतिहास भी प्रस्तुत किया। यह विधेयक एक प्रवर समिति को विचारार्थ भेज दिया गया। समिति ने कुछ संशोधन की बात कही। संशोधित विधेयक 20 फरवरी 1918 को सरकारी गजट मंे प्रकाशित हुआ। अंत में चार मार्च 1918 को परिषद इस विधेयक को स्वीकृति प्रदान कर देती है। इस अधिनियम का सार यह था कि मालिक और रैयत के बीच किसी अनुबंध के बावजूद रैयत मालिक के लिए अपनी जोत के किसी हिस्से में कोई खास फसल उपजाने के लिए बाध्य नहीं होगा तथा उक्त अनुबंध रद समझा जाएगा। इस प्रकार की कोई प्रविष्टि यदि सर्वे खतियान में है तो उसे भी रद कर दिया जाता है। अब रैयत की स्वेच्छा पर निर्भर है कि वह मालिक को किसी खास फसल की निश्चित रकम तौलकर देने के लिए अनुबंध कर सके, पर उसकी जोत पर पाबंदी नहीं रह जाती। इस प्रकार तिनकठिया प्रथा समाप्त हुई और नील का झगड़ा भी। हालांकि कुछ लोगों ने टीका-टिप्पणी भी की, लेकिन गांधीजी को विश्वास था कि तीन कठिया प्रथा उठ जाने के बाद नीलहे यहां ज्यादा दिन ठहर नहीं सकते, क्योंकि उनका कारबार जुल्म और जबरदस्ती से चलता था-अगर यह बंद हो जाए तो वे यहां ठहर नहीं सकते। हुआ भी यही। महात्मा गांधी के चंपारन जाने और इस जांच तथा रिपोर्ट और नए कानून बनने के थोड़े दिन बाद नीलहे अपनी जमीन, कोठी, माल-मवेशी बेचकर चले गए। गांधीजी के पहुंचते ही उनका रोब उठ गया था। उन्होंने उन्हीें रैयतों और बेतिया राज के हाथों में अपना सबकुछ बेच डाला।

गांधीजी की यह पहली जीत थी, जिसमें एक बूंद रक्त भी नहीं बहा था। इस जीत से चंपारन के रैयतों का भी आत्मविश्वास बढ़ा और उनके भीतर का डर गायब हुआ। इसका परिणाम आगे चलकर भी दिखा। पर गांधीजी इस जीत से ही उत्साहित नहीं थे। वे पिछड़े गांवों में कुछ सकारात्मक काम भी करना चाहते थे। छुआछूत का शिकार तो आते ही हुए थे, लेकिन कुछ और भी समस्याएं थीं। वह जानते थे कि शिक्षा बहुत जरूरी है। आज नीलहे गए, कल दूसरे आ जाएंगे और जुुल्म कभी र$केगा नहीं। इसलिए तीन-चार पाठशालाएं खोलीं। इन पाठशालों में पढ़ाने वाले त्यागी कार्यकर्ता बिहार से न्यून महाराष्ट्र और गुजरात से ज्यादा थे। इनमें महिलाएं भी शामिल थीं। बिहारियों में केवल धरणीधर एक स्कूल चलाते थे। बाहर के महादेव भाई देसाई, उनकी पत्नी दुर्गाबाई, साबरमती आश्रम के श्री नरहरि पारिख, उनकी पत्नी मणि बहन, स्वयं कस्तूरबा भी रहीं। बंबई के वामन गोखले सहित कई नाम। पर ये नाम अब खो गए हैं?
बहरहाल, चंपारन नीलहों के आतंक से मुक्त हुआ। इसका पूरा-पूरा श्रेय राजकुमार शुक्ल को जाता है, जिन्होंने गांधीजी को चंपारन आने के लिए विवश किया। चंपारन के बाद गांधीजी अब देश की आजादी में सक्रिय हो जाते हैं और राजकुमार शुक्ल अपने अवसान की ओर। एक बड़ा मार्मिक प्रसंग का हवाला राय प्रभाकर प्रसाद ने दिया है---
शुक्लजी गांधीजी को कई पत्रा लिखते हैं। वे लिखते हैं कि अब बुझने ही वाला हूं, क्या आप चंपारन नहीं आएंगे? शुक्ल जी धैर्य टूट जाता है औरवे एक दिन मोतिहारी से साबरमती के लिए प्रस्थान कर जाते हैं। पंद्रहवें-सोलहवें दिन उन्हें गांधी और बा के दर्शन होते हैं। बा की आंखें भर जाती हैं। पूछती हैं-यह आपको क्या हो गया पंडितजी? शुक्लजी की आंखें डबडबा जाती हैं, गला रुंध जाता है। गांधीजी उनसे कहते हैं, आपकी तपस्या अवश्य रंग लाएगी। आज नहीं तो कल देश आजाद होगा। लेकिन शुक्लजी पूछते हैं, क्या वह दिन मैं देख सकूंगा, तो गांधीजी निरुत्तर हो जाते हैं। आश्रम में कुछ दिन ठहरकर शुक्लजी वापस चंपारन आ जाते हैं और 20मई, 1929 को उनका निधन हो जाता है और चंदे से उनका दाह-संस्कार होता है। जब शुक्लजी के निधन की खबर क्रूर-अत्याचारी नीलहे एमन को मिलती है तो वह खुश नहीं होता है। उसके चेहरे पर विषाद छा जाता है। वह अनायास बोल पड़ता है, ‘चंपारन का वह अकेला मर्द था, जो मुझसे 25 साल तक लड़ता रहा।’ ऐमन इस बात को जानता था कि शुक्लजी के घर-परिवार की सारी संपत्ति कोठियों से मुकदमा लड़ते-लड़ते तथा गरीबों और मजदूरों की मदद करते-करते समाप्त हो गई है। उनके घर परिवार में कोई कमाउ$ व्यक्ति नहीं है। अपने एक कर्मचारी के मार्फत ऐमन शुक्लजी के श्राद्ध के लिए विधवा तथा बेटी दामाद को तीन सौ रुपये भेजवाता है। कर्मचारी रुपये लेकर हक्का-बक्का साहब का मुंह ताक रहा है। कुछ क्षण बाद बोलता है, ‘हुजूर वह तो आपका दुश्मन था...’ बात काटकर ऐमन कहता है, ‘तुम उसकी कीमत नहीं समझोगे।’ 
श्राद्ध के दिन डॉ राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह बाबू, ब्रजकिशोर बाबू आदि दर्जनों नेता सतवरिया में शामिल हुए। ऐमन भी उसमें शामिल हुआ। राजेंद्र बाबू उससे पूछते हैं, आपका दुश्मन तो चला गया, अब खुश होइए। ऐमन वही बात दुहराता है...फिर कहता है, अब ज्यादा दिन मैं भी नहीं बचूंगा। चलते-चलते ऐमन शुक्लजी के बड़े दामाद सरयू राय को अगले दिन कोठी पर बुलाता है। वह मोतिहारी के पुलिस कप्तान के नाम एक पत्रा देता है। उसी पत्रा के आधार पर सरयू राय को पुलिस जमादार की नौकरी मिलती है। उसके सात महीने बाद ऐमन भी इस दुनिया से विदा हो जाता है।
इस शताब्दी वर्ष में अपने भूले नायकों को भी याद करने की जरूरत है, पीछे मुड़कर देखने की भी।


एक गुमनाम साप्ताहिक ‘महावीर’ का सत्याग्रह अंक

  देश की आजादी में पत्रा-पत्रिकाओं ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस समय के आंदोलन के दस्तावेजीकरण का काम इन पत्रा-पत्रिकाओं ने बखूबी किया। जाने-अनजाने एक तरह से ये पत्रिकाएं ‘इतिहास’ लेखन कर रही थीं। इन्हीं पत्रिकाओं में एक है बिहार से प्रकाशित साप्ताहिक ‘महावीर’। इस पत्रिका के बारे में जो जानकारी मिलती है, वह पर्याप्त नहीं। आधी-अधूरी है। लेकिन इस एक अंक में जो जानकारी मिलती है, वह दुर्लभ है। इस पत्रिका के बारे में पत्राकारिता के इतिहास की पुस्तकें भी सर्वथा मौन है।
  इसका एक विशेषांक ‘सत्याग्रह’ पर आया था। 21 जून, 1931 में यह अंक निकला था। इस अंक के बारे में संपादक ने बहुत ईमानदारी से लिखा है, ‘इन पंक्तियों में उन्हीं घटनाओं का संक्षिप्त विवरण देने का प्रयत्न किया गया है। हम जानते हैं कि सत्याग्रह आंदोलन का ठीक-ठीक वर्णन करने में हजारों हजार पृष्ठों को रंगना पड़ेगा, और आज की अपेक्षा कहीं अधिक खोज ढूंढ और जांच पड़ताल करनी पड़ेगी और उसके लिए तो महान साधनों की आवश्यकता है, जिसका हमारे पास सर्वथा अभाव है। इन्हीं बातों और कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए हम ने इस अंक में सत्याग्रह सिद्धांतों के संक्षिप्त विवेचन के साथ भारतीय सत्याग्रह का थोड़ा वर्णन करते हुए बिहार प्रांत में होने वाली घटनाओं पर अधिक जोर दिया है।’

  अच्छी और लघुपत्रिकाओं के साथ यह दिक्कत आज भी है। उस समय भी थी। साधनों के अभाव और समय पर लेखकों के सहयोग नहीं मिल पाने के बावजूद जो अंक निकला, वह कम महत्वपूर्ण नहीं है। दुर्भाग्य से, ‘महावीर’ का यही ‘सत्याग्रह’ विशेषांक ही उपलब्ध है। डबल डिमाई आकार में यह पत्रिका छपी थी। अंक के मुख्य पृष्ठ पर गांधीजी लाठी लिए हुए सबसे आगे हैं और उनके पीछे सत्याग्रहियों की ‘एस’ आकार में लंबी कतार है। नीचे मध्य में विजय-यात्रा लिखा हुआ है और फिर उसके नीचे सम्पादक का नाम- विश्वनाथ सहाय वर्मा। सबसे उ$पर बाएं संस्थापक श्री जगतनारायण लाल और दाहिने में पंजीयन-नं पी-186।
  सत्याग्रह का यह अंक रांची के संतुलाल पुस्तकालय में ही मिला। हो सकता है, कहीं कोई और पुराने पुस्तकालयों में एकाध फाइलें पड़ी हों, लेकिन ऐसा कम ही जान पड़ता है, क्योंकि बिहार की पत्रा-पत्रिकाओं पर शोधपूर्ण काम करने वाले पं रामजी मिश्र ‘मनोहर’ अपनी शोधपूर्ण कृति ‘बिहार में हिंदी-पत्राकारिता का विकास’ में बस एक पैराग्राफ की ही संक्षिप्त जानकारी ही दे पाते हैं-‘‘सन् 1926-27 में बाबू जगत नारायण लाल ने साप्ताहिक ‘महावीर’ निकाला, जिसके वे स्वयं संपादक भी थे। यह अपने समय का बड़ा ही संदर्भपूर्ण एवं सुसंपादित पत्रा था। जगत बाबू राजनीति से सक्रिय रूप से जुड़े थे, अतः समयाभाव तथा अर्थाभाव के कारण यह मुश्किल से पांच-छह वर्ष ही चल सका। इसके कई महत्वपूर्ण विशेषांक निकले, जिनमें बिहार के राजनीतिक आंदोलन का महत्वपूर्ण छिपा पड़ा है। दुर्भाग्यवश इसकी फाइलें न तो जगत बाबू के परिवार वालों के पास है और न कहीं पुस्तकालयों में ही सुरक्षित हैं।’’  मनोहर जी ने काफी श्रम के साथ काम किया है, लेकिन उन्हें महावीर का कोई अंक सुलभ नहीं हो सका, जबकि यह पटना से ही प्रकाशित होता था।
 इस संक्षिप्त जानकारी से पता चलता है कि इसे संपादक जगत नारायण लाल थे। जगत नारायण लाल के बारे मंे भी बहुत जानकारी नहीं मिलती है। पता चलता है कि ये उत्तर प्रदेश के थे। इनका जन्म उत्तरप्रदेश के गोरखपुर में हुआ था। उनके पिता भगवती प्रसाद वहां स्टेशन मास्टर थे। जगत नारायण ने इलाहाबाद से एम.ए. और कानून की शिक्षा पूरी की और पटना को अपना कार्यक्षेत्रा बनाया। ओम प्रकाश प्रसाद ने ‘बिहार: एक ऐतिहासिक अध्ययन’ में कुछ प्रकाश डाला है। लिखते हैं, जगत नारायण लाल राजेंद्र प्रसाद के कारण स्वतंत्राता संग्राम में शामिल हुए और मालवीय जी के कारण हिंदू महासभा से उनकी निकटता हुई। 1937 के निर्वाचन के बाद लाल बिहार मंत्रिमंडल में सभा सचिव बने। 1940-42 की लंबी जेल यात्राओं के बाद 1957 में वे बिहार सरकार में मंत्राी बनाए गए। सामाजिक क्षेत्रा में काम करने के लिए उन्होंने बिहार सेवा समिति का गठन किया। 1926 में उन्हें अखिल भारतीय हिंदू महासभा का महामंत्राी चुना गया। वे सांप्रदायिक सौहार्द्र के समर्थक थे। छुआछूत का निवारण और महिलाओं के उत्थान के कार्यों में भी उनकी रुचि थी। वे प्रबुद्ध वक्ता और श्रोताओं को घंटों अपनी वाणी से मुग्ध रख सकते थे। अपने समय में बिहार के राजनीतिक और सामाजिक जीवन में उनका महत्चपूर्ण स्थान था। 1966 में उनका देहांत हुआ।’

 जगत नारायण का लिखा हो सकता है कहीं सुरक्षित हो, लेकिन उनके द्वारा लिखी एक पुस्तक की भूमिका मिलती है। इस पुस्तक के लेखक रांची के गुलाब नारायण तिवारी थे। पुस्तक का नाम है-‘हिंदू जाति के भयंकर संहार अर्थात् छोटानागपुर में ईसाई धर्म्म’। इसे बिहार प्रांतीय हिंदू सभा, पटना ने प्रकाशित किया था। रामेश्वर प्रसाद, श्रीकृष्ण प्रेस, मुरादपुर, पटना से छपी थी। उसमें संक्षिप्त भूमिका उनके नाम से प्रकाशित है।
  मोहम्मद साजिद ने अपनी पुस्तक ‘मुस्लिम पालिटिक्स इन बिहारः चेंचिंग कंटूर’ में जरूर इस पत्रिका के बारे में कुछ पर्याप्त जानकारी दी है। लिखा है, जगत नारायण लाल बिहार में हिंदू सभा और आल इंडिया हिंदू महासभा के जनरल सेक्रेटरी थे। 1926 में महावीर नामक साप्ताहिक पत्र की शुरुआत की। संपादन भी खुद ही करते थे। इसमें सांप्रदयिक लेख काफी प्रमुखता से प्रकाशित होते थे। वे 1922 से 28 तक बिहार कांग्रेस के सहायक सचिव भी रहे। 1930 में पटना जिला कांग्रेस के सचिव रहे। इसी के साथ सेवा समिति से भी जुड़े रहे। इसी साल उन्हांेने हिन्दुस्थान सेवा संघ की स्थापना की। 1934 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। 1937 में मदन मोहन मालवीय की इडीपेंडेंट पार्टी के साथ जुड़े। जगत नारायण लाल ने अपने संस्मरण में लिखा है कि ‘महावीर’ हिंदू विचारधारा का समर्थक पत्रा है। 1926 में यह पत्रा साप्ताहिक शुरू हुआ। 1932 में यह दैनिक हो गया और 1932 में ही सरकारी विरोध के कारण बंद हो गया। लेखक ने लिखा है कि पहले वह ईसाइयों को संकट के तौर पर देख रहे थे। बाद में मुसलमानों के विरोधी हो गए।’ इसके विश्लेषण में अभी जाने की जरूरत नहीं।

 ‘महावीर’ के इस सत्याग्रह अंक में कुल 49 लेख शामिल हैं। अंतिम 49 वां लेख नहीं, बल्कि ‘बिहार के रणबांकुरे’ नाम से पूरे प्रदेश के राजबंदियों की 12 पेज में सूची है। पूरी नहीं। जितनी मिल सकी। संपादक ने इस बारे में पहले ही संपादकीय में आगाह कर दिया, ‘हम अपनी त्राुटियों और साधनाभावों से सजग हैं। जिस थोड़े समय में और प्रतिकूल परिस्थिति में हमें इसका प्रकाशन करना पड़ा, उसे ख्याल कर घबराहट होती है और अपनी उन त्राुटियों के लिए हम पाठकों से क्षमा चाहते हैं। लेखों के चुनाव में भी हमें बहुत से विद्वानों के लेख और कवितायें अपनी इच्छा के विपरीत इसलिए रख छोड़नी पड़ी कि हमारे पास अधिक स्थान ही न था। हम उन सज्जनों से क्षमा चाहते हैं। इसी प्रकार चित्रों के चुनाव में भी कई प्रमुख नेताओं और कार्यकर्ताओं के चित्रा हमें अभाग्यवश कोशिश करने पर भी नहीं मिल सके, जिसका हमें हार्दिक खेद है और यह अभाव ऐसा है जो हमें सदा खटकता रहेगा और उसके लिये भी हम क्षमा-प्रार्थी हैं। उसी तरह बिहार के राजबंदियों की नामावली भी अधूरी रह गई है। कई जिलों से तो राजबंदियों की सूची मिली ही नहीं, और कई जगहों की लिस्ट आने पर भी वह अधूरी निकली। इस कारण उन त्राुटियों का ख्याल हमें दुःखित कर रहे हैं।’

 अंक के विषय सूची से कुछ अनुमान लगा सकते हैं। सबसे पहले भारतीय नेताओं के दिव्य संदेश है। उस समय के बड़े नेताओं के संदेश प्रकाशित हैं। महात्मा गांधी के तीन लेख कष्ट सहन का नियम, स्वराज्य का एक लक्षण एवं अहिंसा है। बाबू राजेंद्र प्रसाद का सत्य और सत्याग्रह नामक लेख है। श्री प्रकाश का सत्याग्रह का खतरा, जगत नारायण लाल की राजबंदी जीवन व सत्याग्रह की मीमांसा के साथ स्वामी सहजानंद सरस्वती का लेख सत्याग्रह की कमजोरियां और उनके नेवारण के उपाय आदि शामिल हैं। कविताओं में श्री अरविंद का माता का संदेश, रामधारी सिंह दिनकर की कविता भव, बेगूसराय गोली कांड-श्री कपिलदेव नारायण सिंह सुहृद, बिस्मिल इलाहाबादी की फरियादे बिस्मिल आदि कविताएं प्रकाशित हैं। इसके अलावा सत्याग्रह और महिलाएं, बिहार में सत्याग्रह, बिहार में चौकीदारी कर बंदी, बिहार के शहीद आदि दुर्लभ, जानकारीपरक और महत्वपूर्ण लेख हैं। सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि जिलों के सत्याग्रह की रिपोर्ट है। तब झारखंड भी बिहार का हिस्सा था। कुछ जिलों की रिपोर्ट प्रकाशित है- सारन में सत्याग्रह, मुजफपुर में सत्याग्रह, चम्पारण में सत्याग्रह, दरभंगा में सत्याग्रह, शाहाबाद में सत्याग्रह, भागलपुर में सत्याग्रह, प्रांत के कुल जेलयात्राी, बीहपुर सत्याग्रह, मुंगेर के सत्याग्रह, पटना नगर में सत्याग्रह, पटना जिला में सत्याग्रह, गया में सत्याग्रह, पूर्णिया में सत्याग्रह, रांची में सत्याग्रह, तमिलनाडु में सत्याग्रह आदि। इन लेखों में सत्याग्रह के बारे में संक्षिप्त जानकारी है और किनके नेतृत्व में सत्याग्रह हुए, किन-किन लोगों ने भाग लिया, इसकी भी जानकारी दी गई है। उस समय के कई महत्वपूर्ण लेखकों ने इस अंक में योगदान दिया। प्रांत के कुल जेलयात्राी के अलावा बिहार के वीर बांकुडे़ 12 पेज में दिया गया है। इसमें वृहद बिहार के जिलों के सत्याग्रह और राजबंदियों की सूची है। यह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसलिए, महावीर के इस अंक का महत्व बढ़ जाता है। इसके अलावा इसमें उस समय के कई बड़े नेताओं की तस्वीरें भी हैं। डॉ मोख्तार अहमद अंसारी, डॉ सैयद महमूद, अब्दुल गफार खान, पुरुलिया के जिमूत वाहन सेन, हजारीबाग की सरस्वती देवी एवं मीरा देवी, प्रो अब्दुल बारी, जेएम सेनगुप्ता के साथ जगत नारायण लाल एवं उनकी पत्नी की भी। उस समय के प्रमुख सत्याग्रहियों की तस्वीरें, जो सुलभ हो सकीं, दी गई हैं।  


  रामवृक्ष बेनीपुरी अपने संस्मरण ‘पत्राकार जीवन के पैंतीस वर्ष’ में दो पंक्तियों में पत्रिका के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी है-‘‘बाबू जगतनारायण लाल ने महावीर नाम का साप्ताहिक पत्रा निकाला था, जिसके संपादकीय विभाग में श्री विश्वनाथ सहाय और राधाकृष्ण सुप्रसिद्ध कहानी लेखक-रांची थे। यह हिंदू संगठन का हिमायती था।’’ कहा जाता है कि रांची के रहने वाले राधाकृष्ण ने एक तरह से पत्राकारिता जीवन की शुरुआत इसी पत्रिका से की। फिर कहानी लेखन की ओर मुड़ गए। कहानी के साथ-साथ व्यंग्य भी लिखा। प्रेमचंद के निकट हुए। उनके निधन पर कुछ दिनों तक हंस भी संभाला। फिल्म लेखन भी किया। फिर रांची में ‘आदिवासी’ पत्रिका का संपादन किया। ‘महावीर’ के बारे में कुल जमा यही जानकारी मिलती है। इसके अंकों की खोज होनी चाहिए।