चंपारन, गांधी और रांची

चंपारन आंदोलन का यह सौंवा साल चल रहा है। इन सौ सालों में बहुत कुछ बदला और इसके साक्षी हम सभी हैं। देश को आजाद हुए भी 69 साल हो गए है और समाज ही नहीं, देश की राजनीति ने भी अपना एक नया कलेवर और चरित्रा धारण कर लिया है। यह रोज-रोज दिखाई देता है। इस राजनीति में विलग आज चंपारन को फिर-फिर पढ़ने-देखने की जरूरत महसूस हो रही है ताकि हम देख सकें कि उस दौर में चंपारन के लोगों ने, उस समय के अपने तमाम बड़े नेताओं, खासकर, बिहार में भी, रहते हुए आखिर मोहनदास करमचंद गांधी में अपनी मुक्ति क्यों देखी? जबकि चंपारन के किसानों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं थी। कानपुर का ‘प्रताप’ अखबार और बिहार से प्रकाशित ‘बिहार बंधु’ में चंपारन के दुख-दर्द-दुर्दशा की कहानियां प्रकाशित होती रहती थीं। तब भी कोई ‘बड़ा’ नेता किसानों की समस्याओं को दूर करने की पहल करते नहीं दिखाई देता है। तो क्या, प्रकृति अपना काम कर रही थी या कोई अदृश्य शक्ति? एक लंबे समय से नीलवरों द्वारा प्रताडि़त रैयतों को जब मोहनदास करमचंद गांधी का साथ मिला तो एक दो साल में ही चंपारन नीलवरों के अत्याचार से आजाद ही नहीं हुआ, बल्कि नीलवरों को अपना बोडि़या-बिस्तर भी समेटना पड़ा। यद्यपि, इसी समय यानी 1916-17 में ही नई तकनीक से नील बनाने की कला इजाद हो गई थी, जिसके कारण भी यह धंधा रसातल की ओर जा रहा था। इसलिए भी नीलवरों को अपना धंधा समेटने के अलावा कोई दूसरा विकल्प उनके सामने नहीं था।
यदि इस पूरे आंदोलन पर नजर डालें तो दो बातें निकलकर आती हैं। पहला यह कि भारत लौटने के बाद गांधी ने पहला आंदोलन अपने हाथ में लिया और अहिंसा के अस्त्रा से इस आंदोलन में जीत हासिल की। उनका आत्मविश्वास भी इस आंदोलन से बढ़ा और दूसरा यह कि मोहनदास से महात्मा की राह यहीं से शुरू हुई, जो असयोग आंदोलन में और पुख्ता हुई। गांधी के अध्येता यह भली-भांति जानते हैं। ‘मोहनदास’ से ‘गांधी’ और फिर ‘महात्मा’ की यात्रा का उत्स यही चंपारन ही था। चंपारन एक ऐसा पड़ाव है, जहां से गांधी की प्रतिष्ठा और पहचान जुड़ी है। गांधी के इस आंदोलन में कूदने के कई फायदे हैं और उनके शांतिपूर्ण आंदोलन के कारण अंग्रेजांे को अपनी क्रूरता पर तरस आया और फिर वे अपने शोषण पर तार्किक ढंग से विचार करने और किसानों के पक्ष में कानून बनाने के लिए बाध्य हुए। इसका बहुत कुछ श्रेय गांधी को जाता है और गांधी को नीलहे गोरों की करतूत के बारे में जानकारी देने वाले राजकुमार शुक्ल को भी, जो गांधी को चंपारन ले आए। इसके लिए उन्होंने काफी मुश्किलों का सामना किया। इस आंदोलन में नींव के पत्थर की तरह काम किए राजकुमार शुक्ल। इन्हें भी जानना जरूरी है। यह वही थे, जिन्होंने गांधी को पं चंपारन चलने के लिए बाध्य किया। इसका जिक्र खुद गांधीजी ने भी किया है। गांधीजी ने पूरी ईमानदारी से यह स्वीकार किया है कि चंपारन आंदोलन की सफलता के कारण ही वे भारत से भी अंग्रेजों को खदेड़ने में कामयाब हुए। लुई फिशर ने भी इसका उल्लेख अपनी पुस्तक ‘गांधी की कहानी’ में किया है। लुई के शब्द हैं- ‘जब मैं 1942 में सेवाग्राम आश्रम में गांधीजी से पहलीबार मिला तो उन्होंने मुझसे कहा-‘‘मैं तुम्हें बतलाउ$ंगा कि वह कौनसी घटना थी, जिसके कारण मैंने अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर जोर देने का निश्चय किया। यह घटना 1917 की है।’’
फिशर ने आगे कहा है, -गांधीजी कांग्रेस के दिसंबर 1916 के लखनउ$-अधिवेशन में शामिल होने लिए गए थे। गांधीजी ने लिखा है--‘जब कांग्रेस की कार्रवाई चल रही थी, एक किसान, भारत के अन्य किसानों की तरह गरीब और कृश तन दिखाई देने वाला मेरे पास आया और बोला-मैं राजकुमार शुक्ल हूं। मैं चंपारन से आया हूं और चाहता हूं कि आप मेरे जिले में चलें।’ गांधीजी ने चंपारन का नाम पहले कभी नहीं सुना था। यह लुई जोड़ते हैं।
‘बहुत दिनों से चली आ रही व्यवस्था के अनुसार चंपारन के किसान तीन कठिए थे। राज कुमार शुक्ल भी ऐसे किसानों में थे। वह कांग्रेस-अधिवेशन में चंपारन की इस जमींदारी प्रथा के विरुद्ध शिकायत करने आए थे और शायद किसी ने उसे सलाह दी थी कि गांधीजी से बात करें।’
गांधीजी अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में भी इस घटना का जिक्र करते हैं,- मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि वहां जाने से पहले मैं चंपारन का नाम तक नहीं जानता था। नील की खेती होती है, इसका ख्याल भी नहीं के बराबर था। नील की गोटियां मैंने देखी थीं, पर वे चंपारन में बनती हैं, और उनके कारण हजारों किसानों को कष्ट भोगना पड़ता है, इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं थी।’...‘राजकुमार शुक्ल नामक चंपारन के एक किसान थे। उन पर दुख पड़ा था। यह दुख उन्हें अखरता था। लेकिन अपने इस दुख के कारण उनमें नील के इस दाग को सबके लिए धो डालने की तीव्र लगन पैदा हो गई थी। जब मैं लखनउ$ कांग्रेस में गया तो वहां इस किसान ने मेरा पीछा पकड़ा।’
राजकुमार शुक्ल ने गांधीजी ने चंपारन आने का निवेदन किया और बताया कि इस बारे में वकील बाबू यानी गांधी के प्रिय साथी ब्रजकिशोर बाबू आपको सब बता देंगे। यही हुआ।
गांधीजी आगे लिखते हैं-मैंने उनसे चंपारन की थोड़ी कथा सुनी। अपने रिवाज के अनुसार मैंने जवाब दिया, ‘खुद देखे बिना इस विषय पर मैं कोई राय नहीं दे सकता। आप कांग्रेस में बोलिएगा। मुझे तो फिलहाल छोड़ ही दीजिए।’ राजकुमार शुक्ल को कांग्रेस की मदद की तो जरूरत थी ही। ब्रजकिशोर बाबू कांग्रेस में चंपारन के बारे में बोले और सहानुभूति-सूचक प्रस्ताव पास हुआ।’
गांधी को राजकुमार शुक्ल ने इस बात के लिए मना लिया कि वे अपनी आंखों से चंपारन को देखें। गांधी ने तिथि बता दी और कलकत्ते जाकर गांधी को चंपारन ले आए। गांधी ने चंपारन को देखा। चंपारन के साथ-साथ छुआछूत से सामना हुआ। कई और समस्याआंे को देखा। निलहे के अत्याचार के साथ-साथ छुआछूत और शिक्षा पर भी गांधी ने ध्यान दिया और इस तरफ भी कदम बढ़ाए। पूरे आंदोलन पर दृष्टिपात करें तो इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि एक तरह से चंपारन ने ही गांधी को गढ़ा और आगे का रास्ता दिखाया। चंपारन के अनुभव ने आजादी के आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई।
पर, इस पूरे आंदोलन में राजकुमार शुक्ल के साथ कई लोग जुड़े थे, जो सिर्फ इतिहास में सिमट कर रह गए और रांची, जहां चंपारन की कार्यवाहियां हुई, आंदोलन की रूपरेखा बनी, वह भी भूला दी गई। रांची का जिक्र एकाध जगह राजकुमार शुक्ल की जीवनीकार राय प्रभाकर प्रसाद ने किया है और डॉ राजेंद्र प्रसाद ने भी अपनी आत्मकथा और फिर ‘चंपारन में महात्मा गांधी’ में किया है। यद्यपि गांधी वांगमय में पूरे विस्तार से रांची आती है। यह ध्यान रखने की बात है कि जब राजकुमार शुक्ल गांधी से मिले और चंपारन आने के लिए बार-बार आग्रह कर रहे थे, उस समय उनकी उम्र 41 साल थी और गांधी उनसे छह साल बड़े यानी 47 साल के थे। यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि दक्षिण अफ्रीका से भारत आने से पहले गांधीजी की कहानी भारत पहुंच चुकी थी।

कहते हैं, पं बंगाल के बाद 1813 में चंपारन में नील का पहला कारखाना कर्नल हिक्की चकिया रेलवे स्टेशन के करीब एक किमी दक्षिण बारा या बाराकिया में स्थापित किया था। पहले यहां के किसान गन्ने की खेती करते थे। इससे काफी आय भी होती थी, लेकिन 1850 में नील के भाव काफी बढ़ गए तो चीनी के कारखानों के स्थान पर नील के कारखानों ने जगह ले ली। शुरू-शुरू में जहां जहां नील और ईख की खेती के लिए मिट्टी अच्छी होती है, वहां नील के कारखाने स्थापित होते गए। लेकिन 1875 तक आते-आते निलहे गोरों ने अपना दबदबा कायम कर लिया। 1892-97 में एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि चंपारन में नील के 21 कारखाने तथा उनकी 48 कोठियों में करीब 33 हजार कामगार थे और 95,970 एकड़ अर्थात कुल कृषि भूमि के सात प्रतिशत भाग में नील की खेती हो रही थी। इसी तरह निलहों का अत्याचार भी रैयतों पर बढ़ने लगा था। इसी बीच 1897 में विश्व में कृत्रिम नील बाजार में आ गया। इससे नील का भाव गिर गया। पटना से प्रकाशित ‘बिहार बंधु’ के 20 जनवरी, 1899 के अंक मंे छपा कि आजकल नील बहुत मंदी है। और 20 अगस्त 1899 के अंक में छपा कि इस वर्ष की वर्षा से मुजफ्फरपुर में नील की बहुत बर्बादी हुई, लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ जाने के कारण जर्मनी से कृत्रिम नील आना बंद हो गया और बिहार में नील का भाव उछलकर 675 रुपये प्रति मन हो गया। जिस नील की कीमत 234 रुपये मन रहता था, गिरकर सौ रुपये मन हो जाता है; अचानक उसकी कीमत में इतना भारी उछाल हो जाता है। निलहे गोरों की बांछे खिल जाती है। अब नील की खेती के लिए अत्याचार का दूसरा दौर शुरू हो जाता है। बेतिया राज का प्रबंध यूरोपियों के हाथ में रहने कारण यहां निलहों की मनमानी चलती है। एक तरफ दमन शुरू होता है और दूसरी ओर विरोध के स्वर भी उठने लगते हैं।
चंपारन में नील की खेती के साथ ही इसका विरोध भी शुरू हो गया। कई तरह के लगान भी जबदरस्ती वसूले जाते हैं। इससे किसानों की परेशानी बढ़ती जाती है। जिस बेतिया राजा के अधीन यह क्षेत्रा था, वह पहले ही अंग्रेजों से कर्ज लेकर अपनी सीमा खींच दी थी। अब किसानों के सामने खुद अपनी बात रखने, लड़ने और आंदोलन के अलावा कोई विकल्प नहीं था। धीरे-धीरे कुछ गांवों के किसान नीलहों की कारगुजारी से लड़ने की हिम्मत जुटाते और 1907 तक आते आते सतबरिया के राजकुमार शुक्ल, साठी गांव के शेख गुलाब, मठिया गांव के शीतल राय आगे बढ़ते हैं। शेख गुलाब के नेतृत्व में मुसलमान रैयत मिटिंग करते हैं और नील की खेती छोड़ देते हैं। पर, इतने से ही समस्या का समाधान नहीं होना था। तीनों पीडि़त किसानों से चंदा वसूलकर कुछ राशि एकत्रित करते हैं ताकि मुकदमें लड़े जा सकें। मुकदमा लड़ना भी इन किसानों के बस में नहीं था। लड़ तो रहे थे, लेकिन नीलहों का अत्याचार भी कम नहीं हो रहा था। कहीं कोई रोशनी नहीं दिखाई दे रही थी। वैसाख की तपती दोपहरी की तरह किसानों का जीवन भी तप रहा था। राजकुमार शुक्ल ने दूसरी तरकीब भी निकाली और वे गांव-गांव घूमकर लोगों में अलख जगाने लगे और उस समय के समाचार पत्रों कानपुर के प्रताप, इलाहाबाद के अभ्युदय और नागपुर के हिंद केशरी में नीलहों के अत्याचार और किसानों की दुर्दशा का जिक्र कर पत्रा छपवाने लगे। इसके अलावा तीन अप्रैल, 1915 को छपरा में आयोजित बिहार प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन के मंच से अपना दुखड़ा कह सुनाया। इसी साल मई 1915 में ब्रज किशोर प्रसाद ने विधान परिषद में भी प्रस्ताव रखा, जिसे अनसुना कर दिया गया। पर उसी साल जून में एक अफसर ने रिपोर्ट प्रस्तुत कर नीलहों के अत्याचार को सही ठहराया। इन सबके बावजूद अत्याचार कम नहीं हो रहे थे और न शुक्ल हार मान रहे थे। अगले साल 1916 के दिसंबर के आखिरी सप्ताह में लखनउ$ में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था तो वहां भी ब्रजकिशोर बाबू के साथ शुक्ल जी गांधी के पैरों पर गिर पड़े। उनसे अनुरोध किया कि चंपारन के किसानों की दुर्दशा पर एक प्रस्ताव लाएं, लेकिन गांधी ने जवाब दिया कि जब तक अपनी आंखों से देख न लें, तब तक इस पर अपना विचार नहीं दे सकता। गांधी के जवाब के बाद प्रस्ताव बाबू ब्रजकिशोर ने पेश किया और राजकुमार शुक्ल ने उसका समर्थन किया।
डॉॅ राजेंद्र प्रसाद ‘ बापू के कदमों में’ में इसका उल्लेख इन शब्दों में करते हैं--‘कांग्रेस के बाद सब लोग अपने-अपने स्थान को चले गए, पर राजकुमार शुक्ल ने गांधीजी से वचन ले लिया कि जब वह कभी बिहार की ओर से गुजरेंगे तो चंपारन भी जाएंगे और वहां की हालत देखेंगे। मार्च 1917 में गांधीजी को एक बार कलकत्ता की ओर जाना पड़ा और उन्होंने राजकुमार शुक्ल को पत्रा लिखा कि उनसे वह कलकत्ता में मिलें और वहां से उनको अपने साथ चंपारन ले जाएं। पर दुर्भाग्यवश यह पत्रा राजकुमार शुक्ल को देर से मिला और तब तक गांधीजी कलकत्ता से वापस चले जा चुके थे।’ हालांकि इसका दुख राजकुमार शुक्ल को हुआ, लेकिन इसमें इनकी क्या गलती। डाक विभाग ने पत्रा ही बहुत देर से दिया। हालांकि दूसरा मौका भी जल्द मिल गया। डॉ राजेंद्र प्रसाद लिखते हैं, ‘अप्रैल 1917 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी की बैठक कलकत्ता में, ईस्टर की छुट्टियों में होने वाली थी। गांधीजी उसमें शरीक होने कलकत्ता गए और इस बात की सूचना उन्होंने राजकुमार शुक्ल को दे दी।’ पत्रा समय से मिल गया और राजकुमार शुक्ल भी समय से कलकत्ता पहुंच गए और गांधीजी को पटना लेकर पहुंचे। इस अधिवेशन में डॉ राजेंद्र प्रसाद भी गए थे, लेकिन उस समय तक गांधीजी और राजेंद्र बाबू एक दूसरे से अपरिचित थे। उन्हीं के शब्दों में, -मैं अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी का सदस्य था और उस जलसे में शरीक था। इत्तिफाक से जलसे में में गांधीजी के बहुत नजदीक बैठा था, पर वह मुझे जानते नहीं थे और न मैं यह जानता कि वह कलकत्ता से ही सीधे बिहार जाने वाले हैं। राजकुमार शुक्ल उनके सभा तक ले गए थे, पर बाहर ही ठहर गए थे, इसलिए मेरी मुलाकात उनसे भी नहीं हुई। सभा समाप्त होने पर मैं जगन्नाथपुरी चला गया और इधर गांधीजी राजकुमार शुक्ल के साथ पटना चले आए।’ राजेंद्र बाबू वहां से पुरी चले गए और गांधीजी को शुक्ल जी साथ लेकर राजेंद्र बाबू के घर पटना पहुंचे।
यहां गांधीजी को समझना जरूरी है। गांधीजी का एक व्यक्तित्व बन चुका था और सादगी ने उनके जीवन में प्रवेश कर लिया था। दूसरे नेताओं की तरह चमक-दमक उनके पहनावे में नहीं था। इसलिए जब वे राजेंद्र प्रसाद के आवास पर पहुंचे तो राजेंद्र बाबू का नौकर उन्हें एक देहाती मुवक्किल ही समझा। राजकुमार शुक्ल तो देहाती थे ही और उनकी बोली-बानी भी। इसलिए नौकर की नजर में दोनों ही देहाती थे। गांधीजी का उस समय का पहनावा ग्रामीण भारतीय की तरह ही था। धोती, अचकन और काठियावाड़ी पगड़ी। कभी-कभी वह धोती-कुरता के साथ एक मामूली टोपी भी पहन लिया करते थे, जो बाद में गांधीटोपी के नाम से मशहूर हो गया। और यह टोपी खादी की होती थी। नौकर ने दोनों के साथ मुवक्किल की तरह ही बरताव किया और उस पाखाने का भी इस्तेमाल करने नहीं दिया, जो खास घर के मालिक के इस्तेमाल में रहा करते थे। गांधीजी ने नित्यक्रिया और स्नानादि नहीं किया था। कुछ समय बाद पटना के मजहरूल हक को खबर लग गई कि गांधीजी पटना आए हैं तो वे खुद राजेंद्र बाबू के घर पहुंचकर अपने घर लिवा आए। मजहरूल साहब इंग्लैंड से वकालत पढ़ने के बाद गांधीजी के साथ ही जहाज से वापस आए थे। इसलिए दोनों के एक दूसरे से पूर्व परिचित थे। यहां से फिर चंपारन की यात्रा शुरू होती है। बीच में कृपलानी मिलते हैं। इस तरह चंपारन की धरती पर गांधीजी के कदम पड़े।
लेकिन यहीं पर यह कहना मुनासिब होगा कि आखिर जब बिहार में एक से एक नेता थे, तो उन्होंने चंपारन के किसानों की दुर्दशा को दूर करने के लिए क्यों नहीं कुछ किया? कुछ वकील मुकदमा तो लड़ते रहे, लेकिन उन्हें अपनी फीस से मतलब थी। इसका दुख पीर मुहम्मद मूनिस ने प्रताप के 13 मार्च, 1916 के अंक में ‘दुखी’ नाम से लिखे अपने लेख ‘चंपारण में अंधेरे’ में किया है। लेख की अंतिम पंक्तियां हैं-‘हमारी समझ में यह बात नहीं आती कि जिस प्रांत में मि. मजहरूल हक, सैयद अली इमाम, स. हसन इमाम, मि. दास जैसे प्रभावशाली नेता रहते हैं, वहां की प्रजा भी अनेक दुःखों से ग्रसित रहे। बिहार के नेताओं को लज्जा आनी चाहिए कि उनके 18 लाख भाई इस प्रकार के दुःख भोगे, पशुवत जिंदगी बिताएं और आप मौज से सुख चैन की बंसी बजाते फिरें, उनकी कोई खबर ही न लें। श्रीयुक्त पांडेय जगन्नाथ प्रसादजी से हमारी प्रार्थना है कि जयप्रकाश मैदान में आकर देश के सामने चंपारण की प्रजा का आर्तनाद सुनने की चेष्टा कीजिए, देश अवश्य सहायता करेगा। मगर जरा यह भी ध्यान रहे कि ‘‘जो अपनी सहायता आप करता है, उसकी सहायता परमात्मा भी करता है।’’
पीर मुनिस के बारे में भी जान लेना जरूरी है। आचार्य शिवपूजन सहाय ने इनके बारे में लिखा है, ‘पीर मुहम्मद मुनिस बिहार के चंपारण जिले के निवासी थे। बेतिया नगर में उनका मकान था। उनकी आर्थिक दशा जितनी शोचनीय थी, उतनी ही उनकी देशभक्ति अभिनंदनीय थी। आजीवन वे हिंदी और हिंदुस्तानी की सेवा में निस्पृह भाव से तत्पर रहे। चंपारण के निलहे गोरों के अत्याचार से उत्पीडि़त जनता की आह से द्रवित होकर उन्होंने अपनी वास्तविक स्थिति बिसार दी। कानपुर के हिंदी साप्ताहिक प्रताप में, उसके प्रकाशन के आरंभ काल 1913 से ही, वे पीडि़त प्रजा की दुःखगाथा नियमित रूप से देशवासियों को सुनाने लगे। प्रताप के प्रतापी संपादक श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के उत्तेजन और प्रोत्साहन से वे बड़ी निर्भीकता के साथ आततायी गोरों के भीषण कुकृत्यों का भंडाफोड़ करते रहे।’
ये वही पीर मुनिस थे, जिनसे राजकुमार शुक्ल ने गांधी के नाम पत्रा लिखवाया था। उस पत्रा को भी देख लेना चाहिए ताकि चंपारण के घोर देहात में रहने वाले भी गांधीजी के बारे में क्या-क्या जानते थे। इस पत्रा से भी चंपारण की स्थिति को समझ सकते हैं-
बेतिया
27 फरवरी, 1917
मान्यवर महात्मा,
सुनते ही रोज औरों के
आज मेरी भी दास्तान सुनो।
आपने उस अनहोनी को प्रत्यक्ष का कार्यरूप में परिणत कर दिखाया, जिसे टॉलस्टाय जैसे महात्मा केवल विचारा करते थे। उसी आशा और विश्वास के वशीभूत होकर हम आपके निकट अपनी राम कहानी सुनाने के लिए तैयार हैं। हमारी दुःख भरी कथा उस दक्षिण अफ्रीका के अत्याचार से, जो आप और आपके अनुयायी वरी सत्याग्रही बहनों और भाइयों के साथ हुआ कहीं अधिक है। हम अपना वह दुःख जो हमारी 19 लाख आत्माओं के हृदय पर बीत रहा है, सुनाकर आपके कोमल हृदय को दुखित करना उचित नहीं समझते। बस, केवल इतनी ही प्रार्थना है कि आप स्वयं आकर अपनी आंखांे से देख लीजिए, तब आपको अच्छी तरह विश्वास हो जाएगा कि भारतवर्ष के एक कोने में में यहां की प्रजा, जिसको ब्रिटिश छत्रा की सुशीतल छाया में रहने का अभिमान प्राप्त है, किस प्रकार के कष्ट सहकर पशुवत जीवन व्यतीत कर रही है। हम और अधिक न लिखकर आपका ध्यान उस प्रतिज्ञा की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं, जो लखनउ$ कांग्रेस के समय और फिर वहां से लौटते समय कानपुर में आपने की थी, अर्थात मार्च-अप्रैल के महीने में चंपारण आउ$ंगा, बस अब समय आ गया है। श्रीमान् अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करें। चंपारण की 19 लाख की दुःखी प्रजा श्रीमान् के चरण-कमल के दर्शन की टकटकी लगाए बैठी है। और उन्हें आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि जिस प्रकार भगवान् श्रीरामचंद्र के चरण स्पर्श से अहिल्या तर गई, उसी प्रकार श्रीमान् के चंपारण में पैर रखते ही हम 19 लाख प्रजाओं का उद्धार हो जाएगा। 
श्रीमान का दर्शनाभिलाषी
राजकुमार शुक्ल

ध्यान दें तो इस पत्रा में गांधीजी को महात्मा संबोधित किया गया है। क्या सबसे पहले राजकुमार शुक्ल ने ही उन्हें महात्मा शब्द से संबोधित किया और दूसरा यह कि बिहार में तमाम बड़े नेताओं के रहते हुए भी चंपारण की अनपढ़ जनता आखिर गांधीजी में ही अपनी मुक्ति क्यों देखती थी? दक्षिण अफ्रीका की कहानी जरूर यहां तक पहंुच चुकी थी, लेकिन भारत आने के बाद उन्होंने ऐसा कोई आंदोलन नहीं किया था, जिसे देखकर चंपारण की जनता आंख मंूद कर विश्वास करे, लेकिन पढ़े-लिखों से चंपारण की जनता दूरदर्शी साबित हुई।


महात्मा गांधी ने राजेंद्र प्रसाद, बाबू ब्रजकिशोर के साथ अपना काम शुरू कर दिया और इधर धीरे-धीरे नीलहों में डर भी पैदा होने लगा। किसानों की दर्दभरी कहानियां लिपिबद्ध होने लगी और इसमें काफी समय लगा। गांधी के इस आंदोलन में शामिल हो जाने के बाद अंगरेज अधिकारियों ने अपने स्तर से इसकी निगरानी शुरू कर दी। गांधीजी ने वहां के किसानों में निडरता भरी। अपनी बात किसी के भी सामने खुलकर बोलने का जज्बा पैदा किया। मजिस्ट्रेट ने एक लंबी रिपोर्ट गवर्नमेंट को लिखी, जिसका सारांश यह था कि रैयतों में इतनी खलबली हो गई कि अब वे नीलहों को ही नहीं, बल्कि सरकारी अफसरों को भी कुछ नहीं समझते। करीब दस हजार से अधिक रैयतों का बयान लिया जा चुका था। इसकी खबर अंग्रेज सरकार को थी। इस बीच गवर्नमेंट का एक पत्रा आया कि जांच पूरी हो गई होगी, इसलिए रेवन्यु बोर्ड के मेंबर को, जो उ$ंचे पदाधिकारी होते थे, एक सीनियर सिविलियन अंगरेज अफसर थे, गवर्नमेंट रांची से पटना भेज रही है। गांधीजी उनसे मिलें और बातें करें और अपनी जांच का नतीजा बतावें। गांधीजी बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद के साथ पटना गए और रेवन्यु मेंबर से मुलाकात की। रेवन्यु मेंबर ने रिपोर्ट पाकर, गवर्नमेंट के हुक्म से उसकी प्रतियां नीलवरों, सरकारी कर्मचारियों और कुछ दूसरे लोगों के पास भेज दी। रिपोर्ट के उत्तर में सरकारी कर्मचारियों और नीलहों ने अपने-अपने बयान गवर्नमेंट को भेज दी। खलबली चारों तरफ थी कि इसी बीच फिर एक पत्रा रांची से चंपारन पहुंचा। सरकार अब गांधीजी को चंपारन से हटाने पर विचार कर रही थी। इसलिए रांची में रह रहे लेफ्टिनेंट गर्वनर सर एडवर्ट गेट चाहते हैं कि गांधीजी उनसे मिल लें। पत्रा पाकर गांधीजी रांची में चंपारन के किसानों की समस्याओं को लेकर आड्रे हाउस में लेफ्निेेंट गर्वनर से मिले। इसके बाद मुख्य सचिव आदि से भी मिले, जो उस समय यहीं रहते थे। गांधी की यह छोटी अवधि की यात्रा थी। इसके बाद वे बिहार चले गए। इसके बाद आठ जुलाई को लिखे गए दो पत्रा भी रांची के पते से मिलते हैं। इसके बाद 23 सितंबर, 1917 का पत्रा रांची से लिखा मिलता है, जिसे मगनलाल गांधी को लिखा गया था। वह फिर चंपारन समिति की बैठक के सिलसिले में रांची आए थे। 24 सितंबर को चंपारन समिति की बैठक रांची में ही हुई थी। यह बैठक काफी लंबी चली और आंदोलन को लेकर काफी विमर्श हुआ। 25 जुलाई 1917 को गांधी जी ने लीडर अखबार के संपादक के नाम पत्रा रांची से ही लिखा। इसमें कहा कि दक्षिण अफ्रिका से भारत आए मुझे ढाई साल से कुछ अधिक समय हो गया। इस समय का एक चतुर्थांश मैंने स्वेच्छापूर्वक भारतीय रेलों के तीसरे दर्जे में यात्रा करने में बिताया। यह पत्रा काफी लंबा है, जिसे लीडर ने चार अक्टूबर को छापा। 25 सितंबर को ही जमनालाल बजाज को भी पत्रा लिखा। इसके बाद मगन लाल गांधी को, जिसें जिक्र किया कि बुखार से मुक्त नहीं हुआ हंू। बुखार में भी वे चंपारन समिति की बैठक में भाग लेते रहे। एक पत्रा 27 सितंबर को जीए नटेसन को लिखा और उसमें भी अंत में लिखा कि ‘मेरे ज्वर के कारण आप चिंतित न हों। वह अपने समय से ही जाएगा। वह यहां अक्टूबर के पहले सप्ताह तक रांची रहे। रांची में गांधीजी के रहने के बारे में चार अक्टूबर 1917 तक का जिक्र मिलता है। चंपारन के इस आंदोलन में रांची भी जुड़ गया और यह एक प्रमुख केंद्र बन गया। गेट ने एक कमीशन बना दी और गांधीजी को इसका मेंबर बनाने के लिए राजी कर लिया। इसके बाद कमीशन का काम बेतिया से शुरू हुआ। राजेंद्र प्रसाद लिखते हैं-‘ कुछ सरकारी अफसरों और कुछ नीलवरों ने अपने-अपने लिखित बयान दिए, उनके जबानी इजहार भी लिए गए। कमिशन मोतिहारी में भी कई दिनों तक बैठा। उनके मेंबरों ने कितनी ही नील-कोठियों में जाकर नीलवरों के इजहार लिए और उनके कागज-पत्रा भी देखे गए।...इजहार का काम खत्म हो जाने पर रिपोर्ट लिखने का समय आया। सर एडवर्ड गेट ने महात्माजी से कह दिया कि कमीशन यदि सर्वसम्मति से रिपोर्ट देगा तो उस रिपोर्ट पर गवर्नमेंट आसानी से काम कर सकेगी। पर यदि रिपोर्ट में भिन्न-भिन्न मत सदस्यों ने प्रकट किए तो गवर्नमेंट को उस रिपोर्ट के आधार पर काम करने में कठिनाई होगी।’ अंततः रिपोर्ट सर्वसम्मति से सरकार को भेजी गई। जांच रिपोर्ट की प्रायः सभी बातें मंजूर कर 18 अक्टूबर 1917 को सरकार ने अपना मंतव्य प्रकाशित कर दिया। उसके बाद निलहों में खलबली मच गई। सरकार ने रिपोर्ट के आधार पर एक कानून बनाया, जिसके जरिए तीन कठिया प्रथा गैरकानूनी करार दी गई और लगान में इजाफा भी उपर्युक्त मात्रा में कम कर दिया गया। 19 नवंबर को विधान परिषद में मि मौड ने चंपारण भूमि विधेयक प्रस्तुत किया। इस अवसर पर उन्होंने एक व्याख्यान दिया और 50-60 वर्षों का चंपारन में नील-संबंधी झगड़ों का संक्षिप्त इतिहास भी प्रस्तुत किया। यह विधेयक एक प्रवर समिति को विचारार्थ भेज दिया गया। समिति ने कुछ संशोधन की बात कही। संशोधित विधेयक 20 फरवरी 1918 को सरकारी गजट मंे प्रकाशित हुआ। अंत में चार मार्च 1918 को परिषद इस विधेयक को स्वीकृति प्रदान कर देती है। इस अधिनियम का सार यह था कि मालिक और रैयत के बीच किसी अनुबंध के बावजूद रैयत मालिक के लिए अपनी जोत के किसी हिस्से में कोई खास फसल उपजाने के लिए बाध्य नहीं होगा तथा उक्त अनुबंध रद समझा जाएगा। इस प्रकार की कोई प्रविष्टि यदि सर्वे खतियान में है तो उसे भी रद कर दिया जाता है। अब रैयत की स्वेच्छा पर निर्भर है कि वह मालिक को किसी खास फसल की निश्चित रकम तौलकर देने के लिए अनुबंध कर सके, पर उसकी जोत पर पाबंदी नहीं रह जाती। इस प्रकार तिनकठिया प्रथा समाप्त हुई और नील का झगड़ा भी। हालांकि कुछ लोगों ने टीका-टिप्पणी भी की, लेकिन गांधीजी को विश्वास था कि तीन कठिया प्रथा उठ जाने के बाद नीलहे यहां ज्यादा दिन ठहर नहीं सकते, क्योंकि उनका कारबार जुल्म और जबरदस्ती से चलता था-अगर यह बंद हो जाए तो वे यहां ठहर नहीं सकते। हुआ भी यही। महात्मा गांधी के चंपारन जाने और इस जांच तथा रिपोर्ट और नए कानून बनने के थोड़े दिन बाद नीलहे अपनी जमीन, कोठी, माल-मवेशी बेचकर चले गए। गांधीजी के पहुंचते ही उनका रोब उठ गया था। उन्होंने उन्हीें रैयतों और बेतिया राज के हाथों में अपना सबकुछ बेच डाला।

गांधीजी की यह पहली जीत थी, जिसमें एक बूंद रक्त भी नहीं बहा था। इस जीत से चंपारन के रैयतों का भी आत्मविश्वास बढ़ा और उनके भीतर का डर गायब हुआ। इसका परिणाम आगे चलकर भी दिखा। पर गांधीजी इस जीत से ही उत्साहित नहीं थे। वे पिछड़े गांवों में कुछ सकारात्मक काम भी करना चाहते थे। छुआछूत का शिकार तो आते ही हुए थे, लेकिन कुछ और भी समस्याएं थीं। वह जानते थे कि शिक्षा बहुत जरूरी है। आज नीलहे गए, कल दूसरे आ जाएंगे और जुुल्म कभी र$केगा नहीं। इसलिए तीन-चार पाठशालाएं खोलीं। इन पाठशालों में पढ़ाने वाले त्यागी कार्यकर्ता बिहार से न्यून महाराष्ट्र और गुजरात से ज्यादा थे। इनमें महिलाएं भी शामिल थीं। बिहारियों में केवल धरणीधर एक स्कूल चलाते थे। बाहर के महादेव भाई देसाई, उनकी पत्नी दुर्गाबाई, साबरमती आश्रम के श्री नरहरि पारिख, उनकी पत्नी मणि बहन, स्वयं कस्तूरबा भी रहीं। बंबई के वामन गोखले सहित कई नाम। पर ये नाम अब खो गए हैं?
बहरहाल, चंपारन नीलहों के आतंक से मुक्त हुआ। इसका पूरा-पूरा श्रेय राजकुमार शुक्ल को जाता है, जिन्होंने गांधीजी को चंपारन आने के लिए विवश किया। चंपारन के बाद गांधीजी अब देश की आजादी में सक्रिय हो जाते हैं और राजकुमार शुक्ल अपने अवसान की ओर। एक बड़ा मार्मिक प्रसंग का हवाला राय प्रभाकर प्रसाद ने दिया है---
शुक्लजी गांधीजी को कई पत्रा लिखते हैं। वे लिखते हैं कि अब बुझने ही वाला हूं, क्या आप चंपारन नहीं आएंगे? शुक्ल जी धैर्य टूट जाता है औरवे एक दिन मोतिहारी से साबरमती के लिए प्रस्थान कर जाते हैं। पंद्रहवें-सोलहवें दिन उन्हें गांधी और बा के दर्शन होते हैं। बा की आंखें भर जाती हैं। पूछती हैं-यह आपको क्या हो गया पंडितजी? शुक्लजी की आंखें डबडबा जाती हैं, गला रुंध जाता है। गांधीजी उनसे कहते हैं, आपकी तपस्या अवश्य रंग लाएगी। आज नहीं तो कल देश आजाद होगा। लेकिन शुक्लजी पूछते हैं, क्या वह दिन मैं देख सकूंगा, तो गांधीजी निरुत्तर हो जाते हैं। आश्रम में कुछ दिन ठहरकर शुक्लजी वापस चंपारन आ जाते हैं और 20मई, 1929 को उनका निधन हो जाता है और चंदे से उनका दाह-संस्कार होता है। जब शुक्लजी के निधन की खबर क्रूर-अत्याचारी नीलहे एमन को मिलती है तो वह खुश नहीं होता है। उसके चेहरे पर विषाद छा जाता है। वह अनायास बोल पड़ता है, ‘चंपारन का वह अकेला मर्द था, जो मुझसे 25 साल तक लड़ता रहा।’ ऐमन इस बात को जानता था कि शुक्लजी के घर-परिवार की सारी संपत्ति कोठियों से मुकदमा लड़ते-लड़ते तथा गरीबों और मजदूरों की मदद करते-करते समाप्त हो गई है। उनके घर परिवार में कोई कमाउ$ व्यक्ति नहीं है। अपने एक कर्मचारी के मार्फत ऐमन शुक्लजी के श्राद्ध के लिए विधवा तथा बेटी दामाद को तीन सौ रुपये भेजवाता है। कर्मचारी रुपये लेकर हक्का-बक्का साहब का मुंह ताक रहा है। कुछ क्षण बाद बोलता है, ‘हुजूर वह तो आपका दुश्मन था...’ बात काटकर ऐमन कहता है, ‘तुम उसकी कीमत नहीं समझोगे।’ 
श्राद्ध के दिन डॉ राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह बाबू, ब्रजकिशोर बाबू आदि दर्जनों नेता सतवरिया में शामिल हुए। ऐमन भी उसमें शामिल हुआ। राजेंद्र बाबू उससे पूछते हैं, आपका दुश्मन तो चला गया, अब खुश होइए। ऐमन वही बात दुहराता है...फिर कहता है, अब ज्यादा दिन मैं भी नहीं बचूंगा। चलते-चलते ऐमन शुक्लजी के बड़े दामाद सरयू राय को अगले दिन कोठी पर बुलाता है। वह मोतिहारी के पुलिस कप्तान के नाम एक पत्रा देता है। उसी पत्रा के आधार पर सरयू राय को पुलिस जमादार की नौकरी मिलती है। उसके सात महीने बाद ऐमन भी इस दुनिया से विदा हो जाता है।
इस शताब्दी वर्ष में अपने भूले नायकों को भी याद करने की जरूरत है, पीछे मुड़कर देखने की भी।


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