आर्यों की जन्मभूमि

अंबिका प्रसाद वाजपेयी

  आर्य लोग भारत के ही रहने वाले थे या कहीं बाहर से आए थे? इस विषय पर यूरोपियन अनुसंधान कर्ताओं ने बहुत कुछ लिखा है। मैं ने इम्पीरियल लाइब्रेरी में इस विषय पर अनेक विद्वानों के मत पढ़े थे। एक को छोड़कर प्रायः सभी विद्वानों का मत है कि आर्य मध्य एशिया से आए थे। एतद्देश्यीय पुराने पण्डित यह मानते ही नहीं कि आर्य कहीं बाहर से आए थे। वे समझते हैं कि भारतवर्ष ही उन का जन्म स्थान था। इस मत के विदेशी समर्थक एक मि. कर्जन ही मिले। लार्ड कर्जन इन्हें न समझ लेना चाहिए, क्योंकि उन के जन्म से शायद सौ साल पहले यह रहे होंगे। 
 भारतवासियों में एकमात्रा लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ऐसे विद्वान निकले जिन्होंने एक तीसरे मत की स्थापना की। उन का ‘आर्कटिक होम्स इन दि वेदाज’ मैं ने सीहारे हाई स्कूल की लाइब्रेरी में पढ़ा था। उस समय 1907 में उनके अनेक स्थल मेरे लिए दुर्बोध थे। फिर भी जो प्रतिपाद्य विषय था, वह समझ में आ ही गया। तिलक महाराज का कहना था कि आर्यों की जन्मभूमि उत्तरी धु्रव देश है। अनेक वेद मंत्रा उसी ओर संकेत करते हैं। उन्होंने विविध नक्षत्रों से सम्बन्धित यज्ञों के विषय में बताया कि उत्तरी ध्रुव देश के बिना अन्यत्रा उन की संगति नहीं बैठ सकती। छः महीने का दिन और छः महीने की रात भी वहीं होती है। बहुत से हेतु दिए, जिन के विषय में जनसाधारण का ज्ञान नहीं के बराबर है, पर जो थोड़े से प्रयास से समझ में आ जाते हैं। मैं यदि उसके विषय में कुछ कहूं तो मेरे मत का मूल्य ही क्या है? जानकार के ही मत का मूल्य होता है। 1906 की कलकत्ता कांग्रेस के अवसर पर एक सज्जन ने तिलक महाराज से इस विषय पर कुछ चलती सी बात की थी, उसे सुन कर मुझ में उस ग्रंथ के पढ़ने का विचार उत्पन्न हुआ था।
 मध्य एशिया आर्यों की जन्मभूमि हो या न हो, पर इस में सन्देह नहीं कि वहां भी आर्यों की बस्तियां थीं। ये वैसे ही आर्य निवास थे, जैसे विंध्य के दक्षिण में थे और जिन की चर्चा पंतजलि ने महाभाष्य में की है, या और प्रकार के?-यह कौन कह सकता है! वहां तीर्थ स्थान तो थे ही और कहना चाहिए कि आज भी हैं। मेरु पर्वत पर ऋषियों की उस सभा की कथा प्रसिद्ध है, जिस में वैशम्पायन के न पहुंचने पर उन्हें ब्रह्महत्या का दोष लगा था। यह मेरु कहां है? स्वर्गीय पं योगेन्द्र चन्द्र राय विद्यानिधि ने अपने पौराणिक उपाख्यान ग्रंथ में लिखा है--मेरु देश पूर्वी और चीनी तुर्किस्तान है। मेरु जब मध्य एशिया में मिलता है तब यदि कैलास और मानसरोवर तिब्बत में मिलते हैं तो क्या आश्चर्य?
   डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ‘पाणिकालीन भारतवर्ष’ में लिखते हैं---‘पाणिनि सूत्रा 6।1।153 में प्रस्कण्व एक ऋषि का नाम है। इसी का प्रत्युदाहरण प्रकण्व है जो एक देश का नाम था।प्रकण्वो देश काशिका यूनानी इतिहास लेखक हिरोदोतोस ने पेरिकनिओइ नामक जाति का उल्लेख किया है, जिस की पहचान स्ठेन कोनो ने फरगना के लोगों से की है। खरोष्टी शिलालेख भूमिका पृष्ठ 18 ज्ञात होता है कि प्रकण्व ही पेरकनिओई या फरगना का प्राचीन नाम था। इस प्रकार प्रकण्व देश भी मध्य एशिया के भूगोल का अंग था। फारसी में पे और फे बदलते हैं। ‘क’ प्राकृत में ‘ग’ हो जाता है। इस तरह प्रकण्व फरगना हो गया।

‘मारवाड़ी बन्धु’ 

  काबुल के अमीर अब्दुल रहमान 1907 में दिल्ली पधारे थे। बकरीद का मौका था, इस लिए दिल्ली के कुछ मुसलमानों ने अमीर साहब के लिए 101 गायों की कुर्बानी का ऐलान किया था। जब अमीर साहबब को मालूम हुआ तो उन्हों ने घोषणा की कि इस मुल्क में हिन्दुओं का मेहमान हूं। उन का दिल दुखाने नहीं आया हूं। क्या मुल्क में दुम्बे या भेड़ें नहीं हैं, जो गायों की कुर्बानी की बात कही जाती है! मैं एक भी गाय की कुर्बानी पसन्द नहीं करूंगा। हिन्दी के पुराने सम्पादक पं दुर्गाप्रसाद मिश्र का कोई पत्रा नहीं निकल रहा था। फिर भी उन्हों ने इस खबर का हैंडबिल छपाया और आप जाकर मंदिरों और दूसरे स्ािानों पर चिपकाया।
 इस के बाद बाबू रूड़मल्लजी गोएनका की प्रेरणा और सहायता से उन्हों ने ‘मारवाड़ी बन्धु’ नामक साप्ताहिक पत्रा निकाला। यह पत्रा कोई दो साल तक चलता रहा। किसी योजना के अनुसार पत्रा नहीं प्रकाशित हुआ था। न व्यय की ठीक-ठीक व्यवस्था थी और न कार्यकर्ताओं की। पण्डितजी ही उस का सब काम करते थे। दूसरा कोई सहायक न था। प्रेस में कापी ले जाना, कागज पहुंचाना, प्रूफ देखना और छप जाने पर उस के वितरण की व्यवस्था करना भी उन्हीं के जिम्मे था। कभी-कभी मैं कुछ लिख देता था।

नृसिंह मासिक पत्र
 
  ‘ऐसा ही एक आदमी’ का व्यापार मेरा ‘नृसिंह’ मासिक पत्रा का प्रकाशन भी था। लेफटेंनेंट जार्ज -रैनकिंग को पढ़ा कर मैं ने जो कई सौ रुपये जमा किए थे, वे निकलने को बेचैन थे और ‘नृसिंह’ ने उन्हें निकलने का रास्ता दिखा दिया। उन दिनों ‘सरस्वती’ ही एकमात्रा मासिक पत्रिका हिन्दी में प्रकाशित हो रही थी। पर इसमें राजनीति को स्थान न था। ‘नृसिंह’ राजनीतिक और वह भी नई पार्टी का पक्षपाती राजनीतिक पत्रा था। समझा यह गया था कि उस का बहुत प्रचार होगा और कम से कम धन का टोटा कभी न होगा। कागज और छपाई के सिवा कुछ खर्च न था। कोई वैतनिक कर्मचारी न था। सम्पादक, प्रबन्धक, लेखक, चपरासी और बैरा सब के सब कार्य मुझ में ही केन्द्रित था। उन दिनों निकलने वाले पत्रों के विषय में ‘पायोनियर’ ने लिखा था कि उन के संचालक ही सम्पादक, प्रबन्धक, प्रकाशक, प्रूफरीडर और आफिस ब्वाय तक होते हैं। वैसी ही व्यवस्था ‘मारवाड़ी बन्धु’ और ‘नृसिंह’ में थी। पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र के चचेरे भाई वासुदेवजी उस में पं सत्यचरण शास्त्राी की बंगला पुस्तक ‘जालियात क्लाइव’ का अनुवाद ‘क्लाइव चरित्रा’ दे कर प्रकाशित कराते थे। मेरे घर का नौकर डाकखाने डाल आता था। बाकी काम ‘जूता सिलाई से चंडीपाठ’ इस बंगला कहावत के अनुसार मैं करता था। किसी से किसी प्रकार की आशा भी न थी।
 परन्तु दो ही तीन महीने बाद ‘नृसिंी’ का नाम सिन्ध और सीमा प्रदेश तक हो गया था। ‘फ्रंटियर टाइम्स’ अंगरेजी का साप्ताहिक पत्रा था, पर ‘नृसिंह’ के निकलने के पहले से ही यह परिवर्तन आने लगा था। श्री भोपटकर पूने से ‘भाला’ नाम का पत्रा निकालते थे, वह दशाहिनक था। हर दसवें दिन प्रकाशित होता था। लार्ड कर्जन के दरबार पर इस ने ‘नरकांतील दरबार’ नरक में दरबार लेख लिखा था, जिस के लिए इसे जेल जाना पड़ा था। ‘नृसिंह’ भी इसी की पार्टी का पत्रा था। परिवर्तन में इस का आना स्वाभाविक था और यह आता था।
आवरण पृष्ठ पर ‘नृसिंह’ का चित्रा था जिस में वह खम्भा फाड़कर निकल कर हिरण्यकशिपु का पेट फाड़ रहे थे। प्रह्लाद भी पास ही खड़ा था। हर अंक में किसी नेता का चित्रा होता था। पहले अंक में लाला लाजपत राय का चित्रा और चरित था। वह उस समय भारतभर में सब से प्रसिद्ध थे, क्योंकि निर्वासित हो बर्म-मंडाले के किले में कैद थे। दूसरे अंक में ब्रह्माबांधव उपाध्याय का परिचय और चित्रा था। वह बंगला की दैनिक सान्ध्य पत्रिका ‘सन्ध्या’ के सम्पादक थे। उन पर राजद्रोह का मामला चला था। उन्हों ने कहा था--‘‘सन्ध्या के सम्पादन परिचालन और प्रकाशन का समस्त दायित्व मैं स्वीकार करता हूं। मैं कहता हूं कि 13वीं अगस्त  1907 को सन्ध्या में ‘एखन ठेके गेछि प्रेमेरदाये’ शीर्षक जो प्रबन्ध छपा है और जो उस प्रबन्ध का अंश है, जिस पर मामला चल रहा है, वह मैं ने ही लिखा है। परन्तु मैं इस विचार-काण्ड में किसी तरह की कहा-सुनी नहीं किया चाहता, क्योंकि मुझे विश्वास है कि ईश्वर नियोजित स्वराज्य प्राप्त करने का जो थोड़ा मेरा कार्य है, उस के करने में मैं विदेशियों को कुछ उत्तर नहीं दे सकता, जो भाग्यवश हम लोगों पर राज्य कर रहे हैं और जिनका स्वार्थ हमारी सच्ची राष्टीय उन्नति के विरुद्ध है और अवश्य रहेगा’’
 इस के बाद के अंकों में डॉ. रासबिहारी घोष श्री अरविन्द घोष, ला. तिलक, श्री विपिनचन्द्र पाल, श्री चिदम्बरम पिल्ले, प्रो शिवराम महादेव परांजपे, श्री ग. पी. खापड़े इत्यादि-इत्यादि के चित्रा थे।
 एक सज्जन ने यह सोचकर 100 से साझा किया था कि कुछ मिल जाएगा। पर अन्त में उन्हें अपनी रकम भी डूबती दिखी, तब सोचने लगे कि बड़ी भूल हो गई। मैं तो सब समझ रहा था। साल भर के अन्दर ही मेरे नाकों दम हो गया। डूबते को किनारा दीखने से जैसे वह और हाथ-पैर मारता है, वैसा ही मैं भी कर रहा था। अन्त को 12 अंक पूरे कर लिए, तब कान पकड़ लिए। और ‘नृसिंह’ बंद कर दिया। परमेश्वर को धन्यवाद दिया कि उस ने लाज रख ली। बीच में ही नहीं बंद करना पड़ा।
 छपने-छपाने का काम बड़ी परेशानी का होता है। मैं बड़ा खराब प्रूफ रीडर हूं। दूसरा होता तो न जाने कब का मैदान से ीााग जाता। पर मैं बड़ा निर्लज्ज हूं। भागने का नाम नहीं लेता। ‘नृसिंह’ के पहले ही अंक में ‘लाजपतराय’ शब्द शीर्षक में ही ‘राजपतराय’ छप गया। मुझे दीख ही न पड़ा। दूसरों के सिर दोष मढ़ना भी अन्याय समझा। प्रूफ की गलती बेचारे कम्पोजीटर के नाम लिखी जाती है। वही ‘छापेखाने का भूत’ कहाता है। परन्तु भूल उसी से नहीं होती। लेखक से, सम्पादक से, और प्रूॅफ रीडर से भी होती है। पर सब उसकी आड़ में निर्दोष बच जाते हैं। इस प्रूफ की एक मजेदार कहानी है। कलकत्ते के बंगला साप्ताहिक ‘हितवादी’ में एक प्रूफरीडर थे, जो प्रभु प्रसिद्ध थे। वह अंगरेजी अक्षर तो जानते थे, पर लिख नहीं सकते थे। एक बार प्रूफ में ‘एल’ छट गया था। प्रभु ‘एल’ बना नहीं सकते थे। उन्हों ने किनारे पर लिख दिया, ‘एई खाने एल बसिवे’ यहां एल बैठेगा। कम्पोजीटर ने उस जगह कम्पोज कर दिया ‘एई खाने एल बसिवे’। सबेरे जब पत्र प्रकाशित हुआ तो लोगों ने बड़े कहकहे लगाए।