भारतेंदु ने की थी तदीय समाज की स्थापना

भारतेंदु हरिश्चंद्र की आज जयंती है। वह एक कवि, नाटककार, घुमंतू, इतिहास लेखक, संपादक और न जाने क्या-क्या थे। साहित्य की हर विधाओं में लिखा। उम्र कम पाई, लेकिन काम कई उम्र का कर गए। उनके हर रूप, रस, गंध, विचार की चर्चा होती है, लेकिन एक चीज की चर्चा प्राय: नहीं होती। न होने के पीछे क्या कारण है, पता नहीं। लेकिन भारतेंदु का यह उल्लेखनीय और अलहदा पहलू है, जिसकी चर्चा होनी चाहिए। तब, हम एक नए भारतेंदु से मुखातिब हो सकते हैं।
यह था तदीय समाज की स्थापना। भारतेंदु ने सं 1930 में इसकी स्थापना की थी। इसका उद्देश्य था धर्म तथा ईश्वर के प्रति अनुराग। इसके साथ गोवध रोकने के लिए इस समाज ने साठ हजार हस्ताक्षर के साथ एक प्रार्थना पत्र दिल्ली दरबार में भेजा गया

था। गो महिमा आदि लेख लिखकर बराबर आंदोलन चलाते रहे। यही कारण है कि उसी समय अनेक स्थानों पर गोरक्षिणी सभाएं एवं गोशालाएं खुलने लगीं। मंदिरा, मांस सेवन रोकने के लिए कई प्रयत्न किए गए। इस समाज ने देशी वस्तुओं के व्यवहार करने की प्रतिज्ञाएं भी लोगों से कराई थी। समाज से एक मासिक पत्रिका भगवद भक्ति तोषिणी नाम की निकली थी, जो कुछ दिन बाद बंद होि गई। इसका अधिवेशन या बैठक प्रत्येक बुधवार को होता था और इसमें गीता तथा भागवत का पाठ होता था।
भारतेंदु ने स्वयं तदीय नामांकित अनन्य वीर वैष्णव, की पदवी लेते समय निम्नलिखित नियमों को आजन्म निबाहने की प्रतिज्ञा की थी।
यह इस प्रकार थी-
हम हरिश्चंद्र अगरवाले श्रीगोपालचंद्र के पुत्र काशी चौखंभा महल्ले के निवासी तदीय समाज के सामने परम सत्य ईश्वर को मध्यस्थ मानकर तदीय निम्मांकित अनन्य वीर वैष्णव का पद स्वीकार करते हैं और नीचे लिखे हुए नियमों का आजन्म मानना स्वीकार करते हैं।
यह था नियम-
1-हम केवल परम प्रेममय भगवान श्रीराधिकारमण का ही भजन करेंगे।
2-बड़ी से बड़ी आपत्ति में भी अन्याश्रय न करेंगे।
3-हम भगवान से किसी कामना हेतु प्रार्थना न करेंगे और न किसी देवता से कोई कामना चाहेंगे।
4-जुगल स्वरूप में हम भेद दृष्टि न देखेंगे।
5-वैष्णव में हम जाति बुद्धि न करेंगे।
6-वैष्णव के सब आचार्यों में से एक पर पूर्ण विश्वास रखेंगे परंतु दूसरे आचार्य के मत-विषय में कभी निंदा वा खंडन न करेंगे।
7-किसी प्रकार की हिंसा वा मांस भक्षण न करेंगे।
8-किसी प्रकार की मादक वस्तु न खाएंगे न पीएंगे।
9-श्रीमद भागवतगीता और श्रीभागवत की सत्यशास्त्र-मानकर नित्य मनन-शीलन करेंगे।
10-महाप्रसाद में अन्य बुद्धि न करेंगे।
11-हम आमरणांत अपने प्रभु और आचार्य पर दृढ़ विश्वास रख कर शुद्ध भक्ति के फैलाने का उपाय करेंगे।
12-वैष्णव मार्ग के अविरुद्ध सब कर्म करेंगे और इस मार्ग के विरुद्ध श्रौत स्मार्त वा लौकिक कोई कर्म न करेंगे।
13-यथा शक्ति सत्यशौचदायादिक का सर्वदा पालन करेंगे।
14-कभी कोई बात जिससे रहसय उद्घाटन होता हो अनिधकारी के सामने न कहेंगे। और न कभी ऐसी बात अवलंब करेंगे जिससे आस्तिकता की हानि हो।
15-चिन्ह की भांति तुलसी की माला और कोई पीत वस्त्र धारण करेंगे।
16-यदि ऊपर लिखे नियमों को हम भंग करेंगे तो जो अपराध बन पड़ेगा हम समाज के सामने कहेंगे और उसकी क्षमा चाहेंगे और उसकी घृणा करेंगे।
इसके बाद भारतेंदु का हस्ताक्षर है। तिथि है-मित्ती भाद्रपद शुक्ल 11 संवत 1930।
इसके साक्षी थे-
पं बेचनराम तिवारी
प्र ब्रह्मदत्त
चिंतामणि
दामोदर शर्मा
शुकदेव
नारायण राव
माणिक्यलाल जोशी शर्मा।
पर, भारतेंदु के इस प्रयास की कोई चर्चा नहीं होती। भारतेंदु ने इस छोटी सी उम्र में भी एक नए समाज की परिकल्पना की थी।