पुस्‍तक छपते ही लग गया था प्रतिबंध

पंडित सुंदर लाल की 'भारत में अंग्रेजी राज' पुस्तक को अंग्रेजों ने खतरनाक पुस्तक माना। छपते ही पांच दिनों के अंदर इस पर अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। नौ साल बाद इस पर से प्रतिबंध हटा।  यह पुस्तक अब फिर से छपकर आई है। पुस्तक मोरहाबादी, मंडा मैदान के वीरेंद्र प्रसाद के सौजन्य से अभी-अभी इसे प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है।
प्रो वीरेंद्र प्रसाद को यह पुस्तक उनके पिता पुलिस अधिकारी हरिहर सिंह से प्राप्त हुई थी। हरिहर सिंह की दो साल पहले, 2016 में 98 साल की उम्र में रांची में ही निधन हुआ। हरिहर सिंह ब्रिटिश काल में बिहार में सीआइडी इंस्पेक्टर रहे। गांधी की हत्या को लेकर छह सदस्यों की जो जांच टीम बनी थीं, उस टीम में  इन्हें भी शामिल किया गया था और उन्होंने जेल जाकर नाथूराम गोडसे से न केवल पूछताछ की थी, बल्कि एक लंबा इंटरव्यू भी लिया था, जिसे अब पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने की योजना वीरेंद्रजी बना रहे हैं। वीरेंद्र जी कहते हैं कि यह पुस्तक भी पिताजी ने भागलपुर के अमरपुर थाने से नीलामी में दो रुपये में खरीदी था, तब से मेरे पास थी। हरिहर सिंह एएसपी पद से 1977 में अवकाश ग्रहण किया।

अलग-अलग शहरों से छपी : जैसा कि हम जानते हैं, इस पुस्तक को पंडित सुंदरलाल ने लिखा है। ये बीएचयू के कुलपति भी रहे। ये ऐसे लेखक थे, जिनकी पुस्तक 'भारत में अंग्रेजी राजÓ ने सत्याग्रह या बम-गोली द्वारा अंग्रेजों से लडऩे वालों को सदा प्रेरणा दी। सुंदरलालजी जानते थे कि प्रकाशित होते ही शासन इसे जब्त कर लेगा। अत: उन्होंने इसे कई खंडों में बांटकर अलग-अलग शहरों में छपवाया। तैयार खंडों को प्रयाग में जोड़ा गया और अंतत: 18 मार्च, 1929 को यह पुस्तक प्रकाशित हुई। ओंकार प्रेस, इलाहाबाद से यह छपी थी।
पांच दिन के अंदर जब्त : इसका पहला संस्करण दो हजार प्रतियों का था। जब्ती की आशंका को देखते हुए 1,700 प्रतियां तीन दिन के अंदर ही ग्राहकों तक पहुंचा दी गईं। शेष 300 प्रतियां डाक या रेल द्वारा भेजी जा रही थीं कि इसी बीच अंग्रेजों ने 22 मार्च को इस पर प्रतिबंध लगा दिया और जब्त कर लिया। जो 1,700 पुस्तक जा ग्राहकों तक पहुंच चुकी थीं, अंग्रेजी शासन उसे ढूंढने लगी। इस प्रतिबंध के विरुद्ध देश भर के नेताओं और समाचार पत्रों ने आवाज उठाई। गांधीजी ने यंग इंडिया में इस जब्ती को 'दिन दहाड़े डाका बताया। दूसरी ओर सुंदरलाल प्रतिबंध के विरुद्ध न्यायालय में गए। उनके वकील तेजबहादुर सप्रू ने तर्क दिया कि इसमें एक भी तथ्य असत्य नहीं है। सरकारी वकील ने कहा, 'यह इसीलिए अधिक खतरनाक है।
नौ साल बाद हटा प्रतिबंध : इस पर सुंदरलाल ने संयुक्त प्रांत की सरकार को लिखा। गर्वनर शुरू में तो राजी नहीं हुए, पर 15 नवंबर 1937 को उन्होंने प्र्रतिबंध हटा लिया। इसके बाद अन्य प्रांतों में भी प्रतिबंध हट गया। अब नए संस्करण की तैयारी की गई। चर्चित पुस्तक होने के कारण अब कई लोग इसे छापना चाहते थे, पर सुंदरलाल ने कहा कि वे इसे वहीं छपवाएंगे, जहां से यह कम दाम में छप सके। ओंकार प्रेस, प्रयाग ने इसे केवल सात रुपए मूल्य में छापा।
पहले संस्करण का मूल्य 16 रुपये था। पुस्तक छपकर तैयार होने से पहले ही दस हजार के स्थान पर 14 हजार से ऊपर ग्राहकों के आर्डर आ चुके थे। इसलिए दूसरे संस्करण के निकलते ही तीसरे संस्करण का प्रबंध किया जाने लगा। दूसरे संस्करण की भूमिका में सुंदरलाल ने तारीख नौ सितंबर 1938 लिखा है। देश की आजादी के बाद 1960 में भारत सकार ने इसे प्रकाशित किया। हालांकि कुछ अंश हट गए थे, लेकिन अभी जो प्रकाशित हुई है, वह दूसरे संस्करण से है। इसमें किसी प्रकार का फेरबदल नहीं किया गया है न संपादित। प्रो वीरेंद्र प्रसाद कहते हैं, लंबे समय से यह किताब पड़ी थी, इसका पन्ना-पन्ना अलग हो गया था। अब छपकर आई है तो बड़ा सुकून मिल रहा है। अब दुबारा पाठकों को यह ऐतिहासिक पुस्तक सुलभ होगा।
दैनिक जागरण से साभार

बाबा कार्तिक उरांव ने आदिवासी पहचान की लड़ी थी लड़ाई


कार्तिक उरांव को याद करते समय हमें उनके कामों को भी याद करना चाहिए। व्यक्ति अपने काम से ही याद किया जाता है और वह सदा स्मृतियों में बना रहता है। आज की गलाकाट राजनीति के दौर में उन्हें इस लिहाज से भी याद करना जरूरी हो जाता है कि ऐशो आराम की जिंदगी छोड़ राजनीति में आए तो अपने लिए एक मकान भी नहीं बनवा सके। पं जवाहर लाल नेहरू उन्हें लंदन से लेकर भारत आए, जहां वे पढऩे गए थे। फिर सत्तर के दशक में चुनावी राजनीति में आए और पहली बार असफलता के बाद दूसरी बार कामयाब हुए। पर राजनीति उनके लिए अपने विकास की सीढ़ी नहीं थी। उन्होंने आदिवासियों के विकास को हमेशा ध्यान में रखा। इसलिए, 1967 में अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद की स्थापना की और उसके पहले संस्थापक अध्यक्ष बने। इसके बैनर तले रांची में सरहुल की भव्य शोभायात्रा की शुरुआत की, जो आज इतना भव्य हो गया है, लाखों लोग मांदर के साथ झूमते हुए सड़क पर निकलते हैं। पड़हा व्यवस्था को दुरुस्त किया। सरना कोड की मांग तब उठाई थी। आदिवासी पहचान को लेकर वे बेहद सजग थे। सांस्कृतिक चेतना जगाने के बाद उन्होंने अंबेडकर की तरह आदिवासियों को भी शिक्षित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए। उन्होंने करीब 57 स्कूल खोले, जिसमें अब मात्र नौ ही चल रहे हैं। पूर्व आइजी और बाबा कार्तिक उरांव के दामाद डॉ अरुण उरांव जरूरत कहते हैं कि इन स्कूलों को फिर से चलाने का उपक्रम किया जा रहा है।
गांव से लंदन की यात्रा


गांव से प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद बिहार में बीएससी पढ़ाई की। इसके बाद यहां से सीधे लंदन। एमएससी इंजी लंदन से किया। इसके बाद एआरसीएसटी ग्लास्गो। कार्तिक किसी बड़े शहर में नहीं जन्में थे। गुमला जिले के करौंदा गांव की लीलाटोली में 29 अक्टूबर, 1924 को उनका जन्म हुआ था। आठ दिसंबर, 1981 को निधन। इंजीनियङ्क्षरग के साथ ही बैरिस्ट्री की शिक्षा लिंकन्स इन लंदन से ग्रहण की। यहां आए तो 1950 से 52 तक बिहार सरकार में सिंचाई विभाग में सहायक अभियंता की नौकरी की। इसके बाद फिर देश को छोड़ विदेश चले गए और 1954 से 1955 डिजाइन डिटेलर ट्विस्ट्रील रिफन्फोर्समेंट लि तथा ईबी बालगेर एंड संस लंदन में काम किया। सितंबर, 1955 से मई 1958 तक तकनीकी सहायक ब्रिटिश रेलवे तथा वरीय तकनीकी सहायक ब्रिटिश ट्रांसपोर्ट कमीशन लंदन में रहे। अगस्त 1958 से फरवरी 1961 तक असैनिक अभियंता डिजाइन, आटोमेटिक पॉवर डिपार्टमेंट, टेलर उड्रा कंस्ट्रक्शन लि मिट्रलेसेक्स यूके में काम किया। इसके बाद दिसंबर, 1961 तक एचइसी में। अगस्त 1962 से 1967 तक डिप्टी चीफ इंजीनियर। हालांकि इसकी कहानी भी दिलचस्प है। इसी दौरान लंदन में नेहरू गए थे। वहां इनकी प्रतिभा देखी तो भारत आने का न्यौता दिया। इसके बाद जब एचइसी की स्थापना होने लगी तो कार्तिक उरांव को बड़ी जिम्मेदारी सौंपी। यही कारण रहा कि इनका कांग्रेस के प्रति झुकाव हो गया। इसके बाद तो 1967 से 1970 तक, 1971 से 1977 तक लोकसभा सदस्य रहे। बिहार विधानसभा सदस्य, 28 जून 1977 से 16 जनवरी 1980 तक रहे। 1980 से आठ दिसंबर, 1981 तक मृत्युपर्यंत संचार राज्यमंत्री भारत सरकार रहे। राष्ट्रीय भाषा परिषद, बिहार के 1968 से 1975 तक सदस्य। हालांकि दर्जन भर से ऊपर राष्ट्रीय और प्रादेशिक संस्थाओं में सक्रिय रहे। मानद सदस्य रहे। उनके पैतृक गांव में जरूर एक बड़ा आयोजन होता है। लेकिन उनके काम को लिखित दस्तावेज के रूप में प्रकाशित करने की व्यवस्था होनी चाहिए।

शेरशाह की राह पर चल 'महानÓ बना अकबर


हिंदी-मैथिली की वरिष्ठ लेखिका उषाकिरण खान अपने नए उपन्यास अगनहिंडोला पर चर्चा कर रही थीं। बातचीत कर रहे थे रांची दूरदर्शन के पूर्व निदेशक प्रमोद कुमार झा। नई-नई जानकारियों के वर्क खुल रहे थे। महज पांच साल के शासन काल में शेरशाह सूरी ने क्या इतिहास रचा था? इस छोटी सी अवधि में उसने जो काम किए, जिसकी नींव रखी, उसी राह चलकर एक मुगल शासक अकबर 'महानÓ बन जाता है, लेकिन हम इस नायक को महानायक मानने से कतराते रहे।

शेरशाह की तीन इच्छाएं जो रह गईं अधूरी
उषाकिरण खान ने चर्चा के दौरान बताया कि उसकी तीन इच्छाएं अधूरी रह गईं। शेरशाह के बारे में हम यह सब जानते हैं कि उसने जीटी रोड बनवाई, सराय बनवाए, डाका चौकी स्थापित की। यह नहीं जानते कि उसने देश में पहली बार तीन गांव के बीच में स्कूल-मदरसे की स्थापना की। पंडित-मौलवियों को बकायदा वेतन की व्यवस्था की और बुढ़ापे में हर पढऩे-लिखने वाले पंडित-मौलवी के लिए वजीफे की व्यवस्था। उसकी तीन अंतिम इच्छाएं जो पूरी नहीं हो सकीं-वह यह थीं कि-वह पूरे भारत में सड़कों का जाल, पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण के साथ-साथ देश के बीच में आड़ी-तिरछी सड़कें, लाहौर के मुगल के किले और शहर को ध्वस्त करना ताकि मुगल फिर दुबारा भारत की ओर आंख उठाकर न देख सकें और भारत से मक्का के बीच समुद्र में बेड़े का निर्माण, ताकि लोग पानी के जहाज से जाते समय बाजार भी करते हुए जा सकें। जमीन की नापी भी उसने टोडरमल के सहयोग से की, बाद में टोडरमल अकबर के नवरत्नों में शामिल हुए। अकबर ने शेरशाह के सकारात्मक कामों को आगे बढ़ाकर महान बना। हालांकि शेरशाह से वह नफरत करता था। पर, शेरशाह का चरित्र ऐसा था कि हुमायूं की मां भी उसके चरित्र की तारीफ की है।
आदिवासियों के साथ बेहतर संबंध
प्रश्नों के जवाब में उषाकिरण ने कहा कि शेरशाह का आदिवासियों के साथ बेहतर संबंध था। आदिवासियों के साथ ही नहीं बंजारों के साथ भी। जो लूटपाट करते थे, सबको काम से जोड़ दिया। सबको निर्माण में लगा दिया। रोहतासगढ़ के आस-पास आदिवासियों की बड़ी आबादी थी। उसके साथ बेहतर संबंध थे। यही नहीं, पूणिया में एक शेरशाहबादी मुसलमान हैं। वे आज भी उसकी प्रतीक्षा करते हैं कि वह आएंगे तो दिल्ली ले जाएंगे। ये किसान हैं और बहुत गरीब। शेरशाह ने इनसे वादा किया था और ये मुसलमान उस वादे की प्रतीक्षा आज भी कर रहे हैं। वह सैनिकों की बहाली खुद करता था। वह आदमी की पिंडली देखकर बता सकता था कि वह किस काम के लायक है और उसी तरह वह घोड़ों की पहचान करता था। उसे इस बात की जानकारी रहती थी कि उसके पास कितने सैनिक हैं, कितने घोड़े हैं। यह सब उसकी जुबान पर रहता था। चूंकि वह एक छोटे से आदमी से देश का शहंशाह बना था और वह भी पांच साल के लिए।
अदीबों का करता था सम्मान
शेरशाह पढ़़ाकू था। वह अदीबों का सम्मान करता था। पहली बार उसने पंडित और मौलवी को वेतन देना शुरू किया। और जो बूढ़े हो चुके थे उनके लिए वजीफे की। उस समय के महान कवि मलिक मोहम्मद जायसी से उसका खासा लगाव था। जायसी शेरशाह को शहंशाह नहीं समझते थे। जब भी शेरशाह उनके पास जाता, वह नीचे जमीन पर बैठता था और जायसी अपने तख्त पर।
स्त्रियों की करता था इज्जत
उषाकिरण ने बताया कि वह स्त्रियों की इज्जत करता था। कहा कि जब हुमायूं अपना हरम छोड़कर भाग गया तो उसमें उसकी स्त्रियां, मां और बहुत सी नौकरानियां थीं। लेकिन हुमायूं के इस हरम को उसने चार महीने तक रोहतासगढ़ में रखा और युद्ध समाप्ति के बाद टोडरमल के साथ हरम को लाहौर के लिए रवाना किया। उसने बहुत शादियां की, लेकिन उसका उद्देश्य संपत्ति अर्जित करना था। नालंदा में एक मकबरा है उसकी एक पत्नी का। वह उससे उम्र में 12 साल बड़ी थीं। शादी केवल संपत्ति के लिए था। उस पत्नी से उसे खूब सोने और अन्य चीजें मिलीं। उसे इस बात का मलाल था कि शहंशाह पत्नी वाला रिश्ता नहीं रखते थे। इस तरह का उसका चरित्र था।
देश और लोकहित के काम
शेरशाह के कई पक्षों पर ऐतिहासिक साक्ष्यों के साथ उषाकिरण बात कर रही थीं। बता रही थीं कि उसने सबसे पहले ङ्क्षहदी में फरमान निकाला। दिल्ली के तख्त पर सिर्फ पांच साल काबिज होने वाले इस सुलतान ने जितने प्रशासनिक एवं लोकहित के कार्य किये कोई दूसरा सालों साल हुकूमत करके भी नहीं कर सका। उसने अमन चैन के लिए ही बंगाल से पंजाब तक पक्की सड़क बनवाई। उसने सड़कों के किनारे जहां सराय बनाने का हुक्म दिया था वहीं दो कोस पर डाक चौकी की स्थापना की। सभी डाक चौकियों पर दो घोड़े घुड़सवार थे। शहंशाह बंगाल में खाने बैठता तो वहां जो नगाड़ा बजता तो तुरत दूसरे पड़ाव पर मालूम हो जाता। देश में एकसा तौल हो इसके लिए मापतौल का एक महकमा ही शुरू कर दिया। छटांक से लेकर पंसेरी तक का बाट एक ही जगह ढाला जाता और बनियों,
अब और उपन्यास नहीं...
बातें केवल अगन पर नहीं रुकीं। भामती से लेकर रतनारे नयन, कहानियां, ऐतिहासिक उपन्यासों के लेखन पर भी हुई। कहा कि ऐतिहासिक उपन्यास रुचते नहीं। इसमें रुढ़ हो जाना पड़ता है। उपन्यास का चरित्र बांध देता है। यह भी बताया कि पढ़ती सबको हूं, लेकिन प्रभावित हुई धर्मवीर भारती, आशापूर्णा देवी और कृष्णा सोबती से। रतनारे नयन की चर्चा की। गई झूलन टूट पर बात की। बातों का क्रम चलता रहा। लेकिन मन नहीं भरा। लोगों ने सवाल भी पूछे। उन्होंने बताया कि उनका अंतिम उपन्यास मनमोहना रे धारावाहिक छप रहा है और इसके बाद अब उपन्यास नहीं लिखना है।
किसानों को खरीदना पड़ता। ये काम कम नहीं थे।

पत्थल के बनाये हुए मकानों में रहते हैं बनारसी

रांची से घरबन्धु का प्रकाशन 1872 से हो रहा है। 1916 के एक अंक में 'बनारस पर लेख छपा। इसमें लिखा गया, 'बनारस या काशी हिन्दू लोगों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। यह शहर कलकत्ते से उत्तर पश्चिम कोने में दो सौ साढ़े दस कोस दूरी पर गंगा नदी से उत्तर पर स्थित है। यहां गंगा नदी करीब छह सौ गज चौड़ी है और इसके ऊपर रेल का पुल बनाया गया है। यह शहर नदी के किनारे दो कोस लम्बा और चौड़ाई में आधा कोस है। यहां के रास्ते सब ठेढ़े-कुबड़े हैं और गाड़ी की आमद रफत करना मुस्कील है। यहां के बासिन्दे लोग बहुत करके पत्थल के बनाये हुए मकानों में रहते हैं। कोई कोई मकान छह ताला ऊंचे हैं और कहीं-कहीं ऐसा भी देखा जाता है कि रास्ते के दो किनारे के आमने सामने मकानों पर आया जाया करने के लिए पुल बनाया गया है।Ó इस तरह की अनेक रोचक और सूचनापरक बातें इस पत्रिका में हैं, लेकिन इस पत्रिका का अध्ययन किसी ने नहीं किया।

1901 के अंकों में चीन की लड़ाई का जिक्र मिलता है। इसके साथ ही आस-पास की खबरें भी प्रकाशित होती थीं। जरूरी नहीं कि सभी खबरें चर्च की हों। 1911 में इसका एक विशेषांक आया था। कवर पर चार्ज पंचम एवं महारानी मेरी की पारंपरिक वेश में तस्वीर छपी थी। उन्हें कैसर-ए-हिंद कहा गया था। उनकी भारत यात्रा की खबर छपी थी। इसी तरह आज से सौ साल पहले 1918 के एक अंक में हो लोगों के बारे में सूचना दी। खबर का शीर्षक था-हो लोगों के बीच में एक नया धम्र्म। खबर दी गई थी-सिंहभूम जिला के कोलहन प्रगना में जिसमें चेबासा शहर है, खासकर हो लोग पाये जाते हैं। उनकी बोली वो धम्र्म वो दूसरे रीत दस्तूर मुन्डारी लोगों से बहुत मिलती हैं। ये लोग सींग बोंगा याने सूय्र्य को बड़ा देवता मानते हैं। खबर बड़ी है। उस समय पत्रिका की ङ्क्षहदी को भी देख सकते हैं। तब चाइबासा को चेबासा लिखा गया। कोल्हान को कोल्हन और परगना को प्रगना। इस तरह की अनेक रोचक बातें इसमें प्रकाशित होती थीं।

भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में रांची से प्रकाशित 'घरबन्धुÓ शायद पहली पत्रिका है, जो 1872 से अनवरत निकल रही है। 1872 में ही रांची में लिथो प्रेस लगाया गया। दो नवंबर, 1845 को ही यहां जर्मन मिशनरियों के कदम पड़े और कुछ सालों में यहां हिंदी और स्थानीय भाषा सीखकर पत्रिका का प्रकाशन शुरू कर दिया।

इस पत्रिका का कहीं जिक्र नहीं होता है। चूंकि इसका मूल उद्देश्य धर्म प्रचार करना था, लेकिन इसे प्राचीन पन्ने पलटने से पता चलता है कि इसमें तार के समाचार भी प्रकाशित होते थे। एक दिसंबर, 1872 को इसका पहला अंक आया था। पहले यह पाक्षिक था। बाद में इसे मासिक कर दिया गया और अब यह मासिक ही निकल रही है। पहले इसका टैग लाइन था-चुटिया नागपुर की एवं जेलिकल मंडलियों के लिए और अब गोस्सनर चर्च की मासिक हिंदी पारिवारिक पत्रिका हो गया है। हालांकि गोस्सनर चर्च से करीब अस्सी हजार से ऊपर लोग जुड़े हैं, लेकिन चार-पांच हजार ही प्रकाशित होती है। यहां 1882 से अंक उपलब्ध हैं। इन अंकों में धर्म संबंधी प्रचार सामग्री हिंदी में प्रकाशित होती थी। इसके साथ तार के समाचार, स्थानीय समाचर प्रकाशित होते थे।