जीवंत परंपरा को पुनर्जीवन की आस


चलना ही नृत्य, बोलना ही गीत। झारखंड की यह पहचान है। यही संस्कृति है। परंपरा है। गांव-गांव। एक जीवित परंपरा अखरा की, जिसे अब पुनर्जीवन की जरूरत है। झारखंड की 32 जनजातियों के अपने गीत हैं, अपने नृत्य है। नृत्य के कई भेद हैं। बंदी उरांव बोलते हैं कि उरांव नृत्य में साढ़े पांच हजार स्टेप हैं। इस तरह हर जनजातीय नृत्य में। यहां 12 महीने में 13 नृत्य हैं और हर नृत्य के अंदर भी कई-कई। यह लोक की थाती है। यहां चार कोस पर बानी ही नहीं बदलती, नृत्य और संगीत की परिभाषा भी बदल जाती है। यह धरती इतनी समृद्ध है। लेकिन आज जरूरत लोक संगीत व कला को बचाने की है। राज्य बने 19 साल से ऊपर हो गए, लेकिन यहां न संगीत अकादमी खुल सका, न भाषा अकादमी। गांव-गांव संगीत-गीत और साहित्य की पांडुलियां दीपकों का निवाला बन रही हैं। कलाकार पेट से जूझ रहे हैं। मनपूरन नायक कहते हैं अखरा तभी बचेगा, जब कलाकार बचेंगे। उनके सामने पेट की समस्या है। नागपुरी में एक कहावत है-पेट में भात ना, ड्योढ़ी पे नाच। पहले पेट की भूख मिटनी चाहिए। कलाकार ही नहीं रहेंगे, तो अखरा व कला कैसे बचेगी? झारखंड की पहचान, यहां के खनिज संपदा से नहीं, यहां की कला से है। यहां दसियों हजार पुरानी कला का दिग्दर्शन होता है, लेकिन सरकार की ओर से कोई पहल नहीं की जाती। सब बर्बाद हो रहा है। संताल के फैले जीवाश्म को भी नष्ट किया जा रहा है। यह सब अपने झारखंड में। बहुत दुखद स्थिति है। आखिर, किसी भी राजनीति दलों के घोषणा पत्र में कला-साहित्य-संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन को लेकर एक शब्द क्यों नहीं रहता, जबकि हमारे लिए यह महत्वपूर्ण है। डॉ रामदयाल मुंडा जी कहते थे-जे नाची से बाची। यह कैसे संभव होगा?
विलुप्त हो रहे वाद्य यंत्र
झारखंड की हर भाषा में गीत है। उसी तरह हर जनजातीय समुदाय के वाद्य भी हैं। कुछ वाद्य साझा हैं, लेकिन आज कुछ वाद्य तो विलुप्त हो गए, कुछ विलुप्ति के कगार पर हैं। ऐसा इसलिए कि हम इनके संरक्षण के प्रति उदासीन हैं। बंदी उरांव कहते हैं कि आज केंदरा, खोचोर, टेचका, टुहिला, मोहनबंसी, तिरियो, मुरली, भेर, बरसिंध, सरगी, पैजन, सोयको आदि वाद्य चलन से बाहर हो गए। आखिर, इनका संरक्षण कैसे होगा? इसके लिए समाज और सरकार दोनों को अपनी जवाबदेही लेनी होगी। भाषा का मरना, संस्कृति का मरना है। अब अपनी भाषा और संस्कृति से दूर हो रहे हैं, इसलिए हमारे जीवन में रस घोलने वाले वाद्य भी विलुप्ति के कगार पर खड़े हैं।

कला-संस्कृति विभाग की ओर से हर शनिवार को सनिपरब का आयोजन किया जाता था। इसके पीछे उद्देश्य यही था कि यहां के लोक कलाकारों को सप्ताह में एक न्यूनतम मानदेय दिया जाए ताकि वे अपनी कला को संरक्षित कर सकें और अगली पीढ़ी तक पहुंचा सके, लेकिन यह भी एक डेढ़ साल के बाद साल भर से बंद हो गया। इससे सरकार की अपने राज्य की कला के प्रति गंभीरता समझ सकते हैं। जब ऐसे आयोजन की यहां जरूरत है ताकि कलाकारों के पेट को भात नसीब हो सके। भूखे पेट कला का संरक्षण संभव नहीं है। कला-मर्मज्ञ डॉ गिरिधारी राम गौंझू कहते हैं, अपनी संस्कृति को बचाने के लिए कला के उपादानों को बचाना जरूरी है। नृत्य, संगीत, वाद्य का संरक्षण जरूरी है। यह काम सरकारी स्तर पर ही संभव है। दूसरे, यहां के लोक कलाकारों को बाहर भी भेजने की जरूरत है। दूसरे देशों में जब यहां के कलाकार जाते हैं तो खूब प्रभावित करते हैं। इसे बढ़ाने की जरूरत है। यहां की लोक कला काफी समृद्ध है। छऊ की अंतरराष्ट्रीय पहचान बन गई है, दूसरे कला विधाओं को भी इस पहचान तक लेना चाहिए। कलाकार मरते जा रहे हैं, उनके साथ विधा भी मरती जा रही है। यह बहुत दुखद है। बंगाल सरकार अपने कलाकारों को पेंशन दे रही है। पूर्वोत्तर अपने लोक कलाकारों को आर्थिक सहायता दे रहा है। पर, यहां नहीं है। इसकी पहल होनी चाहिए।

'तीर्थÓ की उपेक्षा का मलाल पर, लोकतंत्र में आस्था बरकरार


बिसुआ टाना भगत जतरा टाना भगत के वंशज हैं। वे चिंगरी गांव के नया टोला में रहते हैं। गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड का ऐतिहासिक गांव है। गांव कहना ठीक नहीं, यह वास्तव में तीर्थ है। मुख्य सड़क से गांव के अंदर जो पीसीसी सड़क जाती है,  सौ कदम अंदर चलने पर दाहिने ही पहला घर उनका है। घर में खेत है या खेत में घर कहना मुश्किल है। गांव के मकान मिट्टी हैं और छप्पर खपरैल के। अभी बिसुआ को पीएम आवास की कुछ राशि मिली है तो अपना नया मकान बना रहे हैं। मलाल उन्हें इस बात का है कि उन्हें भी वही राशि मिली, जो दूसरों को इस मद में मिलती है।
पर, ज्यादा दुख उन्हें इस बात का है कि राज्य सरकार ने जो पांच एकड़ जमीन दी है, उस पर किसी और का कब्जा है। आज तक उन्हें वह जमीन नसीब नहीं हो सकी। जब जमीन को अपने अधिकार में लेना चाहा तो किसी और ने दावा कर दिया और अब मामला कोर्ट में पहुंच गया। दो बार गुमला कोर्ट गया, लेकिन सुनावाई से आगे बात नहीं बढ़ पाती तो अब जाना ही बंद कर दिया।
सुबह-सुबह की बेला में, जब सूर्य की किरणें धरती को चूम रही थीं, बिसुआ के माथे की नसों में उभार दिखने लगा था। बोलने लगे, यहां गांव में उनका स्मारक भी ढंग का नहीं बना। शहीद आवास के नाम पर भी केवल खानापूर्ति की गई है। उनके बेटे श्रीचंद कहते हैं कि हमारी आस्था लोकतंत्र में हैं। हम सिर्फ मतदान ही कर सकते हैं। लेकिन जो जीतकर जाता है, मतदाता को भूल जाता है। श्रीचंद कहते हैं हमारे बच्चों को शिक्षा की भी कोई सुविधा नहीं। फीस नहीं जमा करने पर स्कूल वाले बच्चों को भगा देते हैं। सरकार कम से कम हमारे बच्चों को शिक्षा तो दे ही सकती है। परिवार की अपेक्षा है कि यहां जतरा टाना भगत के नाम पर भव्य एक स्मारक बने। यह टाना भगतों का तीर्थ है।  
युवक मनोज भगत भी यही कहते हैं। चिंगरी गांव के ही हैं। गांव के मुहाने पर ही जतरा की एक एक आदमकद प्रतिमा लगी है। चारों तरफ दीवार खड़ी कर दी गई है। मनोज दिल्ली में काम करते हैं और मतदान करने के लिए अपने गांव आए हैं। कहते हैं कि यहां हर गुरुवार को टाना भगत आते हैं, पूजा-पाठ और भजन करते हैं। अब कुछ ही बचे हैं, जिनका विश्वास जतरा टाना भगत के धर्म में हैं। चुनाव को लेकर उनमें कोई शंका नहीं। वे बताते हैं कि यहां कमल की हवा है। पर, एक दूसरे युवा बाबूलाल उरांव तीर की बात करते हैं। वे तीर की कई उपलब्धियां गिनाते हैं। कहते हैं कि दर्जन भर विद्या का मंदिर बना। आज शिक्षा बहुत जरूरी है। बाबूलाल के दो बड़े भाई बेहतर इलाज के अभाव में समय से पहले चल बसे। सो, पुलिस में लगी उनकी नौकरी को उनके पिता ने छुड़वा दिया और खेती-बारी में लगा दिया। वे खेती करते हैं। कहते हैं कि यहां खेती प्रकृति पर निर्भर है। लेकिन यहां सिंचाई की व्यवस्था हो जाए तो यह इलाका पंजाब को पीछे छोड़ सकता है। दोनों युवा एक ही गांव के हैं, आदिवासी हैं, लेकिन दोनों के विचार भिन्न हैं। दोनों साफगोई से बात करते हैं।