राधाकृष्ण और उनकी ‘मूल्य’

-संजय कृष्ण
  हिंदी कथा साहित्य को बहुविध ढंग से समृद्ध करने वाले रांची के राधाकृृष्ण साहित्य की दुनिया में अब अपरिचित नाम हो गए हैं। पुरानी पीढ़ी को यह नाम याद भी हो, नई पीढ़ी तो शायद उनके नाम से भी परिचित न हो। हम प्रायः अपने पुराने लेखकों को याद नहीं करते। या याद करते हैं तो उन्हें ही, जिन्हें याद करना फायदेमंद होता है। सुदूर झारखंड के एक पठारी पर बसी रांची के इस दिवंगत लेखक को भला क्यों याद करना! पर इस लेखक ने अपने समय में साहित्य की हर विधा को साधा और अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवाया। इसीलिए, कथा सम्राट प्रेमचंद ने अपने समय में कहा था कि यदि पांच कहानीकारों की सूची में बनाई जाए तो उसमें एक नाम राधाकृष्ण का भी होगा। यह थी राधाकृष्ण की खासियत।

  राधाकृष्ण जन्म: 18 सितंबर-1910-निधन-तीन फरवरी 1979 ने लेखन की शुरुआत कहानी से की और पहली कहानी सिन्हा साहब 1929 में प्रकाितश हुई। इसके बाद प्रेमचंद संपादित हंस में उनकी अनेक कहानियां छपीं। कहानी के साथ-साथ घोश्ष-बोस-बनर्जी-चटर्जी नाम से हास्य-व्यंग्य भी लिखते थे। उनके व्यंग्य का प्रभाव बाद की पीढ़ी पर भी पड़ा। पर वे मूलतः कहानीकार ही थे। अपने आत्मकथ्य में इस बात का स्पष्ट संकेत भी दिया कि उनके लेखन का उद्देश्य क्या है। वह लिखते हैं, ‘मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं इसलिए नहीं लिखता कि मुझे अपनी कहानी द्वारा किसी वाद-विशेष का प्रचार करना है। हां, कहानी लिख जाने के बाद वह किसी वाद-विशेष के अंतर्गत आ जाए तो बात दूसरी है।’ इस भित्ति पर खड़े होकर वे रचना करते हैं। उन्होंने आदिवासी जीवन पर अनेक कहानियां लिखीं, लेकिन उन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। वे किसी खास विचारधारा से संबंद्ध नहीं थे। इसलिए भी आलोचकों ने उन्हें भाव नहीं दिया। अन्यथा 40 के दशक में वे जिस तरह की आदिवासी जीवन की कहानियां लेकर आ रहे थे और जितनी प्रामाणिकता के साथ, यह आज भी विरल है। अब तो बहुतेरे कहानियां आ रही हैं, लेकिन उसमें कई तरह की विसंगति को भी देखा और महसूस किया जा सकता है, पर राधाकृष्ण की कहानियां इन दुर्गुणों से वंचित हैं।

 आदिवासी जीवन की ढेर सारी कहानियां में उनकी एक चर्चित कहानी है-मूल्य। इसे उन्हांेने 1961 में लिखा था। कहानी को लिखे पचपन साल हो गए। इन पचपन सालों में देश-दुनिया ने काफी तरक्की की है। अब दुनिया एक ग्लोब हो गई है। ग्लोब के इस छोर से उस छोर तक संपर्क करने में अब मिनट भी नहीं लगते। पर, इसी दुनिया में, इसी धरती पर एक ऐसी आबादी भी है, जो आज भी अपने आदिम संस्कारों और संस्कति को जीवित और जीवंत किए हुए है। यद्यपि तथाकथिक सभ्य दुनिया को लगता है कि ये असभ्य और जंगली हैं। पर, जब हम उनके निकट जाते हैं, तो हमें अपनी असभ्यता का भान होता है। राधाकृष्ण की यह कहानी कुछ इसी तरह के मूल्यों को उठाती है। कहानी का शीर्षक है तो महज एक शब्द का, पर इस शीर्षक एक भरी-पूरी सभ्यता की कहानी भी छिपी है। इतना ही नहीं। यह कहानी कई तरह के मूल्यों के अंतद्र्वंद्व को भी हमारे सामने रेखांकित करती है। यह कहानी आदिवासियों में प्रचलित एक परंपरा को केंद्र रखकर लिखी गई है, लेकिन लेखक का आशय सिर्फ उसकी परंपरा से हिंदी जगत को अवगत कराने तक सीमित नहीं है। वस्तुतः देखा जाए तो यह कहानी परंपरा से आगे बढ़ती हुई हमें उस आदिवासी समाज के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक पक्षों के उद्घाटन के साथ अपनी माटी और अपने जमीन से जुड़े रहने की उत्कट अभिलाषा को भी व्यंजित करती है।

  हिंदी में ऐसी कहानी कतई नहीं है, जहां परंपरा के प्रति एक अनुराग भी हो और प्रेम का उदात्त स्वरूप भी। आदिवासी समाज में एक परंपरा है मूल्य देकर विवाह करने की। वर पक्ष वाले कन्या पक्ष को मूल्य देकर विवाह करते हैं। परंपरा के तहत विवाह का प्रस्ताव लड़का पक्ष वाला ही लड़की पक्ष वाले के सामने रखता है। यदि दोनों पक्ष राजी हो गए तो वर पक्ष कन्या पक्ष को मूल्य देकर बाकी की रस्म पूरी करता है। यदि वर पक्ष मूल्य देने में असमर्थ है तो लड़का भावी ससुर के घर रहकर एक अवधि तक अपनी सेवा देता है और इसके बदले में अपनी लड़की का विवाह लडके से कर देता है। इसे सेवा विवाह कहते हैं।
  इस परंपरा को केंद्र में रखकर ही यह कहानी रची गई है। कहानी में कुल चार पात्रा हैं। एक और पात्रा है, जिसकी सिर्फ चर्चा है। वह है दूलो का भाई जगराय, जो गाय-बकरियां चराने में कुशल है। जो चार पात्रा हैं। वे हैं, दुलो, दुलो का पिता भत्तू, उसकी मां दुर्गी और उसका प्रेमी जबरा। कहानी इन्हीं चारों के इर्द-गिर्द घुमती हुई घर की चैहद्दी को तोड़ती हुई गांव, जंगल की यात्रा करती कुछ-कुछ बीते समय की ओर भी चली जाती है।
  प्रेमचंद की तरह ही कहानीकार एक दृश्यविधान रचता है। कहता है, उरांव लोगों की उस बस्ती में दूलो बड़ी प्यारी और अभिमानिनी लडकी थी। यह कहना कठिन है कि उसमें रूप ज्यादा था या अभिमान अधिक था। शौकीन भी कम नहीं थी। कान में कांच जड़ा तरपत, वक्षस्थल पर मूंगे की माला। उसके दोनों पैरों की तर्जनियों में दो-दो ढीली अंगूठियां थीं और जब वह चलती थी तो पैरों की अंगूठियां चाटुंग-चाटुंग बजने लगती थीं। उसकी सुरीली बोली गीत की तरह लहरा जाती थी और उसकी कजरारी आंखों में अनुराग भरा भोलापन लिए हुए अभिमान की छाया थी। केश उसके घुंघराले थे, जिसका उसे गर्व था। बावजूद इसके खटकने वाली बात यह थी कि वह 16 की हो गई थी। उसका विवाह नहीं हो पा रहा था-जबकि वह परिश्रमी थी। घर और बाहर का काम करती।...जब रात होती तो वह किसी टहनी की तरह झूमती हुई भृंगी की भांति गुनगुनाती हुई अखरा पहुंच जाती। वहां जाकर वह नृत्य और गीत में इस तरह खो जाती कि अपनी तन की सुध भी नहीं रहती।
 कथाकार दूलो के रूप, गुण और उसके भोलेपन की चर्चा कर पाठकों के भीतर एक सहानुभूति पैदा करता है। एक संवेदना जगाता है। इस सौंदर्य चर्चा के साथ की वह आदिवासी संस्कृति की विशेषता को भी बता जाता है। उनकी संगीतप्रियता, नृत्य के प्रति अनुराग और उन्मुक्त संस्कृति। दूलो 16 की है। शादी को तैयार है। वह रात में अखरा जाती है। कहीं कोई रोक-टोक नहीं है। अखरा वह स्थान है, जहां आदिवासी मांदर, ढोल, नगाड़े की थाप पर नाचते-गाते दिनभर की थकान मिटाते हैं। स्त्राी हो या पुरुष, युवक हों या युवतियां...सभी एक साथ सामूहिक रूप से वृत्त या अर्धवृत्त का घेरा बनाकर नृत्य करते हैं। कथाकार अखरा का जिक्र इसीलिए करता है हम उनकी संस्कृति को समझ सकें। ये कुछ ऐसी विशेषता है जो आदिवासी और गैरआदिवासी के अंतर को भी सामने रखती है।

 लेखक दो सीमांत धु्रवों की भी रचना करता है। एक है दूलो का पिता भत्तू, जो घर में निर्विकार भाव से चुप रहने वाला प्राणी है। दूसरा, उसकी मां दुर्गी, जो हमेशा हाथ चमका-चमका कर झल्लाती रहती है। भत्तू अपनी पत्नी के बातों का बुरा नहीं मानता। और, दुगी ऐसी थी कि उसके पास न जाने कितनी बातें थीं जो खत्म ही नहीं होती। खेती की बातें, जमीन की बातें, महंगी और अनैतिकता की बातें, सांप और शेरों की बातें, भूत और पिशाचों की बातें...। बातों का अंतहीन सिलसिला...। भत्तो परम संतोषी। दुलो की शादी करनी है फिर भी चेहरे पर चिंता की लकीरें नहीं। बैल मर गए हैं, खेती कैसे होगी, इसकी भी चिंता नहीं। एक दिन दूगी आकर भत्तो से कहती है, ए जी, हम लोगों का बैल तो पिछले महीने ही मर गया। अब क्या होगा? इस प्रश्न से भत्तो चैंकता तो है, लेकिन तुरत ही आश्वस्त भी हो जाता है। जैसे इस समस्या का समाधान उसके पास पहले से मौजूद हो। भत्तो कहता है, हां, बैल तो मर गया, क्या करें, जो बोंगा करते हैं, वही होता है। इस जवाब से यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि भत्तो कर्मशील प्राणी नहीं है। सब कुछ भगवान भरोसे। पर ऐसा भी नहीं है। भत्तू कहता है, गरीब की मदद कोई नहीं करता। अब तो हल भी नहीं चला सकूंगा। बैल फूट गया है जो। दूगो जोड़ती है, बैल के बिना किसान का घर सूना है। बैल तो तुम्हें खरीदना ही होगा। बैल दालान की शोभा होते हैं।
  किसानों का जीवन एक जैसा ही होता है। समस्याएं भी लगभग एक सी। चाहे वह विदर्भ का किसान हो, बुंदेलखंड का किसान हो या मैदानी इलाके का या फिर पठारी का। कहानी यही बताती है आदिवासी किसान की दशा दूसरे किसानों से कतई भिन्न नहीं है। कहानी आदिवासी और गैरआदिवासी के विभाजन को इस बिंदु पर स्वीकार नहीं करती है। बैल ही किसान की पंूजी है। मैदानी इलाकों से बैल गायब हो गए। बैलों की जगह ट्रैक्टर ने ले लिया। पूंजीवाद के प्रवेश से छोटे जोतदार मजदूर बन गए। अब वहां बड़े-बड़े किसान हैं। पर पहाड़ी इलाकों में खेती के यही सबसे सशक्त माध्यम हैं। पठारी क्षेत्रा होने के कारण यहां ट्रैक्टर से खेती आज भी संभव नहीं है। ले देकर बैल या भैंसा ही खेती के माध्यम हैं। भत्तो के सामने चिंता यह है कि वह बैल खरीदे भी कैसे? पूंजी तो है नहीं? निदान भत्तो के पास है। कहता है, क्या करेंगे, दूलो को बेच देंगे।

 इस जवाब से दूगी की दोनों हथेलियां चमकने लगीं। वह चंचल होकर बोली...तुम तो कब से कहते हो कि दूलो को बेचेंगे। जब छप्पर टूट गया था तब तुमने कहा था दूलो को बेच देंगे। फिर मालगुजारी के लिए नालिश हुई तब भी तुमने कहा कि दूलो को बेच देंगे। उसके बाद जब कुआं खोदने का सवाल आया था तब तुमने कहा था कि दूलो को बेच देंगे। मगर तुम्हारी दूलो बिकती कहां है? वह तो शाल के पेड़ की तरह दिन-दिन बढ़कर छतनार हुई जा रही है। समस्या का समाधान यह नहीं है कि दूलो बिक जाए? दूलो बिक भी गई तो जो मूल्य मिलेंगे क्या उससे बैल खरीदे जा सकेंगे? दूगी कहती है-कहीं बैल के जितना भी बेटी का दाम मिलता है? आदमी के दाम से बैल का दाम हमेशा ज्यादा रहता है। यह फर्क है। यहां आदमी की कीमत बैल से सस्ता।
  यह साठ का जमाना है। आजादी मिले चैदह साल तो हो ही गए थे। इस आजादी में आदमी सस्ता हो गया था और जानवर महंगे। राधाकृष्ण एक जगह लिखते हैं, यह चावल भी एक मुसीबत है। इन दिनों चावल का दाम बढ़ता ही जा रहा है....बाजार के इस भाव को जैसे पंख लग गए हैं। वह ऊंचे-से-ऊंचे उड़ता जा रहा है। गिद्ध की तरह बाजार भाव आसमान की ऊंचाई को नाप रहा है। जनता है, वह दिन-दिन पाताल की ओर गहराई को नापती जा चली जा रही है। तब और आज का समय। क्या महंगाई कम हुई। दिनों दिनों बढ़ती जा रही है। आदमी की कीमत जानवर से भी कम...। भत्तू अपने दिनों को याद करता है। ...कहता है जब मैंने तुमसे विवाह किया था तो दो बैल दिए थे और काठ धान दिया था। तब जाकर कहीं तुमसे मेरा ब्याह हुआ। अपनी बात को याद करती नहीं, इधर-उधर की बात ले बैठती हो। दूगी प्रतिवाद करती है। कहती है, उस समय चीजें सस्ती थीं। यानी 1920 के आस-पास की बात कर रही है। तब चीजें सस्ती थीं। अंगरेजों का जमाना था। अब अपना जमाना था, जहां आदमी सस्ता हो गया था। पर, इनकी बातों से बेफिक्र दूलो अपनी दुनिया में मस्त थी। एक दिन जब दूलो अखरा से नाचकर लौट रही थी तो एकांत पाकर उसका प्रेमी जबरा ने उसे छेड़ा। बोला-अरी दूलो, तुम्हारे जूड़े में जो यह सिरगुजिया का पीला फूल है, वह किसके लिए है?
वह कहती है, तुम्हारे लिए है?
...और तुम्हारे कानों मे जो लाल तरपत है...
तुम्हारे ही लिए है बंधु?
...और तुम्हारी चंचल चितवन, नदी की तरह उमड़ती हुई जवानी, तन और मन का प्यार-वह किसके लिए है?
दूलो सकुचाती हुई जवाब देती है अगर तुम चाहो तो वह भी तुम्हारे लिए है।
जवरा कहता है, मगर मैं तुम्हें महंगे दाम में खरीद नहीं सकता। जानती ही हो कि आज कल आदमी से ज्यादा बैल के दाम हैं?

दूलो कुछ सोचकर बोली-तो जाने दो, तुम्हें मेरा मूल्य चुकाना नहीं पड़ेगा। मैं तुम्हारे यहां ढूकू चली जाऊंगी।
जवरा ने कहा, यह तो और भी नहीं हो सकता। तुम्हारी मां मेरी मां से लड़-लडकर उसे परीशान कर देगी।
जवरा एक सलाह देता है। चलो भूटान भाग जाएं। पर दूलो दृढ़ स्वर में कहती है मगर मैं न अपने मां-बाप को छोड़ सकती हूं न इस पहाड़ी को। लेकिन वह जवरा को भी नहीं छोड़ती। कहती है, मैं भूटान भी नहीं जाऊंगी और तुम्हें भी नहीं छोड़ूगी? इतना आत्मविश्वास है दूलो को। दूलो अपना दो टूक फैसला सुना देती है। जवरा भी कहता है-तो मैं भी तुम्हें नहीं छोड़ सकता। आओ चलें, कहां। दोनों घने जंगल में भाग जाते हैं।
  अगले दिन दुगी व भत्तो सर झुकाए बैठे हैं। दुगी की आंख भीगी हुई हैं। इसी समय जवरा और दुलो दोनों आकर उनके सामने खड़े हो जाते हैं। भत्तू अपनी बेटी को देखकर शांत है। कहीं कोई उत्तेजना नहीं। वह बहुत ही शांत स्वर में कहता है, बेटा जवरा, अगर तुम्हें मेरी लड़की को ले जाना ही था तो मांगकर ले जाते। जवरा भी उसी शांत भाव से जवाब देता है। उसे भी कोई ग्लानि नहीं। कहता है, बा, मांगने की मुझमें हिम्मत कहां थी। गरीबी सबकुछ कराती है। कहां हम दूलो का दाम चुका पाते और कहां से हम बारात लाते...। भत्तू कोई जवाब नहीं देता है। कुछ देर बाद लंबी सांस लेकर कहता है-हमने सोचा था कि जब दूलो को बेचेंगे तो एक बैल खरीदेंगे।

जवरा उत्साह से कहता है-बा, तुम बैल नहीं खरीद सके तो इससे क्या? मैं जो हूं। मैं किसी भी बैल से ज्यादा काम कर सकता हूं। मेरी सारी सेवाएं तुम्हारे लिए है। मैं तब तक तुम्हारी सेवा करूंगा जब तक दूलो का दाम न चुक जाएगा। एक किसान के लिए बैल कितने महत्वपूर्ण होते हैं, यह कहानी उस ओर इशारा करती है।
 आदिवासी समाज में यह परंपरा है। पर, इस परंपरा पर ऐसी कहानी भी लिखी जा सकती है, इसपर किसी का ध्यान नहीं गया। महाश्वेता देवी ने भी आदिवासी जीवन पर कहानियां लिखीं है, पर वे सर्वेक्षणात्मक ज्यादा हैं। कहानी का कहन इससे बाधित होता है। योगेंद्र सिन्हा के उपन्यास भी इस समस्या से पीड़ित हैं। पर, राधाकृष्ण की कहानी इसका अपवाद है। ऐसा इसलिए कि वे आदिवासी समाज में पूरी तरह घुल-मिल गए थे। और उनके चित्त और संस्कार से गहरे परिचित थे। वह आदिवासी समाज को बाहर से नहीं देख रहे थे। वे समाज को अपने भीतर महसूस कर रहे थे। दूसरी बात यह कि राधाकृष्ण ने इस कहानी में आंचलिक शब्दों का प्रयोग नहीं किया है। इससे कहानी की प्रामाणिकता पर कोई फर्क नहीं पड़ता। संवाद में भी हिंदी ही है। पर, भाव और बोध में आदिवासीपन है। कहानी में मातृसत्तात्मक समाज का स्वरूप आया है। प्रेम का निष्कलुष रूप कहानी में मौजूद है। चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ की याद आती है।
  कहानी में आदिवासी समाज की और भी विशेषताएं हैं। जरा कल्पना कीजिए..गैर आदिवासी परिवार की लड़की यदि घर से भाग जाए तो उसका बाप क्या यूं ही शांत रहेगा? यह समाज का खुलापन है। यहां स्त्राी परतंत्रा नहीं है। इसलिए यहां नारीवादी नारे नहीं है। वह अपना निर्णय ले सकती है। दुखद यह है कि पिछले साठ-सत्तर सालों से आदिवासी साहित्य रचा जा रहा है। पर आज तक इस साहित्य को वह हैसियत नहीं मिल सका, जिसका वह हकदार है। राधाकृष्ण के बहाने हमें पठारों की भी देखना चाहिए, जहां मूल्य और सामूहिकता अब भी बचे हुए हैं और बेहतर जीवन के लिए ये जरूरी उपादान हैं।
 ---
                                                             

  

होली का सपना

-गोपाल राम गहमरी

आज आंखें क्या लगीं, होनहार ही होनहार दिखाई देने लगा। ठीक जैसे पुराने जमाने का रसांजन या सिद्धांजन लगाने से धरती के गड़े खजाने लोगांे को दिखाई देते थे। वैसे ही आज नींद ने मेरी आंखें क्या बंद की, मानो होनहार देखने के लिए ज्ञान की भीतरी आंखें खोल दी। देखा तो मोटे-मोटे सोने के चिकचिकाते अक्षरों से आसमान उज्जवज हो रहा हैं इतना बड़ा विशाल आकाश उन्हीं अक्षरों के प्रकाश से अपनी नीलिमा छोड़ सुनहला हो गया है। मन में आया आंखें बंद हैं। मैं सोता हूं तो भी यह रोशनी कैसे दिखाई दे रही है? फिर आंखें गड़ा कर देखा तो कुछ लिखा है। पहले अक्षरों की चमक से चकाचौंध लगी जाती थी लेकिन मिनट दो मिनट नहीं बीते कि नयनों को ठंडक आई। चकाचौंध जाती रही ठीक जैसे सूर्य का चांद हो गया। आकाश में जो अक्षर पीले-पीले चमकते थे वे सब चांद रंग के हो गए। अब साफ पढ़ा तो देखा यही लिखा है ‘विलायती महाभारत का अंत’ वह उ$पर सबसे मोटे अक्षरों में है। उससे कम मोटे अक्षर दूसरी पांती में है, जिसमें लिखा है, ‘ब्रिटिश विजय मित्रों की गोटी लाल’।
बस इतना ही देखा था कि एक विकट रूपा राक्षसी सामने से दांत बाये हुए दौड़ती दिखाई दी। उसकी बिखरी लटों से आग निकल रही है। मुंह ज्वालामुखी का कंदरा मात करता है। नाक और कान से भी आतिशबाजी के कुजे छूट रहे हैं। सारी देह महाकाली का विकराल रूप है। लेकिन शरीर के सभी रन्ध्रों से आग फेंकती है। ज्यों-ज्यों पास आती गई त्यों-त्यों मेरे प्राण सूखते गए। बहुतेरा चाहा कि पीछे फिर कर भाग जाउ$ं। लेकिन पांव मानों धरती से ऐसे चिपके कि हिल नहीं सके। लेकिन उसके देह से निकलती हुई आग पास आने पर जलाती नहीं, देखकर तसल्ली सी हुई। अच्छी तरह देखा तो उस पूतना के कपार पर ‘होलिका’ लिखा है। मैंने होली महारानी की जय कहकर आठों अंगों से प्रमाण किया। उसने दोनों हाथ उठाकर, मुंह हिलाकर आशीर्वाद दिया, कहा ले बच्चा! पच्चास बरस तेरी आयु और बढ़ी, पूरे सौ बरस की जिंदगी अब तेरी हुई, बोल और कुछ चाहिए?
अब मैं ढीठ हो गया। ‘कहा ना माताजी आपने पच्चास बरस मुझे आयु दी है इसके लिए धन्यवाद है। यह तो आपने अपने आप ही दिया है। ठीेक जैसे पका शरीफ न्यूटन के कपार पर आप ही आप आया था। लेकिन मैं आप से कुछ और मांगना चाहता हूं। दया करके.....
बस बस बोल क्या मांगता है। नहीं तो घड़ी तो बीती जाती है। एक, दो, तीन बस तीन ही मिनट और हैं इतने में जो मांगेगा सो पावेगा। लेकिन अपने मतलब की कुछ न मांगना।
ना माताजी! मुझे अपने मतलब की कुछ नहीं चाहिए। पहली बात तो मैं यही मांगता हूं कि युरोप में जो महाभारत हो रहा है उसका अंत इसी साल जून में ठीक ब्रिटिश विजय के साथ हो आया।
दूसरी बात यह है कि हमारी ब्रिटिश सरकार को ऐसी सुमति हो कि इस साल जो नए टैक्स लगने हैं वे मेरे कहे मुताबिक लगें। उसका विवरण मैं आगे देकर अपनी याचना समाप्त करता हूं।
‘बोलता जा! बेलता जा! की आवाज सुनकर ही मैंने कहा, ‘पहला टैक्स तो उनपर लगे तो पुराने ख्याल के खूसट आज पश्चिमी रोशनी में भी व्याह शादी में नाच फांच, रंडी, भंडुए, भांड भगतियों के बिना अपनी रस्म नहीं पूरा कर सकते। उन पर टैक्स यही लगे कि जितना इन कामों में खर्च करते हैं वह बंद करके उसका आधा टैक्स देवें आधा बचत में रखें।
दूसरा टैक्स उन धनकुबेर, महंथ और पुजारियों पर लगे जो बेकामधाम के बैठे ती का माल मलीदा चाभबैठे दूसरों का मु-चाभ कर उत्तानपाद हो रहे हैं। जिनको दीन दुनिया से कुछ नेह-नाता नहीं है। संसार में आगे लगे चाहे ब्रज पड़े, मरकी माहमारी आए चाहे हैजा हो, विकराल अकाल धरती धुआंधार हो, चाहे युद्ध से संसार का संहार हो, इनकी सदा पाचों घी में हैं।
तीसरा टैक्स उनपर लगे जो अपने देश मंे बनी अच्छी चीज छोड़कर शौक से बड़े आदमी बनने के लिए विलायती चीज खरीदते हैं।
चौथा टैक्स उन ब्रज कृपण कंजूसों पर लगे जो अपना धन धरती मंे गाड़ रखते हैं। आप खाते हैं न दूसरों को खिलाते हैं। न किसी रोजगार में लगाते हैं न लोकोपकार में खर्च करते हैं। सांप की तरह फन काढ़े उस धन पर रखवार बनकर बैठे हैं। यदि कोई उनसे भलाई के काम में खर्च करने के लिए कहने आता है तो उसपर ऐसे फुफुआते हैं कि वह सिर से पांव तक झुलस का भाग जाता है।
पांचवा टैक्स नारद के उन वंशधरों पर लगे जो सदा अपना धन मुकदमें बाजी में लगाकर स्वाहा करते हैं ओर खाली हो जाने पर लोगों को आपस में लड़ाकर घर फूंक देखते हैं। उनको अदालत का दरवाजा देखे बिना रोटी हजम नहीं होती। बात-बात में मुकदमा लड़े बिना पानी नहीं पचता।
छठा टैक्स उनी धनी धनदूसरों पर लगे जो बैकुण्ठ के गुमाश्ते बनाकर काशी, मथुरा, प्रयाग, पुरी, गया, रामेश्वर, द्वारिका आदि धामों में बैठकर यात्रियों को धेनु गाय की तरह फूंका देकर दुहते हैं और लोक शिक्षा, देश शिक्षा एवं सर्वाहित के लिए कौड़ी खरच करने में जिनकी नानी मर जाती है।
सातवां टैक्स उन नादिहंद करमुंहों पर लगे जो सालभर साहूकार की तरह नियम से अषवार डकारते चले जाते हैं लेकिन दाम देने के समय लुआठ दिखाते हैं, मांगने पर किवाड़ बंद कर लेते हैं, निवेदन करने पर निबुआ नून ट हो जाते हैं और नाट नोन चाटते हें और वी पी भेजने से कभी ले या नाट क्लेम्ड का जामा पहन कर घाघरे की आर में छिप जाते हैं।
इतना कह चुकने पर ‘एवमस्तु-एवमस्तु’ की इतनी बुलंद आवाज आई कि आसमान फटने लगा मैं भी आवाज सुनकर उठ बैठा तो देखा चौकीदार जागते रहो, जागते रहो, कहकर चिल्ला रहा था। अब कहीं न होली है न होली की आग है। होश में आया तो अभी फागुन की फसल चारों ओर हरी भरी खड़ी है। लोग खेत खलिहान में एंेडे़, गौंड़े, राह, घाट सर्वत्रा होरी और कबीर बोलते है। ‘यह सपना मैं कहों विचारी, होईहें सत्य गए दिन चारी’।
--

जिन्‍हें 42 गांव के लोग देवदूत मानते थे

दिशोम गुरु शिबू सोरेन के झारखंड आंदोलन के सिपहसालारों में एक नाम कालीचरण मांझी का भी शामिल था। 20 फरवरी 2020 को झारखंड आंदोलन का यह अनमोल रत्न खो गया। बोकारो जिले के जरीडीह प्रखंड के कुकुरतोपा गांव के फागु हांसदा के पुत्र कालीचरण मांझी खुद को जंगल का बेटा कहते थे। जंगल बचाने के अभियान के साथ-साथ अंधविश्वास, डायन प्रथा, नशाखोरी सहित अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ  भी लोंगो को जागरूक करने में तीस साल से लगे थे। झारखंड आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले कालीचरण मांझी का रहन-सहन पचास साल पूर्व जैसा था। इनकी सादगी का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि इनके तन पर केवल धोती और
माथे पर पगड़ी रहती थी। ये चप्पल तक नहीं पहनते थे। चाहे वह कंपकपाती ठंड हो या चिलचिलाती धूप। एक बार जरीडीह थाना के प्रभारी त्रिपाठी जी ने इन्हें लाल रंग का एक कुर्ता भी दिया, लेकिन इन्होंने उसे कभी पहना नहीं। मांस-मदिरा से दूर रहने वाले कालीचरण प्रतिदिन सुबह अपने घर का काम काज कर, जलपान कर अपने अभियान में निकल जाते थे। सुबह से शाम तक इस गांव से उस गांव तक भ्रमण करना इनकी दिनचर्या में शामिल थी। इनकी सेवा भाव को देख कर आस पास के 42 गांवों के लोग इन्हें देवदूत मानते थे।

कहा जाता है कि काला होने की वजह से माता-पिता ने इसका नाम काली रखा, लेकिन यही काली समाज में जागरूकता की किरणें बिखेरते रहे। उम्र के इस पचहत्तरवें पड़ाव पर भी वे बिल्कुल स्वस्थ थे। जीवन में इन्होंने कभी डॉक्टर से अपने लिए दवा नहीं ली थी। एक दो बार जब भी खेती किसानी में हल कुदाल से चोट लगी, जंगलों के जड़ी-बूटी से खुद इलाज कर लिया।
शिक्षा के नाम पर तीसरी कक्षा तक ही अक्षर ज्ञान हो पाया था। लेकिन हिंदी, संताली और बंगला और उर्दू के शब्दों और संस्कृत के श्लोक भी धारा प्रवाह बोल लेते थे। अपनी  कमाई का कुछ हिस्सा बीमार लोगों को अस्पताल पहुंचाने ओर जरूरतमंद गरीबों के आवेदन सक्षम अधिकारी तक पहुंचाने में खर्च कर देते थे।  अधिकारी भी इनकी बातों को बड़ी गंभीरता से सुनते थे, क्योंकि ये खुद के लिए नहीं, बल्कि गांव और ग्रामीणों के हित में कार्य करते थे। वे पूरे क्षेत्र में ये पर्यावरण मित्र और आदिवासी संस्कृति के रक्षक के रूप में जाने जाते रहे। इनके जेहन में गांव के बारे सोच था कि गांव का विकास हो, हिंसाविहिन हो, लोग गांव में मेल मिलाप के साथ अच्छी तरह से जीवन-यापन करे। संताली समाज के पंचायती में इन्हें लोग बुलाते रहे।
एक बार 1987 में इनकी बेटी की तबीयत खराब थी, ये आटा लाने के लिए बगल के गांव गोपालपुर गए थे, तो कुछ लोगों ने इसे जान से मारने की साजिश रची, लेकिन वे असफल रहे। ये जान बचाकर भागे। ये बगल के गांव कुलांगगुटू के एक घर में जा छिपे। वहां से इन्हें रामसुंदर बेसरा और चतुर बेसरा ने इन्हें इनके गांव तक पहुंचाया। अपनी जान बचाने के लिए उस रात इन्हें साड़ी पहन कर छद्म वेश में अपना घर आना पड़ा। 2010 में मुखिया का चुनाव और 2015 में जिला परिषद का चुनाव भी लड़ा, लेकिन इन्हें सफलता नहीं मिली। 1970 से ये वन बचाओ आंदोलन से जुड़े रहे। इनका कहना था कि वन नहीं रहने से मानव का कल्याण नहीं हो सकता है। जीवन के हर मोड़ पर हमें इनकी जरूरत पड़ती है। सुबह उठकर दतवन भी हमें जंगल से ही मिलती है। शादी विवाह में मंडप के लिए डाली पत्ता जंगल से ही मिलती है। लड़की की शादी में महुआ डाली और लड़के के शादी में आम की डाली, भोज के लिए सखुआ का पत्ता भी हमें इसी जंगल से ही मिलता है।                                                                     
-मनोज कुमार कपरदार