रामचंद्र शुक्ल/अछूत की आह

रामचंद्र शुक्ल की यह कविता 1933 में लाहौर से प्रकाशित पुस्तक हिंदी विलास से ली गई है। इस पुस्तक के संपादक सूर्यकांत थे, जो लाहौर के डीएवी कॉलेज में पढ़ाते थे। इसे पंजाब विश्वविद्यालय ने प्रकाशित किया था। हालांकि यह आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल की कविता नहीं।
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रामचंद्र शुक्ल
अछूत की आह

1
एक दिन हम भी किसी के लाल थे,
आंख के तारे किसी के थे कभी।
बूंद भर गिरता पसीना देख कर,
था बहा देता घड़ों लोहू कोई।।
 2
देवता देवी अनेकों पूज कर,
निर्जला रह कर कई एकादशी।
तीरथों में जा द्विजों को दान दे,
गर्भ में पाया हमें मां ने कहीं।।
3
जन्म के दिन फूल की थाली बजी,
दु:ख की रातें कअी सुख दिन हुआ।
प्यार से मुखड़ा हमारा चूम कर,
स्वर्गमुख पाने लगे माता पिता।।
4
हाय, हमने भी कुलीनों की तरह,
जन्म पाया प्यार से पाले गये।
जी बचे फूले फले तब क्या हुआ,
कीट से भी नीचतर माने गये।।
5
जन्म पाया पूत हिंदुस्तान में,
अन्न खाया और यहीं का जल पिया।
धर्म हिंदू का हमें अभिमान है,
नित्य लेते नाम हैं भगवान का।।
6
पर अजब इस लोक का व्यवहार है,
न्याय है संसार से जाता रहा।
श्वान छूना भी जिन्हें स्वीकार है,
है उन्हें भी हम अभागों से घृणा।।
7
जिस गली से उच्च कुल वाले चलें,
उस तरफ चलना हमारा दंड्य है।
धर्म ग्रंथों की व्यवस्था है यही,
या किसी कुलवान का पाखंड है।।
8
हम अछूतों से बताते छूत हैं,
कर्म कोई खुद करें यह पूत हैं।
हैं सभों को ये पराया मानते,
क्या यही स्वामी तुम्हारें दूत हैं।।
9
शासकों से मांगते अधिकार हैं,
पर नहीं अन्याय अपना छोड़ते।
प्यार का नाता पुराना तोड़ कर,
हैं नया नाता निराला जोड़ते।।
10
नाथ तुमने ही हमें पैदा किया,
रक्त मज्जा मांस भी तुमने दिया।
ज्ञान दे मानव बनाया फिर भला,
क्यों हमें ऐसा अपावन कर दिया।।
11
जो दयानिधि कुछ तुम्हें आये दया,
तो अछूतों की उमड़ती आह का।
यह असर होवे कि हिंदुस्तान में,
पांव जम जावे परस्पर प्यार का।।

रांची और आर्यावर्त

सौ साल पहले रांची से आर्यावर्त नामक पत्र प्रकाशित होता था। देश-विदेश की खबरें भी हुआ करती थीं। रांची की खबरें भी स्थान पाती थीं और विज्ञापन भी पहले पेज से लेकर अंत के पेज तक छपते थे। चंद्रकांता संतति उपन्यास का भी एक विज्ञापन देखने में आया। नीचे रांची से जुड़ी एक खबर है। आप पढ़े और उस समय की हिंदी कैसी थी, उसे देखें। अंक हमने अंग्रेजी में दिए हैं। यह खबर अप्रैल की है।

स्थानिक और प्रान्तिक समाचार
रांची : इस सप्ताह में कई दिन वृष्टि खूब हुई है। समयानुकूल गरमी नहीं पडऩे के कारण स्वास्थ्य शहर का अच्छा नहीं है। 1 ली मइ से कचहरी प्रात:काल में होगा, परन्तु ऐसी दशा रहने से अब ही सुबह कचहरी होने का एतना आवश्यकता नहीं है। जगह ब जगह धान के लिये खेत तेयार किया जाता है और कहीं 2 धान बुनना भी आरम्भ हो गया है। मि: किश्रवो साहेब आ गये, परन्तु अभी जिलाधीश के काम का चार्ज नहीं लिये हैं। स्थानिक कुल स्कूल सुबह होने लगे। गले का भाव साबित दस्तुर है। कई यहां के कचहरी के किरानी अपने असावधानी के लिये सजा पाये थे। जिलाधीश के अज्ञा से असंतुष्ट होकर कमीश्नर साहिब के पास अपील किये थे। कमीश्नर साहिब ने उनके अपील को सुना। मि: स्लकै कमीश्नर की दयालुता सराहनीय हे। जिला स्कूल अगामी ता 6 मई को बन्द होगा। नया हेडमास्टर साहेब पढ़ाने के अतिरिक्त लड़कों के चाल-चलन पर अधिक ध्यान देते हैं और लड़कों के खेलने का अच्छा बन्दोबस्त किये हैं, जिसमें लड़के सब इधर उधर नहीं खेला करें।

दुर्गाबाटी में महिलाएं केवल एक घंटे करतीं थी मां का दर्शन

रांची में दुर्गापूजा की शुरुआत रातू राज घराने से हुई। कहा जाता कै कि 1870 में दुर्गा पूजा यहां प्रारंभ हुई। रांची का यह प्रथम दुर्गोत्सव था। रातू किले के मुख्य द्वार से थोड़ा हटकर यहां मां का मंदिर है। किले के भीतर बलि स्थान भी है। यह राजा का उत्सव था। राजा का मंदिर था। लेकिन आम जनों ने इसके 13 साल बाद श्री श्री हरिसभा और दुर्गाबाटी संस्था स्थापित हुई और 1883 में दुर्गापूजा प्रारंभ हुई। इसका आरंभ जिला स्कूल के संस्कृत शिक्षक पंडित गंगा चरण बागीश ने कुछ धर्म परायण व्यक्तियों के साथ मिलकर इसका आयोजन किया। आज जो दुर्गाबाटी का भव्य रूप दिखता है, पहले खपरैल का था और यहीं पूजा शुरू हुई। इस बाटी की कुछ खास परंपरा रहीं। जब से पूजा प्रारंभ हुई, तब से वीरभूम के मूर्तिकार ही एकचाला प्रतिमा बनाते हैं। पं बंगाल के वीरभूम जिले देवेंद्र नाथ सूत्रधार इसके पहले मूर्तिकार थे। आज भी उनके वंशज की प्रतिमा गढ़ते हैं। एक दूसरी खास बात यह है कि यहां प्रतिमा का निर्माण भी पूरे-विधान से शुरू होकर पूर्ण होता है। जन्माष्टमी के दिन प्रतिमा का निर्माण कार्य प्रारंभ होता है। रांची के इतिहास पर रोशनी डालने वाले डॉ रामरंजन सेन बताते हैं कि पहले यहां महिलाओं का प्रवेश केवल नवमी की रात आठ से नौ बजे तक होता था। सिर्फ एक घंटे ही मां का दर्शन कर सकती थीं और उस समय मंदिर से पुरुष बाहर निकल जाते थे। बाद में इसका भी विरोध शुरू हुआ। आखिर मातृशक्ति मां का दर्शन केवल एक घंटे ही क्यों करेगी? इसके बाद 1921 में महिलाओं का अबाध प्रवेश का द्वार खुल गया। अब मां का शृंगार भी महिलाएं ही करती हैं।

बलि प्रथा का था प्रचलन
बंगाली परंपरा के अनुसार पूरे विधि-विधान के साथ यहां पूजा होती थी। प्रारंभ में यहां तांत्रिक विधि से पूजा होती थी। तंत्र विधान के अनुसार ही यहां बलि प्रदान किया जाता था। बलिदान के बाद बकरे के खून का टीका लगाकर कुछ भक्त नृत्य भी करते थे। बाद में कुछ लोगों ने इस प्रथा का विरोध किया और बंद कर दिया गया। डॉ पूर्ण चंद्र मित्र इस प्रथा के कट्टर विरोधी रहे। डॉ रामरंजन सेन बताते हैं कि ऐसी प्रथा को बंद करवाने के लिए उन्होंने लोगों को अपना अभिमत लिखकर दिया और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित किया कि वे इसका विरोध करें। इसके बाद 1927 में इस कुप्रथा को बंद कर दिया गया। इसी साल मंदिर का निर्माण भी किया गया। इसके बाद यहां एक प्रेक्षागृह भी बना।
 लगता था पांच दिनों का मेला
पहले दुर्गाबाटी के सामने, आज जहां शास्त्री मार्केट है, मेला लगता था। तब खाली मैदान हुआ करता था। 1926 में मेले में आए दुकानदारों से शुल्क भी लिया जाने लगा। पांच दिनों तक मेला चलता था। तरह-तरह के झूले, बाजार। मेले में लोगों की भीड़ उमड़ती थी। छोटा शहर था, लेकिन दुर्गोत्सव में लोग आस-पास के गांवों से भी आते थे। आज भी लोग दूर-दराज के गांवों से लोग आते हैं। बाद में भीड़ बढ़ी तो मेला बंद कर दिया और आगे चलकर यहां एक स्थायी मार्केट बन गया।
रांची के कुछ और दुर्गा पूजा समितियां
एजी आफिस के कर्मचारियों ने 1912 में डोरंडा दुर्गा पूजा की शुरुआत की। इसके अगले साल 1913 में हिनू दुर्गापूजा कमेटी का गठन किया गया। 1936 में लालपुर, बर्धमान कंपाउंड में कमेटी का गठन कर पूजा शुरू की गई। आजादी के बाद 1954 में देशप्रिय क्लब का गठन कर यहां भी दुर्गा पूजा शुरू की गई। आज रांची में सौ से ऊपर दुर्गा पूजा समितियां हैं, जो लाखों खर्च कर पंडाल का निर्माण करती हैं। लोग दूर-दूर से पंडालों को देखने आते हैं। लेकिन दुर्गाबाटी का महत्व आज भी कम नहीं हुआ है। यहां मां की विदाई भी कंधे पर दी जाती है।