चुपके से जाना लोक कलाकारों की नियति


  • संजय कृष्ण
  • झारखंड में चलना ही नृत्य, बोलना ही गीत का मुहावरा बहुत पुराना है और प्राय: यहां की हरेक आदिवासी भाषाओं में मिल जाता है। पर, यहां लोक कलाकारों का वह मान-सम्मान नहीं, जो दूसरे प्रदेशों के कलाकारों को मिलता है। राज्य बने बीस साल हो गए, लेकिन यहां गांव-गांव जन्मजात कलाकारों के लिए रोजगार का कोई स्थायी साधन सरकार मुहैया नहीं करा पाई है। बस, उसे यहां प्रदर्शन की वस्तु बना दिया गया है। कोई अतिथि आया, उसके स्वागत-सत्कार के लिए दर्जनों कलाकार भूखे-प्यासे खड़े रहते हैं। इस लॉकडाउन में झारखंड का एक उम्दा कलाकार बिछड़ गया। पिछले साल दिसंबर में गोपीचंद्र प्रमाणिक से मुलाकात हुई थी। तभी जाना कि उनकी आंखों में रोशनी बहुत कम है। वे बासुंरी बजाते थे। इस विधा में उनका नाम भी था। हालांकि उन्होंने बैंजों से ही अपनी शुरुआत की थी। आज दोपहर यह मनहूस खबर मिली कि वे अब नहीं रहे। रिम्स में अंतिम सांस ली। अब गोपीचंद्र की बांसुरी से अब सुरीली, मधुर और कर्णप्रिय स्वर अब सुनाई नहीं देगी। यह भी अजब संयोग है, मई में ही जन्में और मई में ही दुनिया को अलविदा कह गए। गोपी खेलगांव स्थित झारखंड कला मंदिर में बतौर प्रशिक्षक पिछले दस सालों से जुड़े थे। उन्हें सप्ताह में तीन प्रशिक्षण देना होता था। इस तरह उन्हें महीने में करीब 12 हजार की राशि मिलती थी। उनके निधन से लोकजगत मर्माहत है। 6 मई 1976 को जन्मे गोपी ने 24 सितंबर 2005 को पहली बार एक बांसुरी वादक के रूप में सुर सिंगार म्यूजिकल ग्रुप के साथ स्टेज कार्यक्रम में शिरकत की थी। कहते हैं कि इसके पहले वे आजाद अंसारी के साथ बैंजो वादक के रूप में संगत करते थे। उन्हेंं बांसुरी वादक के रूप में झारखंड संगीत-जगत में लाने का श्रेय सुर सिंगार म्यूजिकल ग्रुप के आनंद कुमार राम, शिव शंकर महली एवं मनपूरन नायक को जाता है। पिछले दो सालों में तीन बांसुरी वादकों को झारखंड ने खोया है। 

गोपी के आंखों की रोशनी कम थी, लेकिन अंत:चक्षु से वे चीजों को देखते-समझते थे। वे लोक कलाकारों के प्रति चिंतित रहते। वे चाहते थे, सरकार यहां के कलाकारों के लिए स्थायी व्यवस्था करे। आखिर, कला और कलाकारों का संरक्षण भी सरकारों को अहम दायित्व होता है। पर, हमारी सरकारें खुद में इतनी उलझी हुई होती हैं कि उन्हें तिकड़मों के अलावा साहित्य, कला, संस्कृति पर बात करना नागवार गुजरता है। इसलिए, 20 सालों में यहां सरकारें तो खूब बनीं, लेकिन कला-संस्कृति के लिए कोई जगह नहीं बन पाई। जबकि झारखंड कई मायनों में कुछ कला-प्रविधि का जन्मदाता है। बीस सालों में अभी-अभी जियो टैग सोहराय-कोहबर को मिला। लेकिन इसमें किसी सरकार की कोई भूमिका नहीं है। यह यहां के कलाकारों की जीवटता और अथक प्रयास से संभव हुआ है।

गोपी अब सुर का संधान नहीं कर पाएंगे। मधुमेह ने उनकी आंखों की रोशनी छीनी, उच्च रक्तचाप ने उनकी जिंदगी। जब शंकर नेत्रालय में दिखाया तो डॉक्टरों ने रोशनी लौटने की शर्त आपरेशन रखी थी। वहां कोलकाता में चिकित्सा के लिए संस्थाओं ने मदद भी की थी। अपना शुगर कंट्रोल करने के लिए वे रांची आ गए थे। 15 दिन पहले जब सांस लेने में परेशानी हुई तो रिम्स में भर्ती कराया गया था। जब सुधार हुआ तो सप्ताह भर पहले उन्हें छुट्टी दे दी गई थी। लेकिन अचानक फिर तबीयत बिगड़ी तो रिम्स में ही शरण लेनी पड़ी और फिर 24 मई को सांस भी थम गई। इसके बाद दोपहर बाद ही उनका अंतिम संस्कार भी पुंदाग नदी के पास कर दिया गया।  झारखंड कल्चरल आर्टिस्ट एसोसिएशन ने उनकी भरपूर मदद की, लेकिन बचाया नहीं जा सका। पिछले दो सालों में तीन बांसुरी वादक चुपके से चले गए। अब गोपी नहीं रहे। एक पुत्र और चार पुत्रियों को छोड़ गए। डा. जयंत इंदवार बताते हैं कि इनमें एक पुत्री का विवाह कर चुके थे। कलाकारों को भी, और सरकार को भी उनके परिवार की चिंता करनी चाहिए।

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