स्मृतिशेष : डॉ श्याम सुंदर घोष

डा. श्यामसुंदर घोष बीते छह अक्टूबर चले गए। यह वही दिन था, जिस दिन उनकी
अंतिम दो पुस्तकें 'चीनी समालोचकों की नजर में प्रेमंचदÓ व 'शिखर सेतु
समापनमÓ छपकर आईं। उसकी प्रति हाथ में ली, निहारा और ठीक 15 मिनट बाद
उनका शरीर अनंत की यात्रा पर निकल पड़ा। 20 नवंबर, 1934 को झारखंड के
गोड्डा जिले के सैदापुर गांव में उनका जन्म हुआ था। यहीं उनकी कर्मस्थली
भी रही 1994 में 37 सालों की सेवावधि के बाद हिंदी विभागाध्यक्ष पद से
गोड्डा कालेज से ही अवकाश ग्रहण किया। 'प्रेमचंद के उपन्यासों में
मध्यवर्गÓ पर भागलपुर विश्वविद्यालय से 1967 में पीएच डी की, लेकिन लेखन
की शुरुआत आजादी के बाद से ही शुरू हो गई थी और निरंतर जारी
है-मृत्युपर्यंत।
इनका लिखना इसलिए भी महत्वपूर्ण था कि वे पिछले 20-22 सालों से स्नायुरोग
की गिरफ्त में थे। चलना मुश्किल से हो पाता था। जिन्होंने उन्हें देखा
होगा, वही महसूस कर सकते थे कि वह किस मिट्टी के बने थे। पूरा शरीर जवाब
दे गया था, पर मन-मस्तिष्क लाजवाब रूप से काम कर रहे थे और लेखन जारी था।
डॉ बालेंदुशेखर तिवारी ठीक ही कहते हैं कि लेखन से ही उन्हें ऊर्जा मिलती
थी।
डॉ घोष की एक बेटी रांची रहती हैं। वहीं पर 2008 में उनसे मुलाकात हुई
थी। बीमारी के बावजूद पूरे गर्मजोशी से मिले और अपनी किताबों के बारे में
बताया था। तब रांची मेरे लिए नई थी और डॉ घोष भी। महसूस हुआ कि लेखन का
उनका रेंज काफी बड़ा है। कविता, कहानी, हास्य-व्यंग्य से लेकर संस्मरण,
समाजशास्त्र, नाटक, भाषा चिंतन, बाल साहित्य तक। कई पत्रिकाओं का संपादन
भी किया और किताबों का भी। किताबों की संख्या की बात करें तो 70 तक
पहुंचती हैं।
सन्् 1951 में उनका पहला काव्य संग्रह 'मधुयामाÓ प्रकाशित हुआ था। तब
उन्होंने अपना उपनाम 'अशांतÓ रखा था। दूसरे संग्रह 'मसीहाÓ तक 'अशांतÓ
बने रहे। इसके बाद मूल नाम से ही कई संग्रह प्रकाशित हुए। कविता के अलावा
व्यंग्य भी प्रकाशित हुए और समीक्षात्मक पुस्तकें भी। उपन्यासकार
प्रेमचंद, नई कविता का स्वरूप विकास, नवलेखन : समस्याएं एवं संदर्भ,
प्रासंगिकता के बहाने, लोक साहित्य : विविध प्रसंग, रामकथा, कबीर-एक और
दृष्टि, बच्चन: व्यक्ति और रचनाकार...। संस्मरणों की भी कई पुस्तकें
प्रकाशित हैं। अनियतकालीन पत्रिका 'प्रतिमानÓ का भी कई अंकों तक संपादन
किया। किसी एक विधा में बंधकर वे कभी नहीं रहे। कुछ साल पहले 'नटराज शिवÓ
पुस्तक का संपादन किया था, जिसमें शिव पर लिखे  दुर्लभ लेखकों की रचनाओं
को शामिल किया था। अंतिम कृति 'चीनी समालोचकों की नजर में प्रेमंचदÓ कई
मायनों में इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें चीनी लेखकों का हवाला भी
दिया है कि किस चीनी लेखक ने प्रेमचंद की कौन सी कहानी का अनुवाद किया
है। यह अपने आप में एक बड़ा काम है। यह काम भी वे छोटे से शहर गोड्डा में
रहकर किया। फिर भी, अपने उस शहर की तरह हमेशा वे अल्पज्ञात ही रहे। यह हम
हिंदी वालों का दुर्भाग्य है, या उनका।

फादर कामिल बुल्के : लौटना 36 साल बाद

 यह लौटना कोई इत्तेफाक नहीं था। दिल्ली जैसे अजनबी शहर से पूरे 36 साल बाद अपनी कर्मभूमि रांची वापसी। उस शहर से, जिससे कोई नाता नहीं, कोई संबंध नहीं, कोई सरोकार नहीं। कोई लगाव और रचाव भी नहीं। नाता यही कि इसी अजनबी शहर में फादर कामिल बुल्के ने 17 अगस्त, 1982 को एम्स में अंतिम सांस ली। ईसाई धर्मबंधुओं ने बुल्के को दिल्ली में ही दफनाने का निर्णय लिया। उनके अंतिम दिनों के साथी फा. पास्कल तोपनो, ये.सं. लिखते हैं, 'एक महत्वपूर्ण निर्णय मुझको लेना था-फादर बुल्के को कहां दफनाया जाए, दिल्ली में या रांची में। रांची की जनता निश्चय ही बुल्के के अंतिम दिन दर्शन के लिए तरसेगी और अंतिम संस्कार में सम्मिलित होना चाहेगी-इसका अनुमान मुझे था। फिर भी मैंने हाल की घटनाओं ने मेरी यह धारणा पक्की कर दी थी कि फादर बुल्के के पार्थिव अवशेष को रांची तक सही सलामत पहुंचा पाना कोई सहज काम नहीं। लालफीताशाही से डरा हुआ था।Ó फादर के ये शब्द पीड़ा से उपजे थे। वह भी नहीं चाहते थे कि उन्हें दिल्ली में दफनाया जाए, लेकिन जिस व्यक्तिको पद्मविभूषण मिला हो, उसके इलाज के लिए भी सरकारी अस्पताल में परेशान होना हो तो आखिर उस अगस्त की गर्मी में वे क्या कर सकते थे? 
आखिरकार, फादर बुल्के को वहीं, उसी बेगाने दिल्ली के हवाले कर दिया गया, लेकिन फादर की आत्मा तो रांची आने के लिए बेचैन थी।
बेशक, 1982 का 17 अगस्त रांची के लिए बहुत भारी साबित हुआ होगा और तब तो और, जब उन्हें पता लगा होगा कि फादर का अंतिम दर्शन भी नहीं कर सकते!  
पर, रांची को एक लंबा इंतजार करना पड़ा। 36 साल। दिल्ली से रांची उनके पवित्र अवशेषों को ले आने में सोसाइटी ऑफ जीसस रांची प्रोविंस के प्रोविंशियल फादर जोसेफ  मरियानुस कुजूर की अहम भूमिका रही। दो सालों से इस अभियान में लगे थे। उनके कारण ही यह संभव हो पाया और फादर अपनी कर्मभूमि लौट पाए। इसी 13 मार्च को उनका अवशेष रांची ले आया गया और फिर 14 मार्च को उसी जेवियर कॉलेज के प्रांगण में उन्हें पूरे सम्मान व उत्सव के साथ दफनाया गया। यहीं वे पढ़ाते थे। इस आंगन के चप्पे-चप्पे से वाकिफ थे। ईंट की दीवारें, परिसर की मिट्टी, पेड़-पौधे, लता-द्रुम, हवा-पानी सचमुच इस दिन इन्हें भी एक भरपूर तृप्ति का एहसास हुआ होगा और उस लंबी प्रतीक्षा के पूर्ण होने पर एक ठंडी सांस भरी होगी।  
सचमुच, फादर की आत्मा को भी अब असीम शांति मिली होगी। जो उस समय दर्शन नहीं कर पाए थे, उन्होंने अब किया और पूरी श्रद्धा के साथ उन्हें याद किया। कॉलेज के युवा पीढ़ी के लिए यह किसी कौतूहल से कम नहीं था। हजारों छात्रा-छात्राएं और सैकड़ों गणमान्य और फादर को चाहने वाले उनके इस दुबारा अंतिम क्रिया में शामिल होने आए थे। नई पीढ़ी पहली बार जानी कि जिस शहर से कभी रांची की पहचान हुआ करती थी, वह कोई सामान्य आदमी नहीं था। उसका विराट व्यक्तित्व था और जो बाबा तुलसी के भक्तथे। ऐसी भक्ति अब दुर्लभ होती जा रही है!
 फादर ने तीन बड़े काम किए। एक रामकथा: उत्पत्ति और विकास। दूसरा काम उन्होंने बाइबल का हिंदी अनुवाद कर किया। और, तीसरा शब्दकोश। हिंदू और ईसाई आस्था का उनमें अपूर्व संगम था। बाइबल उनके अंतिम दिनों की कृति है। हालांकि बाइबल अनुवाद वे पूरा नहीं कर सके। 150 पृष्ठों का अनुवाद शेष रह गया था। 930 पृष्ठ का अनुवाद वे कर चुके थे। बाद में उनके अधूरे काम को उनके अनन्य सहयोगी डॉ दिनेश्वर प्रसाद ने पूरा किया। इसकी भी एक कहानी है। फादर ने अपने ईश्वर से महज चार सौ घंटे की मोहलत मांगी थी ताकि अधूरा काम पूरा हो सके। पटना के कुर्जी अस्पताल में जब वे भर्ती थे, वहां डॉ दिनेश्वर प्रसाद और डॉ श्रवण कुमार गोस्वामी मिलने पहुंचे। फादर बोले?'डॉक्टर कहते हैं, पैर काटना पड़ सकता है। पैर कट ही जाएगा तो क्या होगा? मैं काम तो कर ही सकूंगा। डॉक्टर का कहना है कि मैं ठीक तो हो जाऊंगा, पर कम से कम छह महीने तक मुझे विश्राम करना होगा। कोई बात नहीं। अब मैं जनवरी 1983 से फिर काम शुरू करूंगा। मैंने हिसाब लगा लिया? मुझको केवल चार सौ घंटे चाहिए। चार सौ घंटों में बाइबिल के अनुवाद का काम पूरा जाएगा।Ó ईश्वर उन्हें जल्दी अपने पास बुलाना चाहता था और इन्हें बाबा तुलसी से मिलने की आतुरता था। रांची के मांडर, पटना और फिर दिल्ली...स्थिति में कोई सुधार नहीं। पैर में गैंगरीन हो गया था। दोनों गुर्दे जवाब दे गए थे। बीमारी बढ़ती जा रही थी और फादर लड़ते-लड़ते थकते जा रहे थे कि अचानक छोड़कर चले गए...फादर की इच्छाएं अधूरी ही रह गईं...फादर कहते थे, 'मुझे अभी जीवित रहना है। बाइबल के हिंदी अनुवाद को पूरा करना है, तुलसी पर एक ग्रंथ लिखना है और शब्दकोश को और भी वैज्ञानिक बनाना हैै।Ó 
फादर के जाने के बाद रामकथा पर उनके अंग्रेजी निबंधों को संपादित कर डॉ दिनेश्वर प्रसाद ने छपवाई। यह पांडुलिपि भी प्रकाशक के यहां दस सालों तक धूल फांकती रही। तब, दिनेश्वर बाबू भी अपने अंतिम दिनों में चल रहे था। उनके साथ उठना-बैठना होता था तब वे इसकी चिंता करते थे। हालांकि फादर की कुछ और सामग्री भी उनके यहां थी, लेकिन अब क्या हुई पता नहीं। उनके जीवित रहते अंग्रेजी का वह निबंध संग्रह छप कर आ गया। उनकी आंखें तृप्त हो गईं। उस किताब को देखकर उनकी धुंधली आंखों में एक गजब सी चमक दिखी। अब दिनेश्वर बाबू भी नहीं रहे।
नई पीढ़ी को तो पता ही नहीं था कि फादर बुल्के की कब्र रांची में नहीं, दिल्ली में थी। उनके नाम से जरूर पुरुलिया रोड का नाम बदलकर फादर कामिल बुल्के पथ कर दिया गया। मनरेसा हाउस, जहां वे रहते थे, एक आदमकद उनकी प्रतिमा लगी हुई है। उनकी निजी किताबें, उनके नाम से बने पुस्तकालय में थीं। अब यह पुस्तकालय भी जेवियर कॉलेज का हिस्सा बन गया, जहां फादर संस्कृत विभाग के अध्यक्ष और यहीं से अवकाश ग्रहण लिया। अब उसी प्रांगण में उन्हें फिर से दफ ना दिया गया।
फादर पैदा तो बेलजियम के फ्लैंडर्स प्रांत के रम्सकपैले गांव में एक सितंबर, 1909 को हुए थे, लेकिन उन्हें तुलसी के प्रति ऐसी भक्ति जागी कि वे भारत चले आए और फिर सालों तुलसी को गुनते रहे। इसके लिए संस्कृत भी सीखी और हिंदी भी पढ़ी। इलाहाबाद विवि से धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में रामकथा पर काम किया। देश-दुनिया में प्रचलित रामकथा का अध्ययन आज तक हिंदीवाले भी नहीं कर पाए। हम तो राम के अस्तित्व पर ही सवाल उठाते रहे....। यह भी इत्तेफाक नहीं था कि उनके लिए अभिनंदन ग्रंथ तैयार हो रहा था, तब फादर ने कहा, इसे 75 साल पूरे होने पर समर्पित करना, लेकिन 75 साल आया नहीं और अभिनंदन ग्रंथ, स्मृति ग्रंथ के रूप में प्रकाशित करना पड़ा। बाइबल भी 1986 में पूरा होकर छप गई...। ऐसे तुलसी भक्त को शत-शत प्रणाम।





हिंदी की दुर्लभ पत्रिकाओं और पुस्तकों का है विपुल भंडार


अपर बाजार के भीड़-भाड़ इलाके में सौ साल से एक पुस्तकालय चुपचाप अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है।
गोविंद भवन के दूसरे तल्ले पर चल रहे इस पुस्तकालय में कभी रांची के साहित्यकारों का जमघट लगता था। यहीं से कहानी के प्लाट निकलते थे, विचारों की सरिता निकलती थी। पर, अब बेहद उदास, अपने पुराने समय को याद करता हुआ झपकी ले रहा है। आलमारियों की किताबें कब से न जाने सूरज की किरणों से अठखेलियां को तरस रही हैं। शीशे में बंद इतिहास के पन्ने सालों से हाथों के कोमल स्पर्श पाने को लालायित हो रहे हैं। धूल फांक रही ये किताबें, जो खूब बातें करना चाहती हैं, चहचहाना चाहती हैं, गुनगुनाना चाहती हैं, परियों के किस्से सुनाना चाहती हैं, रॉकेट का राज बताना चाहती हैं, गंगा की यात्रा कराना चाहती हैं और वेद-पुराण, उपनिषद, महाभारत का आंखों देखा हाल बताना चाहती हैं, लेकिन हम उसकी ओर पीठ के बल खड़े हैं।  
    
दमकता इतिहास स्वागत को बेताब
 ज्ञान की बह रही सरिता का स्पर्श करना भी हम नहीं चाहते। यहां जाएंगे तो एक दमकता इहिास आपका स्वागत करेगा। सालों पुरानी पत्रिकाएं, जिनके बल हिंदी जवां हुई, फैली, पसरी और लोगों के दिलों में जा बसी- यह सब कहानी, यहां आप सुन सकेंगे। देश के बनते इतिहास से लेकर हिंदी साहित्य के निर्माण की पूरी कहानी यहां दर्ज है। दर्ज है, एक गुमनाम अतीत। शीशे में बंद काठ पर उकेरी ओडिय़ा लिपि में प्राचीन साहित्य, जिसे अब दीमक पढऩे की कोशिश में लगे हैं।  

1918 में पड़ी थी नींव
तो, इस संतुलाल पुस्तकालय से पहले 1918 के आस-पास रामदेव मोदी व मामराज शर्मा के सहयोग से एक पुस्तकालय की स्थापना की गई थी। बाद में यह पुस्तकालय विलीन हो गया। मामराज शर्मा छोटानागपुर पत्रिका के संपादक थे। पत्र के माध्यम से वह इस पठार में दर्जनों बोलियों की बीच हिंदी की सेवा करते थे। उनकी मृत्यु के बाद पत्रिका बंद हो गई और हस्तलिखित रूप से निकाली जाती रही। इसके बाद 1924 में हिंद स्वाधीन पुस्तकालय की स्थापना की गई। स्थापना के दो साल बाद ही यह भी लड़खड़ाने लगी। तब समाजसेवी गंगा प्रसाद बुधिया ने इसे पकड़ लिया। गंगा प्रसाद ने अपने स्वर्गीय भ्राता संतुलाल के नाम पर इसका नामकरण कर दिया। 1933 में इसे अपना नया भवन मिला। इसके बाद तब से यहीं पर है। पुस्तकालय एक बड़े हाल में है। दीवारों में लगी हुई आलमारियों में पुस्तकें सजी हैं। दूसरे तल्ले का उद्घाटन 10 नवंबर, 1960 को हुआ था, जिसकी अध्यक्षता डा. राममनोहर लोहिया ने की थी।  

क्या-क्या है
हिंदी स्वाधीन पुस्तकालय से कुल 779 पुस्तकें मिली थीं। 1955 में पुस्तकों की संख्या 11 हजार पार कर कई। 1960 में चौदह हजार और आज यहां पचास हजार से कम पुस्तकें नहीं होंगी। यहां संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी की हजारों पुरानी किताबें हैं। रवींद्रनाथ टैगोर का हिंदी में साहित्य यहां कई खंडों में उपलब्ध है। उसके आरंभिक अनुवादकर्ताओं के बारे में भी आप जान सकते हैं। 1966 में यहां दस दैनिक समाचार पत्र, 14 साप्ताहिक पत्र, दो पाक्षिक 42 मासिक, 10 बालोपयोगी पत्रिकाएं आती थीं। आर्यावार्त, नवभारत टाइम्स, प्रदीप, विश्वमित्र, हिंदुस्तान, हिंदुस्तान स्टैंडर्ड, इंडियन नेशन, सर्च लाइट, टाइम्स आफ इंडिया, स्टेटसमैन जैसे दैनिक पत्र आते थे। अब तो बस रांची से निकलने वाले पत्र ही आते हैं, लेकिन इन पत्र-पत्रिकाओं की पुरानी फाइलें यहां देख सकते हैं। साप्ताहिक पत्रों में अमेरिकन रिपोर्टर, आदिवासी, आर्य मित्र, दिनमान, धर्मयुग, ब्लिट्ज, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसे दर्जनों पत्रिकाएं आती थीं। मासिक पत्रों में ज्ञानोदय नेशनल माक्र्ससिस्ट, बिहान जैसे पत्र थे।

रेडियो के लिए जुटती थी भीड़
यहां रेडियो भी सुनने के लिए लोग जाते थे। कोलकाता के निवासी देवकीनंदन तोदी ने पुस्तकालय को एक रेडियो सेट दिया था। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की ओर से समय-समय पर फिल्म शो भी हुआ करता था। काफी लोगों की भीड़ यहां जुटती थी। 

अनमोल हैं पत्रिकाओं की पुरानी फाइलें 
पुस्तकालय में बीसवीं सदी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाएं हैं। हंस, बालक, सरस्वती के दुर्लभ अंक यहां देखे जा सकते हैं। इसके अलावा कई दुर्लभ पुस्तकें भी देख सकते हैं। जो यहां हैं, वह कहीं नहीं है। पर, इस पुस्तकालय के प्रति यहां के पढऩे-लिखने वालों ने भी अपना मुंह फेर लिया है। यहां रांची विवि है, शहर में आधा दर्जन कालेज है, लेकिन हिंदी का शोधार्थी शायद ही कभी जाता हो। हिंदी की रोटी खाने वालों को भी इस खजाने की चिंता नहीं है। होती को किताबों पर धूल की परतें न जमा होतीं। पुस्तकालय सहायक एनके मिश्रा क्या कर सकते हैं? वह तो समय से आते हैं, खोलते हैं। पाठक आते हैं, अखबार पढ़ते हैं। चले जाते हैं। हालांकि धर्म के नाम पर लाखों फूंकने वाला समाज साहित्य के प्रति इतना उदासीन क्यों है?

छह साल में रांची में सुहैल ने खोले 30 उर्दू स्कूल

मुसलमानों ही नहीं, आदिवासियों और ईसाइयों के बीच उर्दू के प्रचार-प्रसार को लेकर आजादी से पहले पटना के सुहैल अजीमाबादी ने रांची में कई स्कूल खोले। 1941 से 46 तक करीब तीस उर्दू स्कूल खुल चुके थे, लेकिन इसी बीच आजादी की सुगबुगाहट तेज हो गई। कई जगह दंगे भड़क गए और दंगों के कारण यह अभियान बंद कर देना पड़ा और सुहैल फिर वापस पटना चले गए। 
सुहैल अजीमाबादी के बारे में हम बहुत कम जानते हैं। उनमें देश की आजादी की भावना कूट-कूटकर भरी थी और इसके साथ उर्दू के प्रचार-प्रसार की भावना भी कम न थी। जुलाई, 1911 में उनकी पैदाइश पटना में हुई। अपने बारे में लिखा है, नाम मुजीब-उर-रहमान है, लेकिन सुहैल अजीमाबादी के नाम से प्रसिद्ध हूं। बिहार के एक जमींदार के यहां सन 1911 में पैदा हुआ, जन्मतिथि ज्ञात नहीं।
अपने मकान के बारे में लिखा है, बात यह है कि मेरा मकान जिला पटना में ही है, लेकिन मैं पैदा हुआ पटना शहर में। आज पटना यूनिवर्सिटी का जहां इकबाल हॉस्टल है, वही मकान था, जिसमें मेरा जन्म हुआ। 
सुहैल साहब का परिचय बाबा-ए-उर्दू मौलवी अब्दुल हक से हुआ तो उनके मुरीद ही हो गए। उनके निर्देशन पर उर्दू भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए छोटानागपुर जैसा आदिवासी क्षेत्र चुना। रांची में छोटानागपुर और उर्दू मरकज नाम से एक संस्था की स्थापना की। यह संस्था फरवरी, 1941 के बाद स्थापित हुई थी। उर्दू मरकज द्वारा सुहैल अजीमाबादी ने मुसलमानों में ही नहीं, आदिवासियों में उर्दू भाषा को लोकप्रिय बनाने और उसमें रुचि उत्पन्न कराने का काम किया। रांची में उन्हें मिस्टर उम नविल पटू जैसे उर्दू के अध्यापक का सहयोग मिला। उन्होंने रांची में एक हॉल किराये पर लेकर स्कूल स्थापित किया। यह काम आगे बढऩे लगा। बाबा-ए-उर्दू ने तीन सितंबर, 1941 को एक लंबा पत्र लिखा। उसमें यह भी लिखा, ईसाइयों में उर्दू खूब फैलाइए। यह बहुत बड़ा काम है, बल्कि बड़े पुण्य का काम है।
सुहैल उर्दू के प्रचार-प्रसार के लिए ईसाई और आदिवासियों के रीति-रिवाजों और उत्सवों में भाग लेने लगे थे ताकि मैत्री बढ़े। ईसाइयों में अपनी योजना को फैलाने के लिए अजीमाबादी को रेविरेंड स्मार्ट का सहयोग मिला था। इन सबके बावजूद वह अंजुमन से या मौलवी हक से किसी प्रकार की आर्थिक सहायता लेने को तैयार नहीं थे। 
सुहैल ने रेवरेंड स्मार्ट को पचास रुपये मासिक पर ईसाइयों में उर्दू के प्रचार के लिए मना लिया था। उर्दू मरकज के लिए भूमि भेंट में ली। ईसाई बच्चों को उर्दू सीखने पर पुरस्कार देना शुरू किया। उर्दू स्कूलों की संख्या बढ़ाई गई। संताल में भी उर्दू के लिए मरकज स्थापित किए। 
1941 से 1946 तक खूब तेजी से उर्दू का प्रचार-प्रसार हुआ। स्कूल खुले। छोटानागपुर से लेकर संताल परगना तक। लेकिन 1947 में जब देश का विभाजन हुआ तो इसका असर इस संस्था पर भी पड़ा। सुहैल को अपना मिशन छोडऩा पड़ा। विभाजन से पहले सात सालों में करीब तीस स्कूल स्थापित हुए थे। लेकिन देश बंटवारे ने सब खत्म कर दिया। मौलवी साहब पाकिस्तान चले गए। मरकज को भी बंद कर देना पड़ा। सुहैल रांची से पटना लौट गए। 
रांची से सुहैल अजीमाबादी की वापसी देश विभाजन के दंगों के बाद हुई थी। उन सांप्रदायिक दंगों में उनके घर की बर्बादी भी हुई थी, जिससे प्रभावित होकर रामानंद सागर ने अपना उपन्यास 'और इंसान मर गयाÓ का समर्पण सुहैल अजीमाबादी के नाम किया था। सुहैल की बाद में 1955 में आकाशवाणी में नियुक्ति हो गई। श्रीनगर में सेवा-भार संभाला। फिर दिल्ली आए और पटना में 1970 में अवकाश ग्रहण किया। सुहैल एक अच्छे कहानीकार थे। इसके अलावा सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर भी खूब लिखा। तहजीब, पटना, मार्च 1953 के अंक में बिरसा भगवान, बिहार के आदिवासी आदि लेख लिखे। उनका निधन 29 नवंबर 1979 को इलाहाबाद में हुआ। वे दिल्ली गए थे एक कार्यक्रम में भाग लेने। वहां से 26 को इलाहाबाद आए और प्रेमचंद के पुत्र अमृत राय के घर पर ठहरे। यहीं पर दिल का दौरा पड़ा और 29 को अंतिम सांस ली।   
सुहैल साहब 20 साल की उम्र में लिखना शुरू कर दिया था। सन् 1932 में वे कलकत्ता के अखबार हमदर्द से जुड़ गए। उनके अंग्रेज विरोधी एक संपादकीय पर जब अखबार से जमानत मांगी गई तो हमदर्द बंद हो गया। इसके बाद वे मौलवी अब्दुल हक के मिशन में लग गए और रांची चले आए उर्दू के प्रचार-प्रसार के लिए। यहां उर्दू का प्रचार तो किया ही, कुछ लिखा भी। कहानी, नाटक, शायरी। हर विधा में उस्ताद थे। लेकिन आज रांची ही उन्हें भूला बैठा है।

गांधी ने संत पॉल स्कूल के मैदान में दिया था भाषण

चर्च रोड स्थित संत पॉल स्कूल के मैदान में महात्मा गांधी ने 17 सितंबर, 1925 को अपराह्न तीन बजे एक सभा को संबोधित किया था। सभा में रांची की जनता की ओर से उन्हें एक मानपत्र तथा देशबंधु स्मारक कोष के लिए एक हजार एक रुपये की थैली भी भेंट की गई थी।  
गांधीजी ने इस सभा में कहा था कि सिर्फ चरखा ही भारत के करोड़ों लोगों की भूख मिटा सकता है। बेशक खाली समय में करने को और भी धंधे हैं, परन्तु जिसे लाखों लोग अपना सकें, ऐसा उपयुक्त धंधा चरखे पर सूत कातने के अलावा और कोई नहीं है। मैं पूरे देश में घूमता रहा हूं, लेकिन अभी तक किसी ने कोई ऐसा धंधा नहीं सुझाया जो चरखे का स्थान ले सके। बिहार के पास एक लाख रुपये की खादी पड़ी है। यदि वह बिक जाए तो प्राप्त धन से दूनी खादी बन सकेगी है। अकेला रांची ही आसानी से इतनी खादी खरीद सकता है। लोग मिल के कपड़े को स्वदेशी मान लेते हैं, लेकिन दिल्ली और बंबई के बने बिस्कुट क्या घर की रोटी का स्थान ले सकते हैं? तब फिर आपको भी बंबई की मिलों में बने कपड़े के बजाय बिहार में बनी खादी क्यों नहीं पहननी चाहिए?
यदि आपको अपनी निर्वसना मां-बहनों का तन ढंकना हो तो आपको खादी ही खरीदनी चाहिए। खादी अपेक्षाकृत महंगी है तो क्या हुआ, उसके लिए दी गई हर पाई गांवों की गरीब स्त्रियों को मिलती है। बंबई के अंत्यजों की रक्षा इसी चरखे ने की है।
अस्पृश्यता को समस्या का उल्लेख करते हुए गांधीजी ने कहा कि हिंदू धर्म में अस्पृश्यता जैसी कोई चीज नहीं है। इसी अस्पृश्यता ने भारतीयों को सारे संसार में अस्पृश्य बना दिया है। आपको इन अस्पृश्य भारतीयों की दशा देखनी हो तो दक्षिण अफ्रिका जाइए, आपको मालूम होगा कि अस्पृश्तया क्या चीज है। स्वर्गीय गोखले इसे अच्छी तरह जानते थे और अब भारत भी जान गया है। तुलसीदास ने आपको दया-धर्म की शिक्षा दी है, लेकिन आज आप उसके विपरीत आचरण कर रहे हैं। आपको अस्पृश्यता की यह समस्या दूर करती ही है, अन्यथा स्वराज्य कभी नहीं मिल सकता।
प्रस्तुति : संजय कृष्ण।