संथालियों का धर्मस्थल लुगूबुरू घंटाबाड़ी धोरोमगढ़

बेरमो अनुमंडल के गोमिया प्रखंड का ललपनिया इलाका। यहीं है लुगूबुरू  घंटाबाड़ी धोरोमगढ़। संथाली आदिवासियों का यहां से गौरवशाली अतीत जुड़ा है। यहीं है पहाड़ पर लुगू बाबा का मंदिर। संथाल आदिवासी मानते हैं कि लुगूबुरू पहाड़ में संत लुगू बाबा को मरांग बुरू के दर्शन हुए थे। यहीं पर संथाल आदिवासियों का पहला धर्म सम्मेलन हुआ जो 12 दिन व 12 रात चला। यहां पर ही संथालियों के सामाजिक संविधान की रचना हुई। लुगू बाबा ने संथाल आदिवासियों को अपने रीति रिवाज व पूजा पाठ की व्यवस्था से अवगत कराया। संदेश दिया कि जहां भी रहें अपनी भाषा व संस्कृति को न छोड़ें। यही वजह है कि संथाल आदिवासी दुनिया में कहीं भी रहें अपनी भाषा और संस्कृति का सहेजे हैं। लुगूबुरू घंटाबाड़ी धोरोमगढ़ के आसपास चट्टानों की भरमार है, जिन्हें इस समाज के लोग दोरबारी चट्टान कहते हैं।
पहाड़ की प्रत्येक जड़ी-बूटी करती औषधि का काम:
लुगू पहाड़ की प्रत्येक वनस्पति दवा की तरह काम करती है। मान्यता है कि सभी पौधों में लुगू बाबा की कृपा है इसलिए वह दवा की तरह फायदा करते हैं। इनका सेवन करने से लोग निरोग हो जाते हैं। यही वजह है कि यहां आने वाले लोग जड़ी-बूटी लेकर जाते हैं। पहाड़ से निकलने वाले झरना के पानी में भी औषधीय गुणों की बात कही जाती है।
मरांगबुरू हैं आराध्य :
संथाली आदिवासियों के आराध्य देव मारांगबुरू हैं। मारांग यानी बड़ा व बुरू मतलब पहाड़। बड़े पहाड़ में रहने वाले देवता। पारसनाथ पहाड़ में इनका वास माना जाता है।

जीवन में एक बार दामोदर जरूर आता है संथाल आदिवासी :

लुगू पहाड़ के साथ दामोदर नदी के साथ भी एक कथा है। संथाल समाज के लोग मानते हैं कि प्रत्येक संथाली आदिवासी को जीवनकाल में एक बार यहां आना आवश्यक है। यदि किसी कारणवश वह अपने जीवन में नहीं आ सका तो कम से कम उसकी मृत्यु के उपरांत उसके परिवार के सदस्य उसकी अस्थियां यहां दामोदर नदी में विसर्जित करें।
संथालियों के हर विधान में लुगूबुरू का जिक्र :
संतालियों के हर विधि-विधान एवं कर्मकांड में लुगूबुरू  का जिक्र है। इस समुदाय के लोकनृत्य एवं लोकगीत बिना घंटाबाड़ी के जिक्र के पूर्ण नहीं होते। जो लुगुबुरू के प्रति इनकी अटूट आस्था व विश्वास का प्रतीक है। संथाली समुदाय के दशहरा के मौके पर किए जाने वाले लोकनृत्य दशांय में भी लुगूबुरू घंटाबाड़ी धोरोमगढ़ का जिक्र आता है।

कार्तिक पूर्णिमा में होता धर्म महासम्मेलन
 लुगूबुरू घंटाबाड़ी धोरोमगढ़ में प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर संतालियों का धर्म महासम्मेलन होता है। इस सम्मेलन को राज्य सरकार ने राजकीय महोत्सव का दर्जा दिया है। वर्ष 2019 में 11-12 नवंबर को 19 वां सम्मेलन हुआ। इसमें मुख्य अतिथि झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू के अलावा देश-विदेश के लगभग 5 लाख श्रद्धालुओं ने भाग लिया था।
पेड़ की जटाओं से रिसता पानी संथालियों के लिए अमृत  :
लुगू पहाड़ की तलहटी में ही छरछरिया जलप्रपात है, वहां लगे बरगद के पेड़ की जटाओं से रिसते पानी को ये आदिवासी अमृत मानते हैं। इसलिए लुगूबुरु घंटाबाड़ी धोरोमगढ़ में पूजा-अर्चना करने के बाद बोतलों व अन्य बर्तनों में इसे भरकर ले जाते हैं। मान्यता है कि इसे पीने से असाध्य रोगों से मुक्ति मिल जाती है।
दैनिक जागरण से

राजमहल का माघी पूर्णिमा मेला

राजमहल में गंगा तट पर माघी पूर्णिमा मेला में झारखंड के अलावा बिहार, बंगाल, ओडिशा, असम एवं नेपाल के सनातन धर्म को मानने वाले सफाहोड़ समाज के अनुयायी अपने अपने जान गुरुओं के सानिध्य में मां गंगा, भगवान शिव व माता पार्वती का पूजन करने पहुंचते हैं। श्रद्धालुओं के इस महाकुंभ में आदिवासी समाज के साथ गैर आदिवासी भी शिरकत करते हैं। मेले की महत्ता इस बात से समझ सकते हैं कि 2016 में राज्य सरकार ने इसे राजकीय मेला का दर्जा दिया है।
आदिवासी सफाहोड़ समाज के श्रद्धालु गंगातट के अलावा बालू प्लाट, रेलवे मैदान, पुराना थाना परिसर, अनुमंडल कार्यालय परिसर, सिंहीदलान, अनुमंडलीय अस्पताल परिसर में भगवान शिव के लिए मांझी थान तथा मां पार्वती के लिए जाहेर थान बनाकर पूजा करते हैं। गंगा स्नान के क्रम में गंगा पूजन एवं मांझी थान व जाहेर थान में परंपरागत वाद्य यंत्रों की धुन पर पूजा की अनूठी परंपरा सभी को आश्चर्यचकित कर भारत की आदिवासी संस्कृति को अनूठे अंदाज में बयां करती है। पूजा के दौरान मरांग गुरु विशेष महत्व है। माना जाता है कि सफाहोड़ समुदाय की पूजन पद्धति हड़प्पाकालीन सभ्यता के समकक्ष है। मेला में अपने अपने अनुयायियों के साथ जान गुरुओं द्वारा अलग अलग अखाड़े भी लगते हंै। जान गुरु यहां परंपरागत तरीके से अपने शिष्यों के कष्टों के निवारण के लिए पूजा करते हैं। राजमहल के सूर्यदेव घाट, संगत घाट, काली घाट, गुदारा घाट में श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता है।

आजादी के पूर्व भी लगता था माघी पूर्णिमा मेला
माघी पूर्णिमा मेला के प्रारंभ होने के वर्ष का कोई प्रामाणिक साक्ष्य नहीं है। इस बारे में राजमहल के रहने वाले 93 वर्षीय पत्रकार हीरालाल राय बताते हैं कि आजादी के पूर्व से ही इस मेला को लगते हुए देख रहे हैं। पहले यह मेला सिर्फ आदिवासी व ग्रामीणों का माना जाता था, अब प्रशासनिक व राजनीतिक सहयोग ने इसे वृहद स्वरूप दे दिया है। मेले के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक महत्व को देखते हुए विधायक अनंत कुमार ओझा के प्रयास से इसे 2016 में राजकीय मेला का दर्जा मिला।

जब थी कबीला संस्कृति तब से हो रहा गंगा तट पर पूजन
मेले को लेकर कई किवदंती हैं। आदिवासी मानते हैं कि जब कबीला राज हुआ करता था तब विपत्तियों से बचने के लिए माघ पूर्णिमा को यहां गंगा तट पर भगवान शंकर की पूजा की जाती थी। तब से यहां श्रद्धालु पूजा करने आ रहे हैं। जान गुरुओं की मान्यता है कि भगवान श्रीराम ने भी इसी गंगातट पर आकर लंका पर विजय के लिए भगवान शिव की पूजा की थी।
दैनिक जागरण

पठार पर डूबते सूर्य और प्रेम की अमर गाथा


गीतामनी देवी ने चाय का स्टाल आज ही शुरू कर दिया। कारण, उसके पति सुनील बृजिया को पिछले नौ महीने से पर्यटन विभाग ने मानदेय नहीं दिया है। उसने सोचा कि अपने बच्चों का भरण-पोषण करने के लिए यह बेहतर विकल्प हो सकता है। नेतरहाट के इस मैग्नोलिया प्वाइंट पर प्रतिदिन आ रहे तीन सौ पर्यटकों से, बेशक, उसकी उम्मीद को उड़ान मिल सकती है।
इसमें उनका हाथ पति सुनील बृजिया भी बंटाते हैं। सुनील चाय बना रहे थे और गीतामनी पकौड़ी छान रही थीं। यह दुकान का पहला दिन था। अनुभव की कमी भले रही हो, उत्साह में नहीं। सुनील यहीं पर सफाई का काम करते हैं। सुनील ने सुना है मानदेय भी बढ़ गया है, लेकिन अब मिले तब तो पता चले। गीतामनी के सात बेटे हैं। बड़ा बेटा डाल्टनगंज में हास्टल में रहकर पढ़ता है। बाकी छोटे-छोटे बच्चे भी गीतामनी की मदद कर रहे थे।
पांचवीं तक पढ़े सुनील चुनाव को लेकर बहुत उत्साहित नहीं दिखते। उनका क्षेत्र मनिका विधानसभा में पड़ता है। उन्हें यह पता नहीं कि इस चुनाव में कौन खड़ा है और मतदान कब है? लेकिन वे उम्मीद जरूर जताते है कि जो भी सरकार बने, उनकी भी सुने। सुनील अपने टोले के बारे में कहते है कि यहां आदिवासी समुदाय के किसान और बृजिया के 60-65 घर होंगे। सुनील को पीएम आवास से पहली किश्त मिल चुकी है और पुराने घर के सामने ही नए घर की नींव रख दी गई। तीन फीट की दीवार भी खड़ी हो गई है। अब अगली किश्त का इंतजार कर रहे हैं। 
मैग्नोलिया पॉइंट के पास दो-तीन घर आदिवासियों के हैं, जहां सालों से पोचारा नहीं हुआ है। हां, यहां की फर्श पर नई टाइल्स बिछाई जा रही है। लोग आकाश की ओर टकटकी लगाए देख रह हैं, कब सूर्यास्त हो...।
इधर, गोधूलि बेला में आकाश सिंदूरी हो रहा था। दूर गायों के गले की लय में बजती घंटियां धीर-धीरे पास आती हुईं तेज हो रही थीं। गायों के गले में बंधी घंटियों और उनके खुरों की लय एक नए लोकतंत्र का राग रच रही थी। सड़क किनारे खड़े विमल 3500 फिट की ऊंचाई पर ढलती सांझ की हवा में सिहरन महसूस करते हुए कहते हैं कि इधर किसकी हवा बह रही है, कहना मुश्किल है? इस पसेरी पाट के टोले में 45 घरों में उरांव की आबादी ज्यादा है। कुछ दूसरे भी हैं। अभी सब धनकटनी में लगे हैं। नेता लोग दिन में आते है तो किसी से भेंट नहीं होती। सजग और सचेत युवा विमल विकास की बात करते हैं। वह अकेले नहीं हैं। विकास की बात रांची से 150 किमी दूर इस सुदूर पहाड़ के लोग भी करने लगे हैं। नेतरहाट तक आने वाली सड़कें पतली जरूर थीं, पर चमक रही थीं। यह चमक बनिया लकड़ा के चेहरे पर भी दिख रही थी। बनिया 68 के थे लेकिन 50 के लग रहे थे। वे 32 साल तक नेतरहाट स्कूल में क्लर्क रहे। उनकी बातों में साफगोई झलक रही थी। कहने लगे, पांच साल पहले इस सड़क पर चलना मुश्किल था। लेकिन अब रात-बिरात कोई डर नहीं। आदिवासियों का जीवन बदला है। अभी जो सोलर लाइट से सड़क उजियार दिख रही है, पांच साल पहले नहीं थी। घुप्प अंधेरे में सड़कें भी डराती थीं। महुआडांड़ के अजय उरांव कहते हैं कि लोकतंत्र में आदिवासियों का विश्वास बढ़ा है। नक्सलियों के तंत्र कमजोर हुए हैं। आदिवासी समाज तो पहले से ही लोकतांत्रिक रहा है। हमारा विश्वास समूह और समुदाय में है। यह और मजबूत हुआ है। आदिवासी अब किसी जात-पांत में नहीं बंटते। उन्हें विकास चाहिए। जो विकास करेगा, वह जितेगा। अजय यह कहना नहीं भूलते कि पहले तो नेतरहाट की घाटी में दिन में भी दो पायों से डर-भय लगता था। अब तो कभी भी गुजर सकते हैं। इसके पीछे लोकतांत्रिक चेतना ही है। अब आदिवासी समाज फिर से उस परंपरा को जीवित कर रहा है। समाज और समुदाय की आस्था भी मजबूत हुई है। सांझ गहरा गई थी... इस पहाड़ पर पार्टी का शोर सुनाई पडऩे लगा था...।