आदिवासी इतिहास के अध्‍येता अश्विनी कुमार पंकज

  भारतीय मानचित्र पर लंबे संघर्ष के बाद झारखंड  अस्तित्वमान हुआ। वह तारीख थी 15 नवंबर, 2000। 15 नवंबर की तारीख को इसलिए चुना गया, क्योंकि इसी तारीख को झारखंड के एक प्रमुख आंदोलनकारी, जिसे ‘धरती आबा’ कहा गया, बिरसा मुुंडा का जन्म हुआ था। बिरसा मुंडा ने कुल 25 साल की उम्र पाई थी और 1900 में वह शहीद हो गया। सरदार भगत सिंह भी 25 के भीतर ही शहीद हो गए थे, लेकिन एक बात साफ थी कि भगत सिंह को देश-दुनिया ने याद रखा और उन पर पर्याप्त लिखा गया और लिखा जा रहा है। भगत सिंह ने खुद भी बहुत लिखा, जो आज उपलब्ध है। पर, भगत सिंह से थोड़ा पहले   1875 में बिरसा का जन्म हुआ था और 22-23 की उम्र में बिरसा का आंदोलन अंग्रेजों के लिए मुसीबत बन गया था। यह आंदोलन 1967 के बाद इतिहास में दर्ज किया गया। 1940 में जब कांग्रेस का रामगढ़ में सम्मेलन हुआ तब बिरसा की याद थी। उसके नाम से यहां द्वार भी बना और छपने वाली स्मारिका में भी   बिरसा को जगह दी गई थी। पर, हम जिसे मुख्यधारा का इतिहास कहते हैं, उसमें बिरसा नहीं हैं। एक बड़ा आंदोलन, जो अंग्रेजों के खिलाफ था, सचमुच वह आजादी का आंदोलन था, हमारे इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया। यह बात केवल बिरसा के संदर्भ में ही सही नहीं हैं। आजादी की जो पहली चिनगारी उठी, वह जंगलों से उठी और उसमें आज का झारखंड प्रमुख था। अंग्रेजों के यहां पांव पसारने के साथ ही उनके खिलाफ तीर-धनुष कमान से निकलने लगे थे। उन्हें हमने आदिवासी विद्रोह, जनजातीय विद्रोह और हद तो यह हो गई कि उसे स्थानीय विद्रोह कहकर आंदोलन को सीमित करने का प्रयास किया गया। यह उपेक्षा और नजरअंदाज करने की प्रवृत्ति केवल इतिहास लेखन में ही नहीं दिखाई देती, साहित्य, संस्कृति, कला के विविध क्षेत्रों में भी  परिलक्षित होती है।  

  जो यहां अध्ययन हुए, वह मानवशास्त्राीय दृष्टिकोण से या फिर बहुत हद तक सांस्कृतिक या लोकगाथा के तौर पर। देश का एक भाग, सौ सालों से अलग होने के लिए आंदोलनरत रहा, उसकी चर्चा प्रायः हमने नहीं की। जैसे, आज गोरखालैंड क्यों सुलग रहा है, क्या कारण है, उसकी क्या मांगें हैं और वहां लगातार हिंसा और स्थानीय लोगों और सेना-पुलिस के बीच टकराव क्यों हो रहे हैं, मैदानी इलाका नहीं जानता। तब, जब झारखंड की मां्रग उठ रही थी, तब भी यहां के लोगों को उनके हाल पर ही छोड़ दिया गया था। पर, राज्य  बना। समय लगा और आज 17 साल हो गए, लेकिन एक बड़ा सवाल जरूर खड़ा हो सकता है कि जिस सपने को लेकर यह राज्य बना, वह पूरा हुआ? जवाब मिलेगा-नहीं! बस एक बात हुई, राज्य का खूब दोहन हुआ, खनिज की लूट हुई, विस्थापन हुआ...। राज्य इसके लिए नहीं बना था। 17 सालों में साहित्यिक अकादमिक पीठ का गठन नहीं हो सका। इनके साथ अलग हुआ छततीसगढ़ इन मामलों में बेहतर रहा। इसमें दोष के केवल सत्ता में बैठे रहने वालों का हीं हैं, उनका भी है, जो विपक्ष की राजनीति करते रहे और उनकी भी जो झारखंड आंदोलन के लिए लड़ते रहे, लेकिन उनमें से कुछ अब एनजीओ बनाकर अपने त्याग की कीमत वसूल कर रहे हैं।
  एक बड़ा कर्म या काम जो होना चाहिए था, वह पीछे छूट गया। वह थे अपने नायकों के बारे में जानकारी। उनके आंदोलन में योगदान। यह सब काम संस्थाओं को करना चाहिए था। वह नहीं कर पाईं। आजादी के बाद यहां रांची विश्वविद्यालय खुला, अस्सी के दशक में जनजातीय एवं क्षेत्राीय भाषा विभाग खुला, लेकिन वे काम नहीं कर सकीं। यहां तक कि जनजातीय शोध संस्थान भी, बिहार के समय तक अच्छा काम करता रहा, राज्य बनने के बाद यह महत्वपूर्ण संस्था ध्वस्त हो गई। सरकार यहां ऐसे-ऐसे को निदेशक बनाती रही है, जिनका उस विषय और रुचि से दू-दूर तक का संबंध नहीं है। 17 सालों के इस विकास को देखकर यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है, हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। तभी, हम श्री एके पंकज के काम को भी देख-समझ सकते हैं।
  साहित्य की बात करें तो यहां रांची में ही कई मूर्धन्य आलोचक हैं-हिंदी में। पर, कभी भूलकर भी उन्होंने यहां के आदिवासी लेखन और यहां के स्थानीय साहित्यकारों पर लिखा हो, वह भी उन्हीं पर लिखते रहे, कागद कारे करते रहे, जिन पर देश का हर हिंदी का विभाग और आलोचक कागद कारे कर रहे हैं। इतना संकुचित दृष्टि का एक कारण यह भी हैं, कि उनकी जड़ कहीं और है। वे खास विचारधारा से संबंद्ध जो, हाशिया, दलित, आदिवासी की चिंता में सर्वाधिक दुबली हुई जाती है, कभी आदिवासी सवाल पर ढंग लिखा ही नहीं। एक प्रख्यात आलोचक को असुर पर लिखते समय पता चला कि असुर आज भी हैं! ऐसे-ऐसे आलोचक हिंदी में, हिंदी का मान बढ़ा रहे हैं। तब, उन्हें राधाकृष्ण क्यों याद आते? वे आदिवासी रचनाकार उनके केंद्र में क्यों होते?
 हिंदी का आलोचक लोकल नहीं, ग्लोबल होता दिखना चाहता है। उसके पास अपने आस-पास के जमीनी लेखकों की, जो निश्चित रूप से अपनी भाषा में लिखते हैं, पता नहीं होता, लेकिन उन्हें सात समंदर पार की रचना और रचनाकार के बारे में पूरा पता होता है। इसलिए, वह पूर्वोत्तर के साहित्य-समाज के बारे में कुछ नहीं जानता। उसकी पूरी बौद्धिकता हिंदी के चार-पांच लेखकों पर ही केंद्रित होती है। वह उन पर भी नजर नहीं दौड़ाता या साजिशन वह उन लेखकों के बारे में नहीं बताता, जिन्होंने हिंदी के निर्माण में महती भूमिका निभाई। एक कारण यह भी कि वह शोध की बात करता है, लेकिन शोध के नाम पर कुछ पश्चिमी किताबें और कुछ इधर-उधर के साथ अपनी बौद्धिक दुकान चलाता है।
  इसलिए, जब एके पंकज का शोधपूर्ण उपन्यास माटी-माटी अरकाटी आया तो कथित रूप से किसी समर्थ आलोचक ने, जो खुद को प्रगतिशील, मूर्धन्य, जनवादी कहते नहीं थकते हैं, लिखना भी जरूरी नहीं समझा, लेकिन अंग्रेजी की अर$ंधति रॉय के उपन्यास का ऐसे लोग बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं, पढ़ने और लिखने के लिए। यह हिंदी का नया-नया आलोचना में एलीट पैदा हो रहा है। यह उपन्यास इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि यह आदिवासियों के प्रवासन की पीड़ादायक कहानी है, जो 1800 के बाद, भोजपुरी भाषी लोगों से पहले मॉरीशस ले जाए गए थे। यह उपन्यास शोध का नतीजा है और इसमें काफी सहयोग गुगुल और दुनिया की लाइब्रेरियों ने किया, जिनमें इस तरह की कथाएं कैंद थीं। हम तो भवानी दयाल संन्यासी की चर्चा नहीं करते, जिन्होंने अरकाटी शब्द का प्रयोग अपनी आत्मकथा में किया। यह उपन्यास हिंदी में एक नया विमर्श खड़ा करता है, जिसकी ओर हिंदी वाले पीठ खड़ा किए हुए हैं। यह एक बड़ा काम है, जिसके बारे में हम नहीं जानते। कैसे आदिवासी-बिहारी ले जाए गए, यह उपन्यास बखूबी दर्शाता है। हिंदी में, कमरे में बैठकर उपन्यास-कहानी लिखने की प्रवृत्ति ने आलोचकों को भी आलसी बना दिया है। वे अब केवल शब्दाडंबर से ही काम चलाते हैं।  
    साहित्य से थोड़ा इतर बात करें तो अभी अभी ‘आदिवासीडम’ किताब अंग्रेजी में संपादित की है। 70 साल बाद जयपाल सिंह मुंडा के लेखों और भाषणों का यह महत्वपूर्ण संकलन है। यह काम भी अकेले ही किया। बिहार-झारखंड की लाइब्रेरियों एवं संसद एवं डिजिटल लाइब्रेरियों से खोजकर यह काम किया। इसके पहले मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा नामक हिंदी में किताब लिखी, जो एक तरह से उनकी जीवनी है। यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था, लेकिन अब हो रहा है। झारखंड के संदर्भ में ही नहीं, भारत के आदिवासियों के संदर्भ में जयपाल सिंह वैचारिक प्रस्थान बिंदु हैं। झारखंड आंदोलन में सक्रिय तो रहे, आजादी के बाद संविधान सभा के सदस्य भी रहे और कई बार विधायक व सांसद भी। जयपाल सिंह पर छिटपुट काम हुए, लेकिन जो होना चाहिए, नहीं हुआ। हिंदी व अंग्रेजी में आईं ये दो किताबें प्रतिबद्धता का प्रतिफल हैं।
   लीक से हटकर, भीड़ से अलग और एक व्यापक दृष्टिकोण के साथ काम करना श्रीपंकज की प्रवृत्ति है। अलग सोच के साथ। कहानी लेखन हो, रंगमंच हो, फिल्म हो, कविता हो या पत्रिकाओं का संपादन हो। हमारे कथित विद्वानों की दृष्टि वहां तक नहीं जाती, या वे इतने गहरे सोच ही नहीं पाते, लेकिन उन्होंने अपना एक आभा मंडल बना रखा है। एक बार एक रवींद्रनाथ टैगोर के अध्येता से, जो खुद को रवींद्र ज्ञाता के तौर पर प्रचारित कर रखे थे, गीतांजलि का अनुवाद भी किया था, कला के मर्मज्ञ के तौर पर पहचान भी बना रखी है-पूछा कि क्या रवींद्र नाथ टैगोर गाजीपुर में रहे और उन्होंने आपनी आरंभिक कविताएं, नौका डूबी  के कुछ अंश वहीं लिखे, तो उन्हें पता ही नहीं था। ऐसे ही ज्ञाता हैं। ऐसे लोगों की बात क्या करिए, जो आदिवासी क्षेत्रा को समझ सकतें। ये तो कुबेरनाथ राय को भी नहीं पढ़ते। इनकी प्रगतिशीलता और जनवाद की चौहद्दी इतनी संकीर्ण है कि अपने गुट के अलावे दूसरे लेखक और रचनाकार को जानना-समझना-पढ़ना जरूरी नहीं समझते। नारेबाजी से ये खूब करते हैं।
  फिर ऐसे लोग एके पंकज के काम पर क्यों लिखें, क्यों जाने, क्यों समझें? एके पंकज की चिंता में झारखंड के आदिवासी लेखक है। यहां की भाषा और संस्कृति है। बाहरी लोग अपने पूर्वग्रह से इस संस्कृति-समाज को देखने के अभ्यस्त हैं, उन्हें बताना जरूरी है। चूंकि इन्होंने अपना एक सौंदर्य शास्त्रा बना रखा है। वही पढ़ते-पढ़ाते आ रहे हैं। उसी की कसौटी पर सबको देखने की आदत उनकी बन चुकी है। जबकि हर समाज -जाति का अपना सौंदर्य शास्त्रा होता है, वह खुद को अपने ढंग से देखने की मांग करता है, उस दृष्टि से नहीं, जो आपने ने किसी और समाज के लिए बना रखे हैं। कबीर और तुलसी की कविता को समझने के लिए ही एक ही सौंदर्य शास्त्रा से काम नहीं चलेगा। दोनों की जमीन अलग है। तो दोनों को समझने के लिए अलग-अलग दृष्टि की अपेक्षा होती है। इसी तरह आदिवासी समाज को लेकर भी है। यहां का साहित्य मौखिक रहा है। लेखन और लिपि की परंपरा नहीं रही है। इनकी जीवन दृष्टि, समाज और समय को देखने का नजरिया, देव और दानव, सृश्ष्टि चक्र सब कुछ अलग है। और, सभी आदिवासी को एक ही खांचे में रखने की भूल भी नहीं कर सकते। हर आदिवासी समूह की अपनी सृष्टि कथाएं हैं, मौखिक कहानियां हैं, प्रवासन  का इतिहास है। तो, उन लिखते समय, इनका ध्यान रखना जरूरी है। आदिवासी सौंदर्य के लिए कालिदास की उपमा देना, आपकी मूर्खता के लिए कुछ नहीं है, जैसा एक उपन्यासकार ने अपने उपन्यास में किया है। इसलिए, एके पंकज आदिवासी के संदर्भ में इसी सौंदर्यशास्त्रा की वकालत करते हैं। शास्त्राीय सौंदर्यशास्त्रा की नहीं।
  साहित्य और इतिहास में बहुत बारीक अंतर होता है। साहित्य में भी निकट इतिहास होता है, पर उसमें जीवन धड़कता प्रतीत होता है। इतिहास में घटनाओं का घटाटोप होता है। हमारे इतिहास पर विचारधारा का ऐसा असर रहा है कि सब कुछ उसी चश्मे में देखने की कोशिश करते हैं। दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों इसके शिकार रहे हैं, जबकि इतिहास और समाज इतना इकहरा नहीं होता; जितना हम समझते हैं। इसलिए किसी भी चीज को समग्रता में देखना चाहिए। मार्क ब्लाख इतिहास को इसी व्यापक और समग्र रूप से देखने की बात करते हैं-‘‘इतिहास कोई पंथ नहीं, अपने मूल अर्थों के अनुसार यह हमें ‘अनुसंधान’ के अलावा किसी अन्य चीज से प्रतिबद्ध रहने की शर्त नहीं पेश करता।’’ मगर, हमारे पेशेवर इतिहासकार अनुसंधान के बजाय अपनी विचारधारा का घालमेल करते रहे।
    मार्क ब्लाख जिस अनुसंधान की बात करते हैं, वह अनुसंधान एके पंकज में दिखता है। 1855 के हूल पर अंग्रेजी में एकत्रित सामग्री, जिसकी पांडुलिपि तैयार है, वह अनुसंधान का ही नतीजा है, जो इस पर एक नई रोशनी डालता है। हूल को लेकर हम यह नहीं बता पाए हैं कि देश का पहला स्वतंत्राता आंदोलन 1857 नहीं, 1855 का हूल है। इसी तरह अभी तक किसी ने यह कहने का साहस नहीं किया कि गांधी के सत्याग्रह से पहले यहां के आदिवासी सत्याग्रह से परिचित हो चुके थे और अंग्रेजों के खिलाफ इसका उपयोग भी करते थे। टाना भगत और उसके पहले बिरसा के अनुयायियों ने भी सत्याग्रह किया था, लेकिन इसकी चर्चा नहीं होती। देश में आज भी टाना भगत ऐसे हैं, जो गांधी को देवता की तरह मानते हैं। वे खद्दर पहनते हैं। चरखा वाले झंडा की पूजा करते हैं। यह देश के दूसरे हिस्सों को टाना भगतों के बारे में पता ही नहीं। झारखंड जैसे प्रदेश के बारे में हम बहुत कम जानते हैं। पूर्वोत्तर के बारे में पता ही नहीं। यह स्थानीय लेखन अत्यंत जरूरी है, जिसके एके पंकज बड़ी शिद्दत से कर रहे हैं। हर रचनात्मक विधा में। इतिहास और साहित्य में भी। जो काम किसी संस्था को करना चाहिए, वह अकेले ही कर रहे हैं। यह कम बड़ी बात नहीं। झारखंड के आदिवासी रचनाकारों को भी आगे बढ़ाने, उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने, उनकी रचनाओं के प्रकाशन की दिशा में भी वह सक्रिय हैं।