tag:blogger.com,1999:blog-71917915254416419652024-03-16T02:54:48.903-07:00मदन काशीमदन काशीgajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.comBlogger286125tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-85887179035864939862024-03-11T20:06:00.000-07:002024-03-11T20:06:58.381-07:00मुर्गे ने दी बांग, पंजा हो गया साफ<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjwdCBHU-40Zv_5iZNymfTiLLL33oKeqwc9oHn7wv0qBDJj3ZvuIpR2bZL2_FpjL4F6i88rlTvj9lST4UkvsXQkiTSww59Et3_aL1NjvvvpvWzWX6Oc36eTT2h_jQKkP_wZL5IfdpgJAJHWN6s1Ka1qP7gpkPl4MfLK5sCzdffKPMQBBUYuH-oBzAALR68c/s924/IMG_20240312_083442.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="924" data-original-width="829" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjwdCBHU-40Zv_5iZNymfTiLLL33oKeqwc9oHn7wv0qBDJj3ZvuIpR2bZL2_FpjL4F6i88rlTvj9lST4UkvsXQkiTSww59Et3_aL1NjvvvpvWzWX6Oc36eTT2h_jQKkP_wZL5IfdpgJAJHWN6s1Ka1qP7gpkPl4MfLK5sCzdffKPMQBBUYuH-oBzAALR68c/s320/IMG_20240312_083442.jpg" width="287" /></a></div><br />1957 में मीनू मसानी रांची से पहुंचे संसद, जयपाल सिंह ने अपने टिकट से लड़ाया था चुनाव<p></p><p><br /></p><p>देश में जब दूसरी लोकसभा चुनाव की बयार बह रही थी तो रांची ने कई परिवर्तन देखे। अब तक झारखंड पार्टी का प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों में था, इस चुनाव में उसकी धमक शहर में भी दिखाई दी। पहले आम चुनाव में विजयी हुए कांग्रेस अब्दुल इब्राहिम को हार का मुंह देखना पड़ा। अब्दुल इब्राहिम दूसरे नंबर पर रहे और उन्हें. 32.59 प्रतिशत ही मत मिले। 1950 में गठित झारखंड पार्टी के प्रमुख जयपाल सिंह ने मुंबई के मेयर रहे मिनोचर रुस्तम मसानी (मीनू मसानी) को अपनी पार्टी से चुनाव लड़ा दिया और राष्ट्रीय आंदोलन में अग्रणी रही कांग्रेस हार गई। इब्राहिम को 36785 मत मिले। पहले चुनाव में इनका नाम अब्दुल इब्राहिम था और दूसरे आमचुनाव में इनका नाम इब्राहिम अंसारी हो गया। यही नहीं, रांची सीट भी इस बार रांची ईस्ट हो गई। पहले रांची नार्थ ईस्ट थी। जयपाल सिंह ने अपनी पुरानी सीट रांची वेस्ट से ही लड़े और लोकसभा में पहुंचे। यह सीट आरक्षित थी और रांची ईस्ट सामान्य थी। 1500 किमी दूर से आकर मीनू मसानी जयपाल सिंह की कृपा से संसद बन गए। हालांकि जयपाल के इस निर्णय पर पार्टी के अंदर और बाहर तीखी प्रतिक्रिया हुई, लेकिन तब जयपाल सिंह का प्रभाव कम नहीं था। झारखंड पार्टी का चुनाव मुर्गा था और कांग्रेस का पंजा। पर, आगे चलकर इसी पंजे की गिरफ्त में मुर्गा आ गया।</p><p><br /></p><p>देश की आजादी में निभाई भूमिका</p><p>मीनू मसानी का जन्म मुंबई में 20 नवंबर 1905 को हुआ था और निधन 27 मई 1998 को। उन्होंने लंदन स्कूल आफ इकोनामिक्स से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर और लिंकन इन्न से कानून की पढ़ाई की थी। 1929 में भारत वापस आने के बाद बंबई उच्च न्यायालय में वकालत शुरू की। लेकिन देश की आजादी में भाग लेने के कारण वकालत छोड़ दी। जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, युसुफ मेहर अली एवं अन्य नेताओं के साथ मिलकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की, लेकिन पार्टी में कम्युनिस्ट सदस्यों के बढ़ते प्रभाव के चलते वर्ष 1939 में लोहिया, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से त्यागपत्र दे दिया और मसानी ने राजनीति छोड़कर टाटा कंपनी में काम करना शुरू कर दिया। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत होने पर मीनू मसानी वापस सक्रिय राजनीति में लौट आए और आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें जेल भेज दिया गया। जेल से छूटने पर वर्ष 1943 में मीनू मसानी बंबई के महापौर बने। बाद में भारत के संविधान सभा के लिए चुने गए और भारत के नए संविधान निर्माण में नागरिकों के मूल अधिकारों से संबंधित समिति के सदस्य बने। संविधान सभा में मीनू मसानी ने भारत में समान नागरिक संहिता लागू किए जाने का प्रस्ताव दिया था लेकिन उसे नामंजूर कर दिया गया। 1978 में जनता पार्टी की सरकार में ये मंत्री बने। उन्होंने अवर इंडिया नामक पुस्तक भी लिखी थी, जिसका अनुवाद हमारा इंडिया से 1942 में छपा था। 1950 तक इसके सात संस्करण छप चुके थे।</p><p><br /></p><p>---</p><p>1957 के चुनाव में रांची ईस्ट से कुल सात उम्मीदवार मैदान में थे। एक झारखंड पार्टी से और दूसरे कांग्रेस से। बाकी स्वतंत्र चुनाव लड़े थे।</p><p><br /></p><p>नाम दल मत प्रतिशत</p><p>एमआर मसानी झारखंड पार्टी 39025- 34.58 प्रतिशत</p><p>एमडी इब्राहिम अंसारी कांग्रेस 36785- 32.59 प्रतिशत</p><p>रवींद्रनाथ चौधरी स्वतंत्र 13605 - 12.05 प्रतिशत</p><p>रामेश्वर महतो स्वतंत्र 12332 -10.93 प्रतिशत</p><p>जेसी हावर्ड स्वतंत्र 4311 -3.82 प्रतिशत</p><p>जान डेविड मैक्सवेल हैमिल्टन बजराज स्वतंत्र-3.06 प्रतिशत</p><p>मुनजीनी डेविड स्वतंत्र-3353-2.97 प्रतिशत</p>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-29693715266948690552023-11-24T22:41:00.000-08:002023-11-24T22:41:53.179-08:00मदन काशी<p> : डॉ शिवप्रसाद सिंह</p><p><br /></p><p>कहते हैं कि एक बार जब श्रवणकुमार अपने माँ-बाप की बहेंगी उठाए सकल तीर्थ-यात्रा पर जा रहे थे, तब वह जमानियाँ पहुँचे। उन्होंने कस्वे के पास एक घनी अमराई देखकर बहँगी उतार दी। बेचारे गर्मी से परेशान थके-थकाए बहाँ पहुँचे थे। आम्रकुंज की शीतल छाया में उन्होंने राहत की साँस ली। गंगाजल पीकर स्वस्थ हुए। माँ-बाप की बेटे से पूरी सहानुभूति थी। उन्होंने उन्हें अच्छी तरह सुस्ता लेने का मौका दिया ।</p><p><br /></p><p>'ऐ बुड्ढे, ऐ बुड्ढी !!"</p><p><br /></p><p>श्रवणकुमार ने कहा- "मैं तुम लोगों का ताबूत ढोते रहने के लिए नहीं जन्मा हूँ।"</p><p><br /></p><p>सम्बोधन मात्र से ही अन्धा-अन्धी भौंचक थे। आगे की बात सुनकर तो उन्हें लकवा ही मार गया हो जैसे। दोनों साँस रोके लड़के की बात पर कान अड़ाए बैठे रहे ।</p><p><br /></p><p>"मारा कि जीवन चौपट करके रख दिया। कांवड़ ढोते ढोते कन्धों पर घट्टे पड़ गए। जो होना था हो चुका। बड़ी भक्ति निबाही। अब यह भार मुझसे चलने का नहीं। बाज आया ऐसे सुपूत के खिताब से !" वह गुस्से में पैर पटकते अमराई से बाहर की ओर चले। जाते हुए लड़के के पैरों की धमक सुनकर अन्धे ने कहा - "बेटा! तुमने जो कुछ कहा वह बिलकुल ठीक है। बस जाते-जाते एक विनती सुनता जा ।"</p><p><br /></p><p>श्रवणकुमार ने पास आकर पूछा- "क्या है ?"</p><p><br /></p><p>"बात यह है बेटे कि अमराई घनी है। इसमें से निकलने का हम रास्ता भी</p><p><br /></p><p>नहीं ढूंढ़ पाएंगे। वस काँवड़ उठाकर थोड़ी दूर आगे ठीक सड़क पर रख देना। हम वहीं किसी राहगीर से पूछ-पाछकर रास्ता पा लेंगे। आगे जैसी प्रभु की मर्जी ।"</p><p><br /></p><p>श्रवणकुमार को यह विनती कतई पसन्द नहीं आई; पर 'स्वभावो हि अति- रिच्यते' - सो उन्होंने पुराने घट्ठ पर फिर बहेंगी रख ली और कस्बे को पार</p><p><br /></p><p>करके कुछ दूर सड़क पर आ गए । "बस बेटे, बस, यहीं रख दे हमें।" बुड्ढा बोला। उसकी आवाज में न दहशत थी, न निराशा ।</p><p><br /></p><p>श्रवणकुमार ने बहेंगी उतार दी और फूट-फूटकर रोने लगे। उनकी हिचकियों का ताँता टूटता ही न था। अन्धे की आँखों से भी आंसू गिर रहे थे।</p><p><br /></p><p>"पिताजी," श्रवणकुमार बोले- "मैं कितना अधम हूँ। पता नहीं कैसे मेरे मुँह से वैसी बातें निकल गईं। आप मुझे क्षमा कर दें पिताजी ।" बुड्ढे ने मुस- कराते हुए कहा - "बेटे, इसमें तेरी कोई गलती नहीं है। दोष जमीन का है।"</p><p><br /></p><p>"जमीन का ?"</p><p><br /></p><p>"हाँ बेटे, तूने जिस अमराई में कांवड़ उतारी थी, वह मातृहन्ता परशुराम का स्थल है। वहीं उन्होंने परशु से अपनी माँ की गर्दन उतार दी थी।"</p><p><br /></p><p>श्रवणकुमार आत्मग्लानि से मुक्त हो गए ।</p><p><br /></p><p>मगर हजार-हजार श्रवणकुमार जो इस अंचल में बसते हैं, चाहकर भी जमीन के दोष से मुक्ति नहीं पा सकते। वे कांवड़ उतार दें तो भी, चढ़ाए घूमते रहें तो भी, जमीन अपनी अन्तनिहित विशेषता से उन्हें लांछित करने में कभी नहीं चूकती ।</p><p><br /></p><p>आपको शायद मालूम नहीं, जमनियाँ को मदन काशी भी कहते हैं। तेरहवीं शती के एक जैन काव्य में काशी से पूर्व में बीस कोस की दूरी पर अवस्थित मदन काशी की चर्चा की गई है। यहाँ भी गंगा की धारा उत्तरवाहिनी है। कहते हैं कि बटेश्वर के चक्रवन में पड़कर कोई बच नहीं पाता। मुझे मालूम नहीं कि वर्तुल लहरों का ऐसा जाल गंगा या किसी भी नदी में कहीं फैला है, पर मैंने अक्सर बरसात के दिनों में बटेसर के खोंचे में सड़ी हुई लाशों को चक्र की तरह गोलाई में घूमते देखा है। वह वही स्थान है जहाँ से गंगा उत्तरवाहिनी होती है, वह वही स्थान है जहाँ की थाह लेने के लिए गाजीपुर के कलक्टर ने बहुत कोशिश की; पर असफल हुए। हमारे ग्राम के पुरोहित चक्रवन या चक्कावन की कोई और भी व्युत्पत्ति बताते थे। भगीरथ के रथ के पीछे-पीछे गंगा चल रही थीं। अचानक रथ यहीं आकर रुक गया था। सारथी ने घोड़ों पर चाबुकों की बौछार की; पर घोड़े अड़ गए। घोड़े आदमी से ज्यादा विकसित स्वयंप्रकाश ज्ञान रखते हैं। वे जानते थे कि आगे मर्दोष जमदग्नि का आश्रम है। जमदग्नि यानी जमनिया । गंगा आश्रम डुबाकर बची रह जाएँगी क्या ? सो घोड़ों ने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया। राजा ने खुद बागडोर संभाली और घोड़ों को बढ़ाया। घोड़े आगे बढ़ने की बजाय चक्र में घूम गए। एक बार नहीं, दो बार नहीं, पाँच बार यानी वाण - 5 और वे मोड़ लेकर उत्तर की ओर बरजोरी रथ लेकर भागे । सो पाँच यानी वाण और चक्र माने गोलाई में घूमना । सो बन गया चक्कावान । पर मुझे तो यहाँ अथाह जल के भीतर पड़े अदृश्य परशुराम के इष्टदेव बटेश्वर शिव के ज्योतिलिंग पर घूमती मुण्डमाला ही दिखाई पड़ती है।</p><p><br /></p><p>जाने दीजिए वे पुरानी बातें। न वह 'पर्वतो इव दुर्धयः कालाग्नीव दुःसहः' व्यक्तित्व रहा, कुण्ठित कुठार इसी खोंचे में धँस गया, जमदग्नि का आश्रम उजड़ गया। जिन गायों को छीनने में सहस्रबाहु की भुजाएँ टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गई थीं, उसी इलाके में मरियल अस्थि-पंजरावशेष ढोर यह भी क्या दृश्य है। संसद में विश्वनार्थासह गहमरी ने कहा था कि पूर्वांचल कितना उपे- क्षित है। वहाँ प्रतिवर्ष अकाल की जयन्ती मनाई जाती है। मरियल ढोरों के गोबर से काढ़े हुए अन्न पर हजारों लोग पेट पालते हैं, सुना तो पण्डित नेहरू की आँखें भर आई थीं। इस दास्तान को अलाव के आसपास बैठे बुड्ढे दुहरा- दुहराकर नेहरू जी की सहानुभूति के प्रति आँसू ढुलकाते थे—हाय-हाय, हमारी दुर्दशा सुनकर बेचारे की आँखें भर आईं । बुड्ढे नेहरू जी के दुःख से रो पड़ते थे। पर जब मैंने अपने ही ग्रामवासी एक श्रवणकुमार को गद्गद होते गलदश्रु भावुकता के साथ नेहरू के प्रति आभार व्यक्त करते पाया, तब मुझे अचानक बटेश्वर के चक्रवन में डूबे परशु का ध्यान हो भाया। कहाँ गया वह तेवर, कहाँ गया वह अन्याय को न सहने वाला वर्चस्व । इसीलिए कहा कि इस सूअर-बाड़े में आकर प्राचीन अतीत को सोचना गोबर के सड़े ढेर पर बुक्के की परत बिछाना है। मुझे तब बड़ी खुशी होती है जब देखता हूँ कि कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने भगवान् परशुराम को जमानियाँ से हटाकर भंड़ोच में खींच लिया है। मैं तो खुश होता यदि वह बटेश्वर के शिर्वालंग को, मदन काशी के पूरे इतिहास को व्याघ्रसर (बक्सर) और भृगुक्षेत्र (बलिया) को भी हमसे छीनकर किसी समृद्ध स्थान में प्रतिष्ठित कर देते। हमें नहीं चाहिए पुरखों का वह इतिहास, जिसकी मादकता और प्रकाश दोनों की यादें केवल रिसते घावों से छेड़छाड़ करती</p><p><br /></p><p>हैं। अब न तो मादन रहा, न प्रकाश, फिर काहे को रहे यह मदन काशी । "कहिए सभापति जी, अब कितने छोकरे जाते हैं अपने गाँव से जमानियाँ डिग्री कालेज में पढ़ने ?"</p><p><br /></p><p>सभापति बाबू केदारसिंह गर्व से कहते हैं- "चौबीस-पच्चीस । इससे कम नहीं।"</p><p><br /></p><p>"पर इसमें से कहीं बाहर जाकर नौकरी-चाकरी करके बूढ़े-बूढ़ियों की सहायता के लिए अकाल की जयन्ती पर कलदार भेजने वाले एक भी नहीं।"</p><p><br /></p><p>सभापति निराश हो चले। उन्हें लगता है कि जमीन बंझा हो रही है। न तो ये छोकरे काँवड़ पटक पा रहे हैं, न ढो हो पा रहे हैं।</p><p><br /></p><p>मेरी कपसिया चाची सारे गाँव में 'चकचालन' यानी चक्र या चक्कर लगाने वाली के शाश्वत खिताब से विभूषित है। जाने कितनी इन्साइक्लोपीडिया उनके दिमाग में परत-दर-परत गड़ी पड़ी है। कुछ आँखों देखी, ढेर सारी कानों सुनी । "चाची, ठीक-ठाक है न ?"</p><p><br /></p><p>"ठीक का है बचवा, 'मुआ सुराज' क्या हुआ खाने के लाले पड़ गए।" मैं चाची को इन्दिरा-समाजवाद पर भाषण दूँ या डाँगे, नम्बुद्रीपाद पर, कोई असर नहीं होने का । क्योंकि उनके चेहरे पर कुछ इस तरह की अनजानी झुरियों का ताना-बाना खिचा है जो दुःखों की इन्तहा से उत्पन्न उदासीनता के तागे से बना है, इसे भेदकर सातवें फाटक की लड़ाई लड़ने का साहस मुझ जैसे बौद्धिक में नहीं आ सकता जो सुविधापसन्द जिन्दगी से समझौता करके जबानी जगा- खर्च की मुद्रा में इनका हाल-चाल जानना चाहता है। आप गलियों में घुसिए- घुस नहीं पाएंगे क्योंकि वे गैरकानूनी ढंग से मकानों के भीतर या दीवालों के बगल के पुश्ते में ले ली गई हैं। आप घरों में घुसने की कोशिश कीजिए, असफल होंगे क्योंकि हर दरवाजे और निकसार पर ढेर सारी मक्खियों से छूल-ठुलैया खेलते अपरम्पार मरियल छोरों की भीड़ चोकठ पर ही बैठी मिलेगी, इन्हें दूसरी जगह कोई सूखी जमीन खेलने-बैठने के लिए नसीब ही नहीं होती। आप नई पीढ़ी के दिल में घुसने की कोशिश कीजिए, असफल होंगे क्योंकि वहाँ केवल दिशाहीन थक्के-थक्के कुहासे के अलावा कुछ है ही नहीं। आप बुजुर्गों के दिमाग में घुसने की कोशिश कीजिए, असफल होंगे, क्योंकि उनका दिमाग इस तरह उस है कि उसमें सिर्फ एक चीज कशमकश भरी है- "हुँह, ई पढ़वैया लोग खाली गप्प मारते हैं।" मैं सोचता हूँ कि क्या ये गलियाँ, ये घर, ये दिल, दिमाग कभी खुलेंगे भी ? कभी इनमें मादन या प्राण सचमुच उतरेगा।</p><p> सुना; पटेल-आयोग ने पूर्वांचल के विकास के लिए एक लम्बी-चौड़ी रपट तैयार की। बड़ी कसरत, उठक-बैठक, ऊटक-नाटक के बाद रपट सरकार के हवाले की गई कि यह नितान्त व्यावहारिक और कम खर्च वाली योजना है, पर कुतुबमीनार हो या मेरुस्तम्भ, उसमें इतनी मंजिलें हैं कि रिपोर्ट का बुर्जी तक चढ़ पाना और वहाँ से उतरकर कपसिया चाची की झुर्रियों के सामने खुल पाना कतई सम्भव नहीं लगता। त्रिभुवननारायण सिंह और कमलापति त्रिपाठी या इसी तरह के दूसरे लोगों का इसमें क्या दोष । उन्हें सिर्फ जनता की गरीबी और हायतोबा में फंसकर जिन्दगी खराब करनी तो है नहीं। बड़े-बड़े काम हैं, कितनी उलझी हुई समस्याएँ हैं। फिर कुर्सी की हरकत से भी वे अच्छी तरह वाकिफ हैं, इसलिए वे उस कुर्सी को स्थिर खड़ी रखने में ज्यादा ध्यान दें तो इसे मामूली बढ़ई भी कमअक्ली कभी न कह पाएगा। हमारी आपकी तो विसात ही क्या !</p><p><br /></p><p>उस दिन जमानियाँ के लाटफरेम पर दिहात के एक नामी-गरामी आदमी मिल गए । बोले- "बेटा, यह इलाका तो अब आने-जाने लायक भी नहीं रहा । बाल-बच्चों को लेकर कभी आना हो तो रात में गाँव के लिए न चल पड़ना।"</p><p><br /></p><p>हमने मासूमियत से पूछा- "काहे काका !"</p><p><br /></p><p>"अरे भइया, कल रात डेढ़गाँवा के दो जने कहीं रिश्तेदारी में नेवता लेकर जा रहे थे। वह तलासपुर की आढ़त है न ?"</p><p><br /></p><p>मेरे सामने तलासपुर की आढ़त खड़ी हो गई। मेरा अंचल कश्मीर नहीं है, केरल नहीं है, और तो और मिर्जापुर और चुनार भी नहीं है, पर तलासपुर की आढ़त पता नहीं क्यों मुझे बेतरह खींचती है। किसी जमाने में यह गल्ले का विशाल गोदाम थी। जमानियाँ की गल्लामण्डी का 'पलैग पोस्ट' कह लीजिए । उन दिनों गल्ला व्यापारियों को इतना भी सन नहीं था कि वे देहात से खरीदा गल्ला एक मील दूर स्टेशन की मण्डी में रख आएँ । रखेंगे, ले जाएँगे वहाँ; पर पहले गल्ला उठा तो लें। अनाज के बोरों से लदी बैलगाड़ियाँ, बर- साती पानी से बचने के लिए तिरपाल या सरपत की छाजनों से डॅकी, लद्द टटुओं की कतारें, घंटी टुनटुनाते लद्दू बैल- सभी इस आढ़त के सामने आकर इकट्ठे हो जाते । गोदाम के कमरे व्यापारियों को अनाज रखने के लिए किराये पर उठा दिए जाते । सुबह से दूसरी सुबह तक सिर्फ एक कार्य-अनाज उता- रना और गोदाम में पहुंचाना। रात के धुंधलके में गाड़ीवानों के जलते हुए चूल्हे या अहरे, सिकती हुई बाटियों की महक, व्यापारी, मुनीम और गाड़ी- वानों की तकझक-क्या रौनक थी ! उस वक्त आढ़त के आँगन में पारिजात के दो पेड़ थे। वे फूलते तब थे, जब अनाज-गाड़ियों की भीड़ शुरू न होती थी। हम लोग पकते धानों के बीच से सुगापंखी खेतों की मेड़ों से गुजरते हुए इस आढ़त से पारिजात फूल बटोरने के लिए वहाँ पहुँच जाते ।</p><p><br /></p><p>अब वहाँ सिर्फ खण्डहर हैं। आसपास के किसी गाँव के छोटे-से बनिये ने राहगीरों के लिए गुड़ पट्टी, रेवड़ी-लकठे की छोटी-सी दूकान खोल ली है, एक खण्डहर की दीवार पर फूस की मड़ई डालकर ।</p><p><br /></p><p>"तो बेटा, उस रात हल्की बारिश होने लगी। वे दोनों जन उसी मड़ई में घुस आए। तुम जानते ही हो रात को बनिया वहाँ रहता नहीं। सारा सामान बटोरकर गाँव चला जाता है।"</p><p><br /></p><p>"हाँ काका !" मैं कहता हूँ; पर स्मृति में पारिजात के ललछौहे अण्ठल बाले नाजुक फूल बहते-उतराते चले जा रहे हैं।</p><p><br /></p><p>"बस एक आदमी ने सड़क से उन पर टाचं से रोशनी फेंकी। उसका चेहरा गमछे से ढंका था। बगल से वैसे ही दो और नकाबपोश निकले । सभी के हाथों में भाले थे। उन लोगों ने सामान छीनने की कोशिश की। एक से हाथापाई शुरू हुई, तब तक दूसरे ने पीठ में भाला मारा। और सामान लेकर चलते बने। मुश्किल से आठ-आठ रुपयों की दो साड़ियाँ, पचिक के मिठाई- खाजे-यही न ? इत्तेभर के लिए यह सब हो गया। राह चलना मुश्किल है, बेटा। अब जमनियाँ वह जमनियाँ नहीं रहा। जिस किसी को देखो कि थोड़ा नटवर है, बदन पर बुशटं और पतलून है, बिना कहे जान लो कि उसके पास पिस्तौल है, या बिजली का हण्टर है या और कुछ नहीं तो रामपुरी चाकू है। सारा इलाके का इलाका गुण्डों की जमींदारी हो गया।"</p><p><br /></p><p>गाड़ी आ गई थी। वे चले गए। में सोचता रहा कि क्या सचमुच इधरती में ही दोष है ? पर नक्सलबाड़ी में तो परशुराम नहीं हुए। मुशहरी में कोई ऐतिहासिक अमराई नहीं है। श्रीकाकुलम बहुत दूर है भूगुक्षेत्र से-फिर; फिर, इसे क्या कहा जाए ? आखिर दोष किसमें है ?</p><p><br /></p><p>कोई मेरे कानों में भुनभुनाता है- "तुम भी अन्धों की तरह धरती को दोषी कहकर मौन हो जाओ। इसी में लाभ है। इसी में खैरियत है। क्योंकि भ्रष्ट व्यवस्था में कभी भी आदमी दोषी नहीं होता, निर्जीव पदार्थों के सिर दोष मढ़कर अपना सिर बचाना ही बुद्धिमानी है, राजनीति है, सफलता की कुंजी है।"</p><p><br /></p><p>■■■</p>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-74359125616925592612023-07-01T23:28:00.003-07:002023-07-01T23:28:40.070-07:00छोटानागपुर में संताल हूल के नायक थे अर्जुन मांझी<p> </p><p>सिदो, कान्हू, चांद, भैरव ने 30 जून 1855 को हूल का जो शंखनाद संताल परगना में किया था, उसकी गूंज छोटानागपुर तक थीं। चारों भाइयों के अलावा हर क्षेत्र में क्षेत्रीय नायक थे। यह लड़ाई 1855 में ही खत्म नहीं हो गई थी। 1858 तक विद्रोह की आग सुलगती रही। इसी तरह छोटानागपुर में एक नायक थे अर्जुन मांझी। ब्रिटिश रिकार्ड में इनका नाम उर्जुन मांझी है। ये रामगढ़ के संताल थे और इन पर पचास रुपये का पहली बार इनाम घोषित किया गया और फिर सौ रुपये और अंत में दो सौ रुपये का इनाम घोषित किया गया। इससे इस क्रांतिकार अगुवा के महत्व को समझ सकते हैं। इसके बारे में हजारीबाग से लेकर रांची के प्रशासनिक कार्यालयों और आकाईव में भी ब्रिटिश अधिकारियों ने खोजबीन की लेकिन कुछ हाथ नहीं लगा।</p><p><br /></p><p>1855 से 1858 तक विद्रोह के दौरान छोटानागपुर असंतोष और उपद्रव से परेशान था। ब्रिटिश अधिकारियों ने लिखा, संतालों ने देश की अस्थिर स्थिति का लाभ उठाया और अशांति फैलाई। कुछ जंगली जनजातियों ने भी अपनी शिकारी प्रवृत्ति को खुली छूट दे दी। मेजर सिम्पसन, प्रधान सहायक आयुक्त, हजारीबाग ने सात सितंबर, 1857 को कैप्टन ई.जे. डाल्टन, आयुक्त छोटानागपुर डिवीजन को एक पत्र लिखा, कि 300 बदमाश और संतालों ने मांडू के कृष्णा महतो के घर को घेर लिया और हमला किया। पुलिस के एक दल के आने पर वे पीछे हट गए। 11 सितंबर, 1857 को लिखे एक पत्र में कैप्टन डाल्टन ने बंगाल सरकार के सचिव को सूचित किया कि गोला और गोमिया में संतालों और अन्य लोगों के एक मिश्रित समूह ने नृशंस अपराध किए और पुलिस के अधिकार की अवहेलना की। 17 सितंबर को लिखे एक पत्र में मेजर सिम्पसन ने कैप्टन डाल्टन को सूचित किया कि गोमिया और रघुर के थानों की पुलिस रिपोर्ट उनके जिले के दक्षिण पूर्व हिस्से में देश की शांति का प्रतिकूल विवरण देती है। संतालों ने कई अन्य बदमाश, चुआड़, घाटवालों और अन्य लोगों के साथ हजारों की संख्या में एकत्र होकर गोला से दस मील से कुछ अधिक दूरी में कई गांवों को लूटा और कसमार और जंगी गांवों में हत्याएं कीं। लेफ्टिनेंट ग्राहम और अर्ल के नेतृत्व में रामगढ़ बटालियन 14 सितंबर को लुटेरों की नेता रूपो मांझी के गांव की ओर बढ़ी और पाया कि उसका घर लूटी गई संपत्ति से भरा हुआ है। 16 सितंबर को कैप्टन डाल्टन ने मेजर सिम्पसन को पत्र लिखकर रुपये का इनाम मंजूर किया। रूपा मांझी की गिरफ्तारी के लिए 100 रु का इनाम मंजूर किया। ब्रिटिश अधिकारी मान रहे थे कि इन गड़बड़ियों में अर्जुन मांझी का प्रमुख हाथ था। 26 सितंबर, 1857 को लिखे एक पत्र में कैप्टन डाल्टन ने मेजर सिम्पसन को उसकी गिरफ्तारी के लिए 200 रु इनाम के लिए बंगाल सरकार को पत्र लिखा। ब्रिटिश सरकार के लिए ये क्रांतिकारी लुटेरे, बदमाश, हत्यारे, विद्रोही ही थे। पत्रों में वे इन क्रांतिकारियों के लिए इन्हीं शब्दों का प्रयोग करते हैं। संताल विद्रोह के बहुत से नायक गुमनाम हैं या फिर ब्रिटिश अभिलेखों में कैद हैं।</p>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-34112199401888011362023-07-01T23:23:00.001-07:002023-07-01T23:23:56.606-07:00मैकलुस्की ने बसाया था गंज<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEityXlskJUrY53ShWKeHrlBvdRH5Uft64rec7ZZIwQJYahh4FT8z5lioI-CK-0pfL2ZO7MJTO3KOMZnd6Q-mgJkJZoOxHi4iX0B_b5qUZVkJLQLdwVWUrmaw9H64i0AO_ifTMdYwtwJvNMYPPNveeXh_4oOpmEL9rg9tO_RjvGh0L6ay4W4R3Ibujp9H-mD/s1500/IMG-20230701-WA0254.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1125" data-original-width="1500" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEityXlskJUrY53ShWKeHrlBvdRH5Uft64rec7ZZIwQJYahh4FT8z5lioI-CK-0pfL2ZO7MJTO3KOMZnd6Q-mgJkJZoOxHi4iX0B_b5qUZVkJLQLdwVWUrmaw9H64i0AO_ifTMdYwtwJvNMYPPNveeXh_4oOpmEL9rg9tO_RjvGh0L6ay4W4R3Ibujp9H-mD/s320/IMG-20230701-WA0254.jpg" width="320" /></a></div><br />मैकलुस्कीगंज को कलकत्ते के कारोबारी टिमोथी मैकलुस्की ने बसाया था। उन्होंने ‘कॉलोनाइजेशन सोसाईटी आफ इंडिया लिमिटेड नाम की एक संस्था बनाई और इसी संस्था के नाम पर रातू महाराज से 10,000 एकड़ जमीन खरीदी। यह जमीन हरहू, दुल्ली, रामदगा, कोनका, लपरा, हेसालौंग, मायापुर, महुलिया एवं बसरिया गांव तक फैली है। तीन नवंबर 1934 को इस गांव की नींव रख थी। इसके बाद मैक्लुस्की ने प्रकृति के इस स्वर्ग में पूरे देश से एंग्लो-इंडियन समुदाय को यहां बसने का आमंत्रण दिया। 400 एंग्लो इंडियन परिवारों ने मैक्लुस्कीगंज में बसना तय किया। पर, पांच साल बाद ही द्वितीय विश्व युद्ध ने संकट पैदा कर दिया और बहुत से एंग्लो इंडियन परिवार रोजगार के कारण पलायन करने लगे। कुछ ने अपने बंगले कोलकाता के भद्र बंगालियों को बेच दिया तो कुछ ऐसे ही छोड़कर चले गए। देश की आजादी के बाद लगभग 200 एंग्लो इंडियन परिवार ही यहां बचे थे। वर्ष 1957 में बिहार के तत्कालीन राज्यपाल जाकिर हुसैन ने सोसायटी के लोगों को सलाह दी कि जो लोग ब्रिटेन जाना चाहते हैं, उनके लिए सरकार व्यवस्था करेगी। राज्यपाल के सलाह पर 150 परिवार पुनः विदेश चले गए। अब मात्र दस परिवार ही बचे हुए हैं।<p></p><p><br /></p><p>लेखकों को आकर्षित करता रहा मैकलुस्कीगंज</p><p>मैकलुस्कीगंज लेखकों-पत्रकारों को आकर्षित करता रहा। बांग्ला के प्रसिद्ध उपन्यासकार बुद्धदेव गुहा, बांग्ला व हिंद फिल्मों की अभिनेत्री अपर्णा सेन ने भी मैकलुस्कीगंज में एक-एक बंगला खरीदा था। बुद्धदेव गुहा के मैक्लुस्कीगंज पर लिखे बांग्ला उपन्यास ने मैक्लुस्कीगंज को कोलकातावासियों के बीच काफी लोकप्रिय बनाया। अभिनेत्री अपर्णा सेन अपने जर्नलिस्ट पति मुकुल शर्मा के साथ मैकलुस्कीगंज में काफी दिनों तक रहीं। अपर्णा सेन ने अपनी फिल्म 36 चौरंगी लेन की पटकथा मैकलुस्कीगंज से प्रेरित होकर ही लिखी थी। साठ के दशक में मैकलुस्कीगंज आए एंग्लोइंडियन कैप्टन डीआर कैमरोन ने मैकलुस्की के हाइलैंड गेस्ट हाउस को खरीद लिया और मैकलुस्कीगंज के पुराने गौरव को लौटाने के लिए सभी तरह के उपाय किए। बेरोजगारी झेल रहे एंग्लो इंडियन परिवारों के लिए आशा की किरण तब जगी जब वर्ष 1997 में बिहार के मनोनीत एंग्लो इंडियन विधायक अलफ्रेड डी रोजारियो ने डान बास्को एकेडमी की एक शाखा मैकलुस्कीगंज में खोल दी। डान बास्को एकेडमी ने इस विश्वविख्यात धरोहर को उजड़ने से बचा लिया। एंग्लों इंडियन परिवारों ने अपने बंगलों को पेइंग गेस्ट के रूप में बच्चों का हास्टल बना दिया।</p><p><br /></p><p>यहां देखने के लिए बहुत कुछ है</p><p>रांची से 40 किमी दूर मैकलुस्कीगंज में प्रकृति का खूबसूरत नजारा है। कई बंगले हैं। यहां बीच-बीच में फिल्मों की शूटिंग भी होती रहती है। यहां डुगडुगी नदी है। जंगल है। लातेहार जाने वाले रास्ते पर निद्रा गांव है। यह टाना भगतों के लिए मशहूर है। मंदिर और मस्जिद एक ही परिसर में बने हुए हैं।</p>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-46799404408227753522023-05-22T21:04:00.001-07:002023-05-22T21:04:26.632-07:00राजा राममोहन राय रामगढ़ में विलियम डिगबी के रहे निजी दीवान <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgqn9NVEG0osYO1I1DVTpnyta55iGntUkmmev2G7jGsC6OzTCHtR5Z7jUmNlo3cKDSLjKXlZzJdxp03mrSEE6_uZlaQtU3eMBV_CFTk6AchBvKcAzsq-DC75EEQNFywUKlExYzLER-wROPn09vRL_7MqCJAikqyVmbXao6ApYZetu-uT2C71pfI2_Rcag/s780/IMG_20230523_092943.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="726" data-original-width="780" height="298" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgqn9NVEG0osYO1I1DVTpnyta55iGntUkmmev2G7jGsC6OzTCHtR5Z7jUmNlo3cKDSLjKXlZzJdxp03mrSEE6_uZlaQtU3eMBV_CFTk6AchBvKcAzsq-DC75EEQNFywUKlExYzLER-wROPn09vRL_7MqCJAikqyVmbXao6ApYZetu-uT2C71pfI2_Rcag/s320/IMG_20230523_092943.jpg" width="320" /></a></div><br /><p></p><p><br /></p><p>राजा राममोहन राय 22 मई को, पं बंगाल के हुगली जिले के राधानागर गांव में जन्मे थे। भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत अपने समाज सुधार आंदोलन से पहले रामगढ़ में नौकरी कर चुके थे। पहले वे 1803 में वुडफोर्ड के दीवान के रूप में मुर्शिदाबाद में रहे। 1805 के अगस्त में वुडफोर्ड बीमार पड़ गए और वे स्वदेश चले गए तो राममोहन बेरोजगार हो गए। उन्हें अब नौकरी की जरूरत थी। उन्हीं दिनों उनके पुराने मित्र विलियम डिगबी, जिनसे कलकत्ते में रहते हुए मित्रता हुई थी, रामगढ़, जो उन दिनों हजारीबाग जिले का सदर मुकाम था, मजिस्ट्रेट के पद पर आसीन थे। राममोहन को उन्होंने अपने निजी दीवान के पद पर ले लिया। डिगबी के साथ-साथ वे रामगढ़ से जसौर, वहां से भागलपुर और फिर वापस सौर आए और अंत में 1809 में रंगपुर आए। यहां डिगबी कलक्टर पद पर पदोन्नत होकर आए। डिगबी के साथ राममोहन का यह निकट का संपर्क राममोहन के जीवन और विचारों के गठन में काफी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। राममोहन के बारे में लिखते हुए मोण्टगोमरी मार्टिन ने कोर्ट जर्नल में लिखा था कि राममोहन ने डिगबी के अधीन काम लेते समय शर्त रखी थी कि वे दूसरे, 'कर्मचारियों की तरह 'साहब' के सामने पेश होते समय खड़े नहीं रहेंगे जैसा कि उन दिनों नियम था। डिगबी ने राममोहन के साथ अधीनस्थ कर्मचारी के रूप में कभी व्यवहार नहीं किया। वे हमेशा उनको एक परम मित्र का सम्मान देते थे। कुछ विद्वानों के अनुसार वस्तुतः राममोहन को खोज निकालने का श्रेय डिगबी को ही जाता है जिन्होंने राममोहन को हमेशा उत्साहित किया और पश्चिम जगत् के विचार, दर्शन और बुद्धिवाद से राममोहन का परिचय कराया। सन् 1805 में राममोहन ने डिगबी के अधीन नौकरी आरंभ की थी, और डिगबी के साथ-साथ हजारीबाग जिले के रामगढ़, भागलपुर, जसौर और बाद में रंगपुर में रहे। डिगबी ने थोड़े समय के लिए मजिस्ट्रेट के पद पर भी काम किया। यहीं पहले पहल राममोहन ने ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी की। यहां तीन महीने के लिए फौजदारी अदालत में 'सरिस्तेदार' यानी रजिस्ट्रार के पद पर काम किया। जसीर और भागलपुर में राममोहन कंपनी की नौकरी नहीं बल्कि डिगबी साहब के निजी मुंशी के रूप में काम करते रहे। वे 1805 से 1809 तक काम किया। हजारीबाग में राजा राममोहन राय का आवास था। रामगढ़-चतरा-हजारीबाग तब एक ही था। इसके बाद वे रंगून में 1815 तक रहे।</p>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-86790227909159817382022-11-27T09:34:00.000-08:002022-11-27T09:34:22.850-08:00प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक पहुंची संजय कच्छप के मन की बात<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzgzoF7CCSXI4mqWPVJFbb9fm9mWJ8xo3OlpjEtlc5VcKpL3aXEl6ZMbM7IQYcePyExy13nGg3cZS5H4xDKOn0SaPImR7moWOtTFmZF9QNVtGcEHVEezmFq1zkmJIevw7WFBqWA03_qlrlF8O1wPCivc72CWEEQzWQR_11W3siAPCva-HIPDsWhXw76A/s1080/IMG-20221127-WA0236.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="810" data-original-width="1080" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzgzoF7CCSXI4mqWPVJFbb9fm9mWJ8xo3OlpjEtlc5VcKpL3aXEl6ZMbM7IQYcePyExy13nGg3cZS5H4xDKOn0SaPImR7moWOtTFmZF9QNVtGcEHVEezmFq1zkmJIevw7WFBqWA03_qlrlF8O1wPCivc72CWEEQzWQR_11W3siAPCva-HIPDsWhXw76A/s320/IMG-20221127-WA0236.jpg" width="320" /></a></div><br />माता-पिता बहुत गरीब थे। मजदूरी करते थे। मजदूरी करते हुए वे किसी तरह हमें पढ़ा पाते थे। आसपास भी गरीबी पसरी हुई थी। शिक्षा के प्रति हमारा समाज उदासीन था। सामाजिक कुरीतियां पीछा नहीं छोड़ रही थीं। हमारे समाज में हड़िया-दारू पीना जैसे संस्कार हो। पर, मन में शिक्षा की ललक थी। आठवीं-नौंवी-दसवीं तक काफी परिश्रम कर अपनी पढ़ाई की। 1996 में दसवीं के बाद बच्चों को ट्यूशन कर आगे की पढ़ाई की। इनमें भी गरीब बच्चों से कोई शुल्क नहीं लेते था। उस समय महंगी और जरूरी किताबों के साथ मार्गदर्शन की कमी महसूस कर रहे थे। <p></p><p> ये संजय कच्छप के बचपन का संघर्ष है। मन की बात में रविवार को देश के प्रधानमंत्री ने नरेन्द्र मोदी ने संजय कच्छप के काम को सराहा। पीएम ने कहा, संजय कच्छपजी गरीब बच्चों के सपनों को नई उड़ाने दे रहे हैं। संजय इस समय दुमका में कृषि विपणन में सचिव पद पर कार्यरत हैं। दैनिक जागरण से विशेष बातचीत में कहा कि शिक्षा से ही हम अपने समाज में बदलाव ला सकते हैं। शिक्षा के लिए जरूरी है किताबें। बचपन में हमने इस कमी को झेला था। पढ़ाई के दौरान ही यह प्रण लिया था कि हम समाज के लिए भी कुछ करेंगे। अपनी योजना में अपने दोस्तों को शामिल किया। इसकी शुरुआत गांधी जयंती के दिन हुई। दो अक्टूबर 2008 में पुलहातू, बड़ीबाजार, चाईबासा के सामुदायिक भवन में छोटे स्तर पर इसकी शुरुआत हुई। यहां पुस्तकालय खोलने के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ा। इसके बाद ऐसे लोगों को बात भी समझ में आ गई जब इनके परिवार के बच्चे यहां आने लगे। संजय बताते हैं, मेरे घर में मात्र दो कुर्सी थी। कुछ मेरी किताबें थीं। इसी से शुरू किया। जब कुर्सी ले जा रहा था तब मां बोली-मेहमान आएंगे तो कहां बैठाओगे? बहुत बड़ा हरिचंदर बना है? पर, मां आज मां बहुत खुश है। संजय ने मां से कहा, आज प्रधानमंत्री ने मेरे नाम-काम का जिक्र किया है तो मां बहुत खुशी से बोली-और अच्छा काम करो। दूसरों के जीवन में उजियारा लाओ।</p><p>मई 1980 में जन्मे झारखंड में लाइब्रेरी मैन से प्रसिद्ध संजय कच्छप ने 2004 से 2008 तक रेलवे में नौकरी की। 2008 में ही जेपीएससी से चयन के बाद विपणन विभाग में आ गया। तब से पुस्तकालय खोलने और बच्चों को पुस्तकें उपलब्ध कराने का काम जारी है। अब तक 12 डिजिटल लाइब्रेरी, 18 से ऊपर पुस्तकालयों में इंटरनेट व कंप्यूटर की सुविधा है और 24 से अधिक पुस्तकालय हैं। हमने इसे आंदोलन का रूप दिया। अपने मित्रों का सहयोग लिया। नक्सल प्रभावित इलाकों मुसाबनी, चक्रधरपुर, मनोहरपुर आदि सुदूर इलाकों में पुस्तकालय चल रहे हैं। पचास से अधिक बच्चे अधिकारी बन गए हैं। इससे बड़ा सुख क्या हो सकता है? </p><p>42 वर्षीय संजय बताते हैं, अभी चार महीने पहले दुमका आया हूं। यहां आदिम जनजाति हास्टल में पुस्तकालय खोला। अपने गैराज को साफ-सुथरा कर रात्रि पाठशाला शुरू कर दिया है। यहां दो लोग सहयोग कर रहे हैं। जिला प्रशासन के सहयोग से अन्य आदिवासी छात्रावासों में भी पुस्तकालय खोलने का काम चल रहा है। </p><p> करीब ढाई हजार से ऊपर बच्चे पुस्तकालय से जुड़े हुए हैं। पूरे कोल्हान में करीब पांच हजार बच्चे पुस्तकालय से लाभान्वित हो रहे हैं। जिन गरीब आदिवासी बच्चों के पास स्मार्टफोन है, वे हमसे आनलाइन प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के बारे में जानकारी लेते हैं। छोटे-छोटे प्रयास से ही हम यहां तक पहुंचे हैं। हमें खुशी होती है जहां हमार बचपन गुजरा, वहां गरीबी और स्लम जैसी स्थिति थी। वहां के बच्चे पढ़कर अपना मकान पक्का कर लिए हैं। इसमें पीएम आवास का भी योगदान हैं। पर, अब उनका परिश्रम और काम भी दिखता है। संजय अपने इस जुनून के लिए अपनी छुट्टियों को भी कुर्बान कर देते हैं।</p>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-31880448051810064072022-11-02T22:55:00.000-07:002022-11-02T22:55:14.386-07:00बनारस में घुमन्तू वासी प्रवासी<p> डॉ शुकदेव सिंह</p><p>यात्रियों, पर्यटकों के अलावा बनारस में कई हजार साल से रहन्तू औ घुमन्तू लोग आते रहे हैं। रहन्तु लोग गुजरात, महाराष्ट्र, दक्षिण भारत, उड़ीसा, बंगाल, नेपाल, तमाम जगहों से आये और गंगा के किनारे और किनारे ही किनारे रच बस गये। सोनारपुरा, नागरटोला, बंगाली टोला और त</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh842b4HX8hRKreyYWQbgNFk0nLIM0rQRVXZEkuum-bF-Kzhk_w6aQFyOm-Mawm7Kdhrd-uQ8CvQPGGpywZBTEZkpdMw0raMfRYTus128oAF6ioBGpMjTXihwSN01ywabkX9B4V9PG5iuGq0JG2nkOBWqGT3r-RNpgNArIqD6NIGYnB7i-nZ7hAQSXykA/s1080/IMG_20221103_112236.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="691" data-original-width="1080" height="128" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh842b4HX8hRKreyYWQbgNFk0nLIM0rQRVXZEkuum-bF-Kzhk_w6aQFyOm-Mawm7Kdhrd-uQ8CvQPGGpywZBTEZkpdMw0raMfRYTus128oAF6ioBGpMjTXihwSN01ywabkX9B4V9PG5iuGq0JG2nkOBWqGT3r-RNpgNArIqD6NIGYnB7i-nZ7hAQSXykA/w200-h128/IMG_20221103_112236.jpg" width="200" /></a></div><br />माम गलियों में बसे हुए स्थायी निवासी खान-पान और रहन-सहन के साथ आये। घाट, मंदिर, धर्मशालाएँ, स्कूल, पाठशालाएँ, मदरसे उनकी स्मृतियों से जुड़े हुए हैं। लेकिन काशी के परिसर के बाहर बजरडीहा, लखरॉव, मडुवाडीह अर्थात् डीह, आराम ऐसे वासियों से भरे जो यहाँ के रहने वाले होकर भी घुमन्तू हैं। वज्रयान, सहजयान, महायान और सनातन धर्मयान के दबाव में उनकी मूलजीविका घूमना, माँगना, खाना से जुड़ गयी। नट, मदारी, सँपेरे, बहुरूपिया, बहेलिया, हिजड़े इसी तरह के घुमन्तू हैं। इनका घर भी है फिर बेघर हैं फिरकी, मौर, मुकुट, बाँसुरी, सारंगी, एकतारा बनाने बजाने वाले ये घुमन्तू बिना जर जमीन के 'माँग के खइबो मसीत को सोइबो' की हीं तुलसी जिन्दगानी जीते हैं। हिंदुओं की खुशी के लिए गाने-बजाने वाले, सजाने और हंसाने वाले ये लोग साँप, बंदर, भालू, कौड़ी से सजे हुए भविष्यवाणी बैल, कभी मोरपंख लेकर घर घर घूमकर दूसरों की किस्मत बनाते हैं और अपनी किस्मत के लिए पीर, मुर्शिद, फक्कड़ कई तरह का बाना धारण करते हैं। इनकी आबादी घट रही है। पेशे बदल रहे हैं, लेकिन सँपेरे और अल्हइत, जादूगर, भालू-बन्दर से मन मथने वाले ये लोग इस दहशत में हैं कि जायें तो जायें कहाँ ?<p></p><p>यह स्थिति क्यों है? इसलिए कि ये मूलतः बौद्ध थे। वज्रयान के प्रभाव में तंत्र, मंत्र, जादू टोना और खतरे उठाकर जीवन जीना इनकी कला बन गया। लोग इनसे डरने लगे, इनसे घृणा करने लगे। बौद्धों के विरोधकाल अर्थात् ईसा से दो सौ वर्ष पहले और ईसा की दसवीं शताब्दी तक प्रायः बारह सौ वर्षों में इनकी जिंदगी 'मारो' 'मारो', 'भागो भागो' की जिन्दगी हो गयी। वर्णाश्रम व्यवस्था में इनकी कोई जगह ही नहीं थी। अधिकांश ने धर्म परिवर्तन कर लिया लेकिन पाँच नमाज, महीने भर का रोजा उनकी रोजी-रोटी के लिए आफत ही था। ये दोनों दीन-धर्मों के बीच न हिन्दू, न मुसलमान, न घर, न बाहर की जिन्दगी जीने लगे। इनके जातीय विश्वास, विवाह, पुनर्विवाह, अपराध, दण्ड और मरण संस्कार के नियम अलग और थलग थे। इनमें कई जातियाँ जो अधम हिंदू का जीवन जीती हैं उनके मुर्दे भी न मसान जाते हैं न गंगा में प्रवाहित किये जाते हैं। उन्हें समाधि दी जाती है। मडुवाडीह की रेल लाइन के उस पार वाली पटरी में गोसाइयों की बस्ती थी जिस बस्ती का काशी गोसाईं निर्गुणियाँ था वह बताता था कि हमारे जवान कोई भी काम करते हैं। चोरी, छिनालपन, पुराने कपड़े लेकर बर्तन देना लेकिन यदि उमर उतार पर आने लगे तो हर घर एक जोगिया चोला होता है जिसे पहनकर ये मँगता गोसाईं के रूप में एकतारा, रवाब या कभी कभी करताल लेकर निर्गुण गाते हैं, माँगते हैं। काशी गोसाई ने सेण्डियॉगो के संगीत प्रोफेसर के लिए बीस निर्गुन गाये थे जिसके अमेरिका से एल. पी. रेकॅर्ड बने थे। उसने ही बताया कि जरूरत पड़ने पर वे अपने को दलित या ब्राह्मण कुछ भी कह लेते हैं। इन्हीं गोसाईयों से जुड़े हुए साईं और पँवरिया मुसलमान होते हैं जिनका उस्ताद नसिरुल्ला मडुवाडीह में पँवारा पढ़ते हुए राजा पुरुषोत्तम अर्थात् राम के कथा गीत गाता था। एक खजड़ी और एक किंगरी (छोटी सारंगी) की सहायता से कथा शैली में गाने वाले ये पँवरिया कुशीलव अर्थात् लवकुश संस्कार से जुड़े हुए थे। अब उनके वंश में जो हैं, वे हैं, लेकिन पेशा नहीं है। ये रैदास के गांव मंडेसर ताल और कुतुबशाह तैयब के मजार से जुड़े हुए हैं।</p><p>बजरडीहा, लखरॉव, मडुवाडीह के मजार, बगीचे, ताल, पोखर, रावलजोगियों, पतियों, ढोलकिया, असला कहार, सिकलीगर, कोरी, रैगर, बाजीगर, नचनी जातियों के भी अड्डे हैं। तैयब के मज़ार पर अब भी गोपीचंद भरथरी, रामावतारी, कृष्णावतारी, कबीर, बुल्लेशाह के निर्गुन गाने वाले रावलजोगी अशरफ के गीत भी गाते हैं। ये सब गुरु गोरखनाथ की शिष्य परंपरा में हैं। जौनपुर बस्ती, लम्हुवां, सुल्तानपुर, जखनियाँ, जमानियाँ समस्तीपुर, सीवान, अर्थात् बिहार से लेकर गोरखपुर देवरिया और कई पहाड़ी इलाकों से जुड़े हुए रावलजोगी घुरू के साथ मध्यम आकार की सारंगी लेकर अलख जगाते हैं। इनके दो नाम और दो धर्म होते हैं। जीवनलाल जैनुल, नरसिंह- नसीर, हबीबुल्ला बुलाकीराम या रजई, मिठाई, चौथी, खटूटू ऐसे नाम होते हैं जिनसे धर्म स्पष्ट न हो सके। ये शत प्रतिशत मुसलमान होते हैं। अपनी एक महीने की आरंभिक भैरवी गाने के बाद कांसा, पीतल, पुराने कपड़े दक्षिणा के रूप में लेते हैं और राजघाट अजगैबशहीद के मजार पर बेंचकर चुनार भर्तरी की समाधि पर शिव की पूजा करने के बाद गोरखपुर गोरखमठ के जोगी को गुरु फीस देते हैं। धर्म से मुसलमान और विश्वहिंदू परिषद् के सांसद महंत के शिष्य पूछने पर पूछते हैं शिव जी हिंदू थे या मुसलमान ?</p><p>ढोलकिया बाराबंकी से लेकर देश के कई हिस्सों से आकर कुतुबशाह के मजार के आस पास बसते रहते हैं। ढोलक पर नाल चढ़ाना उसे नाथना नाँधना रंग और पॉलिश का काम यहीं होता है। एक फीट से लेकर पूरे साइज की ढोलक बनाने बेंचने वाले ढोलकिया का एक सरदार महबूब हसन कहता है कि ढोलक हमारे किसी पर्व, त्यौहार, शादी विवाह या परोजन में हमारे घर नहीं बजती। आमतौर से मुसलमान के घर भी नहीं बजती। पुरुष ढोलक बेचते हैं औरतें टिकुली, बिन्दी, बउँखा, लहटी। इन्हीं से थोड़ी अलग एक और जाति है जिनके मरद दिन में सोते हैं, रात में जागते हैं। औरतें गोंदना गोदती हैं, सोहर गाती हैं। घरों के बारे में अंदाज लगाकर अपने मरदों को बताती हैं, जो रात में चोरी, डकैती करते हैं। इनकी एक जाति बावरिया है जिनकी औरतें सिकहर या कोई घरेलू सामान बेचती हैं। पुरुष परंपरा से देवी उपासक हैं। हत्या, हिंसा पेशा है। लेकिन वे न लोहे का कोई हथियार चलाते हैं, न बन्दूक, पिस्तौल । उनका हथियार कुन्द लकड़ी शायद बबूल की लकड़ी से बना हुआ लबेदा होता है। वे उसी से हिंसक लूट-पाट करते हैं। उनमें कुछ को आजकल कच्छावनियान वाला 'वावरिया’ कहा जाता है। ये नारी सूफी बावरी साहिबा से जुड़े कहे जाते हैं। असला कहार मूर्तियाँ बनाते हैं। प्लास्टर आफ पेरिस या मिट्टी से बने हुए इनके बर्तन भांडे और मूरतें सड़क पर तम्बू कनात लगाकर बनती हैं। वे घूम घूमकर कौड़ी के मोल, पानी के भाव बेचते हैं। बनारस में ये महमूरगंज, मडुवाडीह के आस पास ही रहते हैं। ये भी मुसलमान हैं जैसे अश्क की कहानी का 'काँकड़ा का तेली' कुम्हार भी है, तेली भी है, मुसलमान भी है।</p><p> कबीर, रैदास इसी बजरडीहा, लखरॉव, पहड़िया, मडुवाडीह, लहरतारा की विहंगम जातियों के बीच श्रमजीवी दस्तकारों के परिवार से आये थे। उनकी जाति रही होगी धर्म भी रहा होगा लेकिन जोगी, जती, नट, लोना, बैद, बक्को, पवरियाँ, नचनी, कथिक, साई, गोसाईं के गाने बजाने, चमड़े और तार वाद्यों, करघों, रंगाई, बुनाई और गीत-संगीत से खाने जीने वालों के बीच रहने के कारण 'जाति भी ओछी, जनम भी ओछा, ओछाकसब हमारा' कहते हुए ये कवि, गीतकार खसम की खोज में अनहद - बाजा सुनने लायक हुए। अब इस घुनन्तू समाज के पास न अपना घर है, न घर के बाहर को दुनियाँ। ये दलितों में भी दलित हैं। इन पर कोई आरक्षण भी लागू नहीं होता क्योंकि न इनकी कोई जाति है न इनका कोई समर्थित धरम । मनुष्यता की विरादरी के जब दिन लौटेंगे तब इनकी रातों में भी चाँद उगेगा। ●</p><p>साभार: नागरी पत्रिका, 14 जून 2005</p><p><br /></p><p><br /></p>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-85984632521833647442022-07-16T05:31:00.011-07:002022-07-16T05:31:53.474-07:00रामरेखा धाम<p><i><b>सिमडेगा जिले में पर्यटन स्थल की कमी नहीं है। यहां का प्राकृतिक परिवेश भी बहुत सुंदर है। प्राचीन धार्मिक तीर्थ स्थल भी है। डैम भी है और खूबसूरत पहाड़ भी। जिधर जाइए, उधर आपको प्राकृतिक नजारा देखने को मिलेगा-ऐसा कि आंखें तृप्त हो जाएं। </b></i></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJsC-B3l37ENuivmAplm1Jf7z_6__1AKHL2_QBpNe6DPkqd62Ks4ahGiciNhZW5GbKZWquicRMzs1he380XxE42GzjraWPRYR9Rb0i7e2oVrKIZcIgar3eweRSMoU494YUAgmrwVIINUSq4HYgcardS0FH-8wwpyX1Kyi-ejR2v7meC4D9MuFUUu7D2g/s1600/va%20durga.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="719" data-original-width="1600" 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धाराएं व झरने का रूप लोगों को आकर्षित करती है। यहां नीले कलर में दिखता पानी लोगों को बरबस ही आकर्षित करता है।<br />सूखाधार स्पाट : पाकरटांड़ प्रखंड के बसतपुर गांव के पास सूखाधार जिले के खूबसूरत पर्यटन स्थलों में से एक है। यहां शंख नदी चट्टानों के बीच लगभग खो ही जाती है। यहां चट्टानों के बीच बनी कलाकृतियां लोगों का मन मोह लेती हैं। हर नव वर्ष पर यहां काफी संख्या में सैलानी पहुंचते हैं। यहां तक सुलभ ढंग से छोटे वाहन ही पहुंच पाते हैं।<br />वनदुर्गा धाम : जिला मुख्यालय से करीब 45 किमी दूर बोलबा प्रखंड में स्थित वनदुर्गा धाम जिले के प्रसिद्ध धामों में से एक है। नवरात्र में यहां विशेष अनुष्ठान होता है। दूर-दूर से लोग यहां आते हैं और अपनी प्रसन्नता के लिए देवी दुर्गा से प्रार्थना करते हैं। यह स्थान एक प्राकृतिक पिकनिक स्थल भी है। जिला प्रशासन ने इस स्थल के विकास के लिए कई योजना प्रस्तावित की है।<br />केतुंगाधाम : बानो प्रखंड मुख्यालय से पांच किमी की दूरी केतुंगाधाम स्थित है। यह धाम मालगो एवं देवनदी संगम के तट पर अवस्थित है। विशेषकर सावन के महीने में यहां विशेष आयोजन होता है। भगवान शिव की पूजा-अर्चना के लिए श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं। केतुंगाधाम में बुद्ध की कई प्रतिमाएं मिली हंै। ऐसा कहा जाता है कि राजा अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद पाटलिपुत्र लौटते समय बुद्ध मंदिर <br />का निर्माण कराया था। उसी के ये अवशेष हैं। <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgTY_BiDtXg1q_8YyuO2Giz_autTMsDWZ5refJVOujfwomPkYbLRWniUJfZgCCwWPWI7J3z4HHJwa3Xz5dT6wXWAwWicm69RpKJOvR3nVTHbdoPV-5W3bAhiXZAF_3tlW6BCilkzBCdvigKj-si4rStAAIHMsyOO7WCzAJhX_q_K70tu0J1w2Pa8opFRA/s4000/ram%20rekkk%20dham.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1800" data-original-width="4000" height="144" 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हैं। यहां सूर्योदय और सूर्यास्त का खूबसूरत नजारा देख सकते हैं। झरनों का संगीत सुन सकते हैं। चीड़ के जंगलों की सैर कर सकते हैं। सालों से गूंजती एक प्रेम कहानी भी आपको यहां सुनाई देगी। </span></i></b></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgH0-AvM_Ol0o8MCBW5-jiRpw3Khvp4_n4p_UHW9N0KUVbnA7KdvAqo0O6Ls9_FT1EDjxKgPHJRKpYfkCMX8-mFpITkgbjPhJg9YYHe3mbOQDxssDrYbtTVnOkQm1xKC5tW1NguA4I37rcFenTXKwRWry3iQd9uYkBR2mrPl9AmdJWzLJCcXs188-jlFA/s1280/shaile%20house.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgH0-AvM_Ol0o8MCBW5-jiRpw3Khvp4_n4p_UHW9N0KUVbnA7KdvAqo0O6Ls9_FT1EDjxKgPHJRKpYfkCMX8-mFpITkgbjPhJg9YYHe3mbOQDxssDrYbtTVnOkQm1xKC5tW1NguA4I37rcFenTXKwRWry3iQd9uYkBR2mrPl9AmdJWzLJCcXs188-jlFA/s320/shaile%20house.jpg" width="320" /></a></div>नेतरहाट को छोटानागपुर की रानी कहा गया है। समुद्रताल से लगभग 3514 फीट की ऊंचाई पर बसा है। चारों तरफ घाटियां हैं। घाटियों से गुजरकर ही यहां पहुंचा जा सकता है। पहुंचने के बाद तो मन आनंदित हो जाता है। यहां आने के बाद जब आप नेतरहाट से मैगनोलिया सनसेट प्वाइंट की ओर जांएंगे तो बीच के दस किमी में कहीं भी खाली जगह पर खड़े हो जाएंगे तो यहां धरती उभरी हुई दिखाई देगी और चारों तरफ घाटी। क्षण भर आप रुकें तो इसका एहसास होगा, वाकई, यह कितनी खूबसूरत जगह है। यहां का मौसम तो सुहाना है ही। सालों भर ठंड बना ही रहता है। गर्मी में पर्यटकों की भारी भीड़ रहती है। आप यहां सप्ताहांत बिता सकते हैं। दो दिन आप प्रकृति के साथ जुड़ सकते हैं। यहां का सूर्योदय, सूर्यास्त, नदियों और झरनों के गीत और हरे-भरे शांत वातावरण आपके दिलो दिमाग को तरोताजा कर देेंगे। सड़क मार्ग से आने के दौरान घाघरा-नेतरहाट मार्ग से गुजरने के क्रम में पहाडिय़ों पर बने टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर किसी वाहन की सवारी आपको रोमांचित कर देगी। नेतरहाट शब्द के विषय में कहा जाता है कि नेतुर (बांस) और हातु (हाट) से मिल करबना है। प्राचीन समय में यहां बांस का जंगल था, जिस कारण इसका नाम नेतरहाट पड़ गया। एक अन्य मत के अनुसार वर्ष 1901 में जब अंग्रेज नेतरहाट पहुंचे तो उस समय गर्मी का मौसम था, लेकिन नेतरहाट में अंग्रेजों को गर्मी में भी ठंडक का एहसास हुआ इससे प्रभावित हो कर तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर सर एडवड गेट ने नेतरहाट को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का निर्णय लिया और इस स्थल को विकसित किया। अंग्रेजों ने ही नेतरहाट को यह नाम दिया था। प्रारंभ में अंग्रेजों ने नेतरहाट का नाम नेचरहाट रखा था, जो बाद में नेतरहाट हो गया। आज यही नाम प्रचलित है।<p></p><p>लकड़ी का बना शैले हाउस<br />शैले फ्रेंच भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है काष्ठ का घर। नेतरहाट स्थित यह ऐतिहासिक भवन काष्ठ निर्मित संरचना है। बिहार एवं उड़ीसा के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर सर एडवर्ड गेट ने इस भवन का निर्माण कराया था। जिसका उपयोग ब्रिटिश अधिकारी गर्मी में भ्रमण के दौरान स्थानीय ग्राम प्रमुखों से विचार-विमर्श के लिए प्रशासनिक शिविर के रूप में करते थे। अब यह उपायुक्त लातेहार के शिविर कार्यालय के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। <br />लोअर घाघरी जलप्रपात<br />लातेहार के विख्यात दर्शनीय स्थल नेतरहाट से 10 किमी दूर उत्तर में यह जलप्रपात है, यह राज्य के सबसे ऊंचे जलप्रपातो में एक है। यहां घाघरी नदी का जल लगभग 320 फुट ऊंचाई से नीचे गिरता है। यह स्थान बहुत ही मनोरम एवं एकांत में है, जहां झरने से कलकल गिरता पानी आसपास के वातावरण को संगीतमय बना देता है। साल के सघन वृक्षों एवं पर्वत शृंखलाओं के मध्य स्थित इस जल प्रपात से गिरने वाली विशाल जलराशि पर्यटकों का मन मोह लेती हैं, बरसात के मौसम में इसे देखना रोमांचकारी अनुभव होता है। </p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a 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चरवाहा था, जो सनसेट प्वाइंट के पास मवेशियों को चराने के लिए जाता था। वह बांसुरी बहुत अच्छा बजाता था। उसकी बांसुरी की मधुर आवाज ने मैगनोलिया के दिल को छू लिया और वह उससे प्रेम करने लगी। वह हर िदन वहां जाती, जहां चरवाहा बांसुरी बजा कर सुनाता था। अंग्रेज अधिकारी को जब इस बात का पता चला, तो उसने चरवाहा को मरवा दिया। इसकी सूचना जब मैगनोलिया को मिली, तो उसने घोड़े सहित घाटी में छलांग लगाकर जान दे दी। लातेहार जिला प्रशासन ने दोनों की प्रतिमा लगाई है।<p></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9nOczi9JXKm7aA78tFWCJXtnim-wVEThPbIFW6Rg3BY-OxPQ2x8293pfa6nlPjRsSY6QLHCdnXJIFRWukTOUtWsqoegfnp4RVJZanX3wa_2tvelTk4zRWZ8ikvfcgR8LA_1xEHQ3SraBYdys_rcKa9g8ZtIIVtRpa-HhEDoanYBYKvYaJig1B506_kg/s720/pine.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="540" data-original-width="720" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9nOczi9JXKm7aA78tFWCJXtnim-wVEThPbIFW6Rg3BY-OxPQ2x8293pfa6nlPjRsSY6QLHCdnXJIFRWukTOUtWsqoegfnp4RVJZanX3wa_2tvelTk4zRWZ8ikvfcgR8LA_1xEHQ3SraBYdys_rcKa9g8ZtIIVtRpa-HhEDoanYBYKvYaJig1B506_kg/s320/pine.jpg" width="320" /></a></div><b>लोध जल प्रपात</b><br />महुआडांड़ प्रखंड मुख्यालय से लगभग 10 कि.मी दक्षिण-पश्चिम में ओरसापाट ग्राम के निकट लातेहार जिले में स्थित यह झारखंड का सबसे ऊंचा जलप्रपात है। यहां बूढा नदी का जल लगभग 465 फिट की ऊंचाई से नीचे गिरता है। प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण सघन वनों, चट्टानों आदि को पार करती हुई जलप्रपात से गिरने वाली विशाल जलराशि पर्यटकों का मन मोह लेती है।<br />अपर घाघरी जलप्रपात : यह जलप्रपात नेतरहाट से पांच किमी की दूरी पर घाघरी नदी पर स्थित है। इस जलप्रपात के आसपास घना वन है। पर्यटकों के पिकनिक मनाने के लिए एक उत्तम स्थान है। मानसून के दौरान इसका प्राकृतिक सौंदर्य और भी निखर जाता है। <br /><br /><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEioVDny7AMRYbPDZkxSU5EXn2XAdntPBFiyJyXK0F9uB3YmoXzdNJsnFvn-WvGEXEt_yeQp-HYpswqk_ZoWxjeXVHuLhs542FvAQKkqRdH3-jZrF0i4Vt1wcYG5oThyOjGWTrX9bLNHxPWKCpUgKtSKD2DheyKb2FEEs0elOrWXKBYvAoGCFpFXdgXmNg/s720/neterhat%20school.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="540" data-original-width="720" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEioVDny7AMRYbPDZkxSU5EXn2XAdntPBFiyJyXK0F9uB3YmoXzdNJsnFvn-WvGEXEt_yeQp-HYpswqk_ZoWxjeXVHuLhs542FvAQKkqRdH3-jZrF0i4Vt1wcYG5oThyOjGWTrX9bLNHxPWKCpUgKtSKD2DheyKb2FEEs0elOrWXKBYvAoGCFpFXdgXmNg/s320/neterhat%20school.jpg" width="320" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a 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href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNdkGekTzvk0KzX3o2_1mSZwzm31klRWfoWVV1zPu9A_sIyOk9CNVgdu84eCXLnJ3TlOaxULTgKotG2AsuqTV9WTUtiJ1NWzFgT5XqInn7L2qf134GMVIgE_w16Hltxa-3dlvEz4YseiVdf3k1LkEqiG2TD_swNHqOfss0MGbQZQlLFWTJ2GOvqYN2SA/s720/lodha%20fall.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="540" data-original-width="720" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNdkGekTzvk0KzX3o2_1mSZwzm31klRWfoWVV1zPu9A_sIyOk9CNVgdu84eCXLnJ3TlOaxULTgKotG2AsuqTV9WTUtiJ1NWzFgT5XqInn7L2qf134GMVIgE_w16Hltxa-3dlvEz4YseiVdf3k1LkEqiG2TD_swNHqOfss0MGbQZQlLFWTJ2GOvqYN2SA/s320/lodha%20fall.jpg" width="320" /></a></div><br /><br /><p></p>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-73225637821166349652022-07-16T05:22:00.003-07:002022-07-16T05:22:26.376-07:00 पीएन बोस संग्रहालय<p><i><b><span style="color: red;">झारखंड देश में अपनी खनिज संपदा के लिए जाना जाता है। इस संपदा को देखने-समझने के िलए आपको रांची िववि के भूगर्भ विज्ञान विभाग के संग्रहालय में आना होगा। देश के महान भू विज्ञानी प्रमथनाथ बोस यानी पीएन बोस को यह समर्पित है। पीएन बोस ने अपना अंितम समय रांची में ही व्यतीत किया था। देश के कई हिस्सों में उन्होंने खनिज संपदा की खोज की। अपने राज्य में िकस-िकस तरह की खनिज संपदा और अनमोल पत्थर हैं, उसे देखने के लिए यहां जरूर आइए...। </span></b></i><br /></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhxJdXSRbCck6-92GqeKdXc4NRvqJqLlNI_dz3yiHNDeKdpUBSNrEWlT90Z6YWAzPN8XhAEt-GoghW8hhpAKzIT_QHao0INZogYfC15T5wwWGedQ9dflTBTC_R5Wdbis1gRwYL7b9JMRpc5GjvBracf8s2Q1PgO2geoFewVKuPdReyc_4bCAjxM0iFilA/s500/pn%20bose.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="500" data-original-width="362" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhxJdXSRbCck6-92GqeKdXc4NRvqJqLlNI_dz3yiHNDeKdpUBSNrEWlT90Z6YWAzPN8XhAEt-GoghW8hhpAKzIT_QHao0INZogYfC15T5wwWGedQ9dflTBTC_R5Wdbis1gRwYL7b9JMRpc5GjvBracf8s2Q1PgO2geoFewVKuPdReyc_4bCAjxM0iFilA/s320/pn%20bose.jpg" width="232" /></a></div> रांची में पीएन बोस कंपाउंड के बारे में सब लोग जानते हैं। लेकिन ये पीएन बोस (12 मई 1855-27 अप्रैल 1934 ई.) थे कौन, इनके बारे में बहुत लोग नहीं जानते। वैसे, यह उनका संक्षिप्त नाम है। उनका पूरा नाम प्रमथनाथ बोस था। देश के पहले भूगर्भ विद्। आज देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है और रांची विश्वविद्यालय का भूगर्भ विज्ञान विभाग के साठ साल (1962-2022) पूरे होने पर हीरक जयंती मना रहा है। पीएन बोस देश के पहले भूगर्भविद् थे। उनका अंतिम समय रांची में ही बीता। उन्होंने अपनी भव्य कोठी केसी राय को दे दी और आज वहां केसी राय मेमोरियल अस्पताल बना है। बाकी जमीन आज पीएन बोस कंपाउंड के नाम से जानी जाती है। यह अब जमीन भी आबाद है। लेकिन कहानी इतनी भर नहीं है। वे घनघोर राष्ट्रवादी थे और अपने देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रयास करते थे। लंदन से पढ़कर आए, लेकिन जो उनकी योग्यता है, उन्हें नौकरी भारत में नहीं मिली। वायसराय के हस्तक्षेप से जियोलाजी सर्वे आफ ग्रेट ब्रिटेन में उन्हें नौकरी तो दी गई, लेकिन अंग्रेज यहां उनसे सौतेला व्यवहार करते थे। इसलिए, उन्हें बर्मा भेजा सर्वे के लिए। वहां काम किया। इसके बाद असम भेज दिया। अपनी प्रतिभा के कारण यहां उन्होंने पेट्रोलियम की खोज की। उनकी खोज पर अंग्रेज यहां उद्योग खड़ा करे, लेकिन उन्हें इसका श्रेय नहीं देते। अंग्रेज श्रेष्ठता बोध के शिकार थे। इनका जब प्रमोशन नहीं हुआ तो इन्होंने 1903 में त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद मयूरभंज इस्टेट ने इन्हें अपने पास बुला लिया अपनी भूमि का सर्वे करने के लिए। उन्होंने यहां आयरन ओर की खोज की। बताया कि यहां सैकड़ों साल तक आयरन ओर निकाला जा सकता है। इस बीच टाटा मध्यप्रदेश में अपनी स्टील की फैक्ट्री लगाना चाहते थे, लेकिन पीएन बोस ने उन्हें काली माटी में इंडस्ट्रीज लगाने की सलाह दी। 24 फरवरी 1904 को पीएन बोस ने जेएन टाटा को इस आशय का पत्र भेजा। पत्र में मयूरभंज में अच्छी गुणवत्ता वाले लौह अयस्क व झरिया व राजमहल में कोयले की उपलब्धता की जानकारी दी। छोटानगापुर के सिंहभूम में दो नदियों के संगम- स्वर्णरेखा व खरकई नदी के बारे में बताया कि जहां पानी पर्याप्त हे। पत्र मिलने के बाद टाटा ने काली माटी में स्टील प्लांट की स्थापना की। यही जमशेदपुर शहर है। इंडस्ट्रीज के क्षेत्र में भारत ने जो प्रगति की, आत्मनिर्भर बना, उसमें पीएन बोस की बड़ी भूमिका रही। भूगर्भ विज्ञान विभाग ने उनके नाम पर संग्रहालय की स्थापना की है। हर जिले की जमीन में कौन सी खनिज और कीमती पत्थर हैं, यहां आकर देख सकते हैं।<p></p><p> </p><p>पीएन बोस का जन्म 12 मई 1855 ई. को बंगाल के नदिया जिले में गायपुर में हुआ था। उच्च शिक्षा लंदन विश्वविद्यालय में हुई, जहां से भूविज्ञान में बीएससी (आनर्स) की डिग्री प्राप्त की। 1880 में भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग में असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट के पद पर नियुक्ति हुई। देश के भिन्न-भिन्न भागों में सर्वेक्षण से खनिज का पता लगाया। मयूरभंज के प्रसिद्ध लौह पर्वत गोरुमहिसानी की खोज की। पीएन बोस ने अपने जीवन में कई महत्वपूर्ण खनिजों की खोज की। देश के िनर्माण में इस भू िवज्ञानी का अहम योगदान है। <br /></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkYmMXjCPsa4R92BXHKLomajlWAagUpPXvFXjvjJUfiXg6nh5EzbfHleAD3xKJgQbVK-TQ6LBdvuzKU-aaYLONd4Krq5j_mjpWdpN5TvfdGu_Gq3seX-6SyG-coXv6_Jie2XgpealtH4iKX-Kz_osd3GkzzFwOZRuB9vMhETTTWhv_ommxXHAsfpeiSA/s1600/jeo6.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1200" data-original-width="1600" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkYmMXjCPsa4R92BXHKLomajlWAagUpPXvFXjvjJUfiXg6nh5EzbfHleAD3xKJgQbVK-TQ6LBdvuzKU-aaYLONd4Krq5j_mjpWdpN5TvfdGu_Gq3seX-6SyG-coXv6_Jie2XgpealtH4iKX-Kz_osd3GkzzFwOZRuB9vMhETTTWhv_ommxXHAsfpeiSA/s320/jeo6.jpg" width="320" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhLkp7Ptz_QW_mivvD7Gz-v3GUqfdScppNrKShMEIMQSN7_BMYZU0VG0JJdQDBPXD7o1WX_x0HaEN3rwUOlOYVw_DoQkrkobfRVzbS84C6WYfojxC2mShhi-s1BnWZReWpkaWu8ScvqIqiTuOEmtPOtbwgGdY-QMbYZyl4_-9pHrovvbttVdusq8VnFbg/s1600/jeo4.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1200" data-original-width="1600" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhLkp7Ptz_QW_mivvD7Gz-v3GUqfdScppNrKShMEIMQSN7_BMYZU0VG0JJdQDBPXD7o1WX_x0HaEN3rwUOlOYVw_DoQkrkobfRVzbS84C6WYfojxC2mShhi-s1BnWZReWpkaWu8ScvqIqiTuOEmtPOtbwgGdY-QMbYZyl4_-9pHrovvbttVdusq8VnFbg/s320/jeo4.jpg" width="320" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9chls6GcFQl52XRIKcJTdDnnbTO5kHaHhKrpxXkoL04e40P2Jz09P0lfDW0p47mgkP2mo8gtDPJdTvP35xFo_3i97Uo25uoHTJ7A_4mvQgd19kzpkQj3G5r-zXJ2CfLdhwf45U-xg6mLctNgZsGpC97L7yIAqaYesLlEo3kfvVIaMfgpNvK112ahHJA/s1600/jeo3.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1200" data-original-width="1600" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9chls6GcFQl52XRIKcJTdDnnbTO5kHaHhKrpxXkoL04e40P2Jz09P0lfDW0p47mgkP2mo8gtDPJdTvP35xFo_3i97Uo25uoHTJ7A_4mvQgd19kzpkQj3G5r-zXJ2CfLdhwf45U-xg6mLctNgZsGpC97L7yIAqaYesLlEo3kfvVIaMfgpNvK112ahHJA/s320/jeo3.jpg" width="320" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEicJkVNP9-iNcrJm2BS6VWZ96ZAJ4nOBfntutypqN9DWPNQiDzCpmzCyA93WAFufFZYqmkqoAiG60Rnn12RoTuJ4zQHlDQ7MmVaGNq65mC6MYtWJr_bVMPHa5z5jL3l9uwHzney12XFM6qRVyYYaBv-gZWhjJQCZaGQAGJZ8xBRKpwVXIL-LZBMZoYb5w/s1600/jeo2.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEicJkVNP9-iNcrJm2BS6VWZ96ZAJ4nOBfntutypqN9DWPNQiDzCpmzCyA93WAFufFZYqmkqoAiG60Rnn12RoTuJ4zQHlDQ7MmVaGNq65mC6MYtWJr_bVMPHa5z5jL3l9uwHzney12XFM6qRVyYYaBv-gZWhjJQCZaGQAGJZ8xBRKpwVXIL-LZBMZoYb5w/s320/jeo2.jpg" width="240" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhvBlvU__WIMYXWv8_3my5eiCZNM3rs-gPGmOAnfrmDLDPMQ7AsfIZmnrA4T6NjLZZ1OQ-JJ4-fGs3Qu6lqiBSYJ1BCwCFY4WPDCww13DAooE--d4T9_GekYRj-ukJ46yeH4a2UmjCpgytMc5e20YEITP1kaGt31GgU_Ulb6n7MjLgdPl1QpVPZjOL9MA/s1600/jeo1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1200" data-original-width="1600" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhvBlvU__WIMYXWv8_3my5eiCZNM3rs-gPGmOAnfrmDLDPMQ7AsfIZmnrA4T6NjLZZ1OQ-JJ4-fGs3Qu6lqiBSYJ1BCwCFY4WPDCww13DAooE--d4T9_GekYRj-ukJ46yeH4a2UmjCpgytMc5e20YEITP1kaGt31GgU_Ulb6n7MjLgdPl1QpVPZjOL9MA/s320/jeo1.jpg" width="320" /></a></div><br /> <br /><p></p>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-89923811302013466002022-07-16T05:17:00.001-07:002022-07-16T05:17:22.044-07:00वृंदाहा वाटरफाल<p><b><i><span style="color: #990000;">अभ्रक के लिए मशहूर कोडरमा पहले हजारीबाग में था। अब जिला बन गया है। रेिडयो के शौकीन पुराने लोग झुमरीतलैया से परििचत होंगे। यहां प्रकृित ने कई उपहार दिए हैं। ितलैया डैम तो है ही। यहां कई प्राकृितक स्थल हैं ,जिनका भरपूर आनंद ले सकते हैं। इनमें एक है वृंदाहा जल प्रपात। इसके सौंदर्य <br />को निहािरए... </span></i></b><br /></p><p> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjo9AitdCsOiMHjFujHC7d-kQpznPbD41KKUx3yyYggywN8Ihjs7Jl08kQQwXGsyoghWWK6HtnRZyPtmeK6bFzGGeYZWQRGDZzgVyfa8ZYVoJrEFeakMggZFas4pJ_SYlZB7nNdxORuPEp3U9g4k_9efFi_4OGokapq-OcAtbkJs99VtjAZxz0RN4ZBaw/s711/fall.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="336" data-original-width="711" height="151" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjo9AitdCsOiMHjFujHC7d-kQpznPbD41KKUx3yyYggywN8Ihjs7Jl08kQQwXGsyoghWWK6HtnRZyPtmeK6bFzGGeYZWQRGDZzgVyfa8ZYVoJrEFeakMggZFas4pJ_SYlZB7nNdxORuPEp3U9g4k_9efFi_4OGokapq-OcAtbkJs99VtjAZxz0RN4ZBaw/s320/fall.jpg" width="320" /></a><br /><br /></p><p>प्रकृति ने कोडरमा जिले को कई उपहार दिए हैं। इनमें कई खूबसूरत प्राकृतिक स्थल भी हैं। वृंदाहा वाटरफाल इन्हीं उपहारों में से एक है। झुमरीतिलैया शहर से करीब आठ किलोमीटर दूर जंगल के बीच यह अवस्थित है। दो पहाड़ांे से होकर पानी करीब सौ फीट नीचे गिरता है। जहां पानी गिरता है, वहां छोटी सी झील बन गई है। बारिश के दिनों में यहां जब तेज गति से पानी नीचे गिरता है तो नजारा बेहद खूबसूरत होता है। यहां स्थानीय लोग घूमने और नहाने के लिए आते हैं। झुमरीतिलैया से करीब तीन किलोमीटर तय करने के साथ ही जंगल शुरू हो जाता है। सड़क के दोनों ओर घने पेड़ काफी आकर्षित करते हैं। बीच में कई स्थानों पर रुककर जंगल में फोटोग्राफी का आनंद ले सकते हैं। जैसे-जैसे आप आगे बढ़ते जाएंगे, जंगल घना होता जाएगा। इस बात का ध्यान रखें कि यहां आपको खाने-पीने के स्टाल नहीं मिलेंगे। इसके लिए आपको पूरी तैयारी घर में करनी होगी। या आप बाजार से भी पैक करके ले जा <br />सकते हैं। अगर आप प्रकृति प्रेमी हैं तो यह सफर आपके लिए आनंददायक होगा। हालांकि, ज्यादा चहल-पहल की चाहत रखने वालों को निराशा हो सकती है। 25 दिसंबर से लेकर पांच जनवरी तक यहां सबसे ज्यादा चहल-पहल हाेती है। यहां जून से लेकर जनवरी के बीच घूमने के लिए अधिक लोग आते हैं। एकांत में प्रकृति के बीच परिवार के साथ वक्त गुजारने के लिए यह उपयुक्त स्थल है। अगर आपकी किस्मत अच्छी है तो आपको मोर व हिरण भी देखने को मिल सकते हैं। जंगल के बीच होने पर कई स्थानों पर मोबाइल नेटवर्क की दिक्कत का सामना करना पड़ सकता है। इसके लिए मानसिक रूप से तैयार रहें।<br />आबादी से दूर है वाटरफाल<br />जंगल में जरगा पंचायत है। यहां से करीब चार किलोमीटर दूर वृंदाहा वाटरफाल है। रास्ते में जाते समय आपको कुछ ग्रामीण भी मिल जाएंगे। यहां के ग्रामीण सीधे-साधे लोग हैं। भटकने पर वे आपकी मदद भी कर सकते हैं।<br />रांची से 155 किमी<br />रांची से करीब 155 किलोमीटर दूर झुमरीतिलैया शहर है। यहां से बाईपास से तिलैया बस्ती होकर करीब आठ किलोमीटर की दूरी तय करने पर वृंदाहा वाटरफाल पहुंचेंगे। जंगल के बीच होने के कारण यहां जाने के लिए सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था नहीं है। अपने वाहन से यहां जा सकते हैं। अगर झुमरीतिलैया से वाहन लेकर जाएंगे तो स्थानीय चालक होने पर आपको पहुंचने में काफी मदद मिलेगी। वृंदाहा वाटरफाल जाने के लिए पक्की सड़क है। फिलहाल यह कई स्थानों पर जर्जर हो चुकी है। हालांकि, जिला प्रशासन इस जगह को विकसित करने और बेहतर संपर्क मार्ग बनाने के लिए प्रयासरत है। -प्रस्तुित: रविंद्रनाथ</p>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-24147371130830561672022-07-16T05:12:00.003-07:002022-07-16T05:12:36.004-07:00पतरातू घाटी<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAsPsVBlYEr8ps4kAWHmUTULMwChKmrgOTvStaSh25XedNnak33BLYSdncdVJs1U_iI8CvHlb2GGCYYvR5JfQpq04g5gAjxqDWZyI2gCJiU89p8QtQUXmRRugbCD-8AFusYrozHyF-SQbfwgKo9uyMC7myB3NW6telt6ztmRyxbZVrgVaOM2Im2FfuLg/s1920/patratu-velly-1.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="1920" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAsPsVBlYEr8ps4kAWHmUTULMwChKmrgOTvStaSh25XedNnak33BLYSdncdVJs1U_iI8CvHlb2GGCYYvR5JfQpq04g5gAjxqDWZyI2gCJiU89p8QtQUXmRRugbCD-8AFusYrozHyF-SQbfwgKo9uyMC7myB3NW6telt6ztmRyxbZVrgVaOM2Im2FfuLg/s320/patratu-velly-1.jpeg" width="320" /></a></div>रांची से 38 किमी की दूरी पर है रामगढ़ जिले की पतरातू घाटी। यहां की घुमावदार सड़कें एक अलग रोमांच पैदा करती हैं। समुद्र तल से 1328 फीट की ऊंचाई पर यह स्थित है। घाटी से गुजरते हुए हरे भरे पहाड़ आपको एक अलग दुनिया में ले जाते हैं। आज यह झारखंड का सबसे खूबसूरत पर्यटन स्थलों में से एक है। यहां एक विशाल डैम है जहां नौका विहार का आनंद ले सकते हैं। खान पान और बाजार भी है। ट्राइफेड का शोरूम है जहां आदिवासी समुदाय द्वारा निर्मित सामान खरीद सकते हैं। रहने की भी बेहतर सुविधा है। <br /><p></p><p> </p><p>पतरातू और डैम के नयनाभिराम सौन्दर्य से कोई भी सम्मोहित हुए बिना नहीं रह सकता। डैम तक पहुंचने के लिए घुमावदार रास्तों, खतरनाक मोड़ों का सफर रोमांचित करता है। जहां नजर घुमाइए वहीं प्रकृति की खूबसूरती देखने को मिलती है। हवाओं के साथ झूमते साल-सखुआ के वृक्षों को देख ऐसा प्रतीत होता है कि ये सैलानियों के स्वागत में बांहें पसारे खड़े हैं। अगर आप नदी, पहाड़, जंगल, डैम आदि का मजा एक जगह लेना चाहते हैं तो पतरातू से बेहतर जगह कहीं और हो नहीं सकती।<br />घाटी का सुंदर नजारा <br />राजधानी रांची से करीब 38 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पतरातू घाटी अपने अद्भुत सौन्दर्य के लिए पर्यटकों के बीच खासा लोकप्रिय है। घाटी के चारों तरफ हरियाली और मोहक फूलों की खूबसूरती पर्यटकों को अपनी ओर खींचती है। पिठौरिया थाना के बाद से खूबसूरत घाटी शुरू होती है। यह समुद्र तल से 1328 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। पहाड़ों के बीच घने जंगल और उसके बीच फोरलेन सड़क पिठोरिया होते हुए पतरातू डैम तक जाती है। प्राकृतिक सौन्दर्य और एडवेंचर से भरी यह घाटी करीब 15 किलोमीटर की है। रास्ते में दो दर्जन से ज्यादा खतरनाक मोड़ हैं। कई पुल-पुलिया भी। घाटी के रास्ते में बरसाती नदियां और कुछ मौसमी झरने भी मिलते हैं। बरसात में पूरी घाटी हरियाली की चादर में लिपटी रहती है। घाटी का प्रदूषण रहित, सुकून और शांति प्रदान करनेवाला वातावरण, दूर तक फैली हरियाली, पहाड़ियों और उड़ते हुए बादलों का खूबसूरत नज़ारा किसी को भी मंत्रमुग्ध कर देता है। यहाँ से गुजरनेवाले लोग इसकी खूबसूरती को कैमरे में कैद करने से खुद को नहीं रोक पाते। यहां कई स्थानों पर सेल्फी प्वाइंट भी बने हैं।<br />मनोहारी डैम <br />घाटी से मात्र चार िकमी. आगे ही पतरातू डैम है, जिसे नलकारी नदी के पानी के संचय हेतु बनवाया गया था। नलकारी डैम सुंदर, आकर्षक मनोहारी छटा के लिए जाना जाता है। डैम के किनारे प्रकृति की खूबसूरती को निहारने का आनंद ही कुछ और है। डैम का निर्माण वर्ष 1960 में हुआ था, इसे भारत के महान इंजीनियर मोक्षगुन्दम विश्वेश्वरैया ने डिजाइन किया था। डैम का निर्माण पतरातू थर्मल पॉवर स्टेशन में पानी की आपूर्ति के लिए किया गया था। यहां से सीसीएल बरका सयाल और सिख रेजिमेंट रामगढ़ को पानी की आपूर्ति की जाती है। डैम के किनारे बने प्राचीन देवी स्थल मां पंचबहिनी मंदिर आस्था का प्रमुख केंद्र है।<br />लेक रिजार्ट <br />पर्यटकों के लिए 21 एकड़ में फैला एक लेक रिजार्ट बनाया गया है। इस लेक रिजार्ट में डैम में गेस्ट हाउस और रेस्टोरेंट के अलावा बच्चों की मौज मस्ती के लिए खास इंतजाम किए गए हैं। मुख्य प्रवेश द्वारा पर एक उड़ता हुआ यूनिकॉर्न बनाया गया है। डैम के प्रवेश द्वार पर एक काले रंग के पत्थर की मां और बच्चे की मूर्ति है।<br />पंक्षियों से गुलजार<br />यह डैम सैलानी ही नहीं विदेशी पक्षियों का भी पसंदीदा जगह है। प्रत्येक वर्ष नवंबर से लेकर फरवरी माह तक काफी संख्या में साइबेरिआई पक्षी यहाँ प्रवास करते हैं। पानी के ऊपर और घाटी में उड़ते, उतरते ये पक्षी पर्यटकों को खूब लुभाते हैं। नीले जल में सफेद साइबेरियन पक्षियों का झुंड में उतरना और फिर घाटी में उड़ान भरना सैलानियों के लिए आकर्षण का केंद्र होता है। साइबेरियन डक के अलावा देशी पक्षी लालसोर का कलरव, कलोल सम्मोहित कर देता है।<br />नौका विहार <br />डैम क्षेत्र में नौका बिहार का भी अपना एक अलग मजा है। नौका विहार का आनंद पर्यटकों को रोमांचित कर देता है। नलकारी डैम के किनारे बसे गांवों के लोग छोटी-छोटी नावों से पर्यटकों को नौका विहार करवाते हैं। नौका विहार करते समय मछलियों के झुण्ड आसानी से देखे जा सकते हैं। ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों, वादियों से घिरा प्रकृति का दृश्य पर्यटकों के मन में एक अलग एहसास जगाता है।<br />शूटिंग लोकेशन <br />पतरातू की प्राकृतिक सुन्दरता फिल्मकारों को लुभाने लगी है। आए दिन यहां नागपुरी और खोरठा वीडियो एल्बम की शूटिंग होती रहती है। फिल्म जगत से जुड़े कई बड़े नाम जिसमें निर्माता और निर्देशक भी शामिल हैं, इस घाटी के दीवाने हैं। हाल के दिनों में कई फिल्मों की शूटिंग यहां की गयी है।<br /></p><p style="text-align: right;"> <br /> <span style="color: red;">-हिमकर श्याम</span></p><p style="text-align: right;"><span style="color: red;">साभार दैनिक जागरण </span></p>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-62327692922225044472022-07-16T05:02:00.005-07:002022-07-16T05:03:43.662-07:00 हुडरू फाल हिरणी के छलांग की तरह दिखता है<p> रांची के अनगड़ा प्रखंड में हुंडरू जलप्रपात है। यह झारखंड का सबसे प्रसिद्ध और दूसरा बड़ा जलप्रपात है। स्वर्णरेखा नदी पर बने इस प्रपात की जलधारा 320 फीट की ऊंचाई से गिरती है। वर्षा में इसके सौंदर्य में चार चांद लग जाता है। तब, इसकी धार खूब मोटी हो जाती है और दूधिया सफेद। गिरते जल की आवाज दूर से ही सुनाई देती है, जैसे किसी का गर्जन हो। इस प्रपात का निर्माण रांची स्कार्प के निर्माण के समय हुआ था, ऐसा भूवैज्ञानिकों का कहना है। इसे भ्रंश रेखा पर निर्मित प्रपात भी कहा जाता है। यहां पर एक टूरिस्ट कांप्लेक्स भी है। कंाप्लेक्स के छत पर हुंडरू के सौंदर्य को निहार सकते हैं। इसी जलप्रपात से सिकिदिरी में पनबिजली का उत्पादन होता है। यहां आवागमन के साधन सरल व सुलभ हैं। हुंडरू फॉल आने के लिए मोटरसाइकिल, कार, ट्रेकर व बसों से आ सकते हैं। यह रांची-पुरुलिया सड़क मार्ग पर अनगड़ा के समीप है।</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibnwp3lbiUciNReQXE9M6g372yFGlK9bX_lgC1c8IxbIL8imIpnJTMGkByq4mMbDnN7c8Z_q9ZNBxBmxBCYNmXXKhwArCb16bTLnIVDU6WWcXGyIOi0nALX2njcbT7EZkNNsKeTSMzHkp4SkKeLODB-HudAnmrHuwJ2slsFVcPOrcRc4gfty7scoJLMg/s1024/hundru%20file.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="576" data-original-width="1024" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibnwp3lbiUciNReQXE9M6g372yFGlK9bX_lgC1c8IxbIL8imIpnJTMGkByq4mMbDnN7c8Z_q9ZNBxBmxBCYNmXXKhwArCb16bTLnIVDU6WWcXGyIOi0nALX2njcbT7EZkNNsKeTSMzHkp4SkKeLODB-HudAnmrHuwJ2slsFVcPOrcRc4gfty7scoJLMg/s320/hundru%20file.jpg" width="320" /></a></div><p></p><p><br />सिकिदिरी के रास्ते भी पहुंच सकते हैं<br />हाइवे पर स्थित रांची के ओरमांझी ब्लाक चौक से पूर्व दिशा की ओर जाने वाली पक्की सड़क से सिकिदिरी के रास्ते भी हुंडरू प्रपात तक पहुंचा जा सकता है। सुंदर नयनाभिराम पहाडिय़ों के आंचल में लगभग आठ किलोमीटर और आगे सर्पिले मार्ग से जाया जाता है। पर्यटक जलप्रपात उद्गम तथा नीचे की तलहटी, दोनों तरफ से प्रपात की गिरती स्वच्छ-धवल जलराशि देखने का आनंद उठाते हैं। नीचे एक पुल भी बना है। आसपास मजबूत चट्टाने हैं, जहां आराम से इसे निहार सकते हैं। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-4Q64sG54qUl_5DCWWTSIrmZNnqNA0iNcbjaCMKBHWHC83cMfOrLVuoWY_sAL9pjrggx3QqKyg4dFqLew5xwdwgmz6JnKIeatkMgrCc9ZS_DtAAdjqA_bFcQlcRx08mUeFiJQWT4VX9n9FxahkAhtloZMROGVQE6ODFyEwhWqYhIFNI63GiC1m3SeFw/s1280/hundru1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="850" data-original-width="1280" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-4Q64sG54qUl_5DCWWTSIrmZNnqNA0iNcbjaCMKBHWHC83cMfOrLVuoWY_sAL9pjrggx3QqKyg4dFqLew5xwdwgmz6JnKIeatkMgrCc9ZS_DtAAdjqA_bFcQlcRx08mUeFiJQWT4VX9n9FxahkAhtloZMROGVQE6ODFyEwhWqYhIFNI63GiC1m3SeFw/s320/hundru1.jpg" width="320" /></a></div><p></p><p>तलहटी तक जाने के लिए बनी हैं सीढि़यां<br />पर्यटकों को सुविधा के लिए हुंडरू जलप्रपात की तलहटी तक पहुंचने के लिए 740 सीढिय़ां बनाई गई हैं। जिसके सहारे पर्यटक आसानी से हुंडरू फॉल का विहंगम दृश्य का आनंद ले सकते हैं। 740 सीढिय़ां उतरना और चढऩा भी आसान नहीं। पर, नीचे पहुंचने पर सारी थकान दूर हो जाती है। <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCZga22IVJWaCIvSXak5-bWqC6uOGsq0otVjtcMgsBF7TA7_j0B1SNlKvtE2SHE-cGKH8sCAKNRUNyZOSkAqQLjVVPZpupTx7xw5cYPUOXEK5iKCrYeLnmF2maJT7GCZHRqhJfxH44vCeni7GVv4qlyAuuv5DJU9k6chVH5YoVuWv-UUl2H-zHy9CiGg/s1280/hund.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="720" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCZga22IVJWaCIvSXak5-bWqC6uOGsq0otVjtcMgsBF7TA7_j0B1SNlKvtE2SHE-cGKH8sCAKNRUNyZOSkAqQLjVVPZpupTx7xw5cYPUOXEK5iKCrYeLnmF2maJT7GCZHRqhJfxH44vCeni7GVv4qlyAuuv5DJU9k6chVH5YoVuWv-UUl2H-zHy9CiGg/s320/hund.jpg" width="180" /></a></p><p>पारंपरिक सामान की बिक्री<br />यहां पर्यटकों के लिए खाने-पीने के िलए होटल तो हैं ही। इनके अलावा आप यहां जाते हैं तो ग्रामीण यहां पारंपरिक सामान भी बेचते हैं। बांस से बने एक से बढ़कर एक सामान यहां देख सकते हैं। इसके अलावा टेराकोटा का भी सामान मिलता है। ये यहां के ग्रामीण आदिवासी बेचते हैं। हां, एक बात का ध्यान जरूर रखें। पर्यटका जहां तहां प्लािस्टक का कचरा फेंक देते हैं। चारों तरफ गंदगी फैली रहती है। इससे नदी भी प्रदूिषत होती है और पर्यावरण भी प्रदूषित होता है। हमें इससे बचना चािहए और अपने पर्यटन स्थलों को भी साफ-सुथरा रखना चाहिए। आज यहां के ग्रामीणों से सामान भी खरीदें।<br /> </p>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-14952231496304050382022-07-16T04:53:00.006-07:002022-07-16T04:53:36.586-07:00बैलगाड़ी से निकली थी पहली शोभायात्रा<div class="moz-text-html" lang="x-unicode"><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-i4aKCy55A7u9B1mPTrpkX1eeQmXbstGD4W659rIKeeYVe9_gosiY6XmytN3ZyO-HSKl4MTorxOmmRJkgCYJZmvnOwj18c7UDYGmXJKO5JAslART7zYGnI2rel7lF76qkkme56vn_78BFUu-7bdAnhKg2cbCMcfh6rg2-hUXCalXE1Z3ls1zIiDXTEA/s2592/DSCN0980.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1944" data-original-width="2592" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-i4aKCy55A7u9B1mPTrpkX1eeQmXbstGD4W659rIKeeYVe9_gosiY6XmytN3ZyO-HSKl4MTorxOmmRJkgCYJZmvnOwj18c7UDYGmXJKO5JAslART7zYGnI2rel7lF76qkkme56vn_78BFUu-7bdAnhKg2cbCMcfh6rg2-hUXCalXE1Z3ls1zIiDXTEA/s320/DSCN0980.JPG" width="320" /></a></div>
रांची में सरहुल की पहली शोभायात्रा में बैलगाड़ी भी शामिल थी। 1961
में पहली बार सरहुल पर शोभायात्रा निकाली गई थी। करीब सौ लोग पहली
बार इस शोभायात्रा में शामिल हुए थे। करम टोली से निकलकर सिरमटोली तक
यह शोभायात्रा निकली थी। लोग मांदर-ढोल बजाते-नाचते गए थे। इसके बाद
करम टोली का मौजा हातमा पड़ता है, इसलिए 1964 में हातमा से निकलने
लगी। <br />
<br />
<b>सरना स्थल बचाने की कोशिश</b><br />
करम टोली से शोभायात्रा निकालने के पीछे एक रोचक इतिहास है। इसके
पहले लोग सरहुल गांव-मौजा में ही मनाते आ रहे थे। सिरमटोली में सरना
स्थल है। 1961 में सिरम टोली सरना स्थल की जमीन को गांव के चमरा पाहन
का बेटा मोगो हंस और पुजार मंगल पाहन ने रामगढ़ के एक मोटर गैराज
कारोबारी सरदार के हाथों बेच दिया और सरदारजी ने उस जमीन की
रजिस्ट्री कोलकाता में करा लिया। इसके बाद उन्होंने सरना स्थल पर
घेराबंदी करने का प्रयास किया ताकि वहां एक बड़े गैराज का निर्माण हो
सके। इसके लिए सरना स्थल पर निर्माण सामग्री गिरा कर घेराबंदी करने
लगे। उसी दौरान सिरम टोली गांव के सीबा बाड़ा, जो वन विभाग के
कर्मचारी थे, ड्यूटी जाने के लिए घर से बाहर निकले और उन्होंने
सरदारजी को अपना सामान गिराकर घेराबंदी करते देखा तो वे तुरंत घर
वापस लौट आए और गांववासियों को सूचना दी तब ग्रामीणों ने एकजुट होकर
सरदारजी का विरोध किया। इसके बाद सरदारजी ने सिरम टोली के सिवा
बाड़ा, बिजला तिर्की और बोलो कुजूर समेत कई अन्य के खिलाफ चुटिया
थाने में प्राथमिकी दर्ज कर दी। चुटिया थाने ने कार्रवाई करते हुए
तीनों को जेल भेज दिया। इससे गांव वाले आक्रोशित हो गए। सरदारजी ने
गांव वालों के आक्रोश से बचाने के लिए मंगल पाहन को पंजाब भेज दिया।<p></p><p><br />
<b>बैठक में लिया गया निर्णय</b><br />
इधर, सिरम टोली के लोगों ने अपने सरना स्थल जमीन को बचाने के लिए करम
टोली के लोगों से संपर्क किया। तब करम टोली के लोगों ने गांव में
बैठक की और इसमें निर्णय लिया गया कि इस मामले में आदिवासी छात्रावास
के छात्रों को भी शामिल किया जाए उस समय आदिवासी छात्रावास में
करमचंद भगत रहते थे। वे रांची कालेज के छात्र थे और उसी वर्ष 1961 के
लिए रांची कालेज के छात्रसंघ के उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए थे। उसी साल
उनका विवाह करमटोली निवासी जनसंपर्क अधिकारी रामनारायण खलखो की
पुत्री के साथ हुआ था। करम टोली के लोगों के आमंत्रण पर करमचंद भगत
आदिवासी छात्रावास के छात्रों के साथ बैठक में शामिल हुए और इसमें
निर्णय लिया गया कि करम टोली से एक जुलूस के साथ सिरमटोली जाकर वहां
शांतिपूर्वक प्रदर्शन किया जाएगा। इसके लिए सरहुल पूजा का दिन
निर्धारित किया गया। सरना समाज के जागा उरांव, महादेव उरांव, सुशील
टोप्पो, फागू उरांव ने मिलजुल कर प्रभावशाली लोगों से समर्थन की
अपील की गई इसकी जिम्मेदारी छात्र नेता करमचंद भगत को दी गई।
उन्होंने छात्रों को संगठित किया एवं जुलूस को प्रभावी बनाने के लिए
छात्रों एवं समाज के प्रबुद्ध जनों को एकजुट करने का प्रयास किया।
इसी बीच देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बुलावे पर
कार्तिक उरांव लंदन से वापस लौटे थे और उनकी नियुक्ति एचईसी में
डिप्टी चीफ इंजीनियर के पद पर हुई थी। करमचंद के नेतृत्व में छात्रों
ने कार्तिक उरांव को भी जुलूस में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया।</p><p><br />
<b>इस तरह निकली पहली शोभायात्रा</b><br />
इस प्रकार करमचंद भगत के नेतृत्व में करमटोली के शशि भूषण मानकी के
आवास के पास स्थित सखुआ के पेड़ के पास लोग एकत्रित हुए। यहां सरहुल
पूजा संपन्न करने के बाद कार्तिक उरांव को बैलगाड़ी पर बैठाया गया और
यहां से जुलूस निकली। करमचंद भगत के नेतृत्व में आदिवासी छात्रावास
के छात्रों की टोली मांदर की ताल पर नाचते गाते हुए करमटोली के
प्रबुद्ध लोगों के करीब 100 लोगों के साथ करम टोली से सिरम टोली के
सरना स्थल तक पहुंची। पहले तीन सालों तक यह शोभायात्रा करम टोली के
रहने वाले सहायक उत्पाद आयुक्त शशि भूषण मानकी के आवास के पास स्थित
साल वृक्ष से लेकर सिरम टोली सरना स्थल तक निकाली गई थी। सामाजिक
परंपरा के अनुसार सरहुल की पूजा गांव के सरना स्थल में की जाती है और
करम टोली गांव का मुख्य सरना स्थल रांची कालेज के पीछे हातमा में
स्थित है। इसलिए सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि सरहुल की पूजा का
आयोजन हातमा सरना स्थल में ही किया जाना चाहिए। इस प्रकार वर्ष 1964
से इस पूजा का आयोजन हातमा सरना स्थल में किया जाने लगा और वहीं से
शोभा यात्रा निकाली जाने लगी। </p><br /><p><br />
<b>1967 में लिया विशाल रूप</b><br />
1967 में सरहुल की शोभायात्रा ने विशाल रूप ले लिया। वर्ष 1967 में
करमचंद भगत बेड़ो से चुनाव लड़कर विधानसभा पहुुंच गए और कार्तिक
उरांव भी उसी वर्ष लोहरदगा से लोकसभा में पहुंच गए। अब जब सरहुल का
पर्व आया तो बड़े जोर-शोर से तैयारी होने लगी। शोभायात्रा को लेकर
आसपास के गांवों-जिलों में भी इसकी चर्चा होने लगी और लोग इसमें
शामिल होने के लिए आने लगे। इन दोनों नेताओं के कारण तब जिला प्रशासन
ने शोभायात्रा के लिए पांच जीप मुहैया कराई गई। मांदर-ढोल की संख्या
भी बढऩे लगी। पारंपरिक वेशभूषा में लोग शामिल होने लगे और आज लाखों
की संख्या में लोग इस शोभायात्रा में शामिल होते हैं। <br /></p><p style="text-align: right;"><b>डा. रविन्द्र नाथ भगत</b><br />
प्रोफेसर प्रबंधन विभाग<br />
बीआईटी मेसरा<br />
एवं पूर्व कुलपति विनोबा भावे विश्वविद्यालय हजारीबाग
</p>
</div>
gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-11946880752829631432022-06-29T10:37:00.000-07:002022-06-29T10:37:05.335-07:00 संताल विद्रोह 1855-56 और वह भयानक दौर<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtDqnSktR3709GyOIMIwAJ767h7jj1OpQnIizX5W251it2RktYhifUmJMzy8LXUR2vH5Q-d220XLarb87hH-Lx-H_NzTfNTKAo4CifekQDpwuJLedatgqKaMqbpyz6SdvARlDnqFNCEKwuGVeNIi9vHgqqbXMJNZPhWfmiu-DIRER8RW8hWW7v8tLkiw/s4928/25sbg80.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="3264" data-original-width="4928" height="212" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtDqnSktR3709GyOIMIwAJ767h7jj1OpQnIizX5W251it2RktYhifUmJMzy8LXUR2vH5Q-d220XLarb87hH-Lx-H_NzTfNTKAo4CifekQDpwuJLedatgqKaMqbpyz6SdvARlDnqFNCEKwuGVeNIi9vHgqqbXMJNZPhWfmiu-DIRER8RW8hWW7v8tLkiw/s320/25sbg80.jpg" width="320" /></a></div>-आर ई बार्टन जोन्स, बीरभूम <p></p><p><br />हमारा
परिवार उन दिनों बीरभूम में रहता था। परिवार में पिता, मां, दो महिलाएं और
मैं और मेरी बहन के अलावा पांच बच्चे थे। इस बात को मैं यहीं छोड़कर मूल
बात पर आती हूं। वहां के शांत, स्निग्ध वातावरण के अलावा मनभावन संताल
लोकगीत जैसे अचानक भयावह भीड़ में तब्दील हो गए। भीड़ की जद में जो भी आया
लूटपाट, हिंसा, कत्ल और तबाही का शिकार हो गया। जमींदार, स्थानीय
निवासी-चाहे वे हिंदू हों कि मुस्लिम या यूरोपियन, सभी का बेरहमी से कत्ल
किया जा रहा था, उनकी धन-संपति बर्बाद की जा रही थी।<br /><br />शांत-सुरक्षित
हमारा जीवन किसी भी खतरे से बेपरवाह था, क्योंकि हमारे माता-पिता को वहां
का हर वर्ग बहुत सम्मान देता था। आधिकारिक सूत्र हमें आगाह कर रहे थे लेकिन
हमारे मन में किसी के प्रति अविश्वास करने का कोई कारण न दिखता था। यही
हमारा भ्रम था। कुछ अन्य शुभचिंतकों ने भी हमें सचेत किया था लेकिन
ईमानदार, निश्छल और विनम्र स्थानीय निवासियों से हमें कोई खतरा महसूस नहीं
हो रहा था। हमारे परिवार सहित कुछ अन्य मूर्खता की हद तक उन पर भरोसा कर
रहे थे। हम उन ईमानदार किंतु कुछ-कुछ वहशी लोगोें के बीच अपनी जिंदगी में
एकदम आश्वस्त थे।<br /><br />काश! यह सिलसिला लंबा न चलता<br /><br /> एक शाम एक
अत्यंत विश्वसनीय पड़ोसी बदहवास सा भागता हुआ हमारे घर में घुसा। उसके चेहरे
से हताशा साफ-साफ झलक रही थी। उसको देखते ही हम भयाक्रांत हो गए। वह
चिल्लाते हुए बोला, ‘भागो। ईश्वर के लिए भाग जाओ। बिना कोई वक्त गंवाए,
तुरंत निकल लो। वे लोग नदी के उस पर जमा हो गए हैं। वे किसी भी क्षण नदी
पार कर सकते हैं। उनके शिकार या तो गंभीर जख्मी हालत में या मृतावस्था में
लाए जा रहे हैं। वे किसी को नहीं बख्श रहे। भागो, कम से कम बच्चों के लिए
भाग जाओ। जो दृश्य मैं देखकर आ रहा हूं, तुमलोगों ने देखा होता तो निश्चय
ही भागने में एक क्षण भी विलंब न करते। मेरा घोड़ा तैयार है। मैं थक चुका
हूं।’ <br /><br />यह पूछे जाने पर कि तुम कहां जा रहे हो, उसने कहा,‘मैं बता नहीं सकता। इन मित्रों की हत्यारी पहुंच से दूर, बहुत दूर।’<br /><br />इतना कहकर वह भागता भागा।<br /><br />निराशा
में डूबते-उतराते हमने एक क्षण के लिए एक-दूसरे को बेहद चिंतित भाव से
देखा। पिता यह बोलकर, ‘हम ईश्वर को याद करें और उनका मार्गदर्शन मांगेें’
ध्यान में डूब हमारे लिए प्रार्थना करने लगे। कुछ देर बाद वे सचेतन हो धीमे
से बोले, एक अनिश्चित यात्रा के लिए कुछ साथ रख लो। अपने एकमात्र नौकर को
बुलाकर उन्होंने इस अचानक की यात्रा के लिए सवारी पर विमर्श किया। संतान
विहीन वह नौकर अपने पारिवारिक संबंधों से मुक्त हो चुका था। जब वह सवारी का
प्रबंध करने निकला तो हमने अत्यंत आवश्यक कुछ सामग्री और बच्चों के लिए
कुछ खाद्य पदार्थ जमा कर लिये। <br /><br />करीब घंटा भर बाद उदास भाव से वह
आदमी लौटा। उसकी चोटियां बिखरी हुई थीं। उसने बताया कि बड़ी मुश्किल से वह
दो बैलगाड़ियां जुगाड़ पाया है, बाकी तो सपरिवार भाग रहे हैं और कुछ भी सुनने
को तैयार नहीं हैं। हालांकि बहुत विचार करने के बाद हमने सोचा कि जहां
हैं, वहीं रहें लेकिन पिता ने ऐसा करने से बेसाख्ता मना कर दिया। हमने
बर्दवान जाने का मन बनाया तो पिता ने ठीक उलटी दिशा में एक पुराने जमींदार
के यहां आश्रय लेने की बात कही। उन्होंने कहा कि जबतक यह तूफान थम नहीं
जाता, जमींदार हमें छिपाकर सुरक्षित आश्रय देने मंे सक्षम है। वह हमें तेज
सवारियां भी मुहैया करा सकता है ताकि हम जल्द से जल्द जिले से बाहर जा
सकें। पिता ने यह भी कहा कि वे जमींदार के आश्रय से निकलने के बाद की
यात्रा में शामिल हो जाएंगे, तबतक यहीं रहेंगे। तबतक यहां रहकर वे घटनाओं
पर नजर रखेंगे। <br /><br />बहुत हड़बड़ी और जल्दबाजी के बावजूद हम मुंहअंधेरे से
थोड़ा पहले निकल सके। विद्रोही या वहशी जो कहें, नदी के पार खाने-पीने के
उत्सव में निमग्न रहे, इस कारण हमें थोड़ा वक्त मिल गया और हम जमींदार के
आवास तक पहुंच गए। इसके पहले हम करीब घंटा भर मुख्य सड़क पर चलने के बाद साल
और झाड़ियों के जंगल के रास्ते वहां पहुंच सके थे। इस पूरी यात्रा में
हालांकि हम संतालों से तो सुरक्षित थे किंतु हमारा दिल धड़कता रहा। थोड़ी
सुरक्षा और आश्वस्ति के बावजूद जंगली जानवरों की दहाड़ से उत्पन्न यातना और
संताप से अक्सर दिल डूबने लगता था। <br /><br />जैसे रात बीती, वैसे ही दिन
निकलने पर भी हम भय, दुश्चिंता और अवसाद से मुक्त नहीं हो सकते थे। ईश्वर
का लाख-लाख धन्यवाद कि रात ढलने पर हम अपने ठिकाने पर पहुंच ही गए। वहां
प्रतापी जमींदार ने हमारा बहुत ही अपनापन, रहमदिली और गर्मजोशी से स्वागत
किया। उन्होंने अपना पूरा दफ्तर (रिट्रिट) हमारे इस्तेमाल के लिए सौंप
दिया। यह एक बहुत बड़ा कमरा था, जिसके चारों तरफ विशाल बरामदे थे। इसमें
आराम और निजता की सारी सुविधाएं उन्होंने बहाल कर रखी थी। किसी दूसरी जगह
इतनी सुविधा से हम नहीं रह सकते थे।<br /><br />एक सुनहरी सुबह हम अजीबोगरीब
मौन और धुंधली बेचैनी से घिर गए। वह बुजुर्ग हर दिन की तरह सुबह की खबरें
और गुड मार्निंग करने भी नहीं आया। उसको हमने दफ्तरी पहनावे में वहां देखा।
वह चमकदार केले के तने के नीचे आमतौर पर वर्षा के दिनों को छोड़कर
सार्वजनिक स्थान पर खड़ा रहता था। आज भी वैसे ही खड़ा था। उसके कई लोग वहां
जुटे हुए थे। ओह, हमारा दिल यह सोचकर ठंडा हुआ जा रहा था कि उनमें तीर-धनुष
से लैस दो-तीन जन भी थे और वे जमींदार का इंतजार कर रहे थे। <br /><br />हमने
अपने एक चतुर नौकर को वहां कुली के वेश में भेजा ताकि वह उनमें घुल-मिल जाय
और वहां चल रही बातों और गतिविधियों को सुन-समझकर हमें बताए। करीब आधा
घंटा बाद वहां का जमावड़ा खत्म हो गया और हमारा नौकर बहुत बच-बचाकर छिपते
हुए लौटा। उसकी बातें सुनकर मां ने उसे तुरंत बाहर भेजा ताकि वह हमारे लिए
सवारी का जुगाड़ कर सके। मां ने हमें हिदायत दी कि हम अपना सारा सामान अगली
यात्रा के लिए समेट लें। <br /><br />उधर हमारे मेजबान उदास दिवास्वप्न में
डूबे हुए थे, जिनके लिए हमने बुलावा भेज रखा था। वे हिलते कदमों से आए और
दोनों हाथ बांधे बैठ गए। वे बोले, ‘मैं लज्जा और अपमान से मरा जा रहा हूं
लेकिन जबतक मेरा जीवन रहेगा, आप लोगों का कोई नुकसान नहीं होने दूंगा’। <br /><br />मेरी
मां ने पूछा,‘क्या हो गया’? ‘मैंने हथियारबंद कुछ संतालों को देखा और मुझे
आशंका है कि यहां हमारी मौजूदगी ने आपको परेशानी में डाल दिया है।’<br /><br />‘हां,
एक संगठन के लोगों ने हमें मार डालने का हुक्म दिया है लेकिन जो लोग यहां
आए थे, वे हमारे शुभचिंतक हैं। उन्होंने हमें सावधान किया है। वे हमले में
विलंब कराने का प्रयास करेंगे। हमारी सारी सामग्री जनानखाने में डाल दी
जाय। हम हर हाल में प्रतिरोध और आत्मरक्षा का प्रयास करेंगे।’<br /><br />चूंकि
अपने परिवार में मैं अकेली थी, जो अच्छी तरह हिंदुस्तानी बोल-समझ सकती थी,
इसलिए मैं उस बुजुर्ग महानुभाव की चहेती थी। वे हर दिन कुछ घंटे मुझसे
बातचीत में बिताते थे क्योंकि वे जो भी जानकारियां चाहते थे, मैं विशेष
तत्परता से उनको उपलब्ध कराती थी। इतना ही नहीं, अपनी मां की एकदम अलग
हिंदुस्तानी से भी उनको अवगत कराती थी। हमलोगों में बहुत घनिष्टता थी। उनका
संताप निश्चय ही समयोचित था और हम उससे बहुत प्रभावित थे। <br /><br />अगले एक
घंटे में दिन के 10 से 11 बजे के बीच हम अगली दुश्चिंता और भयावह यात्रा
के लिए तैयार थे। ईश्वर ही जानता है कि हम कितने भयाक्रांत थे। सुनने में
यह भी आ रहा था कि सेना आ रही है और वह बीरभूम में ही अपना मुख्यालय
बनाएगी। विद्रोही उस शहर में नहीं घुसे थे लेकिन जिन बाहरी सड़कों पर वे
गुजरे थे, हमें जाना उन्हीं सड़कों से होकर था। वे अपने पीछे या तो गृहविहीन
जख्मी या मारे जा चुके हिंदुओं के अलावा उनके घरों के बिखरे भारी
माल-असबाब छोड़ गए थे। ये वे वजनी सामान थे, जिन्हें वे ढो नहीं सकते थे।
हाल यह था कि जीवित बचे पति अपने बच्चों और पत्नी को तलाश रहे थे तो व्यग्र
पत्नियां इधर-उधर दौड़तीं अपने बच्चों और पति को ढूंढ रही थीं। जरा सोचिए,
हमारी यात्रा कितनी त्रासद और यातनापूर्ण रही होगी क्योंकि रास्ते में हम
चीत्कार ही चीत्कार सुनने को अभिशप्त थे। कोई-कोई औरत दिल को चीर देनेवाला
विलाप करती हुई चीख रही थी, घायलों और मृतकों के बीच उसके स्वजन की तलाश अब
बेमतलब है क्योंकि वे खत्म हो चुके हैं। <br /><br />जिन जगहों से हम रात के
अंतिम पहर में गुजरे, वहां देखा कि मनुष्य की महत्वाकांक्षाओं का विध्वंसक
तूफान किस प्रकार हिलोरें मार चुका था। यह सब देखते-महसूस करते हमारी
यात्रा के दौरान अब दोपहर के दो-तीन बज चुके थे। लेकिन ईश्वर की अनंत कृपा
से हम देर करके निकले। यदि पहले निकले होते तो पागलपन की हद तक वहशी लोगों
के चंगुल में फंस जाते, जो हम कतई चाहते नहीं थे। यदि हम पहले निकले होते
तो रास्ते में जो भयावह दृश्य था, उससे अलग हमारे साथ क्या होता, यह अनुमान
लगाना कठिन नहीं है। <br /><br />इस बीच दरिंदे विद्रोही उस स्थान को तबाह
करने में जुटे रहे, जिसको छोड़कर हम इस यात्रा पर निकल चुके थे। ईश्वर का
लाख-लाख शुक्र है कि हमारे भले मेजबान सपरिवार वहां से सकुशल खिसक चुके
थे। यह अलग बात है कि उनके कुछ स्वजन और नौकर जिद बांधे हुए थे कि वे वहां
से तबतक नहीं हिलेंगे, जबतक वे वास्तविक खतरे से दो-चार नहीं हो लेंगे।
अपनी इस जिद की बड़ी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। उन पर विद्रोही संतालों का
आक्रमण हुआ तो उनके फुर्तीले घोड़ों का ही कमाल है कि उन्हें घायलावस्था
में ले भागे। <br /><br />जहां तक हमारे मेजबान के भाई का सवाल है, उनको इस बात
का श्रेय जाता है कि इतने भीषण खतरे में भी उन्होंने आत्मसंयम नहीं खोया।
उन्होंने खतरे के बीच से भागने के पहले सारा कुछ अपनी आंखों से देखा। उनका
एक विद्रोही दुश्मन उनके बिलकुल करीब आ गया था और आते ही उसने कुल्हाड़ी से
वार किया लेकिन वे घोड़े की जीन पर सवार होने तक उसका सामना करते रहे। उसने
पीछे से उनके पृष्ठभाग के कंधे पर टांगी से वार किया। उस समय वे निहायत
अकेले पड़ गए थे, एकदम सहायताविहीन। ऐन मौके पर उनके घोड़े के पाश्र्वभाग में
एक तीर लगा। इससे पगलाये घोड़े को न तो चाबुक का इंतजार रहा, न ही किसी
टिटकार का। वह सरपट भागा। वह विद्रोहियों की जद से इतनी तेजी से भागा कि
दूर निकल गया। हालांकि इसके बावजूद कुछ तीर दोनों का पीछा करते रहे लेकिन
विद्रोहियों और उनके बीच इतनी दूरी थी कि वे तीर मामूली जख्म के अलावा न तो
अधिक नुकसान नहीं पहुंचा सके, न ही अधिक खून बहा। इस स्थिति में भी यह सच
है कि वे सकुशल जीवित अपने गंतव्य तक पहुंच गये। उनकी बहादुरी ही कहेंगे कि
बहुत कमजोरी की अवस्था में भी वे घुड़सवारी करते रहे। यह बताते हुए मुझे
खुशी हो रही है कि वे बाद में स्वस्थ हो गये और उस रिट्रिट से सभी सकुशल
जीवित भाग निकले। <br /><br />यह सोच-सोचकर हम प्रसन्न होते रहे कि उस रिट्रिट
में हम अधिक समय तक नहीं रूके और खतरे का आभास होते ही समय रहते निकल गए।
इससे उन विद्रोहियों की मंशा धरी रह गई। ईश्वर का लाख-लाख धन्यवाद कि भीषण
खतरे के बावजूद उन्होंने हमें बचा लिया। पिता ने निश्चय किया कि ऐसी जोखिम
भरी परिस्थितियों में सुरक्षित स्थान पर जाने के बजाय वहां जमे रहना
ईश्वरीय कृपा की अवहेलना होगी। उनको ड्यूटी पर बने रहने की कोई ताकीद भी न
थी। इसलिए हम वह स्थान छोड़ सकते थे। इस प्रकार एक-दो दिन में रास्ता खुला
पाकर हम सुरक्षित बर्दवान पहुंच गए और अंततः कलकत्ता। हमारे लिए दुःस्वप्न
जैसी घटना का अंत हो गया। <br /><br />जब यह परेशानी बीरभूम और आसपास के इलाकों
में पेश आई थी, अनेक लोग गृहविहीन हो गए थे और कुछ गरीब किसानों की हत्या
हो रही थी, विध्वंस का इससे बड़ा नमूना कुछ हो नहीं सकता था। उसी समय इससे
भी वीभत्स और दर्दनाक घटनाएं राजमहल और उसके बाहर अंजाम दी जा रही थीं। <br /><br />जिस
समय अनेक स्थान ऐसे हादसों से भयाक्रांत थे, उन दिनों विद्रोह फैलने की
आशंका से दूसरी सुरक्षित जगहों पर इसकी सूचना नहीं दी जा रही थी। यही कारण
है कि कई हफ्तों बाद हमें पता चल सका कि हमारे एक करीबी संबंधी और उनके एक
बच्चे की मृत्यु हो गई, जबकि उनके दो पुत्र बड़े हुए। </p><p>अनुवाद - श्याम किशोर चौबे। </p><p>बंगाल पास्ट एंड प्रजेंट में यह संस्मरण प्रकाशित हुआ था। -आर ई बार्टन जोन्स के पति बीरभूम में अधिकारी थे।<br /></p>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-3681027448478204892022-04-10T03:31:00.002-07:002022-04-10T03:31:34.762-07:00 नौमी तिथि मधु मास पुनीता, सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता<p>संजय कृष्ण, रांची</p><p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhxFmaEmzdwQOdyKHrUMRuq9wxRYLB97aYLnKzknNd-nLWwRBbOkqrcuTWx3d8BrLGLPJbkEynBmJ3XeSF0Qhpw5pvzIr3DGG--lBWpht1rEhfKHylPdegcj-eGEMjTcyY8OFABeQWwmrM5fiUlf1PqiVdMEeZjR1ySwf57nKfeVG_hh2JGjQWzAkRU_Q/s1176/Lord_Rama_with_arrows.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1176" data-original-width="800" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhxFmaEmzdwQOdyKHrUMRuq9wxRYLB97aYLnKzknNd-nLWwRBbOkqrcuTWx3d8BrLGLPJbkEynBmJ3XeSF0Qhpw5pvzIr3DGG--lBWpht1rEhfKHylPdegcj-eGEMjTcyY8OFABeQWwmrM5fiUlf1PqiVdMEeZjR1ySwf57nKfeVG_hh2JGjQWzAkRU_Q/s320/Lord_Rama_with_arrows.jpg" width="218" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">foto विकिपीडिया से साभार<br /></td></tr></tbody></table>आज रामनवमी है। यानी भगवान राम का जन्म दिवस। आज ही के दिन प्रभु श्रीराम प्रकट हुए थे। बाबा तुलसीदास कह गए हैं-नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता...मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा...। न जाने कब से राम हमारे चित्त में बैठे हुए हैं। वाल्मीकि से लेकर संत कवियों तक। सगुण-निर्गुणवादियों ने भी प्रेम के साथ राम को याद किया है। एक मिथ चलता है, बाबा तुलसीदास के कारण उत्तर भारत में रामकथा लोकप्रिय हुई। पर, तुलसीदास से पहले कबीर हुए। कबीर ने कितने मन से याद किया है-कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूंढ़े वन माहि। ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया खोजत नाहिं। सो, राम तो तब भी लोकप्रिय थे। उत्तर से लेकर दक्षिण तक। पूरब से लेकर पश्चिम तक...घट-घट में। गुरुनानक देव ने माना, यदि राम का जप नहीं किया तो जीवन व्यर्थ है। केशव 'रामचंद्रिकाÓ लिखते और निराला 'राम की शक्ति पूजाÓ में तल्लीन नजर आते हैं। कोई राम शब्द पर मोहित है, कोई काया पर, कोई चरित पर। मैथिलीशरण गुप्त तो लिखते ही हैं-राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है। </p><p><br />राम का चरित ही ऐसा था कि वे न केवल उत्तर भारत के प्रिय कवियों के प्रतिपाद्य रहे, वरन दक्षिण और अन्य धर्म में भी वे समादृत किए गए। बौद्ध और जैन में भी रामकथा कुछ भिन्न स्वरूप में मौजूद है। दक्षिण की ओर रुख करें तो तेलुगु की पहली रचना आंध्र महाभारत के अरण्य पर्व में 316 छंदों में राम का चरित वर्णित है। रंगनाथ रामायण की भी चर्चा होती है जो तुलसी से बहुत पहले सन् 1280 में लिखी गई। तेलुगु में अनेक रामायणों की रचना इस बात की साक्षी है राम दक्षिण में भी कितने लोकप्रिय हैं और वह भी तुलसीदास की रचना से पहले। कन्नड़ में जैन और हिंदू दोनों परंपराओं में रामकथा मिलती हैं। पूर्वोत्तर में भी राम की कहानी पढ़ी जा सकती है। असमिया में माधवकंदली रामायण, बांग्ला में कृत्तिवास रामायण, उडिय़ा में बलरामदास रामायण में राम का ही बखान है। मुगल बादशाहों को भी रामकथा प्रिय रही। इसलिए अकबर ने अलबदायूनी से और जहांगीर ने गिरिधरदास से फारसी में वाल्मीकि रामायण का अनुवाद करवाया। शाहजहां के काल में रामायण फैजी और औरंगजेब के समय तर्जुमाई रामायण रचे गए। आदिवासियों के बीच रामकथा गाई जाती रही। बैगा जाति की कथा में सीता कृषि की अधिष्ठात्री हैं। मुंडा लोककथा में भी सीता का अर्थ हल का फल ही होता है। छत्तीसगढ़ी रामायण भी लोकप्रिय है। कहा जाता है कि वनगमन का अधिकांश समय भगवान राम ने इसी क्षेत्र में व्यतीत किया। सो, वहां की सरकार राम वन गमन पथ को पर्यटन की दृष्टि से विकसित कर रही है। झारखंड के सिमडेगा में रामरेखा धाम और चुटिया का प्राचीन राम मंदिर, मुंडारी, संताली, बिरहोरी में रामकथाएं राम की चहुंओर व्याप्ति की ओर ही संकेत करती हैं। फिर भी राम, किसी के लिए कल्पना, किसी के लिए मिथ, किसी के लिए अनैतिहासिक हों तो क्या किया जा सकता है। राम कितने मनभावन हैं कि जब कोई एक दूसरे से मिलता है तो अनायास फूंट पड़ता है-राम-राम। <br /></p><br />gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-35230854328879537612022-02-27T03:59:00.004-08:002022-02-27T03:59:28.728-08:00बिहार की पहली जेल जाने वाली महिला सरस्वती देवी<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEiSjAHsD_cp2RumexazKFAREra6exQW_QWgISojV2iLHqnRp6W0Q88H4rGBMYYzwkvyJK8v-AbD0h7AzQK0UmGsX3ievTXl8l5DL0xGqBdpBUDhCG6PAVqLMATFGQN2GYOZv7UZz9n7EAWLc8dCQWQXVh_zyKImnn32RQ3zkPhFXKcte2i3ngEXlYWyiw=s1600" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEiSjAHsD_cp2RumexazKFAREra6exQW_QWgISojV2iLHqnRp6W0Q88H4rGBMYYzwkvyJK8v-AbD0h7AzQK0UmGsX3ievTXl8l5DL0xGqBdpBUDhCG6PAVqLMATFGQN2GYOZv7UZz9n7EAWLc8dCQWQXVh_zyKImnn32RQ3zkPhFXKcte2i3ngEXlYWyiw=s320" width="240" /></a></div><p>संजय कृष्ण</p><p></p><p></p><p>देश की आजादी में हजारीबाग का महत्वपूर्ण योगदान रहा। हजारीबाग को इसलिए याद किया जाता है, यहां के सेंट्रल जेल में देश भर के बड़े-बड़े नेताओं को गिफ्तार कर यहां कैद कर दिया जाता। जयप्रकाश नारायण अपने साथियों के साथ इसी जेल से फरार हुए थे। पर बहुत कम लोग जानते हैं कि यहां की सरस्वती देवी ने 1921 में पर्दा प्रथा के खिलाफ आंदोलन शुरू किया था। यही नहीं, स्वतंत्रता के लिए बिहार की पहली जेल जाने वाली महिला सरस्वती देवी ही थीं।</p><p><span style="font-size: medium;">स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी</span></p><p>सरस्वती देवी का जन्म हजारीबाग जिले के बिहारी दुर्गा मंडप के पास पांच फरवरी 1901 को हुआ था। इनके पिता राय विष्णु दयाल लाल सिन्हा संत कोलम्बा महाविद्यालय, हजारीबाग में उर्दू, फारसी एवं अरबी भाषा के अध्यापक थे। सरस्वती देवी का विवाह मात्र तेरह साल की उम्र में हजारीबाग के दारू गांव के केदारनाथ सहाय के साथ हुआ। विवाह के बाद सरस्वती देवी अपने ससुराल आ गईं। केदारनाथ सहाय वकील थे। इसके साथ वे डा. राजेंद्र प्रसाद के बिहार स्टूडेंट वेलफेयर सोसाइटी से भी जुड़े थे। इस कारण वेलफेयर सोसाइटी के कई कार्यकर्ता उनके यहां आया-जाया करते थे। सरस्वती देवी का इन लोगों से बराबर बातचीत होती रहती थी। सोसाइटी के लोगों से देश की आजादी पर भी चर्चा करती रहती थी। सरस्वती देवी ने स्वाधीनता आंदोलन में प्रवेश करने की इच्छा जताई थी और वह 1916 -17 में ही स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ गई थी। 1921 में गांधीजी के आह्वान पर सरस्वती देवी ने असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया था। उन्हें गिरफ्तार कर हजारीबाग सेंट्रल जेल भेज दिया गया। जेल से बाहर आने के बाद सरस्वती देवी हजारीबाग के कृष्ण बल्लभ सहाय, बजरंग सहाय, त्रिवेणी सिंह आदि स्वाधीनता सेनानियों के साथ मिलकर कदम से कदम मिलाकर चलीं। महात्मा गांधी को 1925 में हजारीबाग लाने का श्रेय भी सरस्वती देवी को जी जाता हे। गांधीजी रांची स्थित दरभंगा हाउस में ठहरे थे। हजारीबाग से सरस्वती देवी जी के साथ बाबू राम नारायण सिंह और त्रिवेणी प्रसाद रांची आए। सूरत बाबू ने अपना वाहन उपलब्ध कराया था। गांधीजी को लेकर सरस्वती देवी अपने निवास स्थान आईं। उस वक्त उनका बड़ा बेटा टाइफाइड से ग्रस्त था। सरस्वती देवी ने महात्मा गांधी से कहा कि आप इसके सिर पर हाथ रख दीजिए वह ठीक हो जाएगा। इस पर गांधीजी ने कहा कि मैं कोई बाबा थोड़े हंू, पर सरस्वती देवी के आग्रह पर गांधजी ने ने उनके पुत्र के सिर पर हाथ रखा और वह ठीक हो गया। इसके उपरान्त महात्मा गांधी रात्रि विश्राम सूरत बाबू के निवास स्थान पर किया। मटवारी मैदान में आम सभा आयोजित की गई, जिसमें महात्मा गांधी ने लोगों को संबोधित किया और चरखा-आजादी का मतलब समझाया।</p><p><br /></p><p><span style="font-size: medium;">गिरफ्तारी और जेल की यात्रा</span></p><p>सरस्वती देवी देश की आजादी में पूरे प्राण प्रण से लगी थीं। उनका अहिंसक आंदोलन गति पकड़ रहा था। लोग जुड़ रहे थे। अंग्रेजी सत्ता को यह बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्हें 1929 में गिरफ्तार कर भागलपुर सेंट्रल जेल भेज दिया गया। उस समय उनके साथ उनके छोटे पुत्र द्वारिका नाथ सहाय जो एक वर्ष के थे, इसलिए देवी जी अपने साथ उन्हें भी जेल ले गई थी। उस जेल से उन दोनों की रिहाई 1931 ई में हुई थी। जेल से बाहर आने के बाद फिर वह खादी-चरखा के प्रचार में जुट गईं। आठ मार्च चैनपुर के डुमरी में सभा हुई, जिसमें बजरंग सहाय, केबी सहाय और सरस्वती देवी ने संबोधित किया। यहां करीब छह सौ संताली सभा में मौजूद थे। गांव-गांव कांगेे्रस कमेटी के गठन पर बल दिया गया। नौ मार्च 1931 को लगभग 300 लोगों की भीड़ में सरस्वती देवी ने भाषण दिया। उस सभा में छोटानागपुर के बाबू राम नारायण सिंह और बजंरग सहाय भी उपस्थित थे।</p><p><br /></p><p><span style="font-size: medium;">भारत छोड़ो आंदोलन</span></p><p>1940 में रामगढ़ कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन से लौटने के क्रम में राजेन्द्र प्रसाद बीमार पड़ गए थे और दो दिनों तक देवी जी के निवास स्थान पर रहे थे। दो साल बाद जब 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब सभी राष्ट्रीय नेता गिरफ्तार कर लिए गए थे और हजारीबाग में रहने के कारण इनकी गिरफ्तारी नहीं की जा सकी थी तब वे संत कोलम्बा महाविद्यालय, हजारीबाग में जा कर छात्रों के बीच यह कहकर कि सारे राष्ट्रीय नेता जेल में हैं और आप क्लास कर रहें हैं, उन्होने उनके सामने चूडिय़ा फेंक दी। फलस्वरूप सभी छात्र उनके पीछे आ गए और दिनभर शहर में घूम-घूम कर नारेबाजी एवं हंगामा करते रहे। शाम में उन्हें गिरफ्तार कर भागलपुर जेल भेज दिया गया। जब वे जेल जा रही थी उसी क्रम में भागलपुर के छात्रों द्वारा विरोध किया गया जिसके कारण ब्रिटिश प्रशासन ने मुक्त कर दिया और तुरंत उन्होंने भागलपुर के मैदान में जोशीला भाषण दिया। यहां से फिर वह गिरफ्तार हो गईं। बड़े पुत्र राम शरण सहाय को भी इस स्वतंत्रता आंदोलन में झोंक दिया था। राम शरण को भी हजारीबाग से 1942 में गिरफ्तार कर हजारीबाग सेंट्रल जेल में और फिर 1943 में कैंप जेल बांकीपुर, पटना भेज दिया गया। सरस्वती देवी व उनके पुत्र 1944 में जेल से रिहा हुए। हजारीबाग में कांग्रेस का कार्यालय इनके निवास स्थान में ही चलता था। खान अब्दुल गफ्फार खान हजारीबाग केंद्रीय कारा से 1940-41 में रिहा कर दिए गए थे। उनकी रिहाई के बाद उन्हे प्रशासन की तरफ से थर्ड क्लास का टिकट मुहैया कराया गया। उन्होनें उस टिकट को फाड़ दिया एवं हजारीबाग में कांग्रेस कार्यालय, जो सरस्वती देवी के निवास स्थान में ही था, खान यहीं चार दिन रूके रहे। उस समय के तात्कालीन प्रदेश अध्यक्ष बाबू अनुग्रह नारायण सिंह को इसकी खबर दी गई। इसके बाद बाबू अनुग्रह नारायण सिंह ने उन्हें गाड़ी भेज कर पटना बुलाया और फिर उन्हें वहां से दिल्ली होते हुए उनके निवास स्थान भेज दिया।</p><p><br /></p><p><span style="font-size: medium;">घूम-घूमकर बांटी मिठाइयां</span></p><p>15 अगस्त 1947 में जब देश आजाद हुआ तो सरस्वती देवी ने पूरे हजारीबाग में घूम-घूम कर मिठाइयां बांटी। आजादी के बाद मोहम्मद अली जिन्ना की अगुवाई में देश के बंटवारा हो जाने के उपरांत पाकिस्तान स्थित पूर्वी बंगाल के नोआखाली में हिंदू मुस्लिम का बड़ दंगा छिड़ गया जिसमें हिंदुओं का व्यापक रूप से कत्लेआम हुआ था। इसकी खबर मिलते ही वे नोआखाली में दंगा शांत कराने चल पड़ीं। वहां जाने के क्रम में कलकत्ता में उनकी मुलाकात गांधीजी से हुई। गांधीजी ने उन्हें यह कहकर कि सरस्वती, तुम मेरी बेटी हो, मैं तुम्हे वहां जाने की इजाजत नहीं दूंगा। मैं भी वहां रहा हूं तो मेरे पर भी हमला हो सकता है। इसके बाद कलकता में रूक कर तारकेश्वर धाम शिव मंदिर में शांति के लिए 21 दिन का उपवास रखा।</p><p><br /></p><p>विधानसभा में प्रतिनिधित्व</p><p>1937 में जब बिहार विधानसभा ने महिलाओं के लिए चार सीटें आरक्षित की थी। तब उन्होंने इसका प्रतिनिधित्व किया था। आजादी के बाद 1947-52 तक भागलपुर से एमएलए रहीं। 1952-58 में वे भागलपुर से एमएलसी चुनी गईं। स्वास्थ्य कारणों के चलते 1952 में राजनीति से संन्यास ले लिया था। इसके बाद कुछ दिनों तक तीर्थाटन किया। मथुरा, वृंदावन और अयोध्या की यात्रा की। अयोध्या में रामजन्म भूमि मुक्ति आंदोलन में भी उस समय भाग लिया। 10 दिसंबर 1958 को मात्र 57 वर्ष की उम्र में इस दुनिया से विदा हो गई। उनका अंतिम संस्कार बनारस में किया गया।</p><i>साभार दैनिक जागरण 26 feb 2022</i><br />gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-20492679250529677002022-02-21T03:47:00.000-08:002022-02-21T03:47:07.795-08:00 एक थीं शरनन बहन<p><i><b> कुछ खोजते हुए यह जानकारी मिली तो खुद को साझा करने से रोक नहीं पाए। यह मेरे लिए भी एकदम नई जानकारी थी। आजादी के आंदोलन में न जाने कितनी महिलाओं ने अपना योगदान दिया, लेकिन बहुत कुछ अज्ञात ही रह सकीं। कुछ संवदेनशील लोगों ने किताबें लिखीं, उनका नाम दर्ज किया, लेकिन बाद में वे भुला दी गईं। आजादी के इस अमृत महोत्सव में हमें फिर से याद करना चाहिए। उनके योगदानों को भूलना कृतघ्नता ही होगी।</b></i></p><p><i><b> </b></i></p><p style="text-align: left;"><b><i> </i><span style="font-size: large;">एक थीं शरनन बहन</span></b><br /></p><p>इनका जन्म सन् 1897 ई में भभुआ (शाहाबाद, बिहार) में हुआ था। इनका विवाह सन् 1912 ई में जमानियां (गाजीपुर, उत्तर प्रदेश) में हुआ। सन् 1615 ई में ससुराल गईं और सन् 1622 ई. तक वहीं रहीं। विधवा होने पर अपने मायके में चली गईं। सत्रह-अठारह साल तक वहां पर्दे में रहीं। इनके पति बड़े खादीप्रेमी थे। उनके आग्रह से इनके मन में खद्दर और चरखा बस गया था। बयालीस वर्ष की उम्र (सन् 1936 ई) में इनके परिवार के लोग तीर्थयात्रा पर निकले। ये भी उनलोगों के साथ गईं। अयोध्या में इनकी खादी और चरखा के प्रचार में ही जीवन बिताने की अन्त:प्रेरणा हुई और ऐसी लगन लगी कि चुपचाप वे ं दरभंगा के लिए चल पड़ीं। वहां से टमटन (एक्का) पर श्रीलक्ष्मीनारायणजी के पास 'सिमरीÓ गईं। वहां खादी चरखा का महिला शिक्षण शिविर चल रहा था। उसमें ये शामिल हो गईं। सन् 1940 ई में जयप्रकाशजी की धर्मपत्नी श्रीमती प्रभावती देवी चरखा और खादी के माध्यम से बिहार की महिलाओं में नवजीवन संचार का काम करने लगीं। उन्हीं के संपर्क में आने से इनकी बहुत दिनों की अभिलाषा पूरी हुई। सन् 1949 ई0 से ये महिला चरखा समिति (पटना) के सहारे बड़े मनोयोग से खादी चरखा का प्रचार प्रसार करने में तत्पर हो गईं। महात्मा गांधी के इस रचनात्मक कार्यक्रम में इनकी श्रद्धा ऐसी जमी कि इस क्षेत्र में इनकी सच्ची सेवा का आादर बढऩे लगा।<br /><br />सन् 1936 ई में अपने परिवार से अलग होने पर ये तीन साल तक अज्ञातवास में रहीं। जब श्रीमती प्रभावती देवी के तत्वावधान में इनकी खादी-सेवा का काम स्थिर हो गया, तब इन्होंने अपने परिवार को सूचना दी और सन् 1942 ई में बिछड़े कुटुम्बी से फिर मिलीं। अब ये अपने घर में हो रहकर चरखा खद्दर की धुन में लगी हुई हैं। इनके आसपास के गांवों में सात सौ चरखे इन्हीं की देखरेख में चल रहे हैं। इसके सिवा 'महिला शिल्प-संघ और 'चरखा उद्योग संघÓ का संचालन भी इन्हीं के हाथ में है। जिस समय इनके पति ने खादी की दो साडिय़ां इन्हें दी थी, उस समय इन्होंने संदूक में बंद करके रख छोड़ा था, क्योंकि उस समय इनको बारीक रंगीन कपड़े ही पसंद थे, किन्तु पति के श्राद्ध के दिन इन्होंने सादा कपड़ा को पहनने के बदले उसी पति-प्रदत्त साड़ी को पहनने का हठ किया। आखिर साड़ी का छपा किनारा फाड़कर उसी को पहना। इस तरह इनके पति ने इनके हृदय में खादी प्रेम की जो आग सुलगायी थी, वह उनसे मरने पर वियोग की ज्वाला बनकर धधक उठी। उसी में तपकर इनका जीवन कंचन निखर दीतिमन्त हो उठा। अब नारी-समाज की सेवा ही इनकी तपस्या है।</p><p><br /></p><p style="text-align: left;"><b><i>------------</i></b><br /></p><p><b><i>जिसमें यह अंश छपा था, उसका प्रकाशन 1962 में हुआ था। उनका निधन कब, कहां हुआ, इसकी जानकारी नहीं है। </i></b><br /></p>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-70408242330933231922022-02-12T09:18:00.011-08:002022-02-12T23:22:08.516-08:00 रसगुल्ले का पेड़ और पत्नी का परामर्श<div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhwB7Zo1dTHjgD4yhX6CJezID9mc2H-wDTyBqGnY13bV2Az1ILOIWl0pO3koVoLv6XdgV99VhRWGAu4G5ByL9Cr1r02cTsx0Dg0jy3ia2AoWdowjbL60lejXlQl9iERiXipHYgbZOtGZN-DBxfTFxLhM6szB5Plh2No0e70GryZdLcr8CILD22qX4j0Zw=s1500" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1500" data-original-width="1144" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhwB7Zo1dTHjgD4yhX6CJezID9mc2H-wDTyBqGnY13bV2Az1ILOIWl0pO3koVoLv6XdgV99VhRWGAu4G5ByL9Cr1r02cTsx0Dg0jy3ia2AoWdowjbL60lejXlQl9iERiXipHYgbZOtGZN-DBxfTFxLhM6szB5Plh2No0e70GryZdLcr8CILD22qX4j0Zw=s320" width="244" /></a></div>राधाकृष्ण<br /><br />कहा है कि मानव शरीर का संचालन उसका मस्तिष्क करता है, मगर मनुष्य के मस्तिष्क का संचालन कौन करता है? मनोविज्ञान के इस रहस्य को कोई नहीं जान पाया, लेकिन मुझे मालूम हो गया है कि पत्नियों के द्वारा ही मानव-मस्तिष्क का संचालन हुआ करता है। कम से कम मंटू बाबू के विषय में तो यह अवश्य ही कहा जा सकता है कि उनके मस्तिष्क का संचालन उनकी पत्नी ही किया करती हैं, वह भी किसी व्यक्तिगत लाभ लोभ से नहीं, बल्कि सार्वजनिक हित के विचार से ही मंटू बाबू के मस्तिष्क को नियंत्रित एवं कल्पना शक्ति से परिपूर्ण रखती हैं।<br /><br />फल है कि मंटू बाबू को देखते ही मेरा खून सूख जाता है। मेरे घर की ओर आते हुए दिखाई देते हैं तो मुझे अपना घर छोड़कर भागने की इच्छा होने लगती है। जी चाहता है कि थोड़ी देर के लिए (अर्थात घंटे दो घंटे के लिए) जंगल में जाकर तपस्या करता रहूं। सो चाहे जो भी हो, मंटू बाबू के आने से मनोविज्ञान का एक तथ्य पूरी तरह उजागर हो जाता है। मनोविज्ञान का कहना है कि मनुष्य जब से जन्म लेता है, उसी समय से उसका मस्तिष्क काम करने लगता है और तब तक काम करता रहता है, जब तक उसकी मृत्यु नहीं हो जाती। मस्तिष्क की उस क्रियाशीलता में व्यधान नहीं पड़ता, कभी कोई अपवाद नहीं होता, मगर मैं जानता हूं कि जैसे ही मंटू बाबू मेरे पास आकर अपना कोई प्रस्ताव रखते हैं कि तत्काल मेरा मस्तिष्क काम करना बंद कर देता है। मैं हक्का-बक्का होकर उनकी ओर बकर-बकर देखने लगता हूं। <br /><br />उस दिन भी ऐसा ही हुआ। मंटू बाबू बड़े उत्साह से मेरे पास आये और सहानुभूति सूचक स्वर में बोले-यह तो अजीब बात हो गयी। सरकार ने शरणार्थियों के लिए लिफाफे पर पांच पैसे का टिकट टैक्स बांध दिया है। मैं पूछता हूं कि लिफाफे का दाम क्या पहले कम था।<br />उस ललकार को सुन कर मैं स्पष्टीकरण देने के लिए चौकन्ना हो गया और प्रश्नसूचक मुद्रा में उनकी ओर देखने लगा।<br />मंटू बाबू को मैं भलीभांति जानता हूं। उनका यह वक्तव्य या तो प्रस्तावना है या भूमिका। <br /><br /><br />समस्या अब पैदा होनेवाली है। आनेवाले वाक्य में ही उनका वास्तविक मंतव्य होगा। सो उन्होंने अपना मंतव्य दिया, लालबाबू अगर आप डाक घर खोल दें तो कितना अच्छा होगा। वहां किफायत में लिफाफा-पोस्ट कार्ड मिलेंगे। मनीआर्डर और रजिस्ट्री भी कम रेट में हो जाया करेगी।<br />मैंने उन्हें बतलाया कि यह मेरे लायक काम नहीं। यह काम तो उन नेताओं का है जो भारत सरकार से कंपीटीशन करते हैं और अपना राज चलाना चाहते हैं। मुझे डेढ़ सौ रुपये माहवार की नौकरी लग गयी है। अब डाकखाना खोलकर क्या करूंगा। <br /><br />मंटू बाबू मुझे समझाने लगे कि डाकघर खोलने से ज्यादा फायदा है। हर मास दो-तीन हजार से अधिक ही काम हो जायेगा। इसमें कोई झंझट भी नहीं है। एक किराये का मकान लीजिए और कुर्सी लगाकर डट जाइए। पोस्टकार्ड और लिफाफों की बिक्री से कम लाभ नहीं होगा। रोज चार-पांच हजार तक बेच सकते हैं। इसके अलावा रजिस्ट्री है, मनीआर्डर है, बीमा है, सेविंग्स है। बहुत फायदा है लाल बाबू, बेतरह लाभ है, आप जा एक डाकपर खोल दीजिए।<br /><br />वे तरह-तरह के प्रलोभन देने लगे और डाकघर खोलने के लिए उकसाने में यथाशक्ति यथावृद्धि इस बात से कन्नी काटता रहा। उनसे कहता रहा कि नौकरी के कारण मुझे फुरसत नहीं मिलेगी कि डाकघर खोल पाऊं। अंत में जैसा होना था वैसा ही हुआ। वे झुझलाने लगे। नाराज हो गये और नाक से फुफकारते हुए चले गये।<br /><br />डाकखाना नहीं खुल सका।<br /><br />मगर मंटू बाबू फिर एक दिन आये। वे बांगला देश की मुक्ति से बहुत प्रसन्न थे और भारत सरकार की सराहना कर रहे थे। कहने कि- इस बार तो संयुक्त राष्ट्रसंघ ने गजब कर दिया। उसके 104 राष्ट्रों ने इस बात की सिफारिश की कि भारत युद्ध रोक दे। आक्रमणकारियों से उन लोगों ने कुछ नहीं कहा। क्यों नहीं कहा? लालबाबू, मैंं आपसे कहता हूं कि आप एक संयुक्त राष्ट्रसंघ खोल दें।<br /><br />संयुक्त राष्ट्रसंघ! में आसमान से गिरा। <br /><br />मंटू बाबू कहने लगे, इसमें कुछ नहीं है, इसी मुहल्ले में एक संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना कर दीजिए। उसके कई भाग होंगे, मगर इस बार पाकिस्तान से युद्ध करने के कारण मुझे यह शिक्षा मिली है कि हम लोगों को अपना हेल्थ ठीक रखना चाहिए। हेल्थ ठीक रखने से सब कुछ ठीक हो जाता है। अतएव हम लोगों को डबल एच. ओ. 'हूंÓ ठीक से स्थापित करने की जरूरत है।<br />'हूÓ? मैंने पूछा, यह क्या होता है?<br /><br />मंटू बाबू ने कहा, यह, यानी वल्र्ड आर्गेनाइजेशन! बस, ह खोलकर अपना हेल्थ बना लीजिए फिर कोई भी माई का लाल आपको नहीं रोक सकेगा।<br />मैंने देखा मंट बाबू काफी नाराज हैं। वे सबसे अधिक इस बात से कि आक्रमणकारी पाकिस्तानियों से कोई कुछ कहता नहीं था। बस 104 राष्ट्रों ने प्रस्ताव पारित कर लिया कि भारत युद्ध रोक दें। यह हिमाकत नहीं तो और क्या है? पाकिस्तान से कहने की किसी की हिम्मत नहीं हुई! सभी भारत को ही आक्रमणकारी मानने लगे। यह स्थिति अब बर्दाश्त से बाहर है, आप फौरन अपना एक संयुक्त राष्ट्रसंघ खोल दें।<br /><br />मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की। कहने लगा कि जाने दीजिए मंटू बाबू, राष्ट्रसंघ से इस तरह आप नाराज न हों। यहां देखनेवालों की जरूरत ही नहीं, सन 1954 में पेरिस में संयुक्त राष्ट्रसंघ के यूनेस्को की ओर से अंधों का एक संगीत-सम्मेलन हुआ था। उस संगीत सम्मेलन में एक से एक गीत गाये जा रहे थे, मगर कोई भी देख नहीं पाता था। संयुक्त राष्ट्रसंघ उसी प्रकार अधों का संगीत-सम्मेलन है, जहां देखने का कोई भी स्वीकार नहीं करता। बस, विश्व शांति के कोरस अलापे जाते हैं। उन लोगों को क्षमा कर देना चाहिए।<br />***<br />मगर आज मंटू बाबू का मन उग्र है। वे 104 राष्ट्रों से नाराज है, संयुक्त राष्ट्रसंघ से नाराज हैं। वे किसी को क्षमा करना नहीं चाहते। मुझसे कह रहे हैं, आप संयुक्त राष्ट्रसंघ खोलेंगे तो आपको शिक्षा विज्ञान और संस्कृति की उन्नति के लिए एक यूनेस्को भी खोलना हो होगा। फिर एक विश्व बैंक की स्थापना करनी होगी कि किसी को रुपयों को कमी नहीं होने पाय। इसके अलावा मानवता के अधिकारों के लिए आपको पूरी तरह उद्योग करना होगा। एक यूनाइटेड नेशंस इसजेंसी फोर्स भी रखना होगा कि अगर कहीं लडऩे की जरूरत पड़ जाये तो दम साध कर युद्ध किया जाय। एक यूनीसेफ यानी यूनाइटेड ने इंटरनेशनल चिल्ड्रेंस इसजेंसी फंड की भी स्थापना करनी होगी। इस तरह आपको बहुत-सा काम करना होगा। आखिर संसार में शांति और न्याय की स्थापना करनी है या नहीं?<br /><br /><br />मैंने कहा, जो दीजिए मंटू बाबू, यूनाइटेड नेशंस को माफ कर दीजिए। मैं अभी एक मामूली नौकरी में लगा हूं। इतनी जल्दी संयुक्त राष्ट्रसंघ नहीं खोल सकता।<br />मंटू बाबू कहने लगे, पहले आप एक संयुक्त राष्ट्रसंघ खोल तो दीजिए, फिर देखिए उसका मजा। मैं उसका मजा आपको बताता हूं। जैसे आपने कहा कि चीन और ताइवान दोनों को राष्ट्रसंघ की सदस्यता दे दो। अब आप के सदस्य मान लिया। आपसे बिदक गये और केवल चीन को मान्यता दे दी। और आपने उसका टेलीविजन से देखा तो आपको पूरा अधिकार होगा कि आप संयुक्त राष्ट्रसंघ को अपनी ओर से दिया जानेवाला अनुदान बंद कर दें. या कह दें कि मैं नाराज हो गया है। इसलिए अपने अनुदान में कमी कर देता हूं। <br /><br /><br />मैंने कहा, यह तो एक प्रकार से जमींदारी हो गयी जिस तरह जमींदार लोग मनमाना किया करते थे, उसी प्रकार मैं भी मनमाना करना शुरू कर दूं तो फिर संयुक्त राष्ट्र की वास्तविकता क्या रह जायेगी?<br />मंटू बाबू में कहा, वही बात तो मैं भी कहता हूं लाल बाबू। भारत सरकार और आप जमींदारी प्रथा के विरुद्ध हैं। इसलिए संयुक्त राष्ट्रसंघ नामक जमींदारी प्रथा अब नहीं चलनी चाहिए।<br /><br />मैने कहा, इसके लिए इतना बड़ा राष्ट्रसंघ खोलने की क्या जरूरत है वहां के लोगों को असली मीरे का सुरमा लगा देने पर उन्हें वास्तविकता दिखलाई देने लगेगी और वे देखकर ही कोई प्रस्ताव पास करेंगे। <br /><br />मटू बाबू को मेरा प्रस्ताव मान्य नहीं हुआ। वे कह रहे थे कि एक संयुक्त राष्ट्रसंघ खोलना ही है। दूसरा कोई उपाय नहीं।<br /><br /><br />बड़ी देर तक बातें होती रहीं, लेकिन मंटू बाबू संयुक्त राष्ट्रसंघ से कम पर मानने के लिए तैयार ही नहीं थे। उनका कहना था कि उनकी पत्नी का विचार है कि राष्ट्रसंघ की स्थापना से कम में कुछ नहीं होगा।<br /><br /><br />मेरा धीरज समाप्त हो गया। मंैने उनसे पांच मिनट का समय मांगा और जाकर अपनी पत्नी से सलाह ली। पत्नी ने कहा, घबराने की क्या बात है। उन्हें कोई कहानी गढ़ कर सुना दो। फिर वेे आप ही चले जायेंगे। <br /><br /><br />तब मैंने एक कहानी शुरू को कहने लगा- अमरीका के न्यूयार्क नगर में रसगुल्ले का एक बहुत ही बड़ा पेड़ है। उस पेड़ की एक डाल पर रसगुल्ले फलते हैं, दूसरी डाल पर कलाकंद लगते हैं, तीसरी डाल पर गुलाबजामुन के बड़े-बड़े फल होते हैं, उस पे<br />ड़ की महिमा में आपस क्या बतलाऊं। उसमें इमरती और जलेबियों के फल लगते हैं। मगर वह पेड़ न्यूयार्क में है। अब आप मुझे बताइए कि उस पेड़ के फलों पर अधिकार किसका होगा? क्या उसका फल भारत को मिलेगा या न्यूयार्क का राजा उस फल पर अपना अधिकार रखेगा?<br /><br />मेरा प्रश्न सुनकर मंटू बाबू कुछ सोचने लगे। बड़ी देर तक सोचते रहे, फिर बोले, मैं इस विषय पर अपनी पत्नी से सलाह करना चाहता हूं कि न्यूयार्क में जो रसगुल्ले फलते हैं वे किसके होंगे। मैंने आश्वस्त होकर कहा, जाइए, पूछ आइए।<br />फिर वे अपनी पत्नी से पूछने चले गये और लौटकर नहीं आये।<br /></div><div style="text-align: center;"><b>---</b><br /></div><div style="text-align: right;"><i>धर्मयुग से साभार</i><br /></div>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-79475770752720754832022-02-07T03:31:00.000-08:002022-02-07T03:31:22.603-08:00चम्बलघाटी की भावना, भारत की देन<p><i><b><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEguiRwq7LsdEPPViGEqZ4Kv2EOc4dFptnqDoNtQs7yKj7pqc3BpNmeLJN-CQ3Vzc5W4E1d_N9npXZLRUkq4TdI8-XhF1y0GkmzD-GvsA-4pTEpdZ9mBwHLx5Yb1vdY--0XMJ3afIu2Wezxdc6w_tKMslCXPloTeXN858THz9ymZlVsTd5exYFR56Xn9Sg/s3296/Dr._S._N._Subba_Rao,_New_Delhi,_India.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="2412" data-original-width="3296" height="234" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEguiRwq7LsdEPPViGEqZ4Kv2EOc4dFptnqDoNtQs7yKj7pqc3BpNmeLJN-CQ3Vzc5W4E1d_N9npXZLRUkq4TdI8-XhF1y0GkmzD-GvsA-4pTEpdZ9mBwHLx5Yb1vdY--0XMJ3afIu2Wezxdc6w_tKMslCXPloTeXN858THz9ymZlVsTd5exYFR56Xn9Sg/s320/Dr._S._N._Subba_Rao,_New_Delhi,_India.jpg" width="320" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i><b>डॉ. एसएन
सुब्बाराव फोटो िवकिीडपीिडया से <br /></b></i></td></tr></tbody></table><br /> आदिवासी साप्ताहिक पत्र में यह 26 अप्रैल के अंक में प्रकाशित हुआ था।
आदिवासी रांची से प्रकाशित होती थी और इसके संपादक थे मशहूर कथाकार
राधाकृष्ण। यह लेख बागियों के समर्पण के एक साल होने पर लिखा गया था। इसमें
जो विचार हैं, वह आज भी प्रासंगिक हैं। डाकुओं के आत्मसमर्पण नीति के बाद
कई राज्यों ने नक्सलियों के आत्मसमर्पण की नीति बनाई है और सैकड़ों की
संख्या में उग्रवादी-नक्सली और माआवोदियों ने आत्मसमर्पण किया है। एस. एन.
सुब्बाराव के प्रयास ही चंबल के बागियों ने आत्मसमर्पण किया था। डॉ. एसएन
सुब्बाराव प्रखर गांधीवादी विचारक थे। 27 अक्टूबर को 92 वर्ष की उम्र में
जयपुर के एसएमएस अस्पताल में अंतिम सांस ली। 26 को उन्हें हार्ट अटैक आया
था। 27 की सुबह उनका निधन हो गया। उनका जन्म सात फरवरी 1929 को बेंगलुरु
में हुआ था। वे बचपन से ही महात्मा गांधी से प्रभावित थे। 13 साल की उम्र
में भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया। जीवन भर गांधीवादी मूल्यों के प्रचार
में लगे रहे। वे देश-विदेश भर में कैंप लगाकर युवाओं को गांधीवाद और अहिंसा
के बारे में बताते थे। 18 भाषाओं का उन्हें ज्ञान था। डॉ. सुब्बाराव ने
14 अप्रैल 1972 को जौरा के गांधी सेवा आश्रम में छह सौ से अधिक डकैतों का
आत्मसमर्पण कराया था। उस समय समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण एवं उनकी पत्नी
प्रभादेवी भी मौजूद थीं। 450 डकैतों ने जौरा के आश्रम में जबकि 100 डकैतों
ने राजस्थान के धौलपुर में गांधीजी की तस्वीर के सामने हथियार सहित
आत्मसमर्पण किया था। चंबल के डकैतों से सामूहिक आत्मसमर्पण करवाने के बाद
वे देश-विदेश में चर्चा में आए थे। विदेश से कई पत्रकार भी चंबल को समझने
के लिए आए थे। </b></i><br /></p><p> </p><p> </p><p>श्री एस. एन. सुब्बाराव<br /><br />आत्मसमर्पण के बाद ग्वालियर जेल के अंदर बने हुए कोर्ट में कई समर्पणकारी अपने अपराधों को स्वेच्छा से स्वीकार कर रहे हैं। समर्पण कार्यक्रम के बाद उस दिशा में उल्लेख करने के योग्य सबसे अधिक महत्व का विषय अपराधों का स्वीकार है जो कि समर्पण की भावना को पुष्ट कर करता है। यद्यपि सैकड़ों प्रसिद्ध खंूखार बागियों द्वारा अपने कीमती अस्त्रों को गांधीजी के चरणों में समर्पण करने की घटना को, जो ऐतिहासिक महत्व मिला, शायद वह महत्व अपराधों को स्वीकार करने की घटना को मिलेगा न ही 'समर्पणÓ की रोचकता 'स्वीकारÓ हो सकेगी, फिर भी समूचे प्रयोग की की दृष्टि से देखा जाय, तो स्वीकार का स्थान सर्वोपरि रहेगा। जंगलों में स्वेच्छा से घूमते हुए बागी जिनका भय या अन्य किन्हीं कारणों से ग्रामों में आदर होता था था, आत्मसमर्पण करने का निर्णय लेते हैं तो निश्चय ही वह उनके लिए एक बड़ा साहसिक कदम होता है। पर उस कदम में उनके हित की कुछ बातें भी निहित रहती हैं-जैसे कि कैद काटकर लौटने के बाद अपने परिवार के लोगों के रह सकेंगे, आदि। किन्तु, जेल के एकांतवास के बाद जब मन ऊब गया होता है तब यह जानते हुए भी कि अपने अपराध को स्वीकार करने से कड़ी सजा मिल सकेगी, उसे स्वीकार करना तो एक बड़ा पराक्रम ही कहा जा सकता है। <br /><br />इस सम्बन्ध में अनेक प्रेरक प्रसंग आए। उनमें से कुछ यहां स्मरण किए गए हैं-<br />सबसे कड़ी सजा-मृत्युदण्ड मोहर सिंह को सुनाई गई थी। पत्रिकाओं में इसे पढऩे के दिन से ही स्वभावत: मैं मोहर सिंह से मिलने व आगे की चर्चा करने को बेचैन हो रहा था। संयोग ऐसा हुआ कि उसके बाद बहुत दिन मैं ग्वालियर नहीं जा सका। उतने दिन बाद जेल में गया, तो अच्छा हुआ अंदर घुसने से पूर्व सबसे पहले खिड़की में खड़े मोहर सिंह मिल गए। मोहर सिंह के स्वभाव में सबसे आकर्षक बात यह है कि जब मिलते हैं, उनके चेहरे पर एक बड़ी हंसी नाचती रहती है। मैंने तो कई दिन से सोच रखा था कि जैसे ही मैं उनसे मिलूंगा तो सजा के बारे में बातें करूंगा। पर मोहर सिंह की हंसी ने उस बात को भुला दिया। मिलते ही मेरा हाथ पकड़कर और मजबूर किया कि मैं भोजन करूं। उस दिन भोजन था खीर और पूरी। कहीं से मिरची का अचार और मंगवा लिया। खुली जगह में भोजन करने बैठा, तो और लोग भी सब आकर सामने बैठक गए। बातें दुनिया-भर की चलीं पर मोहर सिंह की सजा की बात तो रह गई। मैं भूल गया और लगता है कि वे भी भूल गए थे। मानों उनको सजा की याद थी ही नहीं।<br />बाद में सब मिले- माखन सिंह, कल्याण सिंह, भरत सिंह, सरनाम सिंह, सरू सिंह, हरविलास काची प्रताप सिंह आदि जिनमें कुछ को आजीवन कारावास की सजा हुई थी और कुछ के मुकदमें चल रहे थे। पर सब उसी मनोउल्लास की दशा में थे। उल्लेखनीय है कि उनमें से अनेकों ने औरों को कड़ी सजाएं होने के बाद अपने अपराधों को स्वीकार किया था। <br /><br />एक प्रसंग प्रताप सिंह के सम्बन्ध में है। गरम बातों के कारण दो साथियों में हुए झगड़े को देखकर प्रताप ने सोचा कि बातों से झगड़ा होता ही है तो बात करें नहीं। कई सप्ताह से मौन धारण किए थे। जैसे मैं सबसे पूछता था उनसे भी सहज उसके मुकदमों के बारे में पूछा। मौन रखा था तो उन्होंने मेरे हाथ से अखबार लेकर उस पर लिखा दादाजी, कृपया मेरी चिंता छोडि़ए। आप दूसरे बागी भाइयों के केस में मदद करिए। मेरे दो केस आ गए और भी आते रहेंगे। मेरे केस के लिए वकीलों की जरूरत नहीं। मेरे लिए तो निर्णय ईश्वर देगा। <br /><br />1972 समर्पण के अग्रदूत माधो सिंह ने जब जब अपने अपराध को स्वीकार किया जिसके फलस्वरूप उनको आजन्म कारावास की सजा हुई तब मैं दक्षिण भारत में था, तो वहीं से उनको पत्र लिखकर उनके व अन्य सभी बागियों का, जिन्होंने अपराध स्वीकार किया, इस कदम की मैंने सराहना की, तब उनका तुरन्त जवाब इस प्रकार आया: <br />'इसमें नई बात क्या। मैंने व मेरे साथियों ने तो जंगल में ही मय किया था कि हमारी आगे की जिन्दगी सर्वोदय मार्ग पर चलेगी। जयप्रकाश जी जो भी आदेश हमें मंजूर है। वे कहेंगे तो आज भी जान देने को तैयार हूं तो या भी जान देने को तैयार हैं।<br />जहां तक अपराध स्वीकार का प्रश्न है समर्पणकारियों में 25 परसेंट का हृदय परिवर्तन तो जंगल में ही हो गया था और तभी निर्णय लेचुके थे कि स्वीकार करेंगे। उनमें पचास परसेंट के खिलाफ तो केस नहीं है और वे छूट जाएंगे। पच्चीस परसेंट का न तब हृदय परिवर्तन हुआ न अब हुआ है। Ó<br /><br />इन उदाहरणों से बागियों के विचार समर्पण से पूर्व व बाद में कैसे रहे उसकी एक झलक मिलती है। कई विदेशी लोगों व पत्रिकाओं में चर्चा होती है कि भारत में हुई समर्पण की घटना अद्भुत तथा विस्मयकारी थी जिसने सिद्ध किया कि मनुष्य अपने अंदर के पशुवत को अध्यात्म शक्ति से जीत सकता है तथा सत्य व प्रेम के अस्त्र बन्दूक से अधिक प्रभावकारी हो सकते हैं। अभी भी कुछ भारतीय पत्रिकाएं ऐसे विचार प्रकट करने में आनन्द लेती हैं कि हृदय परिवर्तन असाध्य है और जो शक्ति ने कार्य किया वह भय व स्वार्थ की भी हो तो उनको इस आनन्द का अधिकार है।<br /><br />पर हम भारतवासियों के लिए कभी-कभी यह स्मरण करना उचित होगा कि विश्व के विज्ञान व तकनीकी क्षेत्रों में प्रगति प्राप्त देशों में आज कई बार जब दिशा-शून्यता का अनुभव होता है और वे मानसिक समाधान के लिए भारत की ओर देखते हैं, तो वे अपेक्षा करते हैं कि हम उनको कुछ आध्यात्मिक तत्व दे सकेंगे। हाल में आस्ट्रेलिया की एक महिला ने चम्बल के चमत्कार की चर्चा करते हुए मुझसे कहा-'मैं इसीलिए इस विषय का गहरा अध्ययन करना चाहती हूं कि मैं पाश्चात्य देशों को बता सकूं कि आज भी कर्म, सत्य प्रेम का मनुष्य जीवन में स्थान है और हमारे देश भारत की इस घटना से लाभ उठा सकते हैं।Ó<br />समर्पण के बाद चम्बलघाटी के जनसाधारण के क्या अनुभव हैं? आकांक्षाएं हैं? इन महीनों में चम्बल घाटी के ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को आमतौर पर यह कहते सुनाई पड़ता है- 'बरसों बाद इस गर्मी में पहली बार हम बाहर खुले में चारपाई लगाकर सोए, तो खूब आनन्द आया। दूसरी पोर जहां पहले देखरेख के अभाव में खेत में बहुत क्षति होती यी सब रात 10-12 बजे तक भी बत्ती लगाकर काम करते हैं। चारों ओर राहत के आसार मालूम पड़ते हैं।Ó<br />लेकिन साथ ही छूट-पुट घटनाएं भी होने लगीं। कहीं एक खून, कहीं एक-एक झगड़ा, कहीं आतंक। कभी-कभी सुनाई पड़ता है, 'आखिर डाकू समर्पण से कुछ निहित स्वार्थ लोगों को नुकसान अवश्य पहुंचा है, तो वे कहां चैन से बैठेेंगे? उनका प्रयास रहेगा कि और डाकू पैदा हो जाएं। <br /><br />हाल में एक पुलिस उच्चाधिकारी ने कहा- 'हमारे सिपाही भी सब दूध के धुले नहीं। कभी किसी से गलत काम भी हो सकते हैं। एक दूसरी परेशानी यह है कि लोग पुलिस से बिना कारण ही भयभीत होते हैं। कहीं-कहीं गांव में जाकर पुलिस द्वारा किसी का नाम भर लेने से ही व्यक्ति निर्दोष होते हुए भी फरार हो जाते हैं। ऐसे लोगों का शोषण करने के लिए एक दो गिरोह बैठे हैं।<br />आवश्यकता इस बात की है कि हम और आप पुलिस व सामाजिक कार्यकर्ता एक होकर काम करें और इस अनिष्ट को हमेशा के लिए मिटा दें।Ó<br />इस अधिकारी के स्पष्ट विचार से मुझे खुशी हुई और चम्बल घाटी में हमेशा शान्ति स्थापना की आशा और बढ़ी। <br /><br />चम्बलघाटी का समर्पण प्रयोग भारत की आजादी की 25वीं रजत जयन्ती पर देश के लिए एक कीमती भेंट मानी जा सकती है। प्रजातंत्र प्रबल हो इसके लिए आवश्यक है कि शासन व स्वयंसेवी संस्थाएं मिलकर काम करें। चम्बल घाटी का प्रयोग सिद्ध करता है कि एक ऐसे प्रयास से एक लम्बे अर्से की समस्या हल हो सकती है पर इस यज्ञ को पूर्ण सफल बनाने का प्रयास अभी चालू है।<br /><br />इस संदर्भ में यह प्रसन्नता की बात है कि पुलिस व शासन के अन्य विभागों में अनेक अधिकारी इस प्रयोग को पूर्ण सफल बनाना चाहते हैं। वे और स्वयंसेवी कार्यकर्ता मिलकर एक महान प्रयोग को पूर्ण सफल बना सकेंगे।<br /><br />एक बात अवश्य ध्यान देने के योग्य हैं। पुलिस कितनी हो सक्रिय क्यों न हो, जनसाधारण भी जब तक इस कार्य में सक्रिय सहयोग नहीं देंगे तब तक काम पूर्ण होना कठिन रहेगा। इस यज्ञ में प्रत्येक नागरिक बुद्धिजीवी, श्रमिक, छात्र आदि सब को सहयोग देना होगा। पुलिस के जब हजारों सिपाही कार्यरत है तब जनसाधारण को कुछ संस्था को आगे माना उचित ही होगा ।<br /><br />जनसाधारण की शक्ति को संगठित करना एक प्रमुख कार्य है। उसके लिए कई पूरा समय देने वाले कार्यकर्ता लगेंगे पर अभी उनकी संख्या कुछ के बराबर है। ऐसे कार्यकर्ताओं के प्रबंध के लिए धन की आवश्यकता होती है, जिसका अभाव हमारे देश के हर अच्छे काम के रास्ते खड़ा रहता है। <br /><br /><br /><br /><br /></p>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-30415413039861011882021-10-08T04:37:00.006-07:002021-10-08T04:38:54.540-07:00 गोपालराम गहमरी<p style="text-align: left;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjY3Lo3jU-PRmKkXKH4DMjtqnWXXpoxQxJbqkt79_ijEwCjaUvHtAA2eBlrfFW-SrorI_eDckRhF5xzKWFzpRmlTnaht_-hQO5BusVwcutUOqEoHFSFjaq-pk4VpDJPz4l3EPOJSH_wpKlt/s241/goppal.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="241" data-original-width="201" height="241" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjY3Lo3jU-PRmKkXKH4DMjtqnWXXpoxQxJbqkt79_ijEwCjaUvHtAA2eBlrfFW-SrorI_eDckRhF5xzKWFzpRmlTnaht_-hQO5BusVwcutUOqEoHFSFjaq-pk4VpDJPz4l3EPOJSH_wpKlt/s0/goppal.jpg" width="201" /></a></div><b>यज्ञदत्त शर्मा, एमए, साहित्यरत्न</b><br /><br /><i>[ घटना प्रधान उपन्यासों का जो क्षेत्र देवकीनन्दन जी खत्री ने हिन्दी साहित्य में तय्यार किया उस क्षेत्र में आने वाले दूसरे सफल उपन्यासकार गोपालराम जी गहमरी हैं। पाठकों की अभिरुचि का ज्ञान देवकीनन्दन जी की रचनाओं की लोकप्रियता से स्पष्ट हो गया था। हिंदी के पाठक आँखें पसारे घटना प्रधान मनोरंजक उपन्यास साहित्य के लिये उतावले हुए बैठे थे । 'चन्द्रकान्ता' को कई-कई बार पढ़कर अब वह नई पुस्तकें प्राप्त करने की आशा में थे । तिलस्म और ऐयारी के अतिरिक्त कुछ नवीनता भी पाठक चाहते थे। ठीक इसी समय गहमरी जी अपने जासूसी उपन्यास लेकर हिन्दी पाठकों के सम्मुख आये | हिन्दी के पाठकों ने आपका हाथों हाथ स्वागत किया और लेखक को भरसक उत्साह प्रदान किया। लेखक ने बड़े परिश्रम और उत्साह से काम लेकर मौलिक तथा अनुवादों से पाठकों का मनोरंजन करने में कोई कसर उठा नहीं रखी । ]</i><br /><br /><br />जासूसी उपन्यास पूर्ण रूप से अँगरेजी साहित्य की देन हैं । देश की अराजकता को समाप्त करने में स्काटलैंड यार्ड के जासूसी विभाग ने जो चमत्कार पूर्ण कार्य किया उसका वर्णन इंग्लैंड के उपन्यासकारों ने चार चांद लगाकर किया और इस प्रकार एक ऐसे जासूसी साहित्य का निर्माण हुआ जिसमें घटना प्रधानता के साथ-साथ केवल कोरी चमत्कार-वृत्ति की ही प्रधानता नहीं रही, वरन् कुछ वास्तविक तथ्य भी सामने आये ।<br /><br />उसका मानव जीवन से बहुत कुछ सम्बन्ध ठहरा। जासूसी विभाग की निर्भयता और बुद्धि चातुरी का ही इस साहित्य में विशेष रूप से दिग्दर्शन मिलता है । इंगलैंड की जनता हत्यारों और डाकुओं से परेशान थी। इसलिए वहाँ इस साहित्य का विशेष सम्मान हुआ और पाठकों के लिये यह अधिकाधिक हृदयग्राही बनता चला गया । इसी प्रकार के उपन्यास हिंदी में श्री गहमरी जी ने लिखे और उनमें निर्भीक जासूसी विभाग के कार्यकर्ताओं की मुक्त कंठ से रोचकता के साथ उन्होंने प्रशंसा की ।<br /><br /> अराजकता इस समय भारत में भी कम नहीं थी। जनता ने व्यवस्था की भावना में जब मनोरंजन की सामग्री प्राप्त की तो उन्होंने अपना ध्यान विशेष रूप से उपन्यास साहित्य की ओर लगा लिया । 'फ़िलिप प्रोपेनहम', 'शरलाक होम्स', 'एडगर बैलेस' आदि उपन्यासकारों ने जासूसी विषयों पर जैसी मनोरंजक रचनायें की थीं गहमरी जी ने भी उसी प्रणाली को अपनाया और हिंदी के उपन्यास भंडार को भरना प्रारम्भ कर दिया । जिस प्रकार अंगरेजी में 'ब्लेक सीरीज़', 'सिक्स पेन्स सीरीज़' और 'फ़ोर पेन्स सीरीज़' इत्यादि प्रकाशित हुई उसी प्रकार हिंदी में भी रचनायें प्रकाशित की जाने लगीं और उनका पाठकों ने बहुत अच्छा स्वागत किया । ह्वीलर के बुक स्टालों पर उनकी अच्छी मांग हुई और रेल के यात्रियों ने यात्रा समय को सफल बनाने के लिये उन पुस्तकों का सुन्दर उपयोग किया ।<br /><br /> गहमरी जी ने 'जासूस' नाम का एक मासिक पत्र निकाला जिसमें उनके धारावाहिक उपन्यास प्रकाशित हुए। हिंदी पाठकों में इस पत्र ने पर्याप्त ख्याति प्राप्त की और यह पत्र आज तक भी सफलता पूर्वक चलता चला जा रहा है। जैसा इस पत्र का नाम है इसमें वैसी ही जासूसी विषय की सामग्री रहती है और वह भी विशेष रूप से घटना प्रधानता को लिये हुए। चरित्र चित्रण की ओर इन उपन्यासों में भी ध्यान नहीं दिया गया। इस पत्र से उपन्यास पठन पाठन को प्रोत्साहन अवश्य मिला है और यही एक बहुत महत्वपूर्ण बात है क्योंकि उपन्यासों की मांग ने ही पाठकों में उच्चकोटि के उपन्यास पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न की और लेखकों में विश्व - साहित्य पर दृष्टि डालने की उमंग पैदा हुई । लेखकों ने उपन्यास के व्यापक क्षेत्र का विश्लेषण प्रारम्भ किया और नवीनतम दृष्टि कोणों को प्रकट करने के योग्य अपनी भाषा और अपने विचारों को बनाया ।<br /><br /> जिस घटना प्रधान उपन्यास क्षेत्र का निर्माण हिंदी जगत में देवकीनन्दन जी खत्री ने किया था उसमें सुन्दर जासूसी उपन्यासों की रचना करके गोपालराम जी गहमरी ने उपन्यास साहित्य को एक विशेष आकर्षक और क्रांतिकारी विचारधारा तथा साहित्य की देन प्रदान कीा ऐयारी उपन्यासों के अंतर्गत घटनाओं के जमघट में मार्ग- प्रदर्शन -कार्य नायक को करना होता था । कोई क्रम बद्धता उन घटनाओं में स्वतन्त्र रूप से नहीं मिलती । घटनायें स्वतन्त्र रूप से बिखरी हुई रहती हैं और उनका पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करने का कोई स्वतन्त्र माध्यम नहीं होता । केवल नायक के ही सम्पर्क में आकर उन घटनाओं का कुछ ढांचा तय्यार होता है और यदि वह नायक एक क्षण के लिये भी पाठक की दृष्टि से ओझल हो जाये तो कथा एक भानमती का पिटारा बनकर पाठक को बोझिल सी प्रतीत होने लगती है । इस प्रकार के उपन्यासों में नायक का पल्ला पकड़ कर ही पाठक एक गहन बन की यात्रा करता है परन्तु जासूसी उपन्यासों में परिस्थिति इसके बिलकुल ही विपरीत है। जासूसी उपन्यासों की पटनायें क्रम बद्ध होती हैं। इनकी घटनाओं का पूर्वापर सम्बन्ध रहता है और बिना किसी क्रम के कोई घटना आगे नहीं बढ़ती । घटनायें सर्वदा कार्य कारण रूप में गुँथ कर प्रगति करती हैं, केवल कल्पना के आधार पर नहीं। इन उपन्यासों में मानव की भावनाओं को जाग्रत करने की अधिक शक्ति वर्तमान रहती है और निराशा, शोक, ताप इत्यादि भावनायें घटनाओं के क्रम में आकर स्वयं उद्दीप्त हो उठती हैं। जिस प्रकार 'चन्द्रकान्ता' को पढ़ने से केवल कपोल कल्पित कल्पना के अतिरिक्त पाठक के और कुछ हाथ नहीं लगता उस प्रकार का अभाव हमें जासूसी उपन्यासों के पढ़ने के पश्चात् नहीं होता। इन उपन्यासों में कोरी हवाई घोड़ों की ही उड़ान नहीं है वरन देश और काल की आवश्यकता की छाया भी सजीव रूप से मिलती है। यह उपन्यास एक प्रकार से अव्यवस्था के प्रति विद्रोह हैं और आतंक के विपरीत साहस की कसौटी ।<br /><br />ऐयारी के उपन्यासों का क्षेत्र अपरिमित होता है और उनका कार्यकलाप भी प्रतिबन्धविहीन होता है। उनका क्षेत्र इतना व्यापक है कि जहां पर भी कल्पना की उड़ान जा सकती है वहीं पर ऐयारी प्रधान उपन्यास का नायक पहुँच सकता है। परन्तु जासूसी उपन्यास का क्षेत्र सीमित है। जासूसी उपन्यासों में भावुकता की अपेक्षा बुद्धि का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है और यह उपन्यास तिलस्मी उपन्यासों की अपेक्षा मानव के कार्य कलापों के अधिक निकट है । मानव की शक्तियां सीमित हैं, परिमित हैं । इसलिये इन उपन्यासों का क्षेत्र भी सीमित और परमित हो जाता है जिनमें मानवी भावना और बुद्धिगम्य पात्रों का चित्रण किया गया है। जासूसी उपन्यासों के विषय शेखचिल्ली की कहानियां अथवा 'अलादीन के चिराग़' की गाथायें नहीं बन सकतीं। बुद्धि और विज्ञान के नवीनतम आविष्कारों का प्रयोग मात्र ही एक जासूसी उपन्यासकार कर सकता है। एक डाकू को बन्दी बनाने के लिए एक जासूस रेल, तार, फ़ोन, मोटर, हवाई जहाज़ इत्यादि का ही आश्रय लेकर सफल हो सकता है, जादू की बाँसरी बजाकर अथवा मुख में सर्वसिद्धिफल दबा कर नहीं । 'ओपिन सीसेम' कहने मात्र से उसके सम्मुख बड़े-बड़े खजानों के द्वार नहीं खुल सकते । 'सेना' शब्द मात्र उच्चारण करने से उसके · सम्मुख उसकी सहायता के लिये 'सेना' नहीं आ सकती। इस प्रकार हमने देखा कि जासूसी उपन्यास एक विशेष प्रगति के मार्ग होकर मानव के अधिक निकट आ गये और इसीलिये उनका सम्मान भी पाठकों ने विशेष साहस के साथ किया । देवकीनन्दन खत्री और गोपालराम जी गहमरी के उपन्यासों की तुलना करने में भी हमें उक्त विचारावली को पूर्ण रूप से ध्यान में रखना चाहिये ।<br /><br />गहमरीजी के उपन्यासों की विशेषता<br />''श्री गहमरी' जी ने अपने उपन्यासों में अधिक पात्रों का जमाव न रखकर कुछ चुने हुए पात्रों को ही लिया है । आधुनिक समाज का भी चित्र उनके उपन्यासों में मिलता है और चरित्र चित्रण को भी एक दम भुला कर विशेषता चित्रण वास्तव में चरित्र चित्रण के लिये नहीं होता, यह तो होता है घटनाओं को बल देने के लिये और घटनाओं के महत्व को कम न होने देने के लिये । लेखक का विशेष बल घटना पर ही रहता है । गोपालराम जी 'गहमरी' के प्रायः सभी पात्र निर्भीकं, साहसी, चतुर और कुटिल होते हैं । चोर डाकुओं को तो चतुर रखना ही होता है और जासूसों को उनसे भी अधिक चतुर बनाये बिना लेखक का काम नहीं चल सकता । लेखक ने मानव के बल, चातुरी और बुद्धिमत्ता को पूर्ण रूप से निभाया है; मानव में दानवी अथवा दैवी शक्तियों की झांकी देखने का प्रयत्न नहीं किया । देवकीनन्दन जी खत्री के उपन्यासों की अपेक्षा यह उपन्यास हमारे अधिक निकट हैं और हमारे जीवन के साथ विशेष रूप से सम्बन्धित हैं । लेखक का प्रधान ध्येय घटना वैचित्र्य होते हुए भी उनकी रचनाओं में अनेकों स्थलों पर मानव की स्वाभाविक वृत्तियों का स्वाभाविक स्पष्टीकरण हो जाता है । तनिक तनिक सी सूचनाओं पर बड़े-बड़े रहस्यों का किस प्रकार उद्घाटन हो जाता है इसका व्यापक विवेचन हमें गहमरी जी के उपन्यासों में मिलता है। चोरी, जारी, खून, डकैती इत्यादि के रहस्यों की जासूस लोग किस प्रकार खोज करते हैं और किस प्रकार साधारण बातों से असाधारण रहस्यों को मालूम कर लेते हैं बस यही इन उपन्यासों के प्रधान विषय हैं । इस प्रकार के विषयों पर व्यापक और विस्तृत प्रकाश डालने में गहमरी जी पूर्ण रूप से सफल हुए हैं और लोक हित की भावना को लेते हुए आपका साहित्य केवल मनोरंजन की ही सामग्री बनकर नहीं रह गया है। उसकी उपयोगिता भी है । इस प्रकार हम उपन्यास क्षेत्र में गहमरी जी को निश्चित रूप से देवकीनन्दन खत्री जी से एक पर आगे बढ़ा हुआ पाते हैं ।<br /><br />भाषा और शैली<br />गोपालराम जी गहमरी के उपन्यासों की भाषा उनके विषय के सर्वथा अनुकूल है। उनकी भाषा में वक्रता रहती है और चटपटेपन का प्रभाव नहीं पाया जाता। कहीं कहीं पर पूर्वी शब्दों का प्रयोग रहता है परन्तु शैली वह खटकने वाला प्रयोग नहीं है और मुहावरों की तो आपकी शैली में ऐसी भरमार रहती है कि कहीं कहीं पर उसमें बड़ी भारी बनावट खटकने वाली सी प्रतीत होने लगती है | आपकी लेखन शैली मनोरंजक है और विशेष रूप से जिस विषय को आप पकड़ते हैं उसका संचालन बहुत ही बुद्धिमत्ता से करते हैं । घटनाओं का तारतम्य इतना सुन्दर रहता है कि कहीं पर भी लड़ी टूटने की संभावना नहीं रहती। आपने अनेकों उपन्यास लिखे हैं । किसी विशेष उपन्यास का विशेष महत्व नहीं है इसलिए सभी उपन्यास मनोरंजन की दृष्टि से एक ही से महत्वपूर्ण हैं | पाठक इनके जिस उपन्यास को भी उठाकर पढ़ेगा ! उसके पढ़ने में उसे बराबर ही आनन्द लाभ होगा और मनोरंजन की पर्याप्त सामग्री भी मिलेगी। आपका लिखने का ढंग सब लेखकों से पृथक है और आपकी भाषा तथा शैली पर आपकी छाप रहती है ।<br /><br />इस प्रकार हिन्दी साहित्य में जासूसी उपन्यासों के प्रवर्तक के रूप में हम गोपालराम जी गहमरी को मानते हैं और जिस दृष्टि कोण को लेकर आप उपन्यास साहित्य में आये उस दृष्टिकोण को आपने सफलता पूर्वक निभाया है। पाठकों में उपन्यास पढ़ने की रुचि पैदा करने वाले लेखकों में आपका स्थान बहुत ऊंचा है । यह ठीक है कि आपने 'चन्द्रकान्ता सन्तति' जैसी कोई विख्यात रचना हिंदी साहित्य को प्रदान नहीं की परन्तु आपका संपूर्ण साहित्य हिंदी साहित्य के एक बड़े भारी अभाव की पूर्ति है और के निश्चित रूप से हिंदी उपन्यास- साहित्य में दूसरा क़दम हम इसे निसंकोच भाव से कह सकते हैं। गोपालराम जी गहमरी उपन्यास साहित्य को कल्पना की उड़ानों से हटाकर वास्तविकता के क्षेत्र में ले आये ।<br /><br /> ---<b><br /></b><br /><p></p><p style="text-align: left;"><b> हिन्दी के उपन्यासकार</b><br /><b> <br /> प्रकाशक- भारती भाषा भवन, दिल्ली, अक्टूबर 1951 </b><br /></p><p><br /></p>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-4799315755250534072021-10-04T03:28:00.000-07:002021-10-04T03:28:11.426-07:00 गया मुुंडा: पूरा परिवार चला स्वाधीनता की राह<p>
<b>संजय कृष्ण</b></p>
<p><br /> बिरसा मुंडा के आंदोलन की जब भी बात होगी, गया मुंडा जरूर याद
आएंगे। इनके बिना हम बिरसा आंदोलन की समझ हमारी अधूरी रहेगी। गया
मुंडा बिरसा मुंडा के दाहिने हाथ थे या कहें सेनापति की भूमिका
में। कभी रांची का हिस्सा रहा और अब जिले का अस्तित्व धारण कर चुके
खूंटी जिले के सैको या साइको से कुछ दूसरी पर गया मुंडा का घर हैै।
गांव का नाम एटकेडीह। यहीं उनके वंशज रहते हैं। घर अब पक्का का है,
लेकिन छत लोहे की चादर की। घर पर एक छोटा सा बोर्ड है, जिस पर लिखा
है, 'गया मुंडा शहीद स्थलÓ। पूरे 119 साल बाद याद इस क्रांतिकारी
की याद आई तो गांव के चौराहे पर छह जनवरी 2019 को एक प्रतिमा जरूर
लगा दी गई है। <br />
</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj-H2mZkUvhf5E84e_arp33yA0ZhhLynMPzJ0pgn1a8BYqwSoNWWa28wbjmsXQaRqPciRdx1AO8INQ2VlosR8kRT68GeowXtUlaFoJvTgimnML1RydNKhI0JNJgaEowo_32xpAvFdZtbS1K/s2048/DSCN5366.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1536" data-original-width="2048" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj-H2mZkUvhf5E84e_arp33yA0ZhhLynMPzJ0pgn1a8BYqwSoNWWa28wbjmsXQaRqPciRdx1AO8INQ2VlosR8kRT68GeowXtUlaFoJvTgimnML1RydNKhI0JNJgaEowo_32xpAvFdZtbS1K/s320/DSCN5366.jpg" width="320" /></a></div><p></p>
<p>झारखंड के ऐसे अनगिनत देश पर मर-मिटने वाले देश भक्तों को नहीं
जानते, जिन्होंने अपना पूरा परिवार खोया है। गया मुंडा भी उनमें से
एक हैं। मुरहू के कुदा पंचायत के एटकेडीह में इनका जन्म हुआ था।
अंग्रेजों को भगाने के लिए इन्होंने बिरसा मुंडा का न केवल साथ
दिया था, बल्कि पूरा परिवार ही कूद पड़ा था। इस बलिदान परिवार को
इतिहास में जगह नहीं मिली। बिरसा मुंडा का पूरा आंदोलन कुल पांच
साल तक चला-1895 सेे जून 1900 तक। <br />
</p>
<p>कुमार सुरेश सिंह लिखते हैं, बिरसा का आंदोलन जब चरम पर था, तब
खूंटी के एटकेडीह, सैको, रकब में हुए युद्धों के बाद गया मुंडा तथा
बिरसाइतों को गिरफ्तार करने के लिए खूंटी का प्रधान कांस्टेबल सैको
पहुंचा। उसे वहां पता चला कि पांच जनवरी 1900 को आंदोलनकारियों की
एक बैठक गया मुंडा के घर पर होनी है। प्रधान कांस्टेबल ने दो
सिपाहियों तथा दो चैकीदारों को गया मुंडा के यहां भेजा। जब तक ये
गया मुंडा के गांव एटकेडीह पहुंचते, इसके पूर्व वहां बैठक संपन्न
हो चुकी थी। बैठक से उठकर 80 आंदोलनकारियों का दल गया मुंडा के
नेतृत्व में गांव के पूरब स्थित तजना नदी के तट पर पहुंचा। उन्हेंं
गुप्त सूचना मिल चुकी थी कि पुलिस दल उन्हेंं पकडऩे के लिए गांव आ
रहा है। पुलिस दल पहले एटकेडीह पहुंचा। वहां गांव की महिलाओं ने
गुप्त एवं निश्चित योजना के अनुसार पुलिस वालों को सच्ची सूचना दी
कि सभी तजना नदी की ओर चले गए हैं। पुलिस दल नदी की ओर चला गया। वे
सभी तत्पर थे। पुलिस दल को तजना नदी के किनारे आते हुए देखकर गया
मुंडा चिल्लाए-'सामरे हिजुलेना को मारगोए कोयेÓ (सांभर हिरन आ गए
हैं उनको मार गिराओ)। सशस्त्र आंदोलनकारियों को अपनी ओर आते देख
सिपाही दो दलों में विभक्त होकर भाग खड़े हुए। जयराम नामक सिपाही
तथा एक चौकीदार ने घने जंगल में चेष्टा की किंतु गया मुंडा के
पुत्र सामरे मुंडा ने जयराम पर तीर चला दिया। वह घायल होकर भागने
लगा किन्तु एक खेत में वह गिर गया। गया मुंडा ने उसे पकड़कर उसका
वध कर दिया। उसके बेटे तथा अन्य कई आन्दोलनकारियों ने सिपाहियेां
को भी मार-मार कर वहीं समाप्त कर दिया। बाकी बच निकले। घटना की
सूचना मिलने के बाद बड़ी सावधानी से प्रधान कांस्टेबल घटनास्थल पर
आकर सिपाहियों की लाश सैको ले गया और फिर इन लाशों को चक्कादार
रास्ते से रांची लाया गया।Ó <br />
जब गया मुंडा अपने सहयोगियों के साथ घर लौटे तो गांव की महिलाओं
ने उत्साहपूर्वक आगवानी की। उनेक पांव पखारे। पुरुषों ने उत्साह के
वातावरण में शिकार गीत गाये। उनके मुंह से यह गीत फूट पड़ा-<br />
<i><span>हथियार हमारे हाथों में चमचमाते हैं।<br />
हम एक पंक्ति में खड़े हैं। <br />
हमारे बायें हाथ में धनुष है, और दायें में तीर<br />
हमारे हाथों में हथियार चमचमाते हैं।<br />
ओ बिरसा, हम एक पंक्ति में खड़े हैं।</span></i><br />
<br />
बंदगांव में ठहरे रांची के डिप्टी कमिश्नर स्ट्रीटफील्ड को यह
सूचना मिली तो छह जनवरी 1900 को 11 बजे दिन में वह गया मुंडा के घर
एटकेडीह पहुंचा। उसने बरामदे में किसी भी व्यक्ति को नहीं पाया।
लेकिन घर के अंदर सभी थे, इसका आभास मिल रहा था। एक दारोगा ने
मुंडारी में आवाज देकर घर में से किसी को भी बाहर आने को कहा
किन्तु अन्दर से कोई जवाब नहीं मिला। एक सिपाही ने अंदर प्रवेश
करने की चेष्टा की, किंतु तुरंत ही वह घर से बचाओ-बचाओ चिल्लाते
हुए बाहर निकल आया। घर के अंदर सभी स्वजन हथियार से लैस थे। डिप्टी
कमिश्नर ने हथियारबंद परिवार को आत्मसमर्पण करने को कहा, लेकिन
उसकी बात का कोई असर नहीं हुआ। गया मुंडा ने दहाड़ते हुए कहा, घर
उनका है और डिप्टी कमिश्नर को मेरे घर में प्रवेश करने का कोई
अधिकार नहीं है। गया मुंडा के साथ घर में महिलाएं भी थीं। बेेटे,
बेटियां और बहुएं थीं। इस कारण डिप्टी कमिश्नर बंदूक का प्रयोग
नहीं करना चाहता था। घर में घुसकर उन्हेंं पकडऩा भी आत्महत्या के
समान था। ऐसे में खबर मिली कि आस-पास के क्षेत्र में लगभग 100
क्रांतिकारी छिपे हुए हैं, जो गया की सहायता के लिए कभी भी धावा
बोल सकते हैं। डिप्टी कमिश्नर को एक तरकीब सूझी घर से बाहर निकालने
की। उसने घर के पीछे से घर में आग लगा दी। हवा बहुत तेज थी। घर
तेजी से जलने लगा। घर के लोग आग की आंच को देर तक बरदाश्त नहीं कर
सकते थे। उनके पास बाहर निकलने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं था।
गया मुंडा सहित घर के लोग जल्दी-जल्दी बाहर निकले। गया के हाथ में
एक लंबी लाठी थी। उसका छोटा लड़का बलुवा तथा 14 साल का पोता रामू
धनुष और तीर लिए हुए था। दो पुत्रवधुओं में से एक के हाथ में डाली
तथा लेंबू के हाथों में लाठी, तलवार और टांगी थी। गया मुंडा नाच
रहा था और तलवार भांज रहा था। डिप्टी कमिश्नर को कुछ समझ नहीं आ
रहा था। किसी तरह डिप्टी कमिश्नर ने अपनी पिस्तौल से गया मुंडा की
दाहिनी बांह और कंधे को लक्ष्य कर गोली चला दी। गोली ठीक जगह लगी
और वह लडख़ड़ाकर संभलते हुए तलवार लेकर झपट पड़ा। डिप्टी कमिश्नर ने
फिर गोली चलाई लेकिन निशाना चूक गया। इसके बाद दोनों में हाथापाई
होने लगी। गया मुंडा ने डिप्टी कमिश्नर के बाए कंधे पर तलवार से
वार किया, लेकिन ठीक से नहीं लगी। बस खरोंच आई। दोनों लड़ते हुए
आखिर जमीन पर गिर गए। एक औरत डिप्टी कमिश्नर पर वार करने लगी। गया
मुंडा की पत्नी माकी मुंडा डिप्टी कमिश्नर को काटना चाहती थी। किसी
तरह पुलिस के जवानों ने दोनों को अलग किया। औरतें भी जमकर लड़ी, जब
तक उनका हथियार छीन नहीं लिया गया। ये वीरांगनाएं ऐसी थी कि अपना
बच्चा भी साथ लेकर लड़ रही थीं। <br />
</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRhnljXNB0wpVZTpbOkmuZOISZ1BKn75fmMfPZIlML1h6PEzFK8dKqKmNBN4qHBWVA-DzoYC_rB4iiBy9EkwE02PITsjK88mblUrdsH3npPBm4E2uEuogzRDbrXOYJ9w9PL5zB078R7jq9/s2048/DSCN5351.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1536" data-original-width="2048" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRhnljXNB0wpVZTpbOkmuZOISZ1BKn75fmMfPZIlML1h6PEzFK8dKqKmNBN4qHBWVA-DzoYC_rB4iiBy9EkwE02PITsjK88mblUrdsH3npPBm4E2uEuogzRDbrXOYJ9w9PL5zB078R7jq9/s320/DSCN5351.jpg" width="320" /></a></div><p></p>
गया मुंडा का पूरा परिवार अदम्य साहस का परिचय दिया। इसके बाद
सभी को गिरफ्तार कर लिया गया। पर गया मुंडा का बड़ा बेटा डोंका
मुंडा पकड़ा नहीं गया, क्योंकि उस दिन वह वहां नहीं था। वह अलग से
आंदोलन को धार देने के लिए बैठकें कर रहा था। बहुत दिन बाद डोंका
ने आत्मसमर्पण कर दिया। सभी पर मुकदमा चला। मई से दिसंबर, 1900 तक
इनके खिलाफ कोर्ट में सुनवाई होती रही। गया मुंडा और उसके मंझले
पुत्र सानरे को फांसी की सजा दी गई। 22 अक्टूबर, 1901 को सुबह छह
बजे फांसी पर लटका दिया गया। बड़े पुत्र ढोंका को आजीवन कारावास की
सजा सुनाई गई। गया मुंडा की पत्नी माकी को दो साल की कठोर सजा हुई।
गया मुंडा की पुत्रियों एवं पुत्र वधुओं को भी तीन महीने की कठोर
सजा हुई। गया मुंडा के दूसरे बेटे जयमासी को भी आजीवन देश निर्वासन
का दंड मिला। इस प्रकार पूरे परिवार को अंग्रेजों ने सजा दी। 1875
से 1900 के बिरसा उलगुलान में गया मुंडा की पत्नी, माकी मुंडा व
साली, चांपी, करमी एवं गया मुंडा की बेटी-बहुओं ने हाथ में टांगी
थामे अंगरेज सैनिकों का सामना किया। अपनी धरती, अपना आकाश के लिए
गया मुंडा ने कुर्बानी दी। उन्होंने कभी न स्वाभिमान से समझौता
किया न अपनी स्वाधीन चेतना से। उनकी यह कुर्बानी देश के लिए थी,
समाज के लिए थी, अपनों के लिए। आदिवासी कभी परनिभर््ार नहीं रहा।
उसकी मानसिक बुनावट में ही स्वावलंबन की चेतना को महसूसा जा सकता
है। गया मुंडा के गांव को शहीद गांव का दर्जा मिल गया है, लेकिन
इतिहास के पन्ने आज भी इंतजार कर रहे हैं। gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-26984373316192268492021-09-03T04:04:00.002-07:002021-09-03T04:04:26.819-07:00बिरसा मुंडा और उसका आंदोलन<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixpwTYr-WPgg_RKtdVX19GQBhSfXWPlZZRsIsg2aijwCcL0ph83aT-_0AzIRxRtrTuAtMiZjBfciX-0G7TVDW8GKNZDnFYnXi_fsCXq7RAdvgmEORcwz74zO4-waOuTy713Gvu0KjyHSo3/s2048/DJI_0061.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1536" data-original-width="2048" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixpwTYr-WPgg_RKtdVX19GQBhSfXWPlZZRsIsg2aijwCcL0ph83aT-_0AzIRxRtrTuAtMiZjBfciX-0G7TVDW8GKNZDnFYnXi_fsCXq7RAdvgmEORcwz74zO4-waOuTy713Gvu0KjyHSo3/s320/DJI_0061.JPG" width="320" /></a></div>देश की आजादी और अंग्रेजों के खिलाफ सर्वाधिक संघर्ष आदिवासी बहुल इलाकों
में ही हुआ। आदिवासियों ने कभी परतंत्रता को स्वीकार नहीं किया। जब झारखंड
के संताल परगना और छोटानागपुर में ब्रिटिश सरकार ने प्रवेश किया तभी से उसे
संघर्ष का सामना करना पड़ा। रह-रहकर यहां आंदोलन होते रहे। उन्हीं में से
एक आंदोलन बिरसा मुंडा ने खूंटी जिले में किया। यह पहले रांची जिले का ही एक अनुमंडल था। <p></p><p><br />बिरसा के आंदोलन को हम तीन चरणों में देख सकते हैं-समाज सुधार, नए धर्म के
प्रवर्तक और आं<br />दोलनकारी। बिरसा ने मुंडा समाज के भीतर पनपीं सामाजिक
बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया। उसने हिंदू धर्म और ईसाई दोनों का
अध्ययन किया। हालांकि बिरसा मुंडा की प्रारंभिक शिक्षा भी मिशन स्कूल में
हुई थी। जब 12 साल की उम्र में बिरसा का बपतिस्मा हुआ तो नाम रखा गया दाउद।
हालांकि बाद में मोहभंग हो गया। वे हिंदू धर्म के संपर्क में आए। जनेऊ धारण
किया। लेकिन दोनों से अलग बिरसा ने अलग पंथ बिरसाइत धर्म चलाया। उसने बलि
प्रथा का विरोध किया। उसने गुरुवार को प्रार्थना अनिवार्य किया। इस दिन कोई
काम नहीं। हल जोतने की इस दिन मनाही की। जब ब्रिटिश सत्ता ने 1895 में
उन्हें गिरफ्तार किया तो धार्मिक गुरु के रूप में मुंडा समाज में स्थापित
हो चुके थे। दो साल बाद जब रिहा हुए तो अपने धर्म को मुंडाओं के समक्ष रखना
शुरू। बिरसा ने पहले 12 शिष्य बनाए और उन्हें अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचार के लिए भेजा। </p><p><br />इधर, मुंडा समाज अपनी जमीन से हाथ धो रहा था। तरह-तरह के कर से परेशान था।
बिरसा मुंडा में उसने अपना मुक्तिदाता दिखाई दिया। तब बिरसा की उम्र 20 साल
थी। छह अगस्त 1895 को चौकीदारों ने तमाड़ थाने में यह सूचना दी कि 'बिरसा
नामक मुुंडा ने इस बात की घोषणा की है कि सरकार के<br /> राज्य का अंत हो गया
है।Ó इस घोषणा को अंग्रेज सरकार ने हल्के में नहीं लिया। वह बिरसा को लेकर गंभीर हो गई।
<br />15 नवंबर, 1875 को खूंटी जिले के उलिहातु में जन्मे बिरसा मुंडा ने मुंडाओं
को जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए बलिदान देने के लिए प्रेरित किया।
गांव-गांव सामाजिक चेतना और स्वाभिमान की ज्योति जलाई। स्वाधीनता का स्वर
बुलंद किया। इसके पूर्व क्षेत्र में सरदार आंदोलन सुस्त हो गया था। यह
आंदोलन भी ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ और जल, जंगल, जमीन के लिए ही था। उस समय
अपनी जमीन की रक्षा के लिए बहुतेरे मुंडा ईसाई बने ताकि उनकी जमीन की रक्षा
हो सके। कई फादर इन्हेंं कानूनी सहायता भी उपलब्ध कराते, लेकिन न्याय नहीं
मिल पा रहा था। इसलिए, ईसाई धर्म के प्रति भी इनका मोहभंग हो गया। अदालत ने
भी इनकी कोई मदद नहीं की। इसी बीच इस इलाके में दो बार अकाल ने भी दस्तक
दी-1896-97 व 1899-1900। इस अकाल में भी बिरसा मुंडा ने गांव-गांव में
लोगों की मदद की। इससे भी बिरसा के प्रति मुंडा समाज का विश्वास दृढ़ होता
गया। जब नौ जून 1900 को बिरसा ने रांची जेल में शहादत दी तो बिरसा के
अनुयायिायों को यह विश्वास था कि बिरसा फिर लौटकर आएंगे। इस विश्वास ने
गांवों में आंदोलन को कभी ठंडा होने नहीं दिया। ब्रिटिश सरकार को भी यह बात
समझ में आ गई कि छोटानागपुर में शासन करने के लिए इनके पारंपरिक अधिकारों
की रक्षा जरूरी शर्त होगी। इसका नतीजा यह हुआ कि ब्रिटिश सरकार ने 1908 में
छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम को लागू किया।
<br />ब्रिटिश सरकार 25 साल के बिरसा मुंडा से कितनी डरी हुई थी कि रांची जेल में
कथित बीमारी से मृत्यु के बाद रात में आनन-फानन में कोकर के डिस्टिलरी पुल
के पास अंतिम संस्कार कर दिया। बिरसा मुंडा का पूरा आंदोलन मात्र पांच साल
तक चला-1895 से लेकर 1900 तक। इन पांच सालों में बिरसा मुुंडा कई रूपों में
देखे जा सकते हैं। पांच साल के इस छापामार युद्ध ने अंग्रेजी सत्ता को
बाध्य कर दिया कि उनके जमीन की रक्षा के लिए कानून बनाए। इसलिए, बिरसा की
मृत्यु और उनके अनेक साथियों के पकड़े जाने के बाद भी अंग्रेज यह नहीं कह
सकते थे कि इस आंदोलन में जीत उनकी हुई है। इस आंदोलन ने छोटानागपुर के
जनजातियों में जागरूक करने काम किया। बिरसा के बलिदान के बाद स्वाधीनता की
चाह बढ़ती गई। बिशुनपुर में टाना भगतों का आंदोलन शुरू हो गया। यह आंदोलन
पूरी तरह अहिंसक था। 1940 में रामगढ़ में हुए कांग्रेस अधिवेशन के मुख्य
द्वार का नाम बिरसा द्वार रखा गया, जो बताता है कि बिरसा की स्मृति क्षीण
नहीं हुई है। क्षेत्र में चल रहे स्वतंत्रता संग्राम को भी बिरसा मुंडा के
आंदोलन ने प्रभावित किया। बिरसा आजाादी के नायक के तौर पर उभरे। 1940 तक तो
छोटानागपुर के पठार पर बिरसा की स्मृति में कार्यक्रम होने लगे और आगे चलकर
देश की आजादी का मार्ग प्रशस्त किया। एक 25 साल के युवक ने मुंडा जनजाति ही
नहीं, झारखंड में रहने वाली 32 जनजातियों में स्वाधीनता की चेतना को जगाने
का काम किया। 1900 से 1947 के बीच आजादी की चाह में पठार आंदालित रहा तो
इसके पीछे मुख्य कारण बिरसा मुंडा का आंदोलन ही रहा। क्षेत्रीय राजनीतिक
आंदोलनों पर भी बिरसा मुंडा के आंदोलन का प्रभाव रहा। 1916 में छोटानागपुर
उन्नति समाज की स्थापना की गई। 1938 में आदिवासी महासभा का गठन हुआ। इस तरह
देखें तो पूरे अंचल में आदिवासी आरंभ से ही अपनी स्वाधीनता को लेकर अत्यंत
सजग रहे और आज भी झारखंड के कई हिस्सों में चल रहे आंदोलन में इसे देखा जा
सकता है। आदिवासी किसी पर निर्भर नहीं रहे। प्रकृति के संग-साथ रहे और
सामूहिकता इनके जीवन का आधार रहा है। स्वावलंबन इनकी सांस्कृतिक चेतना का
हिस्सा है। देश की आजादी के लिए सर्वाधिक बलिदान भी आदिवासियों ने ही दिए।
देश की आजादी के लिए बिरसा का आंदोलन एक स्वर्णिम अध्याय रहा, जिसे भारतीय
इतिहास के पृष्ठों पर उचित और अपेक्षित स्थान नहीं मिला। पर, सौ सालों में
बिरसा देश के आदिवासी युवाओं के आइकान जरूर बन गए। झारखंड जब बिहार से अलग
हुआ तो बिरसा जयंती (15 नवंबर)को ही चुना गया। जिस जेल में बिरसा मुंडा ने
अंतिम सांस ली, उसका नाम बाद में बिरसा जेल कर दिया गया और अब बिरसा की
स्मृति में उसे संग्रहालय का का रूप दिया जा रहा है। बिरसा का महत्व इसलिए
भी है कि उसने क्रांति की मशाल भी जलाई और एक नए धर्म को आकार देकर समाज की
बुराइयों को दूर करने का भी प्रयास किया। भारतीय इतिहास में ऐसे नायक विरले
ही मिलेंगे जो कई मोर्चे पर लड़े और सफल रहे। अनुज कुमार धान ने ठीक ही
लिखा है कि बिरसा देश के अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी थे। पच्चीस वर्ष की
अल्प आयु में इतिहास के चौखट को लांघनेवाला, यह अमर योद्धा संस्कृति, समाज
और आदि धर्म का रखवाला भी था।
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</p>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-83487393246123330112021-08-19T03:45:00.000-07:002021-08-19T03:45:00.527-07:00जब अरगोडा स्टेशन को फूंक दिया गया<p>अगस्त क्रांति से रांची का पठार भी सुलग उठा था। इस क्रांति में सर्वाधिक कीमत टाना भगतों ने चुकाई। एक दर्जन से अधिक टाना भगतों ने पटना के फुलवारी जेल कैंप में अपनी शहादत दी, जिसका इतिहास में कहीं जिक्र ही नहीं आता। उन्हें यहां से गिरफ्तार कर पटना भेज दिया गया था। हालांकि इन्होंने अङ्क्षहसात्मक आंदोलन किया था। उसी तरह यहां जिला स्कूल के छात्र भी इस आंदोलन में कूद पड़े। 14-15 अगस्त को जुलूस निकाला। 17 को मामला अधिक गंभीर हो उठा। विद्याॢथयों ने स्कूल-कालेज छोड़कर कहीं हिंसात्मक तो कहीं शांतिपूर्ण प्रदर्शन शुरू कर दिया। यहां के पुलिस अधिकारियों ने बड़ी होशियारी काम लिया। उन्होंने प्रदर्शन करने वालों पर डंडा नहीं चलाया और न सरकारी इमारतों पर झंडा फहराने के काम में किसी भी प्रकार का दखल दिया। परिणाम यह हुआ कि शहर की जागरूक जनता झंडे फहराकर वापस लौट गई। सरकारी इमारतों पर थोड़ी बहुत जगह जहां ताले लगाए गए थे, पुलिस अधिकारियों की प्रार्थना और इस आश्वासन पर कि वे आजाद सरकार की आज्ञानुसार कार्य करने को तैयार हैं, खोल दिए गए। मांडर, कुडूं, चैनपुर, बेड़ो, बिशुनपुर जैसे सुदूर इलाकों में भी थानों पर टाना भगतों ने झंडे फहराए। कुंडू को छोड़कर बाकी सबमें ताला लगा दिया गया। युवाओं के जोश ने अहिंसा को पीछे छोड़ दिया और अरगोड़ा रेलवे स्टेशन को आग के हवाले कर दिया। रांची और लोहरदगा के बीच की रेलवे लाइन उखाड़ दी गई। रांची हवाई अड्डे, लोहरदगा के फौजी कैंप, रांची की पोस्ट ऑफिस एवं ग्रीष्मकालीन सचिवालय पर भी तोड़-फोड़ की गई। तार काटने का काम कोकर में किया गया, तब यह गांव ही था। जिला स्कूल के भूगोल विभाग को भी 18 अगस्त को आग के हवाले कर दिया। </p><p><br />रांची जेल के सामने जुलूस पहुंचा तो अंदर बंद विद्याॢथयों ने जेल तोड़ कर बाहर निकलने की चेष्टा की, किंतु बाहर से पूरी सहायता न मिलने तथा अन्य कैदियों के बाधा उपस्थित करने से एक फाटक पार करने पर उन्हेंं रोक दिया गया। बाद में जेल में लाठी चार्ज हो गया, जिसमें शहर के सबसे धनी परिवार के लड़के आत्माराम बुधिया को गहरी चोट आई।</p><p><br />हजारीबाग में आंदोलन का श्रीगणेश 11 अगस्त से हुआ। सरस्वती देवी एमएलए ने एक जुलूस संगठित किया, जिसका उद्देश्य नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन करना था। दो-एक दिन तक इसी प्रकार जुलूस निकलते रहे। परंतु जब सरकारी अधिकारियों ने कुछ छेड़-छाड़ की तो उत्तेजित जनता ने पोस्ट आफिस, यूरोपियन क्लब, लाल कंपनी तथा डिप्टी कमिश्नर की अदालत में हल्की तोड़-फोड़ की। <br />इस इलाके में सबसे अधिक राजनीतिक चेतना अभ्रक की खानों तथा गिरिडीह के आस-पास कोयले की खानों में काम करने वाले मजदूरों में थी। ये लोग नेताओं की गिरफ्तारी की खबर सुनते ही अधीर हो उठे। उन्होंने झुमरीतिलैया में जुलूस निकाला। पोस्ट आफिस, रेलवे स्टेशन और शराब की भट्ठी पर तोड़-फोड़ की। डोमचांच में लोगों ने जुलूस निकाला। यहां जुलूस शांतिपूर्वक निकल रहा था, लेकिन अंग्रेज अधिकारियों को यह हजम नहीं हुआ। उन्होंने जुलूस पर लाठी चार्ज कर दिया, हंटर चलाया। गोली भी चलाई, जिससें दो लोग मारे गए और 22 लोग घायल हो गए। जन-समूह विशाल था। वह निर्भीकता के साथ डटा रहा। सरकार का दमन चक्र इस जिले में बड़ी भयंकरता से चला। कोडरमा थाने में गिरफ्तार व्यक्तियों पर हंटर से खूब मार पड़ी। पुलिस ने अपनी राक्षसी प्रकृति का परिचय देते हुए लोगों को चौराहों पर नंगा करके हंटरों से पीटा और जब तक उनका शरीर लहू-लुहान न हो गया और वे अधमरे न हो गए तब तक उन पर बराबर मार पड़ती रही। असह्य पीड़ा के कारण बेहोश हो जाने पर भी मार बंद न हुई और बाद में वे जेलखानों की काल कोठरियों के अंदर ठूंस दिये गए। एक दो ने तो जेल के फाटक पर पहुंचते-पहुंचते ही दम तोड़ दिया। बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिकों को अपमानित किया गया और उनकी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया ।</p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhndgbggnbbMUI6YnHmWVcQAmzYY4wkx6hBYqYy81EQjoh-TdfqbqpPaek9afZN-G85o9SmI5ibHosoq0yOjyt-g8VcXn_64HpTGupXEtcPC4lcrBgn-6vDYy5AC0jBTwwmseN23safCpXg/s627/pahari.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="627" data-original-width="425" height="366" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhndgbggnbbMUI6YnHmWVcQAmzYY4wkx6hBYqYy81EQjoh-TdfqbqpPaek9afZN-G85o9SmI5ibHosoq0yOjyt-g8VcXn_64HpTGupXEtcPC4lcrBgn-6vDYy5AC0jBTwwmseN23safCpXg/w265-h366/pahari.jpg" width="265" /></a></div><br />जमशेदपुर में मिल एरिया में रहने वाले मजदूरों ने सरकार विरोधी प्रदर्शनों में भाग लिया। जमशेदपुर की टाटा स्टील कंपनी के सात सौ तथा अन्य कंपनियों के मजदूरों ने नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में अगस्त से हड़ताल शुरू की। इन मजदूरों पर कांग्रेस का अधिक प्रभाव था। अतएव उनके सब प्रदर्शन पूर्ण रूप से अहिंसक रहे। उन्होंने किसी भी अफसर की जान लेने का प्रयत्न नहीं किया। पूरे 13 दिन तक बड़े शांति पूर्ण ढंग से हड़ताल को चलाया। मजदूरों के त्याग ने कुछ सिपाहियों को भी प्रभावित किया और 28 सिपाहियों ने शांतिपूर्वक हथियार रख दिये और सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। यहां पर मजदूरों तथा विद्याॢथयों का पूरा सहयोग रहा। स्कूलों में हड़ताल हुई और जुलूम भी निकले। जमशेदपुर में ब्लूम ब्रिज को तोडऩे की चेष्टा की गई। रांची के आसपास तार भी काटे गए।<br />छह सितंबर को जमशेदपुर में 15 हजार से अधिक लोगों का जुलूस निकला, जिसमें दलितों की संख्या अधिक थी ये लाग राष्ट्रीय नारे लगाते हुए जेल के फाटक पर जा पहुंचे और वहां के अधिकारियों से कहा- हम अपने नेताओं के दर्शन करना चाहते हैं, उन्हेंं बाहर निकालिए।. जनता को यह शक था कि उसके नेताथों पर जेल में सख्ती की जाती है। जेल अधिकारी जनता की मांग को ठुकरा न सके। वे डर के मारे कांप रहे थे। उन्होंने जनता की आज्ञा का पालन करने में ही अपना भला समझा। तुरंत नेता लोग बाहर लाए गए। जनता उन्हेंं ठीक स्थिति में देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई। उसने खूब जोर से जयघोष किया और अपने नेताओं को फूलों की मालाओं से लाद दिया तथा मानपत्र भेंट कर वापस लौट गई। यहां शांतिपूर्ण आंदोलन चलता रहा। <p></p><p><br />पलामू के देहातों में प्राय: शांति थी लेकिन शहर आग की लपटों जल रहे थे। वहीं के विद्याॢथयों तथा वकीलों ने आगे बढ़कर जनता का नेतृत्व किया। हड़ताल और जुलूस विशेष कार्यक्रम थे। डालटनगंज, गढ़वा, हुसैनाबाद, लेस्लीगंज और लातेहार के थानों पर जनता ने झंडे फहराने की चेष्टा की तथा गढ़वा को छोड़कर शेष थानों पर झंडे फहराये भी गए। डालटनगंज थाने की पुलिस को अ्रात्म-समर्पण के लिए बाध्य किया गया और जेल पर आक्रमण करके जनता ने अपने नेता रामकिशोर एमएलए को जेल से बाहर निकाल लिया। डालटनगंज, गढ़वा और हरिहरगंज के डाकखाने भी जनता के आक्रमण के शिकार हुए। डालटनगंज के थाने को तो लोगों ने जलाकर खाक कर दिया। इसके अतिरिक्त स्थान-स्थान पर शराब की भट्ठियों को भी बर्बाद किया गया।</p><p><br />इस जिले में सरकार द्वारा जो दमन हुआ वह अन्य स्थानों से मिलता जुलता था। हां एक बात खास थी। यहां के जमीदारों ने दमन करने में पुलिस का साथ दिया और किसानों को पिटवाया, गिरफ्तार करवाया और इस प्रकार देशद्रोही का कलंकपूर्ण खिताब प्राप्त किया। संथाल परगना भी अगस्त क्रांति की लपटों से अछूता न रहा। देवघर, दुमका, गोड्डा, जामताड़ा, करमाटाड़, राजमहल, साहिबगंज आदि स्थानों पर जनता ने जुलूस निकाले। झंडा फहाराया। यहां 600 व्यक्ति गिरफ्तार किए गए, जिनमें 200 आदिवासी थे। इस जिले में छह लोग गोली के शिकार हुए और 20 जेलों में मर गए। यहां पर कई लोगों को 35 साल तक की सजाएं हुईं। जब देश आजाद हुआ तो रांची के पहाड़ी मंदिर पर तिरंगा फहराया गया। <br /></p><br />gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7191791525441641965.post-22067315238220919262021-07-28T05:19:00.000-07:002021-07-28T05:19:00.906-07:00किसानों में भ्रमण<p> पं. जवाहरलाल नेहरू</p><div dir="auto"><div dir="auto"></div><br />
<div dir="auto">तीन
दिन तक मैं गाँवों में घूमता रहा, और एक बार इलाहाबाद आकर फिर वापस गया ।
हम गाँव गाँव घूमे किसानों के साथ खाते, उन्हीं के साथ उनके कच्चे झोंपड़ों
में रहते, घंटों उनसे बातचीत करते और कभी कभी छोटी-बड़ी सभाओं में
व्याख्यान भी देते । शुरू में हम एक छोटी मोटर में गये थे । किसानों में
इतना उत्साह था कि सैकड़ों ने रात-रात भर काम करके खेतों के रास्ते कच्ची
सड़क तैयार की, जिससे मोटर ठेठ दूर-दूर के गाँवों में जा सके । अक्सर मोटर
अड़ जाती और बीसों आदमी खुशी-खुशी दौड़कर उसे उठाते । आख़िर को हमें मोटर
छोड़ देनी पड़ी और ज्यादातर सफ़र पैदल ही करना पड़ा ; जहाँ कहीं हम गये,
हमारे साथ पुलिस के लोग, खुफ़िया और लखनऊ के डिप्टी कलेक्टर रहते थे । मैं
समझता हूँ, खेतों में हमारे साथ दूर-दूर तक पैदल चलते हुए उनपर एक प्रकार
की मुसीबत आ गयी होगी। वे सब थक गये थे | हमसे और किसानों से बिलकुल उकता उठे थे । डिप्टी
कलेक्टर ये लखनऊ के एक नाजुक मिज़ाज़ नौजवान और पम्प शू पहने हुए थे ।
कभी-कभी वह हमसे कहते कि जनरा धीरे चलें । मैं समझता हूँ, आख़िर हमारे साथ
चलना उन्हें दुश्वार हो गया और वह रास्ते में ही कहीं रह गये ।<div dir="auto"><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhe8ghoZem_YqIdnoOqOMaD868Qgcx1gMfP5YgAsCStnDi8Y7vFQE8KiQpSDvT_04e7XsRGIHcF46jOsyKdmrxSmxh0C6JmZsV8v9Z16XRp2jVGGNpyx64FW2vLlL2FDqnYUxIti8QQRwKH/s1080/neh.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="810" data-original-width="1080" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhe8ghoZem_YqIdnoOqOMaD868Qgcx1gMfP5YgAsCStnDi8Y7vFQE8KiQpSDvT_04e7XsRGIHcF46jOsyKdmrxSmxh0C6JmZsV8v9Z16XRp2jVGGNpyx64FW2vLlL2FDqnYUxIti8QQRwKH/s320/neh.jpg" width="320" /></a></div></div><div dir="auto">जून
का महीना था जिसमें सबसे ज्यादा गर्मी पड़ती है बारिश के पहले की तपिश थी ।
सूरज की तेज़ी बदन को झुलसाये देती थी और आँखों को अंधा बनाए देती थी।
मुझे धूप में चलने की बिलकुल आदत न थी और इंग्लैंड से लौटने के बाद हर साल
गर्मियों में मैं पहाड़ पर चला जाया करता था। किन्तु इस बार मैं दिन-भर
खुली धूप में घूमता था और सिर पर धूप से बचने को हैट भी न था। सिर्फ एक
छोटा तौलिया सिर पर लपेट लिया था । दूसरी बातों में मैं इतना मशगूल था कि
धूप का कुछ ख़्याल भी नहीं रहा; और इलाहाबाद लौटने पर जब कहीं देखा तो मेरे
चेहरे का रंग कितना पक्का हो गया था । और फिर मुझे याद पड़ा कि सफ़र
में क्या-क्या बीती । लेकिन इस बात पर मैं अपने-आप खुश हुआ; क्योंकि मुझे
मालूम हो गया कि बड़े-बड़े मजबूत आदमियों के बराबर मैं धूप को बर्दाश्त कर
सका और जो मैं उससे डरता था उसकी ज़रूरत नहीं थी। मैंने देख लिया है कि मैं
कड़ी से कड़ी गर्मी और कड़े से कड़े जाड़े को बिना ज्यादातकलीफ़ के
बर्दाश्त कर सकता हूँ। इससे मुझे अपने काम में तथा जीवन बिताने में बड़ी मदद
मिली । इसकी वजह यह थी कि मेरा शरीर आम तौर पर मजबूत और काम करने लायक था
और मैं हमेशा कसरत किया करता था। इसका सबक मैंने पिताजी से सीखा था जो
थोड़े कसरती थे और करीब करीब आखिरी दिनों तक जिन्होंने अपनी रोजाना कसरत
जारी रखी थी। उनके सिर पर चांदी से सफेद बाल हो गये थे, चेहरे पर झुर्रियां
पड गई थीं और विचार करते-करते बूढे दिखाई देते थे। मगर उनका शरीर मृत्यु
के एक दो साल पहले तक उनसे बीस बरस कम उम्र के आदमी का जान पडता था। <br />
</div>
<div dir="auto"> जून 1920 में परतापगढ जाने के पहले भी मैं गांवों से
अक्सर गुजरता था। वहां ठहरता था और किसानों से बातचीत भी करता था। बडे बडे
मेलों के अवसर पर गंगा किनारे हजारों देहातियों को मैंने देखा थ कि उनमें
होमरूल का प्रचार किया था लेकि उस समय मैं यह अच्छी तरह न जानता था कि
दरअसल वे क्या हैं, और हिंदुस्तान के लिये उनका क्या महत्व है। हममें
से ज्यादातर लोगों की तरह मैं भी उनके बारे में कोई विचार न करता था। यह
बात मुझे परतापगढ की यात्रा में मालूम हुई और तब से हिंदुस्तान का जो
चित्र मैंने अपने दिमाग में बना रखा है, उसमें हमेशा के लिये इस
नंगी-भूखी जनता
के लिये स्थान बन गया है । संभवतः उस हवा में बिजली थी । शायद मेरा दिमाग
उसका असर अपने पर पड़ने देने के लिये तैयार था । और उस समय जो चित्र मैंने
देखे और जो छाप मुझ पर पड़ी वह मेरे दिल पर हमेशा के लिये अमिट हो गई ।</div>
<div dir="auto"><br /></div><div dir="auto"> इन
किसानों की बदौलत मेरी झेंप निकल गई और मैं सभाओं में बोलना सीख गया | तब
तक शायद ही किसी सभा में बाेला होऊँ । अक्सर हमेशा हिन्दुस्तानी में बोलने
की नौबत आती थी और उसके ख़याल से मैं दहशत खाया करता था । लेकिन मैं किसान
सभाओं में बोलने को कैसे टाल सकता था ? और इन सीधे-सादे ग़रीब लोगों के
सामने बोलने में झेंपने की क्या बात थी ? मैं वक्तृत्व कला तो जानता न था ।
इसलिये उनके साथ एकदिल होकर बोलता और मेरे दिल और दिमाग में जो कुछ होता
था, वह सब उनसे कह देता था । लोग चाहे थोड़े हों या हजारों की तादाद में
हों, मैं हमेशा बातचीत के या जाती (व्यक्तिगत ) ढंग से ही उनके सामने
बोलता, और मैंने देखा कि चाहे कुछ कमी भी उसमें रह जाती हो, लेकिन मेरा काम
चल जाता था । मेरे व्याख्यान में प्रवाह काफ़ी रहता था। मैं जो कुछ कहता
था, शायद बहुत कुछ हिस्सा उनमें से बहुतेरे समझ नहीं पाते थे । मेरी भाषा
और मेरे विचार इतने सरल न थे कि वे समझ सकते । बहुत लोग तो मेरा भाषण सुन
ही न पाते थे ; क्योंकि भीड़
तो भारी होती थी और मेरी आवाज़ दूर तक नहीं पहुँच पाती थी । लेकिन जब कि
वे किसी एक शख़्स पर भरोसा और श्रद्धा कर लेते हैं, तब इन सबकी ज्यादा
परवाह नहीं रहती ।</div><div dir="auto"> </div><div dir="auto">फोटो साभार https://twitter.com/babelepiyush/status/1338542034966048768 <br /></div></div></div>gajipur.blogspot.comhttp://www.blogger.com/profile/10039371653433588143noreply@blogger.com0