सांप्रदायिकता और प्रांतीयतावाद



जयपाल सिंह मुंडा
 भारतीय राष्ट्रवाद का कीड़ा बहुत पुराना है। यह सच है कि भारतीय राष्ट्रवाद सांप्रदायिकता और क्षेत्रवाद से ऊपर नहीं उठ पाया है न ही स्पष्ट रूप से यह सामंती समाज और धर्म के खिलाफ हो सका है। इसने कभी भी कोई मौलिक क्रांतिकारी मांग नहीं उठाई और इसीलिए व्हाइट हाउस के साम्राज्यवादियों को भारत के मु_ी भर विद्रोहियों को बेहद छोटे स्तर पर भारतीयकरण की तुष्टीकरण कर उनसे निबटने में खास दिक्कत नहीं हुई। धार्मिक कट्टवादियों ने सार्वजनिक मंचों पर कब्जा कर लिया है और वे उन संस्कृतियों पर हमला कर रहे हैं जो उनसे अलग अपनी पहचान रखते हैं। मतभेदों या सहमति के बावजूद विभिन्न राजनीतिक दलों और जो सच्चे हमवतनी हैं उन्हें भी अल्पसंख्यक विरोधी विचार अपनाने के लिए बाध्य किया किया जा रहा है। यह सभी रोग, जो भयावह रूप में व्याप्त हैं, भारतीय राष्ट्रवाद के लिए अनोखे नहीं हैं। ये दूसरे देशों में भी फले-फूले हैं पर वहां के नेता-जनता इनसे ऊपर उठे हैं और राष्ट्रवाद की सीमाओं के परे जाकर उन्होंने अंतर्राष्ट्रीयतावाद और सार्वभौमवाद को अपनाया है। ग्रेट ब्रिटेन में 'लैसेस फेयरÓ (व्यक्तियों और समाज के आर्थिक मामलों में न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप की नीति) या मुक्त व्यापार का इतिहास हमें उन आर्थिक परिस्थितियों के बारे में बताता है, जो राजनीतिक सिद्धांतों के बचाव में आया। विश्व बाजार में ग्रेट ब्रिटेन अपना आधिपत्य तभी तक बरकरार रख सकता है जब तक कि दूसरे देश ब्रिटिश एकाधिकार को यह धमकी देना शुरू नहीं कर देते कि संरक्षणवादी पूंजी की वापसी हो सकती है।
हमारे लोकप्रिय नेताओं ने विरोधाभासी और दमनकारी परिस्थितियों के बीच बहादुरी से संघर्ष किया है। विदेशों में भारतीय छात्रों को खुद को भारतीय मानने में कोई कठिनाई नहीं होती, लेकिन भारत में उनको वही भारतीय राष्ट्रवाद पसंद आता है जिसमें सांप्रदायिक और कट्टरपंथी राजनीति होती है। इस तरह के विरोधाभासों का सबसे बढिय़ा उदाहरण गांधीजी हैं। वह हमेशा रहस्यवादी अहिंसा और पश्चाताप वाली हिंसा के बीच डोलते रहे हैं। पारंपरिक तौर पर बड़ी पूंजी प्रगतिशील अर्थव्यवस्था का कट्टर दुश्मन है। यह बात गांधीजी से अविभाज्य रूप में जुड़ी है क्योंकि उनके पास अपने संरक्षक पूंजीपतियों से अलग होने का साहस बिल्कुल नहीं है। अपने पूर्वाग्रहों और कमजोरियों से वही व्यक्ति ऊपर उठ पाता है जिसके पास अत्यंत तर्कसंगत वैज्ञानिक नजरिया है। सबको पता है कि इस बीमारी की अचूक दवा कहां है तब भी हम ठोस कार्रवाई करने के लिए तैयार नहीं हैं। अगर हम अपने स्वार्थी दावों को त्यागने के लिए तैयार नहीं हैं, तो फिर आपसी सौहार्द, विश्व बंधुत्व, सार्वभौमिक मताधिकार और लोकतंत्र की बात करने का क्या मतलब है? हम अपने अधिकारों के बारे में बहुत अधिक सोचते हैं और उसकी मांग करते हैं, लेकिन हम हद दर्जे की असंवेदनशीलता के साथ अपने प्राथमिक कर्तव्यों की उपेक्षा करते हैं। ऐसी स्थिति में जब हमारे नेताओं ने 20 लाख बंगालियों को मरने के लिए छोड़ दिया है, यह दावा बहुत ही बकवास है कि हम भ्रष्टाचाररहित एक ईमानदार सरकार के लिए राजनीतिक रूप से तैयार हैं। इंग्लैंड में भुखमरी से एक मौत होने पर पूरे राष्ट्र में विद्रोह फूट पड़ेगा और सरकार गिर जाएगी। यहां हमारे नेता उस व्यक्ति को क्लीन चिट दे देंगे जो असंख्य मौतों का जिम्मेदार है और उसके साथ गलबहियां डालकर मजे करेंगे।
मैं अपनी राजनीतिक प्रगति बनाए रखना चाहता हूं, पर इसके साथ ही एकतरफा अधिकारों और विशेषाधिकारोंपर जो जोर है, उससे धीरे-धीरे मुक्त होने की कोशिश भी कर रहा हूं। धर्म, पूंजी और सामंती समाज हमारे दुश्मन हैं। ये बीमारियां हमारे वास्तविक राष्ट्रवाद को निगल रही हैं। इनके खिलाफ साहसपूर्ण संघर्ष चला कर ही भारतीय राष्ट्रवादी एक बेहतर देश की रचना कर सकते हैं। देश को दीमक की तरह खा रहे इन कीड़ों की पहचान मुश्किल नहीं है। हमारा फौरी कार्यभार यही है कि इनका अस्तित्व पूरी तरह से नष्ट कर देने के लिए हम तुरंत ठोस कार्रवाई में उतरें।

(जयपाल सिंह मुंडा का यह अंग्रेजी लेख 'द बिहार हेराल्डÓ, पटना के 13 नवंबर 1945 में छपा था, जिसे शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक 'आदिवासियतÓ से लिया है। आजादी के 70 साल बाद पहली बार हिंदी में प्रकाशित होने वाली 'आदिवासियतÓ में जयपाल सिंह मुंडा के 19 चुनींदा लेख और भाषण हैं जिसका अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद और संपादन अश्विनी कुमार पंकज ने किया है। पुस्तक का प्रकाशन प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची द्वारा किया जा रहा है जो फरवरी दूसरे सप्ताह से पाठकों के लिए उपलब्ध होगी।)

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