झारखंड का बेदिया आदिवासी हर 12 साल पर करता है सूर्याही पूजा

सूर्य पूजा की उपासना पूरी दुनिया में लोग करते हैं। दुनिया के आदिवासी भी अलग-अलग नामों से सूर्य की उपासना करते हैं। गायत्री मंत्र वस्तुत : सविता देवता की ही उपासना का मंत्र है। झारखंड के आदिवासी समुदाय भी सिंगबोंगा नाम से भगवान सूर्य की ही उपासना करते हैं। बिहार और यूपी में छठ की उपासना में सूर्य की ही पूजा की जाती है। इस पर्व की खासियत यह है कि यहां कोई पंडित नहीं होता। पहले डूबते सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है और अगले दिन उगते सूर्य का। यह उपासना चार दिनों का होता है और पवित्रता का पूरा ख्याल रखा जाता है। लेकिन झारखंड के बेदिया आदिवासी भी सूर्य की पूजा करते हैं, लेकिन 12 साल पर। कहीं-कहीं तीन या पांच साल पर भी किया जाता है। इसे ये सूर्याही या सूरजाही पूजा कहते हैं। कहीं इसे पूर्णिमा के साथ मनाया जाता है तो कहीं कुल के पुजारी से बात करके दिन तय कर मनाया जाता है। हालांकि इसके लिए निर्धारित महीना माघ व वैशाख है। यद्यपि कभी-कभी इसका भी पालन नहीं किया जाता है। संकल्प के लिए सूर्याही स्थान पर लोग बकरा ले जाते हैं। यह स्थान गांव के बाहर होता है और यह उनकी जाति या कुल का स्थान होता है। इस स्थान पर कुल का बड़ा पुरुष, जो उपवास किए हुए होता है और पवित्रता का पालन करता है, बकरे का अभिषेक करता है। पहले पूजा के बाद बकरे को जंगलों में छोड़ दिया जाता था, लेकिन अब ऐसा देखा जाता है कि पूजा के बाद भी बकरे को बांध कर ही रख जाता है। पूजा की निर्धारित तिथि के आठ-दस दिन पहले ही जाति-बिरादरी वालों की शादी-विवाह की तरह ही न्योता देने का प्रावधान या परंपरा है। सभी लोग सूर्याही के लिए एकत्र होते हैं। बेदिया आदिवासियों द्वारा पारंपरिक रूप से सूर्याही पूजा में में बेदिया समाज के सगोत्र ही शामिल होते हैं। इसमें सगोत्र के रिश्तेदारों को भी निमंत्रण दिया जाता है। इसमें पुरोहित या पहान नहीं गोतिया के प्रमुख व परिवार की अगुवायी में ही पूजा करने की परंपरा है।
तीस घंटे का किया जाता है उपवास
छठ पूजा की तरह सूर्याही पूजा में भी लंबी उपासना व सूर्यदेव की पूजा की जाती है। सभी घरों से एक महिला व पुरुष (पति-पत्नी) 30 घंटे का उपवास रख पूजा करते हैं। उपवास से पूर्व संयोत भी करना होता है। उपासक अरवा चावल के आटा से पुआ बनाते हैं। शुरू के तीन से पांच पुआ बनाने में झंझरा का इस्तेमाल न कर हांथ से ही बनाते हैं। उसी पुआ को प्रसाद के रूप में ग्रहण कर संयोत कर उपवास करते हैं।
उगते र्सूय की होती है पूजा
पूजा के एक दिन पूर्व रात में उपासक पुजारी गांव के पूजा स्थल पर पहुंचते हैं। अरवा चावल (अक्षत) छींट कर सूर्यदेव को जगाते हैं। दीप जलाकर सुबह में पूजा करने व बलि चढ़ाने की आज्ञा लेते हैं। दूसरे दिन भोर में भगवान सूर्यदेव की पूजा व अराधना की जाती है।
बलि देने की परंपरा
सुबह भोर में पूजा करने के लिए पूजा स्थल पर जाने से पूर्व बलि देने वाले पशु को स्नान करा कर फूलमाला से संवारा जाता है। वहीं एक बच्चे को राजकुमार के रूप में तैयार कर उसे उसी पशु पर सवारी कर कर ढोल-ढाक बजाते हुए, सूर्यदेव का जय जयकारा करते पूजा स्थल ले जाया जाता है। कहीं-कहीं भगवान सूर्य को प्रसन्न करने के लिए सफेद बकरे की बलि दी जाती है, जबकि सूर्य को वैष्णव माना जाता है। जो परिवार बलि देता है, वह घर से दूर नदी किनारे चावल, सब्जी और खाना बनाने का सभी सामान, बर्तन भी ले जाता है। इसके बाद खाना वनाते औरा खाते हैं। बचे हुए मांस और खाना को जमीन में गड्ढा कर डाल देते हैं, ताकि कुत्ता भी न खा पाए।
सुख-समृद्धि की कामना
सिंदूर, धूप-धुअन, अगरबत्ती, आम पत्ता, वेलपत्र, दूध, चुका-ढकन, कसैली, अरवा चावल, सूप, टोकरी आदि जरूरी सामान से पूजा कर व पूजा स्थल में ही बलि दी गई पशु का प्रसाद सामूहिक रूप से सेवन करते हैं। आरा केरम के ग्राम प्रधान  गोपालराम बेदिया बताते हैं कि सूर्याही पूजा में सूर्यदेव की पूजा कर अपने कुटुंब व आने वाली पीढिय़ों के स्वास्थ्य, सुख-समृद्धि और खुशहाली की कामना की जाती है। अमृत बेदिया कहते हैं कि अकाल मृत्यु व विपदा से बचने के लिए सूर्याही पूजा की जा रही है। यह एक अद्भुत परंपरा है, जिसे बेदिया आदिवासी करते हैं।


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