पलामू का ऐतिहासिक किला

बेतला के घने जंगलों के बीच पलामू का ऐतिहासिक किला अपनी बेबसी और उपेक्षा के दंश को झेलता आज भी पूरी शानौ शौकत से खड़ा है। उपेक्षा के बावजूद उसमें एक स्वाभिमान है, जिसे उसके पास जाकर ही महसूस किया जा सकता है। निर्जीव पत्थर भी अपनी कहानी बयां करते हैं, अपने सुख-दुख आने-जाने वालों से साझा करते हैं, इतिहास के बीते तारीखों को वर्तमान में खींच कर ले आते हैं। इसलिए, ये पत्थर महज पत्थर नहीं होते, इनमें भी दर्द होता है। एहसास होता है। पलामू का यह पुराना किला बहुत कुछ कहता है, पर अपने बारे में बहुत कुछ नहीं कहता। इसलिए, इस किले का निर्माण कब हुआ था, किसने कराया था आदि प्रश्न इतिहास के गह्वïर में ही कैद हैं। जिन लोगों ने इस पर से पर्दा उठाने की कोशिश की, वह इतना ही बता सके कि इसका निर्माण 15 वीं शताब्दी के आस-पास हुआ होगा। किसने कराया-ठीक-ठीक पता नहीं।  लेकिन इतिहास के पन्नों में दर्ज तथ्यों से कुछ अनुमान लगाया जा सकता है।
पलामू के बारे में ठीक-ठीक इतिहास कुछ नहीं बताता। लेकिन किंवदंतियों और पुराने लोगों की स्मृतियों और यहां के खंडहरों से तथ्य की जो रोशनी छनकर आती है वह यही बताती है कि यहां सबसे पहले कोल जातियों का निवास था। इसके बाद द्रविड़ आए। फिर रकशेल-चेरों का आगमन हुआ। इसी समय मुगलों का भी प्रवेश और इसके बाद अंग्रेज आए। वैसे, यहां का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से होते हुए रामायण और महाभारत से भी जुड़ता है। रामायण काल को लेकर यहां एक कथा प्रचलित है कि यह राजा दशरथ के अधीन था और रामजी के विवाह के अवसर पर उन्होंने से यहां के बजनियों (बाजा बजाने वाले) को बक्सीस में दे दिया था। महाभारत काल के अवशेष तो नहीं मिलते, लेकिन डालटनगंज के उत्तर-पश्चिम में करीब 40 मील पर कोयल नदी के किनारे एक पहाड़ी पर भीम चूल्हा नाम की जगह है। कहते हैं कि पांडवों ने अज्ञातवास में कुछ समय यहां व्यतीत किया था। भीम ने ही उस पहाड़ी पर चूल्हे का निर्माण किया था, इसलिए उसे भीम चूल्हा कहा जाता है। इसके अलावा और कुछ नहीं मिलता, जिससे महाभारत काल पर व्यापक प्रकाश पड़ सके।
पर, कुछ प्राचीन जातियों के बारे में अवश्य जानकारी हासिल होती है। उनमें द्रविड़ कुल के मार्ह और उरांव हैं। उरांवों का संबंध मोहनजोदड़ो सभ्यता से भी है। यहां कर्नाटक की ओर होते हुए इन जातियों ने बिहार के रोहतास में आकर बसे। यहां इनके आगमन की तिथि अज्ञात है। चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभ में पठानों ने रोहतास पर जब वर्चस्व स्थापित कर लिया तो ये पलामू की ओर खिसक आईं। उरांवों के लोकगीतों में इनका पूरा इतिहास दर्ज है। यहां से भी बाद में रांची की ओर प्रस्थान कर गईं और आज उसके समीपवर्ती जिलों में, जंगलों में इनका निवास है।  
मार्ह भी द्रविड़ कुल की ही एक शाखा है। इन लोगों ने जंगलों को काटकर उन्हें कृषि योग्य बनाया, बस्तियां बसाईं, घर और गढ़ों का निर्माण किया। इस तरह वे सारे पलामू में छा गए। उरावों ने रोहतासगढ़ किले का निर्माण किया था। उनके लोकगीतों में 'गढ़रूइदासÓ का बार-बार जिक्र आता है। इनका निवास उरांवों से पुराना है। माना जाता है कि पलामू में इनका प्रवेश दो हजार साल पहले हुआ था। मार्ह आगे चलकर अंग्रेजों के गजेटियरों में 'मारÓ और 'मालÓ हो गया। इनके बनाए गए मकानों, गढ़ों, बस्तियों के खंडहर पलामू में बिखरे हुए हैं। बेतला में घने जंगलों में ओरंगा नदी के निकट बना पलामू किला इन्हीं का निर्माण कहा जाता है। ओरंगा शब्द भी द्रविड़ कुल का ही है। इसके बाद यहां रकेशेल राजपूतों का वर्चस्व स्थापित हुआ और मर्हा भगा दिए गए। रकशेलों का इतिहास बताता है कि इनका दल गया जिले के कुटुंबा-मटपा की राह से, छपरा की ओर गया और कुछ पलामू की उत्तरी-पूरबी सीमा महाराजगंज-हरिहरगंज के मार्ग से होकर पलामू के देवगन और उसके आस-पास फैल गए।
रकशेलों के बारे में रायबहादुर डा. हीरालाल ने 'मध्यप्रदेश का इतिहासÓ में कवि रामचरण भाट की हवाले से बताया है कि रकशेल वंश का आरंभ सन 196 से होता है और इस वंश के वर्तमान राजा रामानुजशरण सिंह तक 114 पीढिय़ों ने राज किया। यह भी कहा गया है कि इस वंश का मूल पुरुष पलामू के कुंडलिया से सन 194 में सरगुजा आया था सने यहां के द्रविड़ मुखिया (राजा) को भगाकर अपना राज्य स्थापित कर लिया। रकशेल राजपूतों की एक शाखा था। यह अर्कशेल का अपभ्रंश है। अर्क यानी सूर्य। इन्हें सूर्यवंशी राजपूत भी कहा जाता है। पलामू में इनका आगमन 13 वीं शताब्दी के आस-पास हुआ माना जाता है। इन्होंने भी गढ़, किले, तालाब, कोट का निर्माण किया। पलामू किले का सुधार और निर्माण रकशेलों ने भी किया। पंद्रहवीं शताब्दी के अंत में मानसिंह पलामू की गद्दी पर बैठे। उस समय रकशेलों की दो राजधानियां थीं-एक बेतला की ओरंगा नदी का तट पलामू गढ़, मानगढ़, तमोलगढ़, दूसरा पलामू की उत्तरी सीमा के छोर पर चकले देवगन में देवगढ़। पलामू में रकशेलों ने कब तक राज किया, कौन-कौन राजा हुए, इसकी प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती। इस वंश के अंतिम राजा मानसिंह का पता इसलिए चलता है कि इन्हीं से चेरो राजा ने पलामू को अपने अधिकार में लिया था।  
चेरो का काल पलामू के लिए स्वर्णकाल था। इनकी उत्पत्ति च्यवन ऋषि से बताई जाती है। इस जाति से सबसे पहले नेपाल की तराई कमाऊं प्रांत में अपना राज्य स्थापित किया। इसके बाद इस वंश ने विभिन्न क्षेत्रों में अपने राज्य कायम किए। कालांतर में इनके वंश के भगवंत राय और पूरनमल पलामू पहुंचे। जिस समय ये पलामू पहुंचे, उस समय पलामू किले पर राजा मानसिंह का अधिकार था। दोनों ने मानसिंह के दरबार में नौकरी कर ली। दोनों की सूझ-बूझ और बहादुरी से प्रसन्न होकर इन्हें सेना की कमान सौंप दी गई। लेकिन एक विश्वासघात ने पलामू का तकदीर ही नहीं, इतिहास भी बदल गया। हुआ यह कि राजा मान सिंह के पुत्र का विवाह सरगुजा में तय हुआ। वे बारात लेकर सरगुजा चले गए और किले का भार अपने सरदार भगवंत राय पर छोड़ गए। मौका पाक भगवंत राय ने मानसिंह के पूरे परिवार को मार डाला और खुद राजा बन बैठा। सेना लेकर वह आगे बढ़ा और बारात वापस लेकर लौट रहे मान सिंह का मुकाबला किया। मानसिंह हार गए और सरगुजा लौट गए। वहां मान सिंह ने वही किया जो भगवंत ने उनके परिवार के साथ किया। उन्होंने सरगुजा के राजा की हत्या कर राज्य अपने अधीन कर लिया और पूरनमल को अपना मंत्री बना लिया। यहीं से रकशेल राजा का अंत और चेरो राजवंश का उदय होता हैं।
कहा जाता है कि चेरो राजाओं की सात पीढिय़ों (1613 से 1821 तक)ने पलामू पर राज किया। इसके संंंस्थापक थे भगवंत राय और अंतिम राजा हुए चुरामन राय। ये नि:संतान थे। इस कुल में सबसे प्रतापी राजा मेदिनी राय हुए। इन्हीं के नाम पर डालटनगंज का नाम बदलकर मेदिनीनगर किया गया है। इन्हें पलामू के इतिहास पुरुष का गौरव प्राप्त है। इनकी लोकप्रियता इस लोकगीत से पता चलती है-
धन्न-धन्न राजा मेदनियां, घर-घर बजले मथनियां।
अन्नवा से भर गइले खेत-खलिहनवां,

  सांच भइले सबके सपनवां, घर-घर बजले मथनियां।
गइया-भइंसिया से भरले बथनवांइनके कार्यकाल में गाय, बैल और प्रजा सभी खुशहाल थे। 'राजा मेदनियां के राज, न गउए छान, न प्रजा डांड़।Ó मेदिनी राय वीर और साहसी थे। इनके पराक्रम और न्यायप्रियता की दुहाई आज भी दी जाती है। इन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया। रांची के निकट छोटानागपुर के नागवंशी राजा के डोइसागढ़ (नवरतनगढ़) पर भी कब्जा किया और उसके किले का नागपुरी दरवाजा निकलवाकर पलामू किले के प्रवेशद्वार पर लगवाया। यह दरवाजा देखभाल के अभाव में अब जीर्ण हो चुका है। इन्होंने ही पुराने पलामू किले की मरम्मत करवाई और उसी से थोड़ी दूर कमलदह नामक झील का निर्माण कराया। इस झील में किले के सुरंग मार्ग से रानी नहाने जाती थीं। यह झील तीन ओर पहाड़ों और एक ओर ओरंगा नदी की तलहटी के बीच है। अब तो यह सिकुड़ गई है। अपने पुत्र के लिए मेदिनी राय ने पुराने किले के पास पहाड़ी पर नए किले का निर्माण कराया। इसकी नींव संवत 1680 माघ कृष्ण पंचमी, बुधवार को रखी गई थी। यह किला रोहतासगढ़ से भी ऊंचा बनाया गया था-ऊंचतिगढ़ पलमुआं हो, नीचहिं गढ़ रूईदास(रोहतास)। पुराने किले के दक्षिण में दस हजारी छावनी थी। इसमें अनेक गुफाएं हैं। यहां चेरो के साथ खरवार भी महत्वपूर्ण जाति थी। इन दोनों के बीच अच्छे संबंध थे।
चेरो राज के संस्थापक भगवंत राय के पोते अनंत राय के शासन काल में औरंगजेब का तत्कालीन बिहार सूबेदार दाऊद खां ने पलामू पर कब्जा कर लिया। लेकिन उसके वापस लौटते ही चेरो राजा ने पुन: अधिकार कर लिया। इस बीच और घटनाएं हुईं। दाऊद खां ने पुन: 3 अप्रैल 1660 को पराजित किया। इस बार उसने किले को ही नुकसान नहीं पहुंचाया बल्कि किले के अंदर मंदिरों को तोड़कर मस्जिद बनवाई। उसी तरह किले के सिंहद्वार पर स्थित मंदिर को भी तोड़कर मस्जिद बनवाई। इसके ध्वंसाशेष आज भी किले के अंदर और बाहर मौजूद हैं। गुंबदों की आकृति को देखकर कोई भी सहज अनुमान ला सकता है। इसके बाद दाऊद ने पलामू का शासन फौजदार खां को सौंप दिया। लेकिन चेरो भी मानने वाले नहीं थे। किले पर पुन: कब्जा कर लिया। राजा भूपल राय (1661-1662) के बाद राजा मेदिनी राय राजा बने। ये चेरोवंश की पांचवीं पीढ़ी में थे। इनके शासन काल में राज्य स्थिर हुआ। विकास की गति तेज हुई। प्रजा खुशहाली के गीत गाने लगी। इन्होंने 13 साल तक राज किया। इसके बाद राज चलता रहा। दसवें राजा थे जयकिशुन राय (1722-1770)। इन्होंने 48 साल तक राज किया। चेरो वंश में सर्वाधिक राज करने वाले यही थे। उनके बाद चित्रजीत राय गद्दी पर बैठे पर, एक साल ही शासन कर पाए। गोपाल राय के भतीजे ने कोयल नदी के किनारे शाहपुर में एक किला बनवाया, जहां वे पलामू को छोड़कर रहने लगा। यहां 12 साल तक शासन किया। 14 वें राजा हुए चुरामन राय। ये नि: संतान थे। इन्होंने 38 साल तक शासन किया, लेकिन वे बिल्कुल अयोग्य थे। शासन की बागडोर दरबारियों के हाथ में ही रहा। यहीं से चेरो वंश अस्त होता है और अंगरेजों का प्रादुर्भाव। 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल-बिहार की दीवानी हासिल की। चेरो परिवार अपने गृह कलह के कारण अपने में ही उलझ गया। कंपनी को हस्तक्षेप करने का मौका मिल गया। इस तरह पलामू अंगरेजों के अधीन हो गया। इसके एक साल बाद यानी 1766 में पलामू वायसराय के सीधे नियंत्रण में आ गया। इसके बाद 38 सालों तक पलामू उथल-पुथल से मुक्त रहा। लेकिन 1857 आते-आते अंगरेजों के खिलाफ जंगल धधकने लगे। इसकी कहानी फिर कभी। 1 जनवरी 1892 को इसे जिला बनाया गया। इसके सौ साल बाद यानी 3 मई 1992 को इसे प्रमंडल बनाया गया। लेकिन, आज भी पलामू उपेक्षा का दंश झेल रहा है। किले का जीर्णोद्धार आज तक नहीं हुआ, न खुदाई की गई। उपेक्षा के कारण जंगलों ने अपने आगोश में ले लिया। घने जंगलों के बीच किले के बुर्ज से ओरंगा नदी का खूबसूरत नजारा दिखता है। पर, भारतीय पुरातत्व विभाग ने वहां आज तक कोई शिलापट्टï नहीं लगाया, ताकि पर्यटकों को इस ऐतिहासिक किले के बारे में जानकारी मिल सके।

1 टिप्पणी:

  1. सर,आपका ये प्रयास अत्यंत सराहनीय है। काश इस लेख को देख कर पुरातत्व विभाग की नींद खुलती।

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