भारतीय भाषा में ही नहीं, दुनिया की कई भाषाओं में रामकथा का साहित्य मौजूद है। दूसरी भाषाओं में राम से जुड़े प्रेरक प्रसंग, उनकी कथा, जीवन चरित आदि से उनकी लोकप्रियता का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। अपने देश में ही कई भाषाओं में राम का चरित उजागर हुआ है। संस्कृत से लेकर कई अन्य लोक भाषाओं में हम राम को पढ़ते-गुनते आ रहे हैं। कुछ दूसरी गोत्र की भाषाओं में भी राम के आख्यान मौजूद हैं, जिन्हें हिंदी के लेखकों या फिर राम पर गंभीर काम करने वाले अध्येताओं ने भी छोड़ दिया। यह भाषा है मुंडारी... मुंडा आदिवासी द्वारा बोली जाने वाली भाषा है।
इस भाषा के बाबत, जैसा कि जगदीश त्रिगुणायत जी ने लिखा है, छोटानागपुर पहाडिय़ों की संथाल, हो तथा अन्य जातियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं के साथ भाषाओं के उस परिवार से संबंध रखती हैं जिसे आस्ट्रो-एशियाटिक कहते हैं और जिसमें मान-ख्मेर, वापालंग, निकोवारी, खासी, मलक्का की आदिवासी भाषाएं सम्मिलित हैं। इस भाषा में फैले मुंडारी लोक गीतों का संकलन जगदीश जी ने किया है, जिसका नाम है 'बांसरी बज रहीÓ। इस संकलन में करीब 351 गीत हैं। जिनमें कुछ गीत राम के प्रसंग से भी जुड़े हैं। हम यहां उन्हीं में से कुछ गीतों को रखेंगे ताकि यह पता चल सके कि एक नितांत दूसरी कुल गोत्र की भाषा में रामकथा किस रूप में मौजूद है।
इससे पहले इस बात की भी छूट चाहेंगे कि हम थोड़ा जगदीश त्रिगुणायतजी के बारे में भी जान लें, जिन्होंने यह भगीरथ प्रयास किया। योंकि वे अभी जीवित हैं और नबे को छू रहे हैं। इन्हें हिंदी का हमारा समाज पूरी तरह भूल ही चुका है।
जगदीश जी का जन्म देवरिया (उार प्रदेश)में एक मार्च 1923 को हुआ था। पढ़ाई-लिखाई के बाद वे 1941 में महात्मा गांधी और डा. राजेंद्र प्रसाद की प्रेरणा से खादी ग्रामोद्योग के प्रचार-प्र्रसार के सिलसिले में रांची (झारखंड) चले आए। वे यहां अकेले नहीं आए थे, बल्कि उनकी मंडली में पांच आदमी थे-मोती बीए, सदानंद ब्रह्मïचारी, कवि शंभुनाथ सिंह, जगदीश त्रिगुणायत और एक कोई उपाध्यायजी। इस ग्रामोद्योग का उद्देश्य आदिवासियों में आजादी के प्रति जागृति, उनका उत्थान, चरखा का प्रचार आदि शामिल था। ये लोग एक साल तक छोटानागपुर के गांवों को घूमते रहे। गांवों की संस्कृति-संस्कार, रहन-सहन, नृत्य-गीत, रीति-रिवाज को देखते-परखते, सोचते-समझते रहे। कुछ लोगों को झारखंड की आबोहवा भा गई। वे यहीं रह गए। शंभुनाथ सिंह एक साल बाद एमए करने के लिए इलाहाबाद चले गए। इसी तरह और लोग भी यहां से चले गए सिवाय सदानंद ब्रह्मïचारी और जगदीश त्रिगुणायतजी के। जब खूंटी हाई स्कूल बना, त्रिगुणायतजी उसमें प्राध्यापक हो गए और वहीं छात्रावास में छात्रों के साथ रहने लगे। इसके बाद जब एचईसी की स्थापना हुई, त्रिगुणायतजी वहां जनसपंर्क अधिकारी के रूप में पदस्थापित हो गए। सन 1981 में यहां से अवकाश लिया और 91 तक रांची में रहे। इसके बाद वे अपने गांव देवरिया लौट गए। अभी वे जीवित हैं। हालांकि कुछ लेखों में उन्हें स्वर्गवासी बता दिया गया है।
आदिवासी जीवन के प्रति उनके रुझान को ले उनके परम शिष्य डा. रामदयाल मुंडा कहते हैं कि उनका रुझान शुरू से ही आदिवासी जीवन के प्रति रहा। यहां के लोक गीत, लोक नृत्य और लोक कथाओं के बारे में अधिकाधिक जानने का उत्सुक रहते। त्रिगुणायतजी का भी मानना है कि 'उनकी (आदिवासियों) सेवा करने का मौका नहीं मिलता तो उनकी संस्कृति को नहीं जान पाते।Ó
इस 'जाननेÓ के कारण ही उनकी दो पुस्तकें 'बांसरी बज रहीÓ और 'मुंडा लोक कथाएंÓ आईं। 'बांसरी बज रहीÓ 1957 में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से प्रकाशित हुई और 'मुंडा लोक कथाएंÓ 1968 में बिहार कल्याण विभाग से।
मुंडा जाति का सबसे बड़ा गीत या कथागीत 'सोसोबोंगाÓ जो उनके पूरे संघर्ष के इतिहास को दर्शाता है, इस गीत को प्रकाश में लाने का श्रेय त्रिगुणायतजी को ही है। वैसे, हाफमैन ने भी इस गीत को अपने विश्वकोष में जगह दी है, लेकिन वह पूरा नहीं है। संकलन के बाद त्रिगुणायतजी ने इस कथागीत को स्वतंत्र पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कराया था। बाद में मुंडारी लोक कथा में इसे शामिल कर दिया।
त्रिगुणायतजी के 'बांसरी बज रहीÓ संकलन में रामकथा प्रसंग से जुड़े करीब बीस गीत शामिल हैं। गीत के मूल रचयिता बुधू बाबू हैं। बुधू बाबू मुंडा साहित्य को समृद्ध करने वाले सबसे बड़े गीतकार थे। इनका पूरा नाम बुधनाथ शिखर था और इनका जन्म 1830 के लगभग और मृत्यु 1900 और 1910 के बीच हुई थी। वे लगभग अस्सी वर्ष जीवित रहे। बुधू बाबू के बारे में कहा जाता है कि जो बोल गए वह गीत बन गया। यह भी अजीब है बुधू बाबू मुंडा नहीं थे, लेकिन वे मुंडा भाषा के सबसे बड़े कवि हैं। कहते हैं कि हरी बाबू नामक एक पंचपरगनिया भाषा का गीतकार बुधू बाबू का साथी था। वह मुंडा भाषा भी अच्छी तरह जानता था। बुधू बाबू ने अंतिम समय में उससे अपनी 'रामायणÓ पूरी करने का अनुरोध किया था, किंतु उनकी इच्छा पूरी न हो सकी। इसी अधूरी रामायण के कुछ अंश को जगदीश जी ने अपने संकलन में जगह दी है।
संकलन का पहला गीत शूर्पनखा से होती है, जो लंकापति के दरबार में कहती है कि-हाय, हे भाई! मै तुमकों या बताऊं, दो युवकों के साथ
एक बहुत सुंदर स्त्री है।
.......
हाय, हे भाई!
उन्होंने मेरी नाक काट ली।
और, गीत का अंत-अंगद की लंका से वापसी पर होता है, जहां राम के शिविर में पहुंचकर अंगद राम को प्रणाम करता है। इसी के बीच की कथा दी गई है। गीतों में वीर हनुमान व अंगद की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। कुछ गीत देखें-
रामायन रे ओलकन/बुदु बाबू दुरङ्तन/
राम राम मेन्ते/ सेटेर जनको लङकते/ राम राम मेन्ते। (रामायण में जो कुछ लिखा हुआ है, उसी को बुदु बाबू गा रहे हैं। राम राम कहते हुए, वे लंका को पहुंच गए, राम राम कहते हुए)
डरी मंदोदरी जब रावण से बंदरों की वीरता का बखान करती है तो रावण कहता है-
होड़ो गडि़ सदोम् मिडि/ इन जिलुलो:ञ् जोम्तन् मडि/ दिनकि हो अम्गेम् उतुतन्/ अञ्दोञ् छन्द जन्/ ओको बीर लङाक्ते: हिअकन्। (आदमी, बंदर, घोड़े और भेड़/इन्हीं के मांस से तो हम भात खाते हैं। प्रतिदिन तुम्ही तो(उन्हें) पकाती हो। मुझे आश्चर्य होता है/ (कि) कौन वीर लंका आया हुआ है?)
अंगद लंकापति के दरबार में पैर जमाकर बैठ गया। रावण मेघनाथ से कहता है कि यह नहीं जानता कि मैं कौन हूं। वह कहता है, हे मेघनाथ, उठो, इसे पकड़ लो और उठाकर फेंक दो। बंदर वीर बनने चला है! (रावन राजाए: कजितन/ अञ् ओकोए कए: ठोओरन/ इनते अनए: कजितन्/ बिरिद् मे ग मेघनाथ/ सबि:मे ग मेघनाथ/ हुरङ् गिडि़ तइमे/ गडि़ बीरे: बइअकन्)
रावण को इस बंदर की शक्ति का अहसास नहीं था। वीर अंगद ने ताल ठोका और राजा रावण मुंह के बल गिर पड़ा। उसका मुकुट जमीन पर बिखर गया। वीर अंगद उठा-उठाकर रावण को फेंक रहा है। राम दल के वीर इस तमाशे को देख रहे हैं। (अङ्गïद बीरे: तलिकेन/ रावन राजाए: तुबिद्जन/ बो:रे मुकुट तलरे गिडिज़न्/ अङ्गïद वीर हलङ् हलङ् हुरङ्गिडि़तन्/ रामदल बीर को लेल्तन्)
रावण को परास्त करने के बाद अंगद राम के शिविर में चला जाता है। सभी वीर अंगद को देख रहे हैं और अंगद राम को प्रणाम कर रहा है। बुदु बाबू की यह कहानी यहीं समाप्त हो जाती है। जगदीश जी ने इन गीतों को बड़े परिश्रमपूर्वक संकलित किया है। हिंदी में इसे माइलस्टोन माना जाता है। उनके बाद फिर किसी हिंदी भाषी ने मुंडा या अन्य झारखंड की भाषाओं में बिखरे गीतों को संकलित करने का प्रयास नहीं किया। अलबाा, धीरे-धीरे आदिवासी समाज खुद अपने टोटमों, गीतों, कथाओं को संकलित करने के प्रति जागरूक हुआ है।
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