रांची का पागलखाना (अब केंद्रीय मनश्चिकित्सा संस्थान) आज सौवें साल में प्रवेश कर गया। प्रथम विश्वयुद्ध के समय ब्रिटिश सेना में बढ़ते पागलों की संख्या को ध्यान में रखकर रांची में पागलखाना खोला गया।
हालांकि बांबे में देश का पहला पागलखाना 1745 में खोला गया। इसके बाद 1784 में कलकत्ता में। औपनिवेशिक काल की ऐसी क्या नीतियां रहीं कि लगातार पागलखाना खोले जा रहे थे। आजादी से पहले तक देश में 31 मेंटल हास्पिटल खुल गए थे। मानवाधिकार की रिपोर्ट बताती है कि 1999 तक इनकी संख्या 59 हो चुकी थी।
लेकिन कांके की बात ही कुछ और है। यहां का तापमान रांची से हमेशा एक-दो डिग्री सेल्सियस कम ही रहता है। इसलिए, यहां के मौसम को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने पागलखाना खोलने का निश्चय किया। इस तरह, 17 मई, 1918 को इसका विधिवत उद्घाटन हो गया।
दो सौ दस एकड़ में फैले इस पागलखाने में आजादी से पहले तक इसमें केवल यूरोपीय मरीजों का ही इलाज होता था। देश आजाद हो गया तो यह पाबंदी स्वत: ही खत्म हो गई और भारतीय मरीजों का इलाज शुरू हो गया। अपनी खास चिकित्सा पद्धति के कारण देश में यह अग्रणी संस्थान रहा। 1919 में यह एशिया का सबसे बेहतरीन संस्थानों में शुमार हो गया। 1922 तक इसे यूरोपियन लूनटिक असाइलम (यूरोपियन पागलखाना)के नाम से जाना जाता था। इसके बाद यूरोपियन मेंटल हास्पीटल हुआ। इसी साल यूनिवर्सिटी आफ लंदन से संबंद्ध हुआ और यहां पढऩे वाले छात्रों को प्रमाण पत्र लंदन से ही मिलता था। देश की आजादी के बाद इसका नाम बदल गया और इंटर प्रोविंसिया मेंटल हास्पिटल हो गया और सभी भारतीयों के लिए यह अस्पताल खुल गया।
इस संस्थान को यह श्रेय जाता है कि यहां देश में सबसे पहले आक्यूपेशनल थेरेपी विभाग 1922 में खुला। 1943 में इसीटी खुला। 1947 में साइकोसर्जरी एंड न्यूरोसर्जरी खुला। 1948 में क्लीनिकल साइकोलाजी एंड इलेक्ट्रोनसाइकोग्राफी विभाग खुला। 1952 में न्यूरोपैथालॉजी भी यहां खुल गया। यहां और भी बहुत कुछ है। 1948 में देश में पहली बार यहां सइको सर्जरी हुआ। यह ऐसा अस्पताल है, जहां मरीजों को बंद करके नहीं रखा जाता है। यहां खुले में भी मरीज घूमते रहते हैं।
सप्ताह में चार दिन होता था गीत-संगीत
1925 की वार्षिक रिपोर्ट बताती है, यहां के पागल नाटक करते थे। गीत-संगीत में भाग लेते थे। सप्ताह में चार दिन पुरुष मरीज कार्यक्रम पेश करते थे और सप्ताह में दो दिन महिला मरीज। कार्यक्रम देखने के लिए मरीज काफी उत्सुकता से प्रतीक्षा करते थे।
फुटबॉल व हॉकी भी खेलते थे
यहां मरीज स्टाफ के साथ फुटबॉल, हॉकी, बैडमिंटन से लेकर शतरंज भी खेलते थे। इलाज का यह भी एक हिस्सा था। जो जिस खेल में रुचि लेता था, उसे वह सुविधा प्रदान की जाती थी। 1925-29 के बीच यहां के पागलों ने रांची के सभी खेल क्लबों को हराकर फुटबाल और हॉकी के सारे टूर्नामेंट मैच जीत लिए थे।
बाजार भी करते थे
यही नहीं, यहां के मरीज रांची बाजार भी मोटर से जाते थे। जरूरत की चीजें खरीदकर लाते थे। पिकनिक मनाने जाया करते और सर्कस-जादू, थिएटर का आनंद लेते थे।
अखबार भी खूब पढ़ते थे
यहां पर हिंदी, अंग्रेजी, ओडिय़ा, बांग्ला आदि भाषाओं में 10 से ज्यादा अखबार आता था, जिसे बड़े चाव से ये पढ़ते थे। स्टेट्मेन, अमृतबाजार पत्रिका, बंगाली, सर्चलाइट आदि समाचार पत्र आते थे। चूंकि ब्रह्मपुर, ढाका, पटना के मेंटल अस्पताल में लाइब्रेरी नहीं थी। कुछ पुस्तकों को मेजर बीसी चक्रवर्ती ने ब्रह्मपुर को पुस्तकें भेंट की थी। यही नहीं, 1940 में सिर्फ एक साल के दौरान हिंदी, अंग्रेजी और बांग्ला की 58 फिल्में देख डाली थीं, वह भी मुफ्त में।
मजाज का भी हुआ था इलाज
उर्दू के मशहूर शायर मजाज का भी इलाज रांची के पागलखाने (केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान है) में हुआ। 11 मई, 1952 में उन्हें यहां भर्ती कराया गया था। नवंबर तक यहां वे रहे। रांची में मजाज की देखभाल सुहैल और अपने जमाने के मशहूर कथाकार राधाकृष्ण करते थे। रांची में जब भर्ती हुए तब उन्हें तीसरा और अंतिम नरवस ब्रेक डाउन का हमला हुआ था। तीन साल बाद उनका निधन हो गया।
काजी भी 1952 में यहां थे भर्ती
मई के महीने में ही 1952 के उसी साल में बांग्ला के मशहूर विद्रोही कवि काजी नजरूल इस्लाम भी इलाज के लिए यहां भर्ती हुए थे। कहते हैं, मजाज और काजी मिलते भी थे। काजी की तो आवाज की चली गई थी। उन मुलाकातों का अनुभव ही कर सकते थे। काजी को बाद में लंदन और फिर बियना ले जाया गया, लेकिन में अंत तक ठीक नहीं हो सके।
हालांकि बांबे में देश का पहला पागलखाना 1745 में खोला गया। इसके बाद 1784 में कलकत्ता में। औपनिवेशिक काल की ऐसी क्या नीतियां रहीं कि लगातार पागलखाना खोले जा रहे थे। आजादी से पहले तक देश में 31 मेंटल हास्पिटल खुल गए थे। मानवाधिकार की रिपोर्ट बताती है कि 1999 तक इनकी संख्या 59 हो चुकी थी।
लेकिन कांके की बात ही कुछ और है। यहां का तापमान रांची से हमेशा एक-दो डिग्री सेल्सियस कम ही रहता है। इसलिए, यहां के मौसम को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने पागलखाना खोलने का निश्चय किया। इस तरह, 17 मई, 1918 को इसका विधिवत उद्घाटन हो गया।
दो सौ दस एकड़ में फैले इस पागलखाने में आजादी से पहले तक इसमें केवल यूरोपीय मरीजों का ही इलाज होता था। देश आजाद हो गया तो यह पाबंदी स्वत: ही खत्म हो गई और भारतीय मरीजों का इलाज शुरू हो गया। अपनी खास चिकित्सा पद्धति के कारण देश में यह अग्रणी संस्थान रहा। 1919 में यह एशिया का सबसे बेहतरीन संस्थानों में शुमार हो गया। 1922 तक इसे यूरोपियन लूनटिक असाइलम (यूरोपियन पागलखाना)के नाम से जाना जाता था। इसके बाद यूरोपियन मेंटल हास्पीटल हुआ। इसी साल यूनिवर्सिटी आफ लंदन से संबंद्ध हुआ और यहां पढऩे वाले छात्रों को प्रमाण पत्र लंदन से ही मिलता था। देश की आजादी के बाद इसका नाम बदल गया और इंटर प्रोविंसिया मेंटल हास्पिटल हो गया और सभी भारतीयों के लिए यह अस्पताल खुल गया।
इस संस्थान को यह श्रेय जाता है कि यहां देश में सबसे पहले आक्यूपेशनल थेरेपी विभाग 1922 में खुला। 1943 में इसीटी खुला। 1947 में साइकोसर्जरी एंड न्यूरोसर्जरी खुला। 1948 में क्लीनिकल साइकोलाजी एंड इलेक्ट्रोनसाइकोग्राफी विभाग खुला। 1952 में न्यूरोपैथालॉजी भी यहां खुल गया। यहां और भी बहुत कुछ है। 1948 में देश में पहली बार यहां सइको सर्जरी हुआ। यह ऐसा अस्पताल है, जहां मरीजों को बंद करके नहीं रखा जाता है। यहां खुले में भी मरीज घूमते रहते हैं।
सप्ताह में चार दिन होता था गीत-संगीत
1925 की वार्षिक रिपोर्ट बताती है, यहां के पागल नाटक करते थे। गीत-संगीत में भाग लेते थे। सप्ताह में चार दिन पुरुष मरीज कार्यक्रम पेश करते थे और सप्ताह में दो दिन महिला मरीज। कार्यक्रम देखने के लिए मरीज काफी उत्सुकता से प्रतीक्षा करते थे।
फुटबॉल व हॉकी भी खेलते थे
यहां मरीज स्टाफ के साथ फुटबॉल, हॉकी, बैडमिंटन से लेकर शतरंज भी खेलते थे। इलाज का यह भी एक हिस्सा था। जो जिस खेल में रुचि लेता था, उसे वह सुविधा प्रदान की जाती थी। 1925-29 के बीच यहां के पागलों ने रांची के सभी खेल क्लबों को हराकर फुटबाल और हॉकी के सारे टूर्नामेंट मैच जीत लिए थे।
बाजार भी करते थे
यही नहीं, यहां के मरीज रांची बाजार भी मोटर से जाते थे। जरूरत की चीजें खरीदकर लाते थे। पिकनिक मनाने जाया करते और सर्कस-जादू, थिएटर का आनंद लेते थे।
अखबार भी खूब पढ़ते थे
यहां पर हिंदी, अंग्रेजी, ओडिय़ा, बांग्ला आदि भाषाओं में 10 से ज्यादा अखबार आता था, जिसे बड़े चाव से ये पढ़ते थे। स्टेट्मेन, अमृतबाजार पत्रिका, बंगाली, सर्चलाइट आदि समाचार पत्र आते थे। चूंकि ब्रह्मपुर, ढाका, पटना के मेंटल अस्पताल में लाइब्रेरी नहीं थी। कुछ पुस्तकों को मेजर बीसी चक्रवर्ती ने ब्रह्मपुर को पुस्तकें भेंट की थी। यही नहीं, 1940 में सिर्फ एक साल के दौरान हिंदी, अंग्रेजी और बांग्ला की 58 फिल्में देख डाली थीं, वह भी मुफ्त में।
मजाज का भी हुआ था इलाज
उर्दू के मशहूर शायर मजाज का भी इलाज रांची के पागलखाने (केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान है) में हुआ। 11 मई, 1952 में उन्हें यहां भर्ती कराया गया था। नवंबर तक यहां वे रहे। रांची में मजाज की देखभाल सुहैल और अपने जमाने के मशहूर कथाकार राधाकृष्ण करते थे। रांची में जब भर्ती हुए तब उन्हें तीसरा और अंतिम नरवस ब्रेक डाउन का हमला हुआ था। तीन साल बाद उनका निधन हो गया।
काजी भी 1952 में यहां थे भर्ती
मई के महीने में ही 1952 के उसी साल में बांग्ला के मशहूर विद्रोही कवि काजी नजरूल इस्लाम भी इलाज के लिए यहां भर्ती हुए थे। कहते हैं, मजाज और काजी मिलते भी थे। काजी की तो आवाज की चली गई थी। उन मुलाकातों का अनुभव ही कर सकते थे। काजी को बाद में लंदन और फिर बियना ले जाया गया, लेकिन में अंत तक ठीक नहीं हो सके।
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