स्वामी सहजानंद सरस्वती और झारखंड के किसान


जब आप अफ्रीका या एशिया के कुछ हिस्सों में गरीबी, भूख से बिलखते बच्चों और कुपोषण को देखते हैं, उस समय हमें खुद को भी देखना चाहिए, जो बेहद आरामदायक जिंदगी जी रहे हैं। मुझे लगता है कि हमें सिर्फ सामग्री देकर उनकी मदद नहीं करनी चाहिए। हम जिस समुदाय में रहते हैं, उसको समृद्ध बनाना चाहिए।’                                                                                              -रतन टाटा

यह उद्गार रतन टाटा ने न्यूयार्क में 27 जून, 2012 को व्यक्त किया। उन्हें परोपकार के लिए रॉकफेलर फांउडेशन ने लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया। सम्मानित किए जाने पर यह सद्विचार उनके श्रीमुख से निकला। उन्होंने यह भी कहा कि ‘जिस जगह वह कारोबार चला रहे हैं, उसके विकास की जिम्मेदारी उन्हें ही संभालनी होगी। उद्योगों को समाज को समृद्ध बनाने के कदम उठाने चाहिए। बताया कि विकासशील देशों में आर्थिक विषमता बहुत ज्यादा है। अगर उद्योग जगत इसे लेकर संवेदनशील नहीं बना तो उस क्षेत्रा का विकास संभव नहीं हो पाएगा, जहां वे कारोबार करना चाहते हैं।’

टाटा के इस नेक विचार को उनके कामों से देखना चाहिए। यहां हम झारखंड की चर्चा करेंगे, जहां उनका विशाल संयंत्रा है, जिसे आज उस शहर को उनके पिता जमशेदपुर के नाम से जाना जाता है। यहां पर 1908 में जमीन का अधिग्रहण किया गया था। जमीन अधिग्रहण के लिए छोटानागपुर टीनेंसी एक्ट को पांच साल तक ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था ताकि टाटा को जमीन अधिग्रहण के लिए कानूनी पचड़ों में न उलझना पड़े। सौ साल से उपर इस कंपनी ने क्षेत्रा का कितना विकास किया, इसकी चर्चा यहां फिजूल है।

   लेकिन कुछ बातें सहजानंद सरस्वती के मार्फत करेंगे और इसी के बहाने झारखंड के किसानों की चर्चा भी कि आज झारखंड के किसान किस हाल में जी रहे हैं। स्वामी सहजानंद सरस्वती 29 अप्रैल 1940 से लेकर 8 मार्च 1942 तक हजारीबाग सेंटल जेल में बंद थे। यहीं पर उन्होंने झारखंड के किसान नामक पुस्तक लिखी। जेल में ऐसे कई किसान थे, जो अपनी सिधाई के चलते सजा भुगत रहे थे। सहजानंद उनसे बार-बार मिलते, बातें करते, उनकी समस्याओं को समझने की कोशिश करते। ऐसी स्थिति में उनका ध्यान झारखंड की किसान समस्या की ओर गया। स्वामी जी ने झारखंड को किताबों के जरिए नहीं, अपनी आंखों से देखा-पढ़ा। कारावास की सजा से पहले वे झारखंड के विभिन्न क्षेत्रों का दौरा कर चुके थे। कई किसान सभाओं को वे संबोधित कर चुके थे। किसानों की समस्याओं को नजदीक से देखा। 3-4 जुलाई, 1939 को
घाटशिला में संपन्न सिंहभूम जिला का किसान सम्मेलन के अध्यक्ष पद से उन्होंने किसानों की अनेक समस्याओं पर रोशनी डाली थी। राज्य के सबसे पिछड़े इलाके, अब नक्सल प्रभावित पलामू का दौरा दिसंबर, 1939 में किया था। महुआडाड़, जो अब लातेहार जिले का हिस्सा बन गया है, में सभा को संबोधित किया था। यहां उनको झारखंडी किसानों की समस्याओं के साथ उनकी जीवंत और उत्कृष्ट संस्कृति को भी देखा। सभा के बाद आधी रात को जब उनकी नींद टूटी तो ‘मांदर-बांसुरी की ध्वनि के साथ गाने की तान सुनी। बाहर निकलकर देखा तो जगह-जगह स्त्रा पुरुष अर्धवृाकार होकर नाच रहे थे। कितने ही गरोहों में एक दल स्त्रियों का और दूसरा दल पुरुषों का आमने-सामने खड़ा चक्कर देता नाचता-गाता है। ऐसी सुंदर चीज को क्या कहा जाए! नाच-गाने के साथ व्यायाम और परिश्रम कितना सुंदर! नजदीक से देखा! स्त्रा-पुरुषों की होड़ भी खूब थी।’ दिसंबर का महीना, पहाड़ की ठंड, नीचे पथरीली जमीन, पर खुला आसमान, तन पर साबूत कपड़े नहीं, मगर वह सारी रात किसानों ने नाचते-गाते बिता दी। स्वामी सहजानंद यह सब देख अभिभूत थे। स्वामी जी लिखते हैं, वह स्वर्गीय दृश्य मैं भूल नहीं सकता।

  आदिवासी समाज का यह विद्रूप सच है। उन्होंने तमाम दुख-तकलीफों को सहते हुए, अपनी अमूल्य सांस्कृतिक विरासत, अटूट परंपरा एवं लोकाचार की निधि को बचाकर-संजोकर रखा है। उनकी धरती के नीचे सोना, कोयला, अभ्रक, हीरा, यूरेनियम न जाने कितने अनमोल खजाने हैं, लेकिन ये इनके जीवन में खुशहाली नहीं ला सके। लाया तो गरीबी, विस्थापन, पलायन, शोषण का अंतहीन सिलसिला। जमीन की लड़ाई पहले भी थी और आज भी कायम है। झारखंड के दुरुह इलाकां में, पहाड़ों पर, पहाड़ के शिखरों पर जैसे-जैसे प्राचीन जनजातियां आती गईं, बसती गईं, वैसे-वैसे इनका आपस में संघर्ष भी बढ़ता गया। राज्य में 32 जनजातियां हैं। इनमें पांच आदिम जनजाति की श्रेणी में आते हैं। सबकी अपनी-अपनी संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज है, जिसे ये जीते हैं। एक बात सब आदिवासियों में कॉमन है, वह है इनका प्रकृति के साथ तादात्म्य और साहचर्य। जमीन इनके लिए मां है। जंगलों को साफ करके इन्होंने खेती लायक जमीन बनाई। सामूहिकता इनकी जातीय विशेश्षता है। यहां कोई बड़ा नहीं, छोटा नहीं। न राजा न रंक। सब समान। इनके अपने पुजारी, पाहन, राजा भी हैं, लेकिन सब खेती पर निर्भर। मैदानी इलाकां की तरह इनका कोई राजमहल नहीं होता, जहां राजा अपने दरबारियों के साथ रहता है। यहां सब बराबर हैं। अखड़ा में सभी नाचते हैं। स्त्रा-पुरुष में कोई भेद नहीं। अपने में ही सिमटे-सिकुड़े और मस्त। लेकिन जैसे-जैसे बाहरी लोगों का इन इलाकों में प्रवेश होता गया, इनकी जिंदगी में दखलंदाजी भी बढ़ने लगी। पहले भारत के दूसरे हिस्से से लोग आए इसके बाद अंग्रेज। फिर शुरू हुआ जल, जंगल, जमीन बचाने को लेकर आंदोलन। देश-दुनिया में चलने वाला सबसे लंबा
संघर्ष। 18 वीं शताब्दी से जो आंदोलन शुरू हुआ, वह आज तक किसी न किसी प्रकार से, किसी न किसी बहाने जारी है। बिना इनके इतिहास को देखे-समझे आप इनकी संघर्षशील मन को नहीं समझ सकते। ये जितने भोले हैं उतने ही क्रांतिकारी और लड़ाकू भी। सहज-सरल भी उतने ही। संस्कृति-प्रकृति से लगाव कोई इनसे सीख सकता है कि आधी रोटी खाकर भी ये अपनी इंसानियत नहीं भूलते। लेकिन ये अपने हक के लिए अपनी जान की परवाह भी नहीं करते।
                               
                                                                        ।। 2।।  

  स्वामी सहजानंद के कदम बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में झारखंड की धरती पर पड़े, लेकिन जमीन की लड़ाई और पीछे से जारी है। कुमार सुरेश सिंह ने ‘बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन’ में लिखा है कि 18 वीं शताब्दी के उारार्द्ध में जनजातीय क्षेत्रों में बाहरी लोग भारी संख्या में पहुंचने लगे थे। व्यापारी के अलावा इनमें किसान भी थे, जिन्हें जमीन की बेइंतहा भूख थी और जिनके खेती करने के तरीके बेहतर थे। यही वह समय था जब ब्रिटिश सत्ता भी जनजातीय क्षेत्रों में अपने पांव जमा रही थी और जिसका विरोध जनजातीय या आदिवासी शुरू कर चुके थे। हालांकि यह भी सच है कि अंग्रेजों के शासन काल से पहले ही भूमि को लेकर अशांति के बीज बो दिए गए थे। यह सब मध्ययुग में सामंती व्यवस्था के प्रभाववश हुआ था। मुंडाओं की परंरागत भूमि व्यवस्था को नष्ट करने में बाहरी तत्वों का हाथ था-इनमें राजा और उनका परिवार-संबंधी, जागीरदार व जमींदार, ब्रिटिश शासक व स्थानीय छोटे अफसर। 1874 तक आते-आते हालत इस कदर बिगड़ चुके थे कि पुराने मुंडा और उरांव सरदारों का प्रभाव समाप्त हो चुका था। इनके स्थान पर प्रभावशाली हो जाने वाले गैरआदिवासी किसान थे, जिन पर बड़े जमींदारों का वरदहस्त था। जमींदार-जागीदार और प्रभावशाली तबके ने अंग्रेजों से मिलकर आदिवासियों पर अत्याचार शुरू किए। शोषण के नए-नए तरीके अख्तियार किए। मैदानी इलाकां से आए ये दिकू वही शासन-पद्धति और अत्याचार शुरू किए। लेकिन इनके अत्याचार सहने की भी एक सीमा थी। झारखंड तब और आज भी मोटे तौर पर दो भागों में बंटा है। एक छोटानागपुर और दूसरा संताल परगना। समस्याएं दोनों क्षेत्रों में व्याप्त थीं। शोषण दोनां जगहों पर जारी था। आखिरकार किसी से भी न दबने व सहने वाले आदिवासियों ने 1789 में विद्रोह कर दिया, जिसका सामना अंगरेजों को करना पड़ा। यह छह साल तक चला। यह विद्रोह रांची जिले के तमाड़ क्षेत्रा से शुरू हुआ और पूरे कोल्हान में फैल गया। नतीजतन तमाड़ में पुलिस थाना स्थापित किया गया और थानेदार नियुक्त किए गए और आदिवासी मुंडा, हो और उरांव क्षेत्रा को राजा के अंतर्गत लाया गया। फिर भी आदिवासियों का जो ग्राम संगठन या अपनी शासन पद्धति थी, भूमि व्यवस्था के मामले में कोई समर्पण नहीं किया और बंगाल रेगुलेशन संख्या 20 सन् 1793 एवं रेगुलेशन संख्या 18 सन् 1805 के प्रावधान उनको डिगा नहीं सके। नतीजा, संघर्ष कभी विराम नहीं लिया। अंग्रेजों को जल्द ही समझ में आ गया कि आदिवासियों की अस्मिता और उनके व्यक्तिगत या समुदायगत अधिकार एवं रीति-रिवाज से छेड़खानी न कर, उनके इन अधिकारां एवं व्यवस्था की रक्षा कर ही इस भूभाग पैर जमाया जा सकता है। अंततः 1837 में कैप्टन विल्किंसन ने कोल्हान क्षेत्रा में रहने वाले लोगां के लिए नियम बनाए जो कुछ हद तक सर्वमान्य रहे और आदिवासियों को शांत रख सके। यह बिल्किंसन रूल आज भी अपनी अहमियत रखता है और कानूनी रूप में वैध है।

                                                                             ।।3।।

   इतिहास की मुख्यधारा में 1857 के विद्रोह को प्रथम स्वतंत्राता संग्राम कहा गया है। लेकिन झारखंड में इसके दो साल पहले, 1855 में ही संताल परगना में अंग्रेजों के खिलाफ हूल विद्रोह हुआ था। यह विद्रोह भी, जल, जंगल, जमीन पर अपने अधिकार को लेकर आदिवासियों ने छेड़ा था। इस विद्रोह में काफी संख्या में आदिवासी मारे गए। इस विद्रोह में हर जाति ने आदिवासियों की मदद की। क्षणिक हार आदिवासियों की जरूर हुई, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। अंततः अंग्रेजों ने संताल परगना अधिनियम 1855 बनाया। इसी तरह छोटानागपुर में बिरसा मुंडा ने 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में आंदेलन 1872-1901 छेड़ा। लंबा संघर्ष चला। बिरसा मुंडा मुखबिरी के शिकार हुए और पुलिस ने उन्हें गिरतारी कर लिया और रांची जेल में उनकी मृत्यु हुई। बिरसा तब तक धरती आबा बन चुके थे। उनकी शहादत बेकार नहीं गई। अंग्रेजों को अंततः आदिवासियों के साथ समझौता करना पड़ा और उन्हांने छोटानागपुर टीनेंसी एक्ट बनाया। यह कानून तो 1903 में ही बन गया, लेकिन इसे लागू 1908 में किया गया। पांच साल तक इसे ठंडे बस्ते में इस लिए रखा गया ताकि टाटा कंपनी को जमीन लेने में कोई परेशानी न हो। टाटा ने जमीन अधिग्रण कर लिया। जमशेदपुर में उसने अपना विशाल संयंत्रा स्थापित किया। टाटा ने कितना विकास अपने क्षेत्रा का किया, इसे सहजानंद सरस्वती ने भी विस्तार से लिखा है। जिस पर आगे बात की जाएगी। टाटा पर बात करने से पहले यह सवाल भी मौजू है कि जब आदिवासियों के लिए तीन कानून बन गए इसके बाद भी इनकी जमीन अधिग्रहण क्यां होती रही? पलायन क्यों होता रहा? विकास के नाम पर विस्थापन क्यों होता रहा? और, आज भी इनकी जमीनें कैसे बिक रही हैं? यह एक लंबी और अंतहीन बहस है। कानून इनकी रखवाली नहीं कर सका। क्योंकि ये कानून के पचड़े नहीं जानते। इनके भोलेपन का फायदा कानून के रखवाले, दलालां, अफसरों ने उठाया। लंबे संघर्ष के बाद 2006 में वनाधिकार कानून आया। लेकिन आज तक झारखंड की सरकार या वन विभाग के अफसर इसे सही ढंग से लागू नहीं कर रहे है। 35 साल बाद पंचायत चुनाव हुए। आठ महीने से पंचायतों को उनके अधिकार नहीं सौपे गए। राज्य पेसा के अंतर्गत आता है। यहां पांचवीं अनुसूची लागू है, लेकिन कोई भी कानून इनकी सुरक्षा नहीं कर सका न कर रहा है। जमीन और जंगल इनकी आजीविका के मुख्य स्रोत हैं। पर, दोनों से इन्हें बेदखल करने का कोई मौका संबंधित अधिकारी-जमीन दलाल नहीं छोड़ते।
    स्वामी सहजानंद सरस्वती ने जंगलों पर आदिवासियों के अधिकार और जमींदारों द्वारा वंचित और शोषित किए जाने का हवाला दिया है। झारखंड की लड़ाई और फ्रांस की लड़ाई में कोई अंतर नहीं। स्वामी जी ने फ्रांस के पाल लाफार्ग की किताब ‘संपत्ति का विकास’ से एक लंबा उद्धरण दिया है, उसका एक अंश पेशे खिदमत है-‘ अधिक निर्दयता के साथ जंगलों को हथिया लिया गया। कानूनी बातों को ताक पर रखके जमींदारों ने जंगलों और झाड़ियों पर अपना अधिकार जमा लिया। उनने जंगलों को घेर दिया रिजर्व और प्रोटेक्टेड बना लिया, उनने औरों का शिकार खेलना रोक दिया और घर गिरस्ती के लिए काठबांस वगैरह लेना खत्म कर दिया, जिससे ईंधन तथा घर, घेरा, औजारों की मरम्मत वगैरह के लिए कुछ भी जंगल से नहीं लिया जा सकता था। जो जंगल बराबर गांवों की सार्वजनिक संपत्ति थे, उन्हें इस तरह जमींदारां द्वारा हथियाए जाने का नतीजा यह हुआ कि किसानों के भयंकर विद्रोह होने लगे।’ ठीक यही स्थिति झारखंड में अंग्रेजी काल के दौरान भी रही। जमीन और जंगल को लेकर पूरे झारखंड में हूल होते रहे। आजादी मिली तो लगा कि आदिवासियों के दिन सुधरेंगे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। बाहरी लोगों का यह आंतरिक उपनिवेश बना रहा। 2000 में यह राज्य अलग हुआ तो फिर एक बार उम्मीद जगी, लेकिन यह उम्मीद भी 12 साल से दम तोड़ रही है। जब से राज्य बना है, आदिवसी ही राज्य का  मुखिया रहा और है। पर आदिवासियों की किस्मत नहीं बदली। जो स्थिति आजादी से पहले थी, वही आज भी है। जमीन की लड़ाई आज भी जारी है। विकास के नाम पर। उद्योग स्थापित करने के नाम पर। आदिवासियों की बेहतरी के नाम पर। आज पूरे राज्य में जगह-जगह जमीन को लेकर संघर्ष चल रहे हैं। सौ से पर राज्य की सरकार ने कंपनियों के साथ एमओयू किए हैं। सबको जमीन चाहिए, पानी चाहिए। आधारभूत संरचना चाहिए। जमीन कोई रबर तो है नहीं उसे फैला देंगे। किसान अपनी उपजा जमीन देना नहीं चाहते। कंपनियां कहीं-कहीं दलालों के माध्यम से जमीनें खरीद रही हैं, जिसका विरोध किया जा रहा है। राज्य की पुलिस किसानों की नहीं, कंपनियों के साथ खड़ी है, जिसके कारण तनाव, कहीं-कहीं संघर्ष का रूप ले ले रहा है। इसे राज्य की सरकार समझने की कोशिश कतई नहीं कर रही है। दुर्भाग्य यह है कि राज्य में सौ साल से जो सरकारी-गैर सरकारी कंपनियां काम कर रही हैं, उन्हांने राज्य और यहां के लोगों का कितना विकास किया है? इसका कोई आकलन नहीं किया? कितनी जमीनें बंजर हुईं, कितनी नदियां बेपानी और प्रदूषित हो गई, इस पर सरकार आंख मूंदे हैं। जबकि यहां की सभी नदियां और यहां तक कि जो लाइफ लाइन नदियां हैं, स्वर्णरेखा-दामोदर वे आज दम तोड़ रही हैं। इन्हें बचाने की कवायद स्वयं सेवी संगठन अपने स्तर से कर रहे हैं। यहां अब तो जो भी विकास हुआ, उसने बड़े पैमाने पर विस्थापन और पलायन को जन्म दिया।    
    राज्य में विकास के नाम पर क्या चल रहा है, इसे एक दो उदाहरण से समझने का प्रयास करेंगे। रांची के पास कांके ब्लाक के नगड़ी गांव के ग्रामीणों की जमीन 1957-58 में कृषि विवि के विस्तार के लिए अधिग्रहित की गई थी। ऐसा सरकार का कहना है। ग्रामीण कहते हैं, उस समय इसका विरोध किया गया था, जिसके कारण सरकार ने मुआवजा राशि कोषागार में जमा करा दिया। अब सरकार उस 227 एकड़ भूमि पर, जिस पर वह दावा कर रही है, बिना किसी नई अधिसूचना के वहां विधि विश्वविद्यालय, केंद्रीय विश्वविद्यालय, आइआइएम एवं टीपल आइटी खोलने का निर्णय लिया। इस साल के जनवरी में सुरक्षाबलों की मौजूदगी में जमीन की चहारदीवारी का निर्माण शुरू कर दिया गया। जनवरी में किसानों ने जो फसल-सब्जियां लगाई थीं, उसे रौंद दिया गया। ग्रामीण में रात में चहारदीवार को गिरा देते। मामला हाईकोर्ट में गया। कोर्ट ने सख्त टिप्पणी की और सुरक्षा बलों की संख्या काफी बढ़ा दी गई। ग्रामीण गोलबंद हुए और खेत में ही धरना देना शुरू कर दिया। करीब चार महीना तपती धूप में भी ग्रामीण किसान शांतिपूर्ण धरना देते रहे। इसके बाद एक विशाल रैली निकाली गई। आदिवासी अपने पारंपरिक हथियारों से लैस राजधानी में रैली निकाली। 24 जून को किसानों ने अपने खेत पर हल चला दिया। पुलिस से काफी नोकझोंक हुई। संघर्ष तेज हुआ। चार लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया, जो अभी जेल में बंद है। किसानों का कहना है कि वे 1957 से जमीन की रसीद कटवाते आ रहे हैं। सरकार ने भू राजस्व मंत्रा मथुरा महतो के नेतृत्व में एक जांच कमेटी भी बना दी है। मथुरा शिबू सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा से हैं। राज्य में गठबंधन की सरकार है। मोर्चा के मुखिया शिबू सोरेन भी15 जुलाई को नगड़ी गांव पहुंचे और भरी सभा में जमीन पर हल चलाओ। उन्होंने आदिवासी-मूलवासी को एकजुट रहने की सलाह भी दी। यह आंदोलन अब व्यापक हो गया है। इसमें 35 गांव के किसान भी शामिल हो गए हैं, जिनकी जमीन ग्रेटर रांची के प्रस्तावित है। भाजपा, आजसू, वामदल व अन्य भी नगड़ी के किसानों के साथ खड़े हो गए हैं। कई बार सरकार के प्रतिनिधियों एवं ग्रामीणों के बीच बैठकें हुई, लेकिन नतीजा सिफर रहा। ग्रामीणों ने एक सुर में कहा, जमीन नहीं देंगे। इस आंदोलन में भाकपा माले के एकलौते विधायक विनोद सिंह के अलावा विधायक बंधु तिर्की व अरुप चटर्जी शुरू से साथ खड़े हैं। वाम दल के अन्य घटक सीपीएम और सीपीआई भी  किसानों के पक्ष में रैलियां निकालें। 16 जुलाई को हाईकोर्ट ने सुनवाई करते हुए फिर सरकार को फटकारा, नगड़ी में कानून का राज चलेगा या सड़क का। हालांकि हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पदेन विधि विश्वविद्यालय के चांसलर होते हैं। वे ही इस केस की सुनवाई कर रहे हैं। पार्टियां और अन्य सामाजिक कार्यकर्ता राज्यपाल से भी हस्तक्षेप की गुहार लगा रहे हैं, लेकिन राज्यपाल ने अपनी चुप्पी अभी नहीं तोड़ी है। चूंकि राज्य 5वीं अनुसूची में आता है, इसलिए राज्यपाल को यहां असीमित अधिकार मिले हुए हैं। वह संसद व विधानमंडल के कानून को भी यहां के परिप्रेक्ष्य में बदल सकता अथवा उसे लागू नहीं कर सकता। यहां वह अपने विवेक से आदिवासियों के पक्ष में फैसला ले सकता है। किसानों का कहना है कि यह जमीन तीन फसली है और इस पर पांच हजार आबादी निर्भर है। खेत छिन जाएगा तो हम कहां जाएंगे। इस सवाल का जवाब कोर्ट के पास भी नहीं है।
   इसी तरह रांची से सटे सोनाहातू में भी किसानों ने भूमि अधिग्रहण के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। यहां जिंदल और बिड़ला कंपनी का संयंत्रा स्थापित होना है। यहां पर किसानों की लड़ाई सीपीएम लड़ रही है। पोलित ब्यूरो की सदस्य व झारखंड प्रभारी वृंदा करात यहां पर सभाएं कर चुकी हैं। खूंटी में मित्तल कंपनी का बड़ा प्लांट लगना था, किसानों के विरोध के चलते अभी स्थगित है। अभ्रक के लिए ख्यात कोडरमा के जयनगर प्रखंड के पपरांव गांव में 20 जून को जनसुनवाई के दौरान किसानां ने कहा, जान देंगे पर जमीन नहीं। यहां पर रिलायंस पावर के चार हजार मेगावाट क्षमता प्लांट के लिए जमीन का अधिग्रहण होना है। 20 जून को उपायुक्त समेत कई अधिकारी पहुंचे, लेकिन आक्रोशित  किसानों ने कहा कि कृषि योग्य जमीन हम नहीं देंगे। ग्रामीणों का कहना है कि कोडरमा थर्मल पावर स्टेशन के लिए बगल के गांव के लोगों का जमीन अधिग्रहण किए जाने के बाद उनका हश्र देख चुके हैं। इसलिए, उन्हें ऐसा विकास नहीं चाहिए। इस संयंत्रा के लिए 971 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जाना है, इसमें करीब 283 एकड़ जमीन रैयती है। इय तरह देखें तो पूरे राज्य में जमीन को लेकर आंदोलन चल रहे हैं। यहां के किसान पिछले पचास साल से विकास को देखते आ रहे हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियां स्थापित हुईं, उद्योग लगे, लेकिन उनकी जमीन गई और वे बेघर हो गए। पिछले सौ सालों में लाखों लोग विस्थापित हो गए। विकास का रट लगाए लोगों से यहां के किसान पूछते हैं, जिनकी जमीने गईं  वे तो कुली बन गए, आज हम अपनी जमीनें दे दें तो हमारा क्या हश्र होगा, मालूम है। जमीन है तो पेट में दो रोटी तो जाता है। विकास के नाम पर सरकार दो रोटी में छिन लेना चाहती है।          खैर, राज्य में किसान अपनी लड़ाई खुद लड़ रहे हैं। राज्य भर के आंदोलन को एकसूत्रा में पिरोने के लिए कोई केंद्रीय नेतृत्व नहीं उभर पाया है। दूसरे शब्दों में कहें तो कोई किसान नेता उभर कर नहीं आया है। आंदोलनों की इस भूमि में जिसकी सख्त जरूरत है।
     
                                                                      ।।4।।
 
   स्वामी सहजानंद सरस्वती ने अपने समय में भी इस कमी को महसूस किया था। यह कमी आज भी बरकरार है। यही हाल उनके जंगल को लेकर भी है। वन अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद भी आदिवासियों को उनका अधिकार नहीं दिया जा रहा। वन विभाग आज भी लोगों को जंगल से लकड़ी काटने के एवज मेंं जेल भेज देता है। स्वामी सहजानंद सरस्वती ने ‘जंगल की तकलीफें’ में इसका विस्तार से जिक्र किया है। तब कानून नहीं था। आज कानून है, लेकिन कानून को सही ढंग से लागू नहीं किया जा रहा। वन विभाग जंगल से अपनी जमींदारी छोड़ना नहीं चाहता। अधिकार के बावजूद वे जंगल से जलावन नहीं ले सकते, घर-घेरा बनाने के लिए लकड़ी नहीं काट सकते। लेकिन जंगल माफियाओं के लिए छूट है। पूरा सारंडा, जो एशिया में साल वृक्ष के लिए सबसे घना जंगल जाना जाता था, जहां दोपहर बाद थोड़ी-थोड़ी सूरज की रोशनियां जमीन पर गिरती थीं, नंगा हो गया। वन अधिकारियों और जंगल माफियाओं की मिलीभगत से राज्य के दूसरे जंगल भी खत्म होते जा रहे हैं। इन अधिकारियों पर कोई अंकुश नहीं। स्वामीजी ने 1939 में पलामू, महुआडाड़ आदि क्षेत्रों का दौरा किया था और उस समय किसानों और जंगल से अपनी आजीविका चलाने वाले आदिवासियों के दर्द से रूबरू हुए थे। स्वामीजी लिखते हैं, ‘सबसे दर्द की बात तो यह है कि उन महुवा, पलाश आदि पेड़ों का बंदोबस्त उसके किसान के साथ न करके हमेशा गैरों के साथ ही ये जमींदार भलेमानुस करते हैं? क्यों? इसीलिए कि अपने खेतों में दूसरां को जाने देगा किसान चाहेगा नहीं। फलतः मजबूरन औरों से भी ज्यादा पैसे देके खुद बंदोबस्त लेगा। इसे ही रक्तचूसना कहते हैं। जमींदार किसानों से खून निकालने की बेदर्द कोशिश उसी तरह करते हैं, जिस तरह सूखी हड्डी से खून निकालने की कुत्ते करते हैं। किसान हजार चिल्लाए। मगर सुने कौन? सरकार बहरी, उसकी कचहरियां बहरी, हाकिम बहरे, पुलिस बहरी, नेता बहरे, साधु-महात्मा बहरे, देवी-देवता बहरे और भगवान भी बहरा।’
    स्वामी जी के इस उद्धरण से किसानों के दर्द को समझा जा सकता है। स्थिति आज भी नहीं बदली है। स्वामी जी ने अपने एक अध्याय में ‘कमिया के कष्ट और सूदखोरी की लूट’ में झारखंड के खेतों के मजदूरों की, जिन्हें कमिया भी कहते हैं, की भी बड़ी दुर्दशा का जिक्र किया है। ‘पलामू जिले में इन्हें सेवकिया कहते हैं। सेवकिया शब्द सेवक से बना है और पलामू में सेवक का अर्थ है आमतौर से गुलाम। कमिया भी काम से बना है; काम के मानी हैं वही सेवा या सेवकाई। बिहार में यह काफी प्रचलित है।’ स्वामी जी ने सूदखोरों का भी जिक्र किया है, ‘ये सूदखोर होते हैं यों तो गांवों और शहरों के बनिए। मगर शोषक गृहस्थ और टुटपूंजिए जमींदार भी यही पेशा करते हैं। इनके अलावे काबुली, गोसाई, मुसलमान, पंजाबी, कान्यकुब्ज, भूमिहार, मारवाड़ी और अग्रवाल बनिए भी यह काम झारखंड के विभिन्न जिलों के यही कारबार करते हैं। रांची जिले में तो बिहार से गोसाई और ब्राण भैंसा काड़ा बेचने आते हैं। क्योंकि भैंसे हल में जोते जाते र्हैं। यहां आज भी भैंसे से खेत जोते जाते हैंवही लोग उन्हीं रुपयों को सूद पर लगाकर चले जाते हैं और फिर समय पर आके सूद दर सूद के साथ वसूलते हैंश्श्। ’ श् श् श्  स्वामी जी गोसाई, काबुली और पंजाबी की बेमुरव्वती का भी जिक्र करते हैं कि ये पापी ताक में रहते हैं। ये किसानों के साथ बेरहमी से पेश आते हैं। आज इसी सूदखोरी में लाखों आदिवासियों ने अपनी जमीन गंवा दी और मजदूर बन गए।
    आइए, अब बात टाटा पर कर लेते हैं। शुरुआत में रतन टाटा का उद्धरण दिया था। स्वामी जी की टाटा के बारे में क्या राय रही है, इसे जान लेने के बाद टाटा की कथनी-करनी का अंतर समझ सकते हैं। स्वामीजी ने इस अध्याय का शीर्षक दिया है, ‘ताता और होमी।’ स्वामी जी ने टाटा को ताता लिखा है। इसलिए, हम यहां अब ताता ही लिखेंगे। इसका थोड़ा विस्तार से जिक्र भी करेंगे। होमी की चर्चा फिर कभी करेंगे। यह टाटा का आदमी था।
   स्वामी जी लिखते हैं, ‘झारखंड की बात अधूरी रह जाएगी यदि ताता का विशेष वर्णन न किया जाए। पारसनाथ पहाड़ के सिलसिले में जैनी सेठों की करतूतों का जिक्र तो होई चुका है। मगर ताता का महत्व उनसे कहीं ज्यादा है। ताता का यहां जमींदार और पूंजीपति दोनों ही हैसियत से प्रभाव है। लाखों मजदूरों पर उसकी हुकूमत चलती है। जानें कितने नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपने पाकेट में रख लिया है। श् श् श् सभी नेता वहीं जमशेदपुर में ही हजम हो जाते हैं। श् श् श्यह ताता की चातुरी और व्यवहार कुशलता का ज्वलंत प्रमाण है।’
   स्वामी ने यहां केवल किसान के बाबत ही बात की है। बहुतों को नहीं पता होगा कि ताता ने यहां जमींदारी भी की है लाखों लगान भी वसूलते थे। ये गांव जमशेदपुर के आस-पास के थे-इनके नाम हैं, उलियान, भाटिया, गोभरोगोड़ा, सोनाड़ी, बेलड़ी, साकची, बारा, बारीडीह, महरड़ा, मुड़कटी, निलदी, कालीमाटी, सुसनिगड़िया, सिद्धगोड़ा, वगैरह। ताता के लिए सरकार ने इन मौजों को 1919-20 में ले लिया। अप्रैल के महीने में स्वामी जी जब इधर आए थे तो वहां के किसानों ने अपनी आपबीती सुनाई थी। स्वामी जी ने उन्हीं के शब्दों में लिखा है, ‘ जमशेदपुर और आस-पास के जो गांव पहले दलभूम के राजा के मातहत थे हम उन्हीं के शुरू के ही वाशिंदे हैं; कंपनी के लिए सरकार ने इन्हें तथा गांवों को 1919-20 में ही राजा से हासिल किया था। कंपनी ने हमें कहा कि आप लोग पूर्ववत पड़े रहें, क्योंकि हमें अपने ही लिए आपकी सेवाओं की मजदूर, गाड़ीवान, साग तरकारी उपजाने वाले आदि के रूप में जरूरत है। इसलिए गांवों को राजा से लिया जाना तो केवल कागजी लिखा पढ़ी है। स्थिति में अंतर न होगा।’ श् श् श्‘चंद साल के बाद, जबकि बिना हमारी मदद के भी कंपनी का कारोबार चलने लगा, उसने हमें अपनी झोपड़ी और घरों से निकाल के अपने काम के लिए सब कुछ कब्जाना चाहा। फलतः इस तरह से हमें परीशान किया जाने लगा। 1932 में लगान न देने के बहाने हमारी बेदखली के केस किए गए। मगर हम लोग सभी केस जीत गए। तब बल प्रयोग शुरू हुआ और इसके चलते कंपनी का जो प्रधान रूप से इस शहर का प्रबंधक है, वही नोटिफाइड एरिया का चेयरमैन भी है। वह कुछ औरों के साथ नाजायज दूसरे के घर आदि में घुसने के लिए फौजदारी में भी फंसा था और हाईकोर्ट तक सजा बहाल रही। उसके बाद हम लोगों के विरुद्ध 145 धारा के अनुसार फौजदारी के बहुत मुकदमे चलवाए गए। मगर उनमें भी हम जीते।’ श् श् श्‘ताता कंपनी के मिल का निकला हुआ पानी नदी को गंदा करता है। मगर क्या मजाल कि किसान उससे अपना खेत पटा लें ? गाड़ी पर टैक्स है और जानवरों के मरने पर उन्हें हटाने के लिए जो पांच रुपया टैक्स है, वह तो हमें तबाह कर रहा है।’ श् श् श्‘सिंचाई की सुविधा पहले थी। मगर अब नहीं रही। लगान की बकायदा रसीद नहीं मिलती। छह मास हुए हम बिहार के अर्थमंत्रा से और बाद में प्रधानमंत्रा के भी लिखित प्रार्थना ले के पहुंचे थे। मगर, नतीजा अब तक कुछ मालूम नहीं हुआ।’ आज टाटा के अरबों-खरबों के विस्तार को देखें और पर उद्धरित रतन टाटा के नेक विचार से मिलान करें। इसके आगे और कुछ कहने की जरूरत रह जाती है क्या?
     झारखंड आंदोलन के शीर्षस्थ नेताओं में रहे व पूर्व सांसद शैलेंद्र महतो ने अपनी नई पुस्तक ‘झारखंड की समरगाथा’ प्रकाशक निधि बुक्स, नई दिल्ली, जनवरी 2011 में लिखते हैं, ‘ 1907 में टिस्को कारखाना और जमशेदपुर शहर बसाने के क्रम में करीब दो दर्जन गांवों का अधिग्रहण किया गया, जहां हजारों झारखंडी किसान विस्थापन के शिकार हुए। सबसे आश्चर्यजनक नतीजा जो सामने आया वह यह था कि झारखंड में जहां हर आंदोलन आदिवासी आंदोलन की जड़ था और टिस्को कारखाना स्थापित करने के पांच साल पहले अंग्रेजों ने जिस प्रकार बिरसा आंदोलन को दमनपूर्वक कुचल दिया था, जिसके फलस्वरूप सिंहभूम में इस विस्थापन के खिलाफ कोई आंदोलन या प्रतिरोध नहीं हुआ। बिरसा आंदोलन के बाद लोग डरे हुए, सहमे हुए थे। विस्थापित लोग चुपचाप अपना हांडी बर्तन लेकर कहीं गुमनाम जगहों पर चले गए या तो ठेकेदार मजदूर बनकर पालतू हो गए। ये लोग कहां गए?  कहां पुनर्वासित किए गए?  कहां हैं वे ? कितने विस्थापित लोगों को नौकरी दी गई? इन ढेर सारे प्रश्नों का जवाब किसी के पास नहीं है।’
   एशिया की पहली स्टील कंपनी थी टाटा जो आज टाटा ग्रुप के नाम से जानी जाती है और अब 94 कंपनियां इसमें शामिल हो गई हैं। आज इसके पास 4 श्25 लाख कर्मचारी हैं और 4 श्62 लाख करोड़ संपत्ति है। इसी साल के 28 दिसंबर को  निःसंतान रतन टाटा रिटायर हो रहे हैं। उन्होंने अफसोस है कि वे कंपनी को पारदर्शी नहीं बना पाए। मीडिया घरानों का मानना है कि टाटा ऐसे कारपोरेट लीडर हैं, जो मानव मूल्यों को मुनाफे से पर रखते हैं। नए चेयरमैन की घोषणा हो चुकी है। अब साइप्रस मिस्त्रा होंगे टाटा समूह के मुखिया। आज सौ कंपनियां झारखंड में उद्योग लगाने का आतुर हैं। उनका मकसद झारखंड का विकास नहीं, धरती के नीचे खनिजों को दोहन करना है। जो अब तक यहां कंपनियां करती आई हैं। यहां के लोगों के हिस्से आएगा मजदूरी। पलायन। विस्थापन। यही सच है।
  यह विस्थापन आज भी जारी है। किसानों को उनकी अपनी जमीन से विकास के नाम पर बेदखल किया जा रहा है। हालांकि एकबार फिर किसान प्रतिरोध के उठ खड़े हुए हैं। जगह-जगह, टुकड़ों में ही सही आंदोलन कर रहे हैं। वे अब विस्थापित नहीं होना चाहते। पलायन नहीं करना चाहते। अब सरकार को भी सोचना होगा कि विकास की कीमत केवल आदिवासी-किसान ही क्यों चुकाएं ? जिसका फायदा उन्हें कभी नहीं मिलता।

                                         

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