महुआ माजी ने कहीं कहा था कि ‘आज के दौर की लेखिकाएं स्त्राी विमर्श के नाम पर देह विमर्श कर रही हैं ये कथन सभी लेखिकाओं पर लागू नहीं होता। मेरे दोनों उपन्यास गंभीर विषयों पर हैं। ‘मैं बोरिशाइल्ला’ बांग्लादेश की मुक्तिगाथा पर केंद्रित है, जिसमें सांप्रदायिकता के असर की बात की गई है। दूसरा उपन्यास ‘मरंगगोड़ा नीलकंठ हुआ’ में यूरेनियम रेडिएशन के दुष्प्रभाव का चित्राण किया गया है। इस तरह के प्रसंग आए भी हैं तो वो जरूरत के हिसाब से रखे गए हैं और वो कहानी का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। बेवजह नहीं डाले गए हैं। वैसे भी अन्य लेखिकाओं ने जरूरत के हिसाब से उसे डाला है। केवल उसी के लिए कहानी का ताना-बाना नहीं बुना गया। ये कोई अछूता विषय तो है नहीं कि कहानी की जरूरत है, फिर भी बचकर चल रहे हैं। जहां तक उनकी ये बात कि आज के दौर की लेखिकाओं द्वारा किया जा रहा स्त्राी विमर्श पुरुष विरोधी है तो उसकी शुरुआत तो मैत्रोयी जी नहीं की है। सभी लेखिकाएं ऐसा नहीं करतीं। कहानी की मांग के अनुसार तथ्यों को रखा जाता है। आज उसे जो भी मानें।’
महुआ माजी का यह विचार जाहिर है, किसी बहस का हिस्सा है, जिस पर वह अपना तर्क दे रही हैं। वह अपने दो गंभीर उपन्यासों की चर्चा कर रही हैं और बता रही हैं उन पर ‘ठप्पा’ नहीं लगाया जा सकता। बतौर महुआ, उनकी अब तक आठ-दस कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं। हालांकि अब तक उनका एक संग्रह आ जाना चाहिए, जो नहीं आया है। आ जाता तो उनके पाठकों को यह सुविधा जरूर होती कि एक ही जगह उनकी रचनाओं का स्वाद ले सकते। इनमें उनकी व्यस्तता भी हो सकती है। वे एक लेखिका के साथ-साथ आज राजनीति में भी सक्रिय हैं। पिछली बार रांची विधानसभा क्षेत्रा से चुनाव भी लड़ चुकी हैं और इस बार भी काफी परिश्रम कर रही हैं। तो भी, सक्रिय राजनीति की भागमभाग के बीच अपने लेखन को बचाए रखना कम बड़ी बात नहीं। फिर भी समय निकाल वे कुछ लिख ही लेती हैं। हम यहां उनकी दो कहानियां- वागर्थ के 2005 में प्रकाशित ‘रोल मॉडल’ और 2017 में लिखी ‘इलेशगुंड़ि’ की चर्चा कर सकते हैं। ये दो कहानियां इसलिए कि पहली कहानी सक्रिय राजनीति से पहले की है, जब वे सिर्फ ‘लेखिका’ हुआ करती थीं, दूसरी राजनीति में रहते हुए लिखीं। दोनों में कहानीपन है। कहन है। कथा है। दोनों के क्षेत्रा अलग हैं। बोली-बानी का भी दोनों में अलग स्वाद और आनंद है। इससे हिंदी कहानी का फलक विस्तृत होता है। गैरहिंदी समाज के बारे में भी जान पाते हैं, अन्यथा यहां तो बहुत ‘अकाल’ है।
चलिए, बात देह विमर्श से ही शुरू करते हैं। यह अपने हिंदी साहित्य की बड़ी विडंबना है कि हम स्त्राी की आजादी को उसकी देह तक ही सीमित कर देते हैं। स्त्राी जितनी उच्छृंखल होगी, वह उतनी ही आजाद-हम ऐसा ही मानने लगते हैं। जैसे उसकी आजादी बस इसी में है। उनके विचार, उनकी बौद्धिकता, उनकी प्रतिभा का कोई मोल-मतलब नहीं। स्त्राी विमर्श के नाम पर लंबे समय से यही चल रहा है और चलता रहेगा और इस तरह की लेखिकाएं इस तरह के प्रसंगों के लिए-इसी तरह के कमजोर तर्क पेश करती रहंेगी। जैसे फिल्म के निर्देशक देह राग परोसने के लिए यह तर्क करते हैं- यह कहानी की मांग थी। पर वे यह सच नहीं बोलते कि कहानी की मांग हो न हो, कमजोर कथानक की फिल्म चलाने के लिए यह जरूरी हो जाता है। इसलिए लेखिकाएं भी ‘कहानी की मांग’ के नाम पर इस तरह की छूट ले लेती हैं। पर, जिनकी कथा मजबूत होती है, वह भी इस तरह के तर्क का सहारा लेती हैं, तो समझ में आता है कि उनको खुद की कथा पर विश्वास नहीं है। यद्यपि यह छूट लेने में कोई बुराई नहीं, लेकिन ‘मांग’ के नाम पर यह सब कहने-लिखने-बताने की जरूरत नहीं। जहां तक उनके गंभीर उपन्यास मरंगगोड़ा की बात है-वहां भी अनावश्यक की इस तरह के प्रसंग हैं, जिनकी कोई जरूरत नहीं। मन हो तो इस तरह के प्रसंग को बहुत सलीके से पेश किया जा सकता है। पाठक समझ भी जाएगा कि लेखिका या लेखक क्या कहना चाहता है। बेडरूम में प्रवेश करने की जरूरत नहीं होती है। महुआ ने पहले तो अपना बचाव किया, फिर उन सभी लेखिकाओं का। यानी, वह भी उसी कतार में खड़ी हो जाती हैं। इस प्रसंग में प्रेमचंद की एक सच्ची पहली कहानी, जिसे उन्होंने माना कि-यह मेरी पहली रचना है-याद आती है। यह कहानी उन्होंने अपने मामूं पर ही लिखा था। उनका यह वर्णन देखिए-
‘आखिरकार एक बार उन्होंने वही किया, जो बिन ब्याहे लोग अकसर किया करते थे। एक चमारिन के नयन बाणों से घायल हो गये।...दूसरे दिन शाम को चम्पा-यानी चमारिन-मामंू साहब के घर आई, तो उन्होंने अन्दर का द्वार बंद कर दिया। महीनों के असमंजस और हिचक और धार्मिक संघर्ष के बाद आज मांमू साहब ने अपने प्रेम को व्यावहारिक रूप देने का निश्चय किया था। चाहे कुछ हो जाय, कुल-मरजाद रहे या जाय, बाप दादा का नाम डूबे या उतराये! उधर चमारों का जत्था ताक में था ही। इधर किवाड़ बंद हुए, उधर खटखटाना शुरू किया। पहले तो मांमू साहब ने समझा, कोई आसामी मिलने आया होगा, किवाड़ बंद पाकर लौट जायगा, लेकिन जब आदमियों का शोरगुल सुना तो घबड़ाए।....’ प्रसंग काफी लंबा और रोचक है। यह कहानीकार पर निर्भर करता है कि वह कहना क्या चाहता है। जिनका अपने कथन और कहन पर भरोसा नहीं था, वह ऐसे तर्क और प्रसंग की वकालत करते हैं। वह चाहते हैं कि इस्मत आपा और मंटो की तरह ख्यात हो जाएं, लेकिन वह उस तरह का विजन नहीं ले आ पाते।
महुआ की कहानी ‘इलेशगुंड़ि’ में भी इस तरह के प्रसंग हैं, जिनकी कतई जरूरत नहीं। वह इसलिए कि वह खुद की कहती हैं-कहानी की मांग के अनुसार। यहां कहानी की कोई मांग नहीं। यह लेखिका का अपना मन है। वह रूपकुमारी की पीड़ा को दूसरी तरह भी व्यक्त सकती थीं। इसके लिए यह जरूरी नहीं था कि...‘‘बहुत कम लोगों को पता था कि रूपकुमारी का गर्भ उसके पति की इसी आसुरी प्रवृत्ति के कारण ही गिर गया था। रूपकुमारी के लाख मना करने के बावजूद वही पहले की तरह उठा-पटक... ऊपर-नीचे...।...प्रचंड उत्तेजना से कालीपॉदो का खून गर्म हो उठा। जब खुद को रोक पाना असंभव हो गया तब अचानक आकर पीछे से जकड़ लिया उसे। कुछ देर तक तो वह खुद को कालीपॉदो के सख्त आलिंगन से छुड़ाने की कोशिश करती रही पर उसके स्पर्श में कुछ ऐसा था कि धीरे-धीरे उसका प्रतिरोध शिथिल पड़ता चला गया। पति-सुख से वंचित उपवासी देह उसके नियंत्राण से बाहर होती चली गयी। महीनों का संयम किसी पुराने जर्जर कीले की तरह भरभराकर ढह गया। सांप की तरह लिपट गयी वह उस कामी पुरुष से... प्रश्रय पाकर कालीपॉदो का वहशीपन थोड़ा कम हुआ और बड़े इतमिनान से वह किसी जोंक की तरह उसकी गर्दन की पतली खाल को चूसने लगा। तबतक, जबतक कि वहां गहरा नीला निशान नहीं पड़ गया। उस दिन जितनी देर तक वे दोनों कदम्ब पेड़ के नीचे आलिंगनरत रहे... एक-दूसरे से गुत्थमगुत्था रहे... हवा में धूलकण की जगह कदम्ब फूल के रेणु उड़ते रहे। फिर भी उनकी देह कीचड़ से ऐसे सन गयी कि घर जाने से पहले दोनों को साथ-साथ पद्म-पोखर में उतरना पड़ा।’’
लेखिका की बेवजह सफाई के बरक्स ही इस प्रसंग को यहां रखा गया है। ‘इलेशगुंड़ि’ दरअसल, रूपकुमारी की कहानी है। ‘इलेशगुंड़ि’ यानी बारिश की महीन बूंदें। बांग्ला का यह शब्द है और इसकी अर्थध्वनियां पूरी कहानी में अंतरर्धारा की तरह मौजूद हैै। बारिश की महीन-महीन या छोटी-छोटी बूंदे। नदी की सतह पर जब यह बूंदे पड़ती हैं तो हिल्सा मछली गहरे जल से सतह पर आ जाती है। इस तरह रूपकुमारी का दर्द भी सतह पर आता है-वह दिखाई देने लगता है। कालीपॉदो एक प्रमुख पात्रा है। शादी-सुदा है। रूपकुमारी भी। लेकिन रूपकुमारी अपने पति के छल का शिकार बन जाती है। शादी कर मौज लूट वह गांव से भाग जाता है। पर, रूप उसके इस छल से असावधान ही रहती है और उसकी प्रतीक्षा करती रहती है, लेकिन वह आता नहीं। कालीपॉदो भी उसे खोजता रहा है। एक दिन सूचना देता है- वह तो शहर में किसी और स्त्राी के साथ है। इसके बाद गांव से वह शहर जाती है-उसके घर। वहां झगड़ा होता है और फिर वह अपने गांव चली आती है। काली भी इसी ताक में। अंततः उसे अपने घर में पनाह देता है और उसकी कीमत भी वसूलता है।
सब कुछ ठीक चल रहा होता कि गांव में बाढ़ का प्रकोप। सभी बेघर। क्या अमीर क्या गरीब। त्राण शिविर में पनाह की सबको जरूरत। पर इस त्राण शिविर में कालीपॉदो रूपकुमारी को पहचानने से ही इनकार कर देता है। शिविर के बचावकर्मी सबका नाम रजिस्टर में लिखते हैं। वह रूपकुमारी से भी पूछते हैं। रूप कुछ कहती है-लेकिन कालीपॉदो बोल उठता है-कुछ नहीं लगता। वह उससे अपने संबंध को इनकार कर देता है। रूपकुमारी जो समय की मारी दुखियारी, उसके घर सौत बनकर हर दुख सहते हुए रह रही होती है। लेकिन इस त्राण शिविर में रूपकुमारी पर पति की तरह अधिकार रखने वाला काली कह देता है-कुछ नहीं लगता। रूप की इस कथा-व्यथा को महुआ माजी ने बहुत संवेदनशीलता के साथ उभारा है। रूप की पीड़ा को यहां बस आप महसूस कर सकते हैं। बाढ़ से पराजित मानुस कितना स्वार्थी और पतित हो सकता है...‘‘क्या वाकई भरपेट भोजन-कपड़े के लिए ही उसने सोच-समझकर कालोपॉदो को फाँसा?- वह खुद ही से पूछती। यह उस़की पेट की क्षुधा थी या देह की ? या फिर मन की? क्यों प्रत्याख्यान नहीं कर पायी वह उसके प्रेम-निवेदन का... देह-आमंत्राण का...? ये कैसी पहेली है ठाकुर! ये मन की ग्रंथियां इतनी जटिल क्यों हैं? क्या एक पुरुड्ढ-मानुष के बिना जीना वाकई इतना मुष्किल था? वह सोचती। फिर सबकुछ भूलकर कालीपॉदो की गृहस्थी में मन रमाने की कोशिश करती। चूल्हा-चौका... बड़े-बुजुर्गों की सेवा... बच्चों पर लाड़ जताना... गाय-गोरू की देखभाल... रिष्तेदारों की तिमारदारी... क्या कुछ नहीं करती वह। सबका दिल जीतने का प्रयास करती। लेकिन हरेक के बर्ताव में उसके लिए हिकारत...सिर्फ हिकारत...। बड़ों की देखा-देखी मासूम बच्चे भी उसे दुत्कारना सीख गए थे। एक अछूत-सी ही हैसियत थी उस घर में उसकी।’’ बाबा तुलसी बहुत पहले लिख गए हैं-पराधीन सपनेहुं सुख नहीं। स्त्राी की यही दशा। सालों से। राजेंद्र यादव ने कहीं लिखा था-कमर के उ$पर स्त्राी देवी है, कमर के नीचे वैश्या। हमारा समाज स्त्राी को बस इसी नजर से देखता है-स्त्राी इसके सिवाय भी कुछ है-हम सोच नहीं पाते और विमर्श के नाम पर एक स्त्राी भी जब खुद स्त्राी को इसी नजरिए से पेश करती है-तो समझ में आता है-मामला लेखन का नहीं, प्रतिबद्धता का नहीं बाजार का है। बाजार हमारे चारों तरफ घुस चुका है। दिमाग में भी। वह बराबर चलता रहता है।
यह कहानी 2017 की है। स्थान बंगाल का कोई गांव हो सकता है। बंगाल में बहने वाली कोई नदी। कोई पद्मपोखर और उसके किनारे कदंब का विशाल गाछ। ये सब भी किसी पात्रा की तरह ही उपस्थित होते हैं। हवाएं भी यहां कुछ कहती-सुनती नजर आती हैं। कहानी सिर्फ मानुस जात की नहीं। कहानी में कदंब की भी वही भूमिका है, नदी की भी और ‘इलेशगुंड़ि’ की भी। जब कहानी बंगाल के किसी गांव की है तो जाहिर है, यहां ऐसे शब्द भी आपको मिलेंगे जिसे हम हिंदी में आढ़त कहते हैं यहां आड़ोत पाते हैं। उपमा का सौंदर्य भी कम नहीं- ‘तुझे देख, तेरा कष्ट देख मेरा मन हापुस-हुपुस करता है रे रूपकुमारी।’ हापुस-हापुस शब्द बांग्ला में प्रचलित हैं। इस कहानी में बांग्ला का प्रभाव काफी है। शब्दों पर तो है ही।
महुआ की दूसरी कहानी है ‘रोल मॉडल’। यह वागर्थ के 2005 के सितंबर अंक में आई थी। इस कहानी में रांची का जिक्र नहीं है, उन मुहल्लों के भी नहीं, जो कहानी में आते हैं, लेकिन रांची से जो परिचित हैं, उन्हें पता चल जाएगा कि कहानी कहां घटित होती है। दरअसल, रांची वैसे तो शिक्षा के लिए जाना जाता है। यहां ईसाई मिशनरियों ने एक बड़ा काम इस क्षेत्रा में किया। प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक। फिर बीआइटी जैसे संस्थान हैं। 2000 में बिहार से अलग हुए झारखंड में 2018 तक तो कई यूनिवर्सिटियां खुल गई हैं। लेकिन 2005 तक भी महत्वपूर्ण कॉलेज तो थे ही। इसलिए, झारखंड से इतर दूसरे प्रदेशों से भी लड़कियां और लड़कें यहां पढ़ने के लिए आते हैं। राज्य के दूसरे शहरों से तो आते ही हैं। बाहर से आई छात्राओं के लिए रहने के लिए कमरा चाहिए। हर कॉलेज और संस्थानों में पर्याप्त छात्रावास तो रहते नहीं। फिर उन्हें या तो पेइंग गेस्ट होकर रहना पड़ता है या कमरा किराया लेकर। यहां भी फिर बनारस की तरह अपने घर के कमरे किराये पर उठाने लगे। एक-एक कमरे में चार-चार चौकियां लगा दी और फिर प्रति चौकी कमाई करने लगे। जिनके घरों में अतिरिक्त कमरे थे, उन्हें अपने कमरे उठाने में तो कोई दिक्कत नहीं थीं, जिनके कम थे, वह भी एक-दो कमरे में खुद को समेट लिया और एकाध कमरा किराये पर लगा दिया। जिनके पास जगह-जगह ही थी, उन्होंने लॉज की शक्ल दे दी। और, जिनके पास कुछ नहीं था, वे दूसरों को देख कूढ़ने लगे। तरह-तरह की बातें बनाने लगे। इस तरह मोहल्लों की अलग पहचान बनने लगी और जब गलियां लड़कियों से गुलजार होने लगी तो फिर मंडराते हुए भंवरे भी आने लगे। फिर तरह-तरह की चर्चा भी आने लगी। जो गलियां सुनसान रहा करती थीं, गुलजार रहने लगीं, शाम में सन्नाटा पसर जाने वाली गलियों में भी देर शाम तक खुसूर-फुसूर शुरू हो गया। जिन बुजुर्गों के पास कोई काम नहीं था, उन्हें भी काम मिल गया, वे गलियों की ओर ताका करते थे। और, इसी कहानी में एक मजेदार पात्रा हैं सनातन बाबू। इनके पास कोई कमरा नहीं रहता है, लेकिन जब लड़कियां आकर पूछती हैं-अंकल कमरा है तो वे मना नहीं करते। बल्कि पूरी जांच-पड़ताल में जुट जाते हैं-कितने लोग हो, खाना कहां खाओगी, बनाओगी या मंगाओगी-बनाओगी तो गैस पर या स्टोव पर वगैरह-वगैरह। सनातन बाबू की हर जिज्ञासा और सवाल का जवाब देते जब लड़कियां थक जाती हैं-तब कहती हैं-तो अंकल अब हमारा कमरा दिखा दीजिए। अब सनातन बाबू का जवाब सुनिए-कमरा! कमरा कहां है? सनातन बाबू आश्चर्य से कहते हैं-हमारे घर पर कोई कमरा वमरा खाली नहीं है। नीचे हम मियां-बीवी और मंझले भाई का परिवार रहता है। उ$पर हमारे बड़े भाई का परिवार। हमारे यहां खाली कमरा होता तो अब तक दे नहीं देता? यहां इतनी देर धूप में खड़ा करके रखता क्या?
इस तरह-तरह एक-एक दरवाजा खटखटाते हुए लड़कियों को कमरा मिल ही जाता है। गांव, कस्बे या दूसरे शहरों से आई लड़कियां यहां काफी अपने को उन्मुक्त और आजाद महसूस करती हैं। यह आजादी कपड़ों से भी झलकती है और देर शाम लौटते वक्त भी। जब कोई न कोई भंवरा छोड़ जाता है। या फिर देर रात जब घर से किसी प्रोजेक्ट पूरा करने का बहाना बना निकलती हैं।
हमारा मध्यवर्गीय समाज अपने घर में झांकने के बजाय दूसरों के घरों में ताका-ताकी में खूब रस लेता है। यह हमारे भीतर कहीं कंुठा भी है। मध्यवर्गीय परिवार परंपरा की भी चिंता करता है, समाज की भी, धर्म की भी। संस्कार तो पीछा करते रहते हैं, अंत तक। अंतिम तक। कुछ लोगों को लड़कियों का पहनावा पसंद नहीं। कुछ चाहते हैं, मोहल्ले से इन्हें बाहर किया जाए। तो कुछ अतिरिक्त कमाई से चुप हैं। अर्थ भी जरूरी है और इसके लिए थोड़ा-बहुत समझौता किया जा सकता है। पितृसत्तात्मक समाज की अपनी चिंता भी कम नहीं। दुश्वारियां यहां भी हैं। पर, यही लड़कियां तब ‘रोल मॉडल’ उन लोगों के लिए बन जाती हैं, जो लगातार इन्हें शक और संदेह की निगाह से देखते आ रहे थे। इसी तरह एक लड़की की, जो मकान मालिक की निगाह में उच्छृंखल मानी जाती थी, एक दिन मिठाई का डब्बा लेकर घर मालिक को खिलाती हुई यह सुखद सूचना देती है-अंकल मेरा जॉब लग गया है। पचास हजार महीना। अंकल का मुंह खुला का खुला रह जाता है। अंकल की सारी चेतना धराशायी हो जाती है। सुबह जब लड़की अपना सामान समेटकर जाने लगती है तब रतजगे अभिभावक अपनी बेटी का हाथ पकड़कर उस लड़की के पास आ धमकते हैं-हम भी अपनी लड़की को दिल्ली में कोचिंग कराना चाहते हैं। तुम रखोगी अपने पास तो ‘लायक’ बन जाएगी। उस परिवार के लिए वह लड़की रोल मॉडल बन जाती है। यहां भी पैसा प्रमुख कारण है। पैसा है तो सारी एैब छिप जाती हैं। पूंजी का बड़ा महत्व है। चाणक्य ने भी अपनी नीति पुस्तक का नाम ‘अर्थशास्त्रा’ रखा था और मार्क्स भी पूंजी के इर्द-गिर्द झूलते नजर आते हैं। पंूजी का बड़ा खेल है जीवन में। जिनके पास पूंजी है, उनके लिए परंपरा, संस्कार, संस्कृति कोई मायने नहीं रखती, लेकिन उसके वे सबसे बड़े प्रवक्ता और संरक्षक बना दिए जाते हैं। बहरहाल, यह कहानी एक दकियानूसी परिवार के विचार परिवर्तन की कहानी है। परिवार भी समाज की एक इकाई है। परिवार से ही समाज बनता है। एक परिवार के विचार बदले तो समाज का विचार भी बदल सकता है। जो दिखता है, वह पूरा सच नहीं होता। देखने का एक नजरिया यह भी है हम अपनी आंखों से जो देखते हैं, उसमें हमारी सोच और संस्कार भी शामिल होते हैं। दो आंखें वर्तमान को देखते हुए भी हजारों सालों को भी देखती हैं। इसलिए, जो दिखे, उस पर सहसा और तुरत विश्वास कर लेने की जरूरत नहीं है। महुआ की इस कहानी ने तब काफी चर्चा बटोरी थी। एक नया विषय था। महुआ अपने लिए नया-नया विषय तलाशती हैं। समाजशास्त्राी हैं, इसलिए किसी चीज को पैनी निगाह से देखती हैं। जब वे महिला आयोग की अध्यक्ष थीं, तब उनके पास परिवार की तरह-तरह की सच्ची कहानियां आईं। वे कहानियां भी किसी शक्ल में कागजों पर उतरेंगी, ऐसा विश्वास है। एक लेखक के लिए अनुभव भी जरूरी है और खोजी प्रवृत्ति भी। लगन तो चाहिए ही। महुआ में तीनों है। ये कहानियां रोज घटित होती हैं, लेकिन महुआ ने जिस रोचक ढंग से इसे प्रस्तुत किया है, वह प्रशंसनीय है। ये कहानियां विमर्श से हटकर लिखी गई हैं। इसलिए इनकी आयु लंबी होगी। जो विमर्श, राजनीति और किसी खांचे में निबद्ध होकर लिखी जाती हैं-वे अल्पायु होने के लिए अभिशप्त होती हैं। आंदोलन से उपजी कहानियां आंदोलन के साथ ही समाप्त हो जाती हैं।
लमही से साभार
महुआ माजी का यह विचार जाहिर है, किसी बहस का हिस्सा है, जिस पर वह अपना तर्क दे रही हैं। वह अपने दो गंभीर उपन्यासों की चर्चा कर रही हैं और बता रही हैं उन पर ‘ठप्पा’ नहीं लगाया जा सकता। बतौर महुआ, उनकी अब तक आठ-दस कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं। हालांकि अब तक उनका एक संग्रह आ जाना चाहिए, जो नहीं आया है। आ जाता तो उनके पाठकों को यह सुविधा जरूर होती कि एक ही जगह उनकी रचनाओं का स्वाद ले सकते। इनमें उनकी व्यस्तता भी हो सकती है। वे एक लेखिका के साथ-साथ आज राजनीति में भी सक्रिय हैं। पिछली बार रांची विधानसभा क्षेत्रा से चुनाव भी लड़ चुकी हैं और इस बार भी काफी परिश्रम कर रही हैं। तो भी, सक्रिय राजनीति की भागमभाग के बीच अपने लेखन को बचाए रखना कम बड़ी बात नहीं। फिर भी समय निकाल वे कुछ लिख ही लेती हैं। हम यहां उनकी दो कहानियां- वागर्थ के 2005 में प्रकाशित ‘रोल मॉडल’ और 2017 में लिखी ‘इलेशगुंड़ि’ की चर्चा कर सकते हैं। ये दो कहानियां इसलिए कि पहली कहानी सक्रिय राजनीति से पहले की है, जब वे सिर्फ ‘लेखिका’ हुआ करती थीं, दूसरी राजनीति में रहते हुए लिखीं। दोनों में कहानीपन है। कहन है। कथा है। दोनों के क्षेत्रा अलग हैं। बोली-बानी का भी दोनों में अलग स्वाद और आनंद है। इससे हिंदी कहानी का फलक विस्तृत होता है। गैरहिंदी समाज के बारे में भी जान पाते हैं, अन्यथा यहां तो बहुत ‘अकाल’ है।
चलिए, बात देह विमर्श से ही शुरू करते हैं। यह अपने हिंदी साहित्य की बड़ी विडंबना है कि हम स्त्राी की आजादी को उसकी देह तक ही सीमित कर देते हैं। स्त्राी जितनी उच्छृंखल होगी, वह उतनी ही आजाद-हम ऐसा ही मानने लगते हैं। जैसे उसकी आजादी बस इसी में है। उनके विचार, उनकी बौद्धिकता, उनकी प्रतिभा का कोई मोल-मतलब नहीं। स्त्राी विमर्श के नाम पर लंबे समय से यही चल रहा है और चलता रहेगा और इस तरह की लेखिकाएं इस तरह के प्रसंगों के लिए-इसी तरह के कमजोर तर्क पेश करती रहंेगी। जैसे फिल्म के निर्देशक देह राग परोसने के लिए यह तर्क करते हैं- यह कहानी की मांग थी। पर वे यह सच नहीं बोलते कि कहानी की मांग हो न हो, कमजोर कथानक की फिल्म चलाने के लिए यह जरूरी हो जाता है। इसलिए लेखिकाएं भी ‘कहानी की मांग’ के नाम पर इस तरह की छूट ले लेती हैं। पर, जिनकी कथा मजबूत होती है, वह भी इस तरह के तर्क का सहारा लेती हैं, तो समझ में आता है कि उनको खुद की कथा पर विश्वास नहीं है। यद्यपि यह छूट लेने में कोई बुराई नहीं, लेकिन ‘मांग’ के नाम पर यह सब कहने-लिखने-बताने की जरूरत नहीं। जहां तक उनके गंभीर उपन्यास मरंगगोड़ा की बात है-वहां भी अनावश्यक की इस तरह के प्रसंग हैं, जिनकी कोई जरूरत नहीं। मन हो तो इस तरह के प्रसंग को बहुत सलीके से पेश किया जा सकता है। पाठक समझ भी जाएगा कि लेखिका या लेखक क्या कहना चाहता है। बेडरूम में प्रवेश करने की जरूरत नहीं होती है। महुआ ने पहले तो अपना बचाव किया, फिर उन सभी लेखिकाओं का। यानी, वह भी उसी कतार में खड़ी हो जाती हैं। इस प्रसंग में प्रेमचंद की एक सच्ची पहली कहानी, जिसे उन्होंने माना कि-यह मेरी पहली रचना है-याद आती है। यह कहानी उन्होंने अपने मामूं पर ही लिखा था। उनका यह वर्णन देखिए-
‘आखिरकार एक बार उन्होंने वही किया, जो बिन ब्याहे लोग अकसर किया करते थे। एक चमारिन के नयन बाणों से घायल हो गये।...दूसरे दिन शाम को चम्पा-यानी चमारिन-मामंू साहब के घर आई, तो उन्होंने अन्दर का द्वार बंद कर दिया। महीनों के असमंजस और हिचक और धार्मिक संघर्ष के बाद आज मांमू साहब ने अपने प्रेम को व्यावहारिक रूप देने का निश्चय किया था। चाहे कुछ हो जाय, कुल-मरजाद रहे या जाय, बाप दादा का नाम डूबे या उतराये! उधर चमारों का जत्था ताक में था ही। इधर किवाड़ बंद हुए, उधर खटखटाना शुरू किया। पहले तो मांमू साहब ने समझा, कोई आसामी मिलने आया होगा, किवाड़ बंद पाकर लौट जायगा, लेकिन जब आदमियों का शोरगुल सुना तो घबड़ाए।....’ प्रसंग काफी लंबा और रोचक है। यह कहानीकार पर निर्भर करता है कि वह कहना क्या चाहता है। जिनका अपने कथन और कहन पर भरोसा नहीं था, वह ऐसे तर्क और प्रसंग की वकालत करते हैं। वह चाहते हैं कि इस्मत आपा और मंटो की तरह ख्यात हो जाएं, लेकिन वह उस तरह का विजन नहीं ले आ पाते।
महुआ की कहानी ‘इलेशगुंड़ि’ में भी इस तरह के प्रसंग हैं, जिनकी कतई जरूरत नहीं। वह इसलिए कि वह खुद की कहती हैं-कहानी की मांग के अनुसार। यहां कहानी की कोई मांग नहीं। यह लेखिका का अपना मन है। वह रूपकुमारी की पीड़ा को दूसरी तरह भी व्यक्त सकती थीं। इसके लिए यह जरूरी नहीं था कि...‘‘बहुत कम लोगों को पता था कि रूपकुमारी का गर्भ उसके पति की इसी आसुरी प्रवृत्ति के कारण ही गिर गया था। रूपकुमारी के लाख मना करने के बावजूद वही पहले की तरह उठा-पटक... ऊपर-नीचे...।...प्रचंड उत्तेजना से कालीपॉदो का खून गर्म हो उठा। जब खुद को रोक पाना असंभव हो गया तब अचानक आकर पीछे से जकड़ लिया उसे। कुछ देर तक तो वह खुद को कालीपॉदो के सख्त आलिंगन से छुड़ाने की कोशिश करती रही पर उसके स्पर्श में कुछ ऐसा था कि धीरे-धीरे उसका प्रतिरोध शिथिल पड़ता चला गया। पति-सुख से वंचित उपवासी देह उसके नियंत्राण से बाहर होती चली गयी। महीनों का संयम किसी पुराने जर्जर कीले की तरह भरभराकर ढह गया। सांप की तरह लिपट गयी वह उस कामी पुरुष से... प्रश्रय पाकर कालीपॉदो का वहशीपन थोड़ा कम हुआ और बड़े इतमिनान से वह किसी जोंक की तरह उसकी गर्दन की पतली खाल को चूसने लगा। तबतक, जबतक कि वहां गहरा नीला निशान नहीं पड़ गया। उस दिन जितनी देर तक वे दोनों कदम्ब पेड़ के नीचे आलिंगनरत रहे... एक-दूसरे से गुत्थमगुत्था रहे... हवा में धूलकण की जगह कदम्ब फूल के रेणु उड़ते रहे। फिर भी उनकी देह कीचड़ से ऐसे सन गयी कि घर जाने से पहले दोनों को साथ-साथ पद्म-पोखर में उतरना पड़ा।’’
लेखिका की बेवजह सफाई के बरक्स ही इस प्रसंग को यहां रखा गया है। ‘इलेशगुंड़ि’ दरअसल, रूपकुमारी की कहानी है। ‘इलेशगुंड़ि’ यानी बारिश की महीन बूंदें। बांग्ला का यह शब्द है और इसकी अर्थध्वनियां पूरी कहानी में अंतरर्धारा की तरह मौजूद हैै। बारिश की महीन-महीन या छोटी-छोटी बूंदे। नदी की सतह पर जब यह बूंदे पड़ती हैं तो हिल्सा मछली गहरे जल से सतह पर आ जाती है। इस तरह रूपकुमारी का दर्द भी सतह पर आता है-वह दिखाई देने लगता है। कालीपॉदो एक प्रमुख पात्रा है। शादी-सुदा है। रूपकुमारी भी। लेकिन रूपकुमारी अपने पति के छल का शिकार बन जाती है। शादी कर मौज लूट वह गांव से भाग जाता है। पर, रूप उसके इस छल से असावधान ही रहती है और उसकी प्रतीक्षा करती रहती है, लेकिन वह आता नहीं। कालीपॉदो भी उसे खोजता रहा है। एक दिन सूचना देता है- वह तो शहर में किसी और स्त्राी के साथ है। इसके बाद गांव से वह शहर जाती है-उसके घर। वहां झगड़ा होता है और फिर वह अपने गांव चली आती है। काली भी इसी ताक में। अंततः उसे अपने घर में पनाह देता है और उसकी कीमत भी वसूलता है।
सब कुछ ठीक चल रहा होता कि गांव में बाढ़ का प्रकोप। सभी बेघर। क्या अमीर क्या गरीब। त्राण शिविर में पनाह की सबको जरूरत। पर इस त्राण शिविर में कालीपॉदो रूपकुमारी को पहचानने से ही इनकार कर देता है। शिविर के बचावकर्मी सबका नाम रजिस्टर में लिखते हैं। वह रूपकुमारी से भी पूछते हैं। रूप कुछ कहती है-लेकिन कालीपॉदो बोल उठता है-कुछ नहीं लगता। वह उससे अपने संबंध को इनकार कर देता है। रूपकुमारी जो समय की मारी दुखियारी, उसके घर सौत बनकर हर दुख सहते हुए रह रही होती है। लेकिन इस त्राण शिविर में रूपकुमारी पर पति की तरह अधिकार रखने वाला काली कह देता है-कुछ नहीं लगता। रूप की इस कथा-व्यथा को महुआ माजी ने बहुत संवेदनशीलता के साथ उभारा है। रूप की पीड़ा को यहां बस आप महसूस कर सकते हैं। बाढ़ से पराजित मानुस कितना स्वार्थी और पतित हो सकता है...‘‘क्या वाकई भरपेट भोजन-कपड़े के लिए ही उसने सोच-समझकर कालोपॉदो को फाँसा?- वह खुद ही से पूछती। यह उस़की पेट की क्षुधा थी या देह की ? या फिर मन की? क्यों प्रत्याख्यान नहीं कर पायी वह उसके प्रेम-निवेदन का... देह-आमंत्राण का...? ये कैसी पहेली है ठाकुर! ये मन की ग्रंथियां इतनी जटिल क्यों हैं? क्या एक पुरुड्ढ-मानुष के बिना जीना वाकई इतना मुष्किल था? वह सोचती। फिर सबकुछ भूलकर कालीपॉदो की गृहस्थी में मन रमाने की कोशिश करती। चूल्हा-चौका... बड़े-बुजुर्गों की सेवा... बच्चों पर लाड़ जताना... गाय-गोरू की देखभाल... रिष्तेदारों की तिमारदारी... क्या कुछ नहीं करती वह। सबका दिल जीतने का प्रयास करती। लेकिन हरेक के बर्ताव में उसके लिए हिकारत...सिर्फ हिकारत...। बड़ों की देखा-देखी मासूम बच्चे भी उसे दुत्कारना सीख गए थे। एक अछूत-सी ही हैसियत थी उस घर में उसकी।’’ बाबा तुलसी बहुत पहले लिख गए हैं-पराधीन सपनेहुं सुख नहीं। स्त्राी की यही दशा। सालों से। राजेंद्र यादव ने कहीं लिखा था-कमर के उ$पर स्त्राी देवी है, कमर के नीचे वैश्या। हमारा समाज स्त्राी को बस इसी नजर से देखता है-स्त्राी इसके सिवाय भी कुछ है-हम सोच नहीं पाते और विमर्श के नाम पर एक स्त्राी भी जब खुद स्त्राी को इसी नजरिए से पेश करती है-तो समझ में आता है-मामला लेखन का नहीं, प्रतिबद्धता का नहीं बाजार का है। बाजार हमारे चारों तरफ घुस चुका है। दिमाग में भी। वह बराबर चलता रहता है।
यह कहानी 2017 की है। स्थान बंगाल का कोई गांव हो सकता है। बंगाल में बहने वाली कोई नदी। कोई पद्मपोखर और उसके किनारे कदंब का विशाल गाछ। ये सब भी किसी पात्रा की तरह ही उपस्थित होते हैं। हवाएं भी यहां कुछ कहती-सुनती नजर आती हैं। कहानी सिर्फ मानुस जात की नहीं। कहानी में कदंब की भी वही भूमिका है, नदी की भी और ‘इलेशगुंड़ि’ की भी। जब कहानी बंगाल के किसी गांव की है तो जाहिर है, यहां ऐसे शब्द भी आपको मिलेंगे जिसे हम हिंदी में आढ़त कहते हैं यहां आड़ोत पाते हैं। उपमा का सौंदर्य भी कम नहीं- ‘तुझे देख, तेरा कष्ट देख मेरा मन हापुस-हुपुस करता है रे रूपकुमारी।’ हापुस-हापुस शब्द बांग्ला में प्रचलित हैं। इस कहानी में बांग्ला का प्रभाव काफी है। शब्दों पर तो है ही।
महुआ की दूसरी कहानी है ‘रोल मॉडल’। यह वागर्थ के 2005 के सितंबर अंक में आई थी। इस कहानी में रांची का जिक्र नहीं है, उन मुहल्लों के भी नहीं, जो कहानी में आते हैं, लेकिन रांची से जो परिचित हैं, उन्हें पता चल जाएगा कि कहानी कहां घटित होती है। दरअसल, रांची वैसे तो शिक्षा के लिए जाना जाता है। यहां ईसाई मिशनरियों ने एक बड़ा काम इस क्षेत्रा में किया। प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक। फिर बीआइटी जैसे संस्थान हैं। 2000 में बिहार से अलग हुए झारखंड में 2018 तक तो कई यूनिवर्सिटियां खुल गई हैं। लेकिन 2005 तक भी महत्वपूर्ण कॉलेज तो थे ही। इसलिए, झारखंड से इतर दूसरे प्रदेशों से भी लड़कियां और लड़कें यहां पढ़ने के लिए आते हैं। राज्य के दूसरे शहरों से तो आते ही हैं। बाहर से आई छात्राओं के लिए रहने के लिए कमरा चाहिए। हर कॉलेज और संस्थानों में पर्याप्त छात्रावास तो रहते नहीं। फिर उन्हें या तो पेइंग गेस्ट होकर रहना पड़ता है या कमरा किराया लेकर। यहां भी फिर बनारस की तरह अपने घर के कमरे किराये पर उठाने लगे। एक-एक कमरे में चार-चार चौकियां लगा दी और फिर प्रति चौकी कमाई करने लगे। जिनके घरों में अतिरिक्त कमरे थे, उन्हें अपने कमरे उठाने में तो कोई दिक्कत नहीं थीं, जिनके कम थे, वह भी एक-दो कमरे में खुद को समेट लिया और एकाध कमरा किराये पर लगा दिया। जिनके पास जगह-जगह ही थी, उन्होंने लॉज की शक्ल दे दी। और, जिनके पास कुछ नहीं था, वे दूसरों को देख कूढ़ने लगे। तरह-तरह की बातें बनाने लगे। इस तरह मोहल्लों की अलग पहचान बनने लगी और जब गलियां लड़कियों से गुलजार होने लगी तो फिर मंडराते हुए भंवरे भी आने लगे। फिर तरह-तरह की चर्चा भी आने लगी। जो गलियां सुनसान रहा करती थीं, गुलजार रहने लगीं, शाम में सन्नाटा पसर जाने वाली गलियों में भी देर शाम तक खुसूर-फुसूर शुरू हो गया। जिन बुजुर्गों के पास कोई काम नहीं था, उन्हें भी काम मिल गया, वे गलियों की ओर ताका करते थे। और, इसी कहानी में एक मजेदार पात्रा हैं सनातन बाबू। इनके पास कोई कमरा नहीं रहता है, लेकिन जब लड़कियां आकर पूछती हैं-अंकल कमरा है तो वे मना नहीं करते। बल्कि पूरी जांच-पड़ताल में जुट जाते हैं-कितने लोग हो, खाना कहां खाओगी, बनाओगी या मंगाओगी-बनाओगी तो गैस पर या स्टोव पर वगैरह-वगैरह। सनातन बाबू की हर जिज्ञासा और सवाल का जवाब देते जब लड़कियां थक जाती हैं-तब कहती हैं-तो अंकल अब हमारा कमरा दिखा दीजिए। अब सनातन बाबू का जवाब सुनिए-कमरा! कमरा कहां है? सनातन बाबू आश्चर्य से कहते हैं-हमारे घर पर कोई कमरा वमरा खाली नहीं है। नीचे हम मियां-बीवी और मंझले भाई का परिवार रहता है। उ$पर हमारे बड़े भाई का परिवार। हमारे यहां खाली कमरा होता तो अब तक दे नहीं देता? यहां इतनी देर धूप में खड़ा करके रखता क्या?
इस तरह-तरह एक-एक दरवाजा खटखटाते हुए लड़कियों को कमरा मिल ही जाता है। गांव, कस्बे या दूसरे शहरों से आई लड़कियां यहां काफी अपने को उन्मुक्त और आजाद महसूस करती हैं। यह आजादी कपड़ों से भी झलकती है और देर शाम लौटते वक्त भी। जब कोई न कोई भंवरा छोड़ जाता है। या फिर देर रात जब घर से किसी प्रोजेक्ट पूरा करने का बहाना बना निकलती हैं।
हमारा मध्यवर्गीय समाज अपने घर में झांकने के बजाय दूसरों के घरों में ताका-ताकी में खूब रस लेता है। यह हमारे भीतर कहीं कंुठा भी है। मध्यवर्गीय परिवार परंपरा की भी चिंता करता है, समाज की भी, धर्म की भी। संस्कार तो पीछा करते रहते हैं, अंत तक। अंतिम तक। कुछ लोगों को लड़कियों का पहनावा पसंद नहीं। कुछ चाहते हैं, मोहल्ले से इन्हें बाहर किया जाए। तो कुछ अतिरिक्त कमाई से चुप हैं। अर्थ भी जरूरी है और इसके लिए थोड़ा-बहुत समझौता किया जा सकता है। पितृसत्तात्मक समाज की अपनी चिंता भी कम नहीं। दुश्वारियां यहां भी हैं। पर, यही लड़कियां तब ‘रोल मॉडल’ उन लोगों के लिए बन जाती हैं, जो लगातार इन्हें शक और संदेह की निगाह से देखते आ रहे थे। इसी तरह एक लड़की की, जो मकान मालिक की निगाह में उच्छृंखल मानी जाती थी, एक दिन मिठाई का डब्बा लेकर घर मालिक को खिलाती हुई यह सुखद सूचना देती है-अंकल मेरा जॉब लग गया है। पचास हजार महीना। अंकल का मुंह खुला का खुला रह जाता है। अंकल की सारी चेतना धराशायी हो जाती है। सुबह जब लड़की अपना सामान समेटकर जाने लगती है तब रतजगे अभिभावक अपनी बेटी का हाथ पकड़कर उस लड़की के पास आ धमकते हैं-हम भी अपनी लड़की को दिल्ली में कोचिंग कराना चाहते हैं। तुम रखोगी अपने पास तो ‘लायक’ बन जाएगी। उस परिवार के लिए वह लड़की रोल मॉडल बन जाती है। यहां भी पैसा प्रमुख कारण है। पैसा है तो सारी एैब छिप जाती हैं। पूंजी का बड़ा महत्व है। चाणक्य ने भी अपनी नीति पुस्तक का नाम ‘अर्थशास्त्रा’ रखा था और मार्क्स भी पूंजी के इर्द-गिर्द झूलते नजर आते हैं। पंूजी का बड़ा खेल है जीवन में। जिनके पास पूंजी है, उनके लिए परंपरा, संस्कार, संस्कृति कोई मायने नहीं रखती, लेकिन उसके वे सबसे बड़े प्रवक्ता और संरक्षक बना दिए जाते हैं। बहरहाल, यह कहानी एक दकियानूसी परिवार के विचार परिवर्तन की कहानी है। परिवार भी समाज की एक इकाई है। परिवार से ही समाज बनता है। एक परिवार के विचार बदले तो समाज का विचार भी बदल सकता है। जो दिखता है, वह पूरा सच नहीं होता। देखने का एक नजरिया यह भी है हम अपनी आंखों से जो देखते हैं, उसमें हमारी सोच और संस्कार भी शामिल होते हैं। दो आंखें वर्तमान को देखते हुए भी हजारों सालों को भी देखती हैं। इसलिए, जो दिखे, उस पर सहसा और तुरत विश्वास कर लेने की जरूरत नहीं है। महुआ की इस कहानी ने तब काफी चर्चा बटोरी थी। एक नया विषय था। महुआ अपने लिए नया-नया विषय तलाशती हैं। समाजशास्त्राी हैं, इसलिए किसी चीज को पैनी निगाह से देखती हैं। जब वे महिला आयोग की अध्यक्ष थीं, तब उनके पास परिवार की तरह-तरह की सच्ची कहानियां आईं। वे कहानियां भी किसी शक्ल में कागजों पर उतरेंगी, ऐसा विश्वास है। एक लेखक के लिए अनुभव भी जरूरी है और खोजी प्रवृत्ति भी। लगन तो चाहिए ही। महुआ में तीनों है। ये कहानियां रोज घटित होती हैं, लेकिन महुआ ने जिस रोचक ढंग से इसे प्रस्तुत किया है, वह प्रशंसनीय है। ये कहानियां विमर्श से हटकर लिखी गई हैं। इसलिए इनकी आयु लंबी होगी। जो विमर्श, राजनीति और किसी खांचे में निबद्ध होकर लिखी जाती हैं-वे अल्पायु होने के लिए अभिशप्त होती हैं। आंदोलन से उपजी कहानियां आंदोलन के साथ ही समाप्त हो जाती हैं।
लमही से साभार
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