अकेले पड़ते किसान की त्रासद गाथा

  भारतीय किसानों की व्यथा-कथा किसी से छिपी नहीं है। पिछले तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार को किसानों से जोड़ कर देखा जा रहा है। किसान चाहे उत्तर के हों, पश्चिम के हों, दक्षिण के हों, विदर्भ के हों, बुंदेलखंड के हों, सबकी समस्याएं एक सी हैं। इनके लिए सरकारी योजनाओं, फसल बीमा, सिंचाई के साधन, डोभा निर्माण सबका एक ही उद्देश्य है- नौकरशाही की जेब भरना। इनका किसानों की समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं। राजधानियों मंे बैठकर नौकरशाह योजनाएं बनाते हैं। बनाते समय इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनकी जेब में माल कितना जाएगा! बड़ी-बड़ी सिंचाई परियोजनाओं की पड़ताल करेंगे तो पता चल जाएगा। अपने झारखंड में तो यही हाल है। 1974 से चल रही योजनाएं आज तक पूरी नहीं हुईं। जो योजनाएं उस समय 43 करोड़ की थीं, अब वह एक हजार करोड़ से उ$पर जा पहंुची हैं, लेकिन वह भी पूरी हो जाएं, इसमें कतई संदेह है। आज किसान कई तरह की समस्याओं से घिरा है। इसमें सिंचाई के लिए पानी तो है ही। बीज भी है। बीज कंपनियां इतनी प्रभावी हैं कि सरकार चाहे जिसकी हो, चलती उनकी की है। इसलिए, पिसता किसान की है।
 
  सरकारों का किसानों की चिंता करना कोई नहीं बात नहीं है। हर सरकार इसका दिखावा करती आ रही है। आजादी से पहले भी किसानों के कई आंदोलन हो चुके हैं। अवध का किसान आंदोलन सबको याद है। पंजाब से लेकर अब के झारखंड का इतिहास पलट सकते हैं। नक्सलबाड़ी आंदोलन दरअसल, किसान विद्रोह ही था। अलग-अलग समस्याओं को लेकर किसान हमेशा से आंदोलनरत रहे हैं। इन आंदोलनों पर लिखा भी जाता रहा है। पर, आज अन्नदाता कई तरह के मकड़जाल के साथ विकास का दंश भी झेल रहा है। जमीन सिकुड़ती जा रही है। आबादी बढ़ती जा रही है और नई पीढ़ी किसानी करना नहीं चाहती। गांव शहर की ओर भाग रहा है। शहरों में गांव समा रहा है। मिथिलेश्वरजी का नया उपन्यास ‘तेरा संगी कोई नहीं’ इसी अंतर्द्वंद्व को सामने रखता है। किसानों का दुख, दर्द, संताप और अपनी जमीन के प्रति चाह और लगाव अब चिंता का सबब बनता जा रहा है। जिनका गांव से वास्ता रहा है, वे इसे पढ़ते हुए महसूस कर सकते हैं कि मिथिलेश्वर जी बलहारी गांव की कथा नहीं, उनके अपने गांव की कथा सुना रहे हैं। मिथिलेश्वरजी की लिखने की जो शैली है, वह सुनाने की है। वह सुनाने में सिद्धहस्त हैं। इसलिए, पाठक पढ़ता नहीं, सुनता है और सुनने में उसे समय का ध्यान नहीं रहता, उसमें डूबता चला जाता है। इस डूब में कई बार उसकी आंखें नम होती हैं और उसके सामने गांव का पूरा दृश्य सामने उपस्थित हो जाता है। गांव के टोले, लहलहाते खेत, बाग-बगीचे, सिवान, खलिहान, गांव से बाहर का मंदिर, मंदिर का पुजारी, उसकी लुच्चई, गांव की राजनीति, गांवों की आपसी प्रतिद्वंदिता...। कोई ऐसा पक्ष नहीं, जिसका वर्णन न किया हो, खेत की मेड़ से उठता लोकगीत...खेतवा घूमे रे किसनवा...झूमे खेतवा में धनवा कभी उत्साह जगाता है, कभी दर्द बनकर उभरता है।   यह कथा बलहारी गांव की नहीं है। ‘बत्तीस बिगहवा’ के मालिक बलेसर की नहीं, उनके तीन पुत्रों की भी नहीं, यह उन सबकी कथा है, जो गांव में रहना चाहते हैं, पूर्वजों की जमीन बेचना नहीं, हर हाल में बचाना चाहते हैं, लेकिन नई पीढ़ी चाहती है कि अब गांव में रहा ही क्या, खेती-किसानी में पहले जैसी बात नहीं रही। अब महंगा हो गया है। समस्याएं बढ़ गई हैं। अब बनिहार भी नहीं मिलते। तो फिर क्यों खेती-किसानी की जाए? 
  पिछले 70 सालों में हमने विकास का ऐसा मॉडल विकसित कर लिया है कि नई पीढ़ी अब खेती करना नहीं चाहती। जबकि अन्न सबको चाहिए। अन्न के बिना कोई जीवित नहीं रह सकता। फिर हमारी सरकारों ने ऐसा वातावरण क्यों नहीं बनाया कि शहर का विकास भी हो, हम आधुनिक भी बनें, लेकिन किसानी भी ऐसा हो, कि नई पीढ़ी इससे दूर न भागे, दिल से अपनाएं। पर हमारी सरकारों और नौकरशाहों ने नकलची की तरह विदेशी मॉडल तो अपना लिया, यह सोचे-विचारे बिना कि यह अपने देश के अनुकूल है भी या नहीं। हम जब कहते हैं, भारत गांवों का देश है, जय-जवान-जय किसान का नारा बुलंद करते हैं तो उसमें किसानों के लिए कितनी सम्मानजनक जगह बची है? आज हमारी सरकारें किसानों की चिंता नहीं करतीं, चिंता करने का दिखावा करती हैं। इसलिए, हमारी पीढ़ी किसानी से भाग रही है। आइए, थोड़ा पीछे चलें। एक दो नहीं, चार शताब्दी पहले। देखें कि मुगल काल का एक सितारा अकबर किसानों के बारे में क्या सोचता था?
   अकबर के काल में ‘अमलगुजार’ होता था। यह एक प्रकार का विशेेष अधिकारी था। इसकी पोजीशन आजकल के कलेक्टर या डीसी के समान थी। राष्ट की रीढ़ उस समय किसान ही माने जाते थे। यद्यपि सम्मान का स्थान सबके लिए था। पर, भोजन-वस्त्रा के दाता तो कृषक ही हैं। यह बात अकबर को पता थी। इसलिए उसने किसानों के साथ बड़ी रियायतें की थीं और खेती की उन्नति के लिए सब प्रकार की सुविधाएं दी थीं, इतना ही नहीं, अमलगुजारों को ऐसी हिदायतें दी थीं, जो विशेषकर किसानों के लाभ की थीं। अमलगुजार के कर्तव्य तो बहुत थे, पर प्रमुख था वह यह है- ‘अमलगुजार को चाहिए कि वह कृषक मित्रा हो। सत्य भाषण और परिश्रमशीलता उसके आचरण के नियम हों। वह अपने को सर्वरक्षक सम्राट का प्रतिनिधि माने...वह ऐसी कोशिश करे कि हर जिंस की उत्तम पैदा हो और उसकी वृद्धि के लिए दस्तूर के अनुसार जमा यानी ‘कर’ ली जाती हो, उसमें कुछ कमी कर दे। यदि कृषक अपनी प्रतिज्ञा से कम खेती करे और उसका कारण बाह्यरूप से सत्य दिखे, तो भी उसे स्वीकार करे। किसी गांव में बंजर भूमि न पड़ी रहे। यदि कृषक में अधिक कृषि करने का बल हो तो, तो दूसरे गांव की भूमि उसमें बढ़ा दे।’ इस तरह अकबर ने अपनी एक कृषि नीति तय रखी थी जो किसानों के पक्ष में थी। अकबर को लगता रहा कि किसान खुश रहेंगे तो देश भी खुशहाल रहेगा और देश पर राज करने वाला राजा भी। यह अकबर को बोध था, लेकिन आज के हमारे ‘सम्राटों’ या हुक्मरानों को नहीं।
 
  आज किसान जीवन-मरण से जूझ रहा है। वह आत्महत्या कर रहा है, लेकिन हमारे शासकों के दिल तनिक भी नहीं पसीज रहे। दक्षिण से किसान चलकर दिल्ली राजपथ पर अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करते रहे। महिलाएं नदी जल में आंदोलन करती रहीं, पर हुआ क्या? गांधी ने चंपारण के किसानों की लड़ाई लड़ी, वह सफल रहे। हम पिछले साल चंपारण का शताब्दी वर्ष मनाएं। अभी गांधी की 150 वीं जयंती मना रहे हैं लेकिन गांधी के विचार, उनके 26 रचनात्मक कार्यक्रम पर कोई चर्चा नहीं। हम गांधी जयंती के नाम पर ढकोसला कर रहे हैं। गांधीवादी भी इसमें पीछे नहीं। सचमुच, आज गांधी होते तो वे अपने आंदोलन में असफल ही रहते। उन्हें बोध होता कि ये हमारे अपने जो शासक हैं, वह तो अंग्रेजों से ज्यादा क्रूर, अमानवीय, हिंसक और रक्तपिपासु हैं। इनकी चमड़ी इतनी मोटी हो चुकी है कि कुछ फर्क नहीं पड़ता। आज और कल में यही अंतर है। इसलिए, जब किसान आत्महत्या करता है, तो ये तनिक भी संवेदित नहीं होते। 
  यही कारण है कि ‘तेरा संगी कोई नहीं’ का किसान बलेसर भी क्रूर व्यवस्था, अंधविकास और विडंबना का शिकार अपने ही लहलहाते खेत में मृत पाया जाता है। किसान के लिए यह एक त्रासद स्थिति है। बलेसर के तीन बेटे, तीनों पढ़-लिखकर नौकरी पा जाते हैं। वे पिता पर दबाव बनाते हैं कि वह अपना खेत बेच दें और शहर में आकर बस जाएं। गांव में कुछ रहा नहीं। खेती पहले जैसी रही नहीं। पर, बलेसर अपने पूर्वजों की धाती को बेचना नहीं, बचाकर रखना चाहते हैं। यह ऐसी थाती, जो उनके पूर्वजों को पालती आई थी, उन्हें भी पाल रही थी, लेकिन बेटों को लग चुकी शहरी हवा, जिसके पर्याप्त कारण और उनके अपने तर्क थे और उनके तर्कों के आगे बलेसर बेजार नजर आ रहे थे। इन सबके बीच कई तरह की घटनाएं घटती हैं। बलेसर की पत्नी लकवा की शिकार होकर शहर में बेटों के पास चली जाती हैं, बेटे इलाज कराते हैं और पिता को समझाते हैं कि गांव में कुछ रखा नहीं। पिता, शहर से गांव आते हैं, लहलहाती फसल को कटवाने का समय भी हो गया था। घर में वे अकेले रात गुजारते हैं, लेकिन आंखों में नींद आते ही तरह-तरह के भयावह सपने घेर लेते हैं-‘सारे जीवन की कमाई का सौदा इस तरह चुटकियों में कैसे कर दें? बचपन से जिस खेती-किसानी के बीच जीते आये, उसे वार्धक्य में पहुंचकर अपने जीवन से कैसे निकाल दें?...बलेसर देखते हैं कि उनका खेत बिक गया, उनकी जमीन पर किसी दूसरे का टैक्टर चल रहा है....वे चिल्लाते हैं...रोको...रोको टैक्टर...। बलेसर की आंख खुल जाती है। वे घबड़ा उठते हैं। वे सहज नहीं हो पाते। अतीत की यादें सामने भयावह रूप में आकर खड़ी हो जाती हैं...देर तक वे असहज और असामान्य बने रहे। फिर कुछ देर बाद उनकी पलकें पुनः बंद होनी शुरू हुईं...। वे चेतन से कब अचेतन में चले गए, कुछ पता ही नहीं चला...। बलेसर का शहर में मकान बन गया। बेटों ने अपने-अपने हिस्से में रहने लगे और बलेसर और उनकी पत्नी एक कमरे में सिमट गए, न कोई बोलने वाला, न हाल-चाल लेने वाला...गांव की उन्हें बेतरह याद आती है। गांव में उनके बत्तीस बिगहवा में राइस मिल लग गया है, वे पागलों की तरह चिल्लाने लगते हैं, हटाओ इस राइस मिल को, खाली करो मेरी जमीन! बलेसर की आंख खुल गई और वे चिल्लाते हुए हांफते जा रहे थे। वर्तमान का बोध हुआ तो उन्होंने चिल्लाना बंद कर दिया। लेकिन हांफना-कांपना जारी रहा। अतीत की घटनाएं तो थी हीं, लग रहा था कि भविष्य भी घट रहा है। वे बिस्तरे से उतरे, आंगन में आए लेकिन बेचैनी कम नहीं हो रही थी। सांस लेने में भी कठिनाई हो रही थी। अंदर का दरवाजा खोला, वे तेजी से बाहर की ओर निकल भागे....सुबह....। यह हमारे देश के किसान का त्रासद सच है। वह चाहता है, अपने पूर्वजों की खेती बचाकर रखे, लेकिन हमारी व्यवस्था किसान को यह मौका नहीं देना चाहती। यह उपन्यास इसी तरह के सवालों को निरंकुश शासन के सामने रखती है कि आखिर, उस विकास का क्या मतलब कि हमारे गांव बेचिरागी हो जाएं? गांव बचे रहेंगे तो देश भी बचा रहेगा, क्योंकि भारत शहरों का देश नहीं, गांवों का देश है। श्रीअरविंद ने इसे समझा था। सरकार को अपने विकास के मॉडल पर चिंतन करना चाहिए। किसान प्रकृति की धुरी है। धरती का स्वामी है। सृष्टि तभी चलती रहेगी, जब किसान खुशहाल होगा और ब्रह्मांड में हमारी धरती की इतनी खूबसूरत है कि वह हर तरह के जीवों को पाल सकती है, इसलिए, हम धरती को मां कहते हैं और किसान को अन्नदाता। ऐसे विकास की हमें कतई जरूरत नहीं, जिसने हमारी धरती को बर्बाद कर दिया है। आज हमारी नदियां प्रदूषित को चुकी हैं। हवाओं में जहर भर गया है। यह ऐसा विकास है, जो बर्बादी और बीमारी दे रहा है। फिर भी हम ठहकर नहीं सोच पा रहे हैं। आखिर क्यों? इस त्रासद समय में किसानों का कोई साथी क्यों नहीं? 
  मिथिलेश्वरजी एक सार्थक और रचनात्मक हस्तक्षेप करते हुए वे किसानों के साथ खड़े होते हैं। उपन्यास के नायक का ‘अंत’ दरअसल, अंत नहीं आरंभ का संकेत देता है, संभलों, नहीं तो देर हो जाएगी। इस ‘अंत’ से ही ‘आरंभ’ करो। जिनके पास खेत-बघार रहा हो, या है, वे माटी के मोल को समझ सकते हैं। मिट्टी के साथ उनका संबंध क्या होता है, यह वही जान सकते हैं। पर, हम चाहते हैं कि आज की पीढ़ी अपनी जड़ों से उखड़ जाए। तब, हम जैसा चाहे, वैसा उन्हें बना सकते हैं। जड़ से उखड़े हुए लोग ‘बाजार’ के लिए काफी मुफीद होते हैं। बेशक, किसान का अंत दुखद है, लेकिन कहीं से तो आरंभ करनी होगी। गांव-किसान के दुख-दर्द को उपन्यासकार बहुत नजदीक से देखते आ रहा है। उनकी तीन खंड में आत्मकथा में भी गांव-जवार और खेत-खलिहान के प्रमाणिक चित्रा उभरे हैं। इसलिए किसानी समस्या की एक-एक बारीकी यहां उभर पाई है। वैसे तो रेणु की ‘परती परिकथा’ से लेकर संजीव की ‘फांस’ तक किसानों की कथा कही जाती रही है, लेकिन यह कथा दूसरे धरातल पर खड़ी है और कुछ जरूरी समस्याओं की ओर इंगित करती है। यहां अपनी धरती को बचाने की जद्दोजहद है। बाकी तो आप खुद पढ़िए और गुनिए। 

अनहद  में यह समीक्षा छप चुकी है। साभार
 


कृति-तेरा संगी कोई नहीं
लेखक-मिथिलेश्वर
लोक भारती प्रकाशन इलाहाबाद

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