डॉ. हरेन्द्र सिन्हा, पुरातत्वविद्.
झारखण्ड में नागवंशी शासकों की एक अद्भुत् परम्परा है। कहा जाता है कि नागवंश की नींव प्रथम शताब्दी में फणि मुकुट राय द्वारा रांची से लगभग 25 किलोमीटर दूर पिठोरिया-सुतिआम्बे में डाली गई। नागवंश की स्थापना में तत्कालीन स्थानीय मुण्डा शासकों की भी महति भूमिका रही। तभी मुण्डा जनजाति और नागवंश में आपसी संबंध की चर्चा भी सामने आती है। यह अपने आप में गहन शोध का विषय है।
नागवंश का शासन काल भी दुनिया के लिए एक अजूबा ही है जिसकी नींव प्रथम शताब्दी में पड़ी और जो आजतक अस्तित्वमान है। किसी भी राजवंश का ये लगभग दो हज़ार वर्षों का कार्यकाल तो निश्चय ही 'गिन्नेस बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स' में दर्ज़ किये जाने योग्य है।
नागवंशियों के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपनी राजधानी नौ बार बदली। सुतिआम्बे के बाद खुखरा, चुटिया, दोईसा, पालकोट आदि स्थान भी उनकी बदलती हुई राजधानियों के रूप में जाने जाते हैं। लेखक द्वारा खुखरा के पुरातात्विक उत्खनन के उपरांत यह तथ्य स्थापित किया जा सका कि लगभग 12वीं-13वीं शताब्दी में नागवंशी शासक भीमकर्ण की राजधानी खुखरा ही थी। इसीके उपरांत लगभग 17वीं शताब्दी में राजा दुर्जनसाल के समय में नई राजधानी दोईसा में स्थापित की गई जो आज के गुमला ज़िला में अवस्थित है। यहाँ बड़ी संख्या में प्राचीन भवनों के अवशेष एक ही परिसर में दिखते हैं। इस स्थान को देख हमें कर्नाटक के हम्पी में स्थित 14वीं शताब्दी के विजय नगर साम्राज्य के अवशेषों की याद आती है, जिन्हें तत्कालीन सरकार द्वारा प्रयत्न करके, विकसित करके बहुत पहले ही विश्व धरोहर का दर्ज़ा दिलाया जा सका। नवरत्नगढ़ को भी उसी प्रकार से विकसित किये जाने की आवश्यकता है।
ऐतिहासिक साक्ष्य बतलाते हैं कि मुग़ल शासक जहांगीर के समय में दुर्जनसाल नागवंश का शासक था। मुग़लों से कतिपय मतभिन्नता के कारण बिहार के तत्कालीन सूबेदार इब्राहिम खां द्वारा दुर्जनसाल को गिरफ्तार करके ग्वालियर के क़िले में बंद कर दिया गया। लगभग 12 सालों बाद कुछ समझौतों के उपरांत दुर्जनसाल को रिहा कर दिया गया। इस घटना की चर्चा जहांगीर की आत्मकथा 'तुजुक' में अंकित है। ग्वालियर से वापस आने पर दुर्जनसाल ने नागवंश की राजधानी को खुखरा से स्थानांतरित किया और वर्तमान गुमला ज़िले के अंतर्गत, सामरिक दृष्टिकोण से अधिक सुरक्षित, दोईसा में अपनी नई राजधानी स्थापित की। इस समय तक नागवंशी शासक अपने लिए भव्य आवासीय भवनों का निर्माण न कर सामान्य भवनों में ही रहते थे। पर दुर्जनसाल, अपने दुर्भाग्यपूर्ण ग्वालियर प्रवास के दौरान, मुग़लों की स्थापत्य कला से खासा प्रभावित हुआ था। फलतः उसने दोईसा स्थित नई राजधानी में एक भव्य राजप्रासाद का निर्माण कराया जिसपर मुग़ल स्थापत्य का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। इस क़िले को नाम दिया गया- नवरत्नगढ़। इस समय तक दिल्ली में मुग़ल बादशाह शाहजहाँ गद्दीनशीन हो चुका था।
नवरत्नगढ़ झारखण्ड की राजधानी रांची से लगभग 67 किलोमीटर दक्षिण-पूरब में गुमला ज़िला के सिसई प्रखण्ड में स्थित है। रांची से बेड़ो-बसिया-सिसई होकर नवरत्नगढ़ पहुंचा जा सकता है। यह पूरा इलाक़ा लगभग 140 एकड़ में बसा हुआ है। यहाँ नवरत्नगढ़ क़िले के अलावा अनेक मंदिर और अन्य संरचनाएं भी हैं जो दुर्जनसाल के बाद के शासकों द्वारा भी कालक्रम में बनाई जाती रहीं। इन भवनों में कपिलनाथ मंदिर, बड़ा महादेव, बूढ़ा महादेव, राजकुल मंदिर, बाउड़ी मठ, कमलनाथ सिंह दरवाज़ा गणेश मूर्ति, अंत:पुर मंदिर, रानी लुकवल, महादेव मंदिर, लुड़दा मंदिर समूह इत्यादि महत्वपूर्ण हैं। इनमें से कुछ में भित्ति चित्र, अत्यंत सुंदर प्रस्तर अलंकरण एवं प्राचीन अभिलेख आदि भी हैं।
जहाँ तक नवरत्नगढ़ क़िले का प्रश्न है, इसपर मुग़ल स्थापत्य हावी दिखता है। निश्चय ही इस के निर्माण के लिए बाहर से भी कुशल शिल्पकार लाए गये होंगे। इस क़िले का आधार 42 मीटर वर्गाकार है। इसकी पांच मंज़िलें थीं जिनमें से अब तीन ही बची हैं। ग्वालियर क़िले की भांति ही सुरक्षा कारणों से इस क़िले के चारों ओर भी मोट, यानी पानी युक्त गड्ढा,खोदा गया था। क़िले के अंदर कई व्यवस्थाएं की गई थीं, यथा; एक कचहरी, एक कोषागार और भूमिगत एक कारागार भी आदि। निर्माण सामग्री में, झारखण्ड के हर क्षेत्र की भांति, यहाँ भी ईंटों और पत्थरों का इस्तेमाल किया गया था। दीवारों की मोटाई लगभग 82 सेंटीमीटर है। प्रथम मंज़िल की योजना में उत्तर दिशा में, उपर की मंज़िलों तक जाने के लिए, पत्थर के मोटे पटरों की सीढ़ियां बनी हुई हैं। महराब भी दरवाज़ों के उपरी हिस्से में बनाये गये हैं।कमरों के आकार के अनुसार उनकी छतें चौकोर अथवा गोल हैं। कमरों में विभिन्न आवश्यकताओं के लिए अमूमन 8 ताखे भी निर्मित हैं। दूसरे तले पर एक बालकनी जैसी संरचना है जहाँ से राजा संभवतः अपनी प्रजा को दर्शन देते होंगे, जैसा कि उन दिनों मुग़ल शासकों में चलन था। कमरों की अंदरुनी छतों में लकड़ी सजावट भी की गई थी, जिनमें लताओं के अतिरिक्त हाथी जैसे जीव-जंतु भी उकेरे गये हैं। क़िले की छत के परकोटे मुग़ल शैली के अनुकरण में बनाये तो गये हैं पर इनमें छिद्र नहीं बनाने के कारण ये अनुपयोगी रह गये होंगे, क्यूंकि किसी युद्ध के समय छुपकर वार करने की सहूलियत यहाँ नहीं रह गई होगी। भूतल के मुकाबले यहाँ की दीवार की मोटाई मात्र 76 सेन्टीमीटर है।
अब यहाँ की सारी संरचनाएं समाप्ति के कगार पर हैं। राज्य सरकार सहित केन्द्र सरकार का ध्यान बारंबार इस महत्वपूर्ण स्मारक की तरफ़ लेखक द्वारा दिलाया जाता रहा। अंततः भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के रांची संकुल की पहल पर इस स्मारक को केन्द्र सरकार द्वारा संरक्षित घोषित कर दिया गया। यह भी ज्ञातव्य हो कि राज्य सरकार राज्य बनने से लेकर आज तक एक भी स्मारक को संरक्षित घोषित नहीं कर सकी।
पर अब यह पूरे राज्य के लिए हर्ष, गर्व और संतोष की बात है कि भारत सरकार के असाधारण राजपत्र भाग II, खंड 3 उप-खंड (II) में प्रकाशित भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) द्वारा अब आदेश सं. 3183 दि: 27.09.19 द्वारा नवरत्नगढ़ को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया गया है। अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (रांची संकुल) द्वारा अविलम्ब इसके विकास की दिशा में ठोस क़दम उठाते हुए इसे हम्पी की तर्ज़ पर राज्य के एक महत्वपूर्ण पर्यटन केन्द्र के रूप में विकसित करने के उपाय करने चाहिएं।
झारखण्ड में नागवंशी शासकों की एक अद्भुत् परम्परा है। कहा जाता है कि नागवंश की नींव प्रथम शताब्दी में फणि मुकुट राय द्वारा रांची से लगभग 25 किलोमीटर दूर पिठोरिया-सुतिआम्बे में डाली गई। नागवंश की स्थापना में तत्कालीन स्थानीय मुण्डा शासकों की भी महति भूमिका रही। तभी मुण्डा जनजाति और नागवंश में आपसी संबंध की चर्चा भी सामने आती है। यह अपने आप में गहन शोध का विषय है।
नागवंश का शासन काल भी दुनिया के लिए एक अजूबा ही है जिसकी नींव प्रथम शताब्दी में पड़ी और जो आजतक अस्तित्वमान है। किसी भी राजवंश का ये लगभग दो हज़ार वर्षों का कार्यकाल तो निश्चय ही 'गिन्नेस बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स' में दर्ज़ किये जाने योग्य है।
नागवंशियों के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपनी राजधानी नौ बार बदली। सुतिआम्बे के बाद खुखरा, चुटिया, दोईसा, पालकोट आदि स्थान भी उनकी बदलती हुई राजधानियों के रूप में जाने जाते हैं। लेखक द्वारा खुखरा के पुरातात्विक उत्खनन के उपरांत यह तथ्य स्थापित किया जा सका कि लगभग 12वीं-13वीं शताब्दी में नागवंशी शासक भीमकर्ण की राजधानी खुखरा ही थी। इसीके उपरांत लगभग 17वीं शताब्दी में राजा दुर्जनसाल के समय में नई राजधानी दोईसा में स्थापित की गई जो आज के गुमला ज़िला में अवस्थित है। यहाँ बड़ी संख्या में प्राचीन भवनों के अवशेष एक ही परिसर में दिखते हैं। इस स्थान को देख हमें कर्नाटक के हम्पी में स्थित 14वीं शताब्दी के विजय नगर साम्राज्य के अवशेषों की याद आती है, जिन्हें तत्कालीन सरकार द्वारा प्रयत्न करके, विकसित करके बहुत पहले ही विश्व धरोहर का दर्ज़ा दिलाया जा सका। नवरत्नगढ़ को भी उसी प्रकार से विकसित किये जाने की आवश्यकता है।
ऐतिहासिक साक्ष्य बतलाते हैं कि मुग़ल शासक जहांगीर के समय में दुर्जनसाल नागवंश का शासक था। मुग़लों से कतिपय मतभिन्नता के कारण बिहार के तत्कालीन सूबेदार इब्राहिम खां द्वारा दुर्जनसाल को गिरफ्तार करके ग्वालियर के क़िले में बंद कर दिया गया। लगभग 12 सालों बाद कुछ समझौतों के उपरांत दुर्जनसाल को रिहा कर दिया गया। इस घटना की चर्चा जहांगीर की आत्मकथा 'तुजुक' में अंकित है। ग्वालियर से वापस आने पर दुर्जनसाल ने नागवंश की राजधानी को खुखरा से स्थानांतरित किया और वर्तमान गुमला ज़िले के अंतर्गत, सामरिक दृष्टिकोण से अधिक सुरक्षित, दोईसा में अपनी नई राजधानी स्थापित की। इस समय तक नागवंशी शासक अपने लिए भव्य आवासीय भवनों का निर्माण न कर सामान्य भवनों में ही रहते थे। पर दुर्जनसाल, अपने दुर्भाग्यपूर्ण ग्वालियर प्रवास के दौरान, मुग़लों की स्थापत्य कला से खासा प्रभावित हुआ था। फलतः उसने दोईसा स्थित नई राजधानी में एक भव्य राजप्रासाद का निर्माण कराया जिसपर मुग़ल स्थापत्य का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। इस क़िले को नाम दिया गया- नवरत्नगढ़। इस समय तक दिल्ली में मुग़ल बादशाह शाहजहाँ गद्दीनशीन हो चुका था।
नवरत्नगढ़ झारखण्ड की राजधानी रांची से लगभग 67 किलोमीटर दक्षिण-पूरब में गुमला ज़िला के सिसई प्रखण्ड में स्थित है। रांची से बेड़ो-बसिया-सिसई होकर नवरत्नगढ़ पहुंचा जा सकता है। यह पूरा इलाक़ा लगभग 140 एकड़ में बसा हुआ है। यहाँ नवरत्नगढ़ क़िले के अलावा अनेक मंदिर और अन्य संरचनाएं भी हैं जो दुर्जनसाल के बाद के शासकों द्वारा भी कालक्रम में बनाई जाती रहीं। इन भवनों में कपिलनाथ मंदिर, बड़ा महादेव, बूढ़ा महादेव, राजकुल मंदिर, बाउड़ी मठ, कमलनाथ सिंह दरवाज़ा गणेश मूर्ति, अंत:पुर मंदिर, रानी लुकवल, महादेव मंदिर, लुड़दा मंदिर समूह इत्यादि महत्वपूर्ण हैं। इनमें से कुछ में भित्ति चित्र, अत्यंत सुंदर प्रस्तर अलंकरण एवं प्राचीन अभिलेख आदि भी हैं।
जहाँ तक नवरत्नगढ़ क़िले का प्रश्न है, इसपर मुग़ल स्थापत्य हावी दिखता है। निश्चय ही इस के निर्माण के लिए बाहर से भी कुशल शिल्पकार लाए गये होंगे। इस क़िले का आधार 42 मीटर वर्गाकार है। इसकी पांच मंज़िलें थीं जिनमें से अब तीन ही बची हैं। ग्वालियर क़िले की भांति ही सुरक्षा कारणों से इस क़िले के चारों ओर भी मोट, यानी पानी युक्त गड्ढा,खोदा गया था। क़िले के अंदर कई व्यवस्थाएं की गई थीं, यथा; एक कचहरी, एक कोषागार और भूमिगत एक कारागार भी आदि। निर्माण सामग्री में, झारखण्ड के हर क्षेत्र की भांति, यहाँ भी ईंटों और पत्थरों का इस्तेमाल किया गया था। दीवारों की मोटाई लगभग 82 सेंटीमीटर है। प्रथम मंज़िल की योजना में उत्तर दिशा में, उपर की मंज़िलों तक जाने के लिए, पत्थर के मोटे पटरों की सीढ़ियां बनी हुई हैं। महराब भी दरवाज़ों के उपरी हिस्से में बनाये गये हैं।कमरों के आकार के अनुसार उनकी छतें चौकोर अथवा गोल हैं। कमरों में विभिन्न आवश्यकताओं के लिए अमूमन 8 ताखे भी निर्मित हैं। दूसरे तले पर एक बालकनी जैसी संरचना है जहाँ से राजा संभवतः अपनी प्रजा को दर्शन देते होंगे, जैसा कि उन दिनों मुग़ल शासकों में चलन था। कमरों की अंदरुनी छतों में लकड़ी सजावट भी की गई थी, जिनमें लताओं के अतिरिक्त हाथी जैसे जीव-जंतु भी उकेरे गये हैं। क़िले की छत के परकोटे मुग़ल शैली के अनुकरण में बनाये तो गये हैं पर इनमें छिद्र नहीं बनाने के कारण ये अनुपयोगी रह गये होंगे, क्यूंकि किसी युद्ध के समय छुपकर वार करने की सहूलियत यहाँ नहीं रह गई होगी। भूतल के मुकाबले यहाँ की दीवार की मोटाई मात्र 76 सेन्टीमीटर है।
अब यहाँ की सारी संरचनाएं समाप्ति के कगार पर हैं। राज्य सरकार सहित केन्द्र सरकार का ध्यान बारंबार इस महत्वपूर्ण स्मारक की तरफ़ लेखक द्वारा दिलाया जाता रहा। अंततः भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के रांची संकुल की पहल पर इस स्मारक को केन्द्र सरकार द्वारा संरक्षित घोषित कर दिया गया। यह भी ज्ञातव्य हो कि राज्य सरकार राज्य बनने से लेकर आज तक एक भी स्मारक को संरक्षित घोषित नहीं कर सकी।
पर अब यह पूरे राज्य के लिए हर्ष, गर्व और संतोष की बात है कि भारत सरकार के असाधारण राजपत्र भाग II, खंड 3 उप-खंड (II) में प्रकाशित भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) द्वारा अब आदेश सं. 3183 दि: 27.09.19 द्वारा नवरत्नगढ़ को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया गया है। अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (रांची संकुल) द्वारा अविलम्ब इसके विकास की दिशा में ठोस क़दम उठाते हुए इसे हम्पी की तर्ज़ पर राज्य के एक महत्वपूर्ण पर्यटन केन्द्र के रूप में विकसित करने के उपाय करने चाहिएं।
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