मुगल
बादशाह शाह आलम द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कंपनी को 12 अगस्त, 1765 को बिहार,
बंगाल, उड़ीसा की दीवानी सौंप दी। दीवानी यानी राजस्व का अधिकार। इसी साल
अंग्रेजों का प्रवेश झारखंड में हुआ था। झारखंड में उस समय कई छोटी-बड़ी
रियासतें थीं। छोटानागपुर में नागवंशी, पलामू में चेरो, हजारीबाग-रामगढ़ भी
राजवंश था। संताल परगना में भी रियासतें थीं। अंग्रेजों ने प्रवेश करने के
साथ-साथ राजस्व का अधिकार मिलने के बाद लगान वसूलना शुरू किया। इसका विरोध
रियासतों ने शुरू किया। इनमें असंतोष भी बढऩे लगा। जमींदार और स्थानीय
आदिवासी समाज भी विरोध में उतर गया। चार साल बाद बड़ा भूम एवं घाटशिला में
भूमिजों ने लगान बढ़ाए जाने का विरोध किया। भूमिज भी मुंडा आदिवासी परिवार
से ही आते हैं। लेकिन कालांतर में भूमिज हिंदू धर्म से भी प्रभावित हुए और
उनके नामों में यह प्रभाव देख सकते हैं। भूमिज को चूंकि बंगाली चुआर या
चुआड़ कहते थे, इसलिए, इसे चुआड़ विद्रोह भी कहा जाता है। भूमिजों के इस
पहले विद्रोह को दबाने के लिए लेफ्निेंट नन को भेजा गया। इस बीच सिंहभूम
में अन्य भूमिज भी इस विद्रोह में शामिल हो गए। उन विद्रोहियों ने घाटशिला
पर आक्रमण कर दिया। कंपनी सरकार के सिपाहियों को भागकर नरसिंह गढ़ में शरण
लेनी पड़ी।
कैलापाल के जागीरदार सुबह
सिंह,दामपाड़ा के सरदार जगन्नाथ पातर और धदका के सरदार श्याम गंजन भूमिज
विद्रोह के प्रमुख थे। विद्रोह के कारण कंपनी सरकार को अपने कदम पीछे करने
पड़े। इसके बाद शांति बनी रही। लेकिन कंपनी सरकार ने फिर जब उत्पात शुरू
किया तो 1832-33 में धालभूम, बड़ा भूम व पाटकुम परगनों में गंगा नारायण
सिंह के नेतृत्व में भूमिजों ने व्यापक विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह बड़ा
भूम के राजा उसके पदाधिकारियों, विशेषकर उसका दीवान माधव सिंह व कंपनी
सरकार के खिलाफ था। 20 अप्रैल, 1832 को गंगा नारायण सिंह ने अपने चचेरे भाई
व दीवान माधव सिंह की हत्या कर दी। इस हत्या के साथ विद्रोह की शुरुआत
हुई।
बड़ाभूम भी रियासत थी। यहां के
राजा विवेक नारायण सिंह की दो रानियां थीं। दो रानियों के दो पुत्र थे।
18वीं शाताब्दी में राजा विवेक नारायण सिंह की मृत्यु के बाद दो पुत्रों
रघुनाथ नारायण सिंह व लक्ष्मण सिंह के बीच उत्तराधिकार का झगड़ा हुआ।
अंग्रेजों ने रघुनाथ सिंह को राजा बना दिया। ये छोटी रानी के पुत्र थे।
भूमिज परंपरा के अनुसार बड़ी रानी के बड़े पुत्र को ही उत्तराधिकार प्राप्त
था। कंपनी सरकार की इस करतूत के कारण पारिवारिक विवाद शुरू हो गया। बड़ी
रानी के पुत्र लक्ष्मण सिंह थे और स्थानीय भूमिज सरदार लक्षमण सिंह का
समर्थन करते थे। परन्तु रघुनाथ को प्राप्त अंग्रेजों के समर्थन और सैनिक
सहायता के सामने वे टिक नहीं सके। लक्ष्मण सिंह को राज्य बदर किया गया।
जीवनाकुलित निर्वाह के लिए लक्ष्मण सिंह को बांधडीह गांव का जागीर दे दिया
गया। यहां उनका काम सिर्फ बांधडीह घाट का देखभाल करना था।
लक्ष्मण
सिंह की शादी ममता देवी से हुई। अंग्रेज के अत्याचार की वह कट्टर विरोधी
थी। लक्ष्मण सिंह के तीन पुत्र हुए। गंगा नारायण सिंह, श्यामकिशोर सिंह और
श्याम लाल सिंह। ममता देवी अपने दोनों पुत्र गंगा नारायण सिंह तथा श्याम
लाल सिंह को अंग्रेजों के खिलाफ लडऩे के लिए सदैव प्रोत्साहित करती थीं।
गंगा नारायण सिंह जंगल महल में गरीब किसानों पर शोषण, दमनकारी संबंधी कानून
के विरूद्ध अंग्रेजों से बदला लेने के लिए कटिबद्ध हो गए। उन्होंने
अंग्रेजों की हर नीति के बारे में जंगल महल के हर जाति को समझाया और लडऩे
के लिए संगठित किया। इसके कारण सन् 1768 ईस्वी में असंतोष बढ़ा जो 1832
ईस्वी में गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में प्रबल संघर्ष का रूप ले लिया।
इस संघर्ष को अंग्रेजों ने गंगा नारायण हंगामा कहकर पुकारा है और वहीं चुआड
विद्रोह नाम से इतिहासकारों ने लिखा है। पुरुलिया गजेटियर में भी इसे
हंगामा ही करार दिया है। कंपनी सरकार के खिलाफ उन्होंने गोरिल्ला वाहिनी का
गठन किया, जिसे हर जाति का समर्थन प्राप्त था। धालभूम, पातकूम, शिखरभूम,
सिंहभूम, पांचेत, झालदा, काशीपुर, वामनी, वागमुंडी, मानभूम, अम्बिका नगर,
अमीयपुर, श्यामसुंदरपुर, फुलकुसमा, रानीपुर तथा काशीपुर के राजा-महाराजा
तथा जमीनदारों ने गंगा नारायण सिंह को समर्थन दिया। गंगा नारायण सिंह ने
बड़ाभूम के दीवान तथा अंग्रेज दलाल माधव सिंह को वनडीह में 2 अप्रैल, 1832
ईस्वी को आक्रमण कर मार दिया था। उसके बाद सरदार वाहिनी के साथ वराहबाजार
मुफ्फसिल का कचहरी, नमक का दारोगा कार्यालय तथा थाना को आगे के हवाले कर
दिया।
बांकुडा के कलेक्टर रसेल, गंगा
नारायण सिंह को गिरफ्तार करने पहुंचा। परन्तु सरदार वाहिनी सेना ने उसे
चारों ओर से घेर लिया। सभी अंग्रेजी सेना मारी गयी। किन्तु रसेल किसी तरह
जान बचाकर बांकुड़ा भाग निकला। गंगा नारायण सिंह का यह आंदोलन तूफान का रूप
ले लिया था, जो बंगाल के छातना, झालदा, आक्रो, आम्बिका नगर, श्यामसुन्दर,
रायपुर, फुलकुसमा, शिलदा, कुईलापाल तथा विभिन्न स्थानों में अंग्रेज
रेजीमेंट को रौंद डाला। उनके आंदोलन का प्रभाव बंगाल के पुरूलिया, बांकुडा
के वर्धमान और मेदिनीपुर जिला, बिहार के सम्पूर्ण छोटानागपुर (अब झारखंड),
उडीसा के मयूरभंज, क्योंकझर और सुंदरगढ आदि स्थानों में बहुत जोरों से चला।
फलस्वरूप पूरा जंगल महल अंग्रेजों के काबू से बाहर हो गया। आखिरकार
अंग्रेजों को बैरकपुर छावनी से सेना भेजना पड़ा जिसे लेफ्टिनेंट कर्नल कपूर
के नेतृत्व में भेजा गया। सेना भी संघर्ष में परास्त हुआ। इसके बाद गंगा
नारायण और उनके अनुयायियों ने अपनी कार्य योजना का दायरा बढ़ा दिया।
बर्धमान के आयुक्त बैटन और छोटानागपुर के कमिशनर हन्ट को भी भेजा गया
किन्तु वे भी सफल नहीं हो पाए और सरदार वाहिनी सेना के आगे हार का मुंह
देखना पड़ा।
अंग्रेजों ने गंगा नारायण
सिंह का दमन करने के लिए हर तरह से कोशिश की, लेकिन अंग्रेज टिक न सके। उस
समय खरसावां के ठाकुर चेतन सिंह अंग्रेजों के साथ साठ-गांठ कर अपना शासन
चला रहा था। गंगा नारायण सिंह ने ठाकुर चेतन सिंह के किले पर सात फरवरी,
1833 को हमला बोल दिया, परंतु इस लड़ाई में वे वीर गति को प्राप्त हुए।
उनका सिर काटकर कप्टन थॉमस विलकिंसन के पास भेज दिया गया। कंपनी सरकार की
ओर से गंगा नारायण सिंह पर पांच हजार रुपये का इनाम था। इस तरह चुआड़
विद्रोह, भूमिज विद्रोह के महानायक वीर गंगा नारायण सिंह अपना अमिट छाप
छोड़कर अमर हो गए, लेकिन उनका बलिदान निरर्थक नहीं गया। अंग्रेजों को झुकना
पड़ा। कई तरह की रियायतें देना स्वीकार किया।
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