सच से रूबरू कराती 'कैसा सचÓ

नारी मुक्ति का सवाल पिछले दो दशकों से साहित्य के केंद्र में है। स्त्री की अस्मिता और अस्तित्व को लेकर संघर्ष बहुत पुराना है। स्त्री की पराधीनता की बातें बहुत पहले से होती आई हैं। पहले जो दबी-दबी सी आवाज सुनाई देती थीं, उसने अब मुखरता हासिल कर ली है। कभी-कभी स्त्री मुक्ति की बातों के पीछे देह मुक्ति का सवाल छिपा रहता है। देह मुक्ति ही नारी मुक्ति का पर्याय भी बन जाता है। तमाम शोर-शराबे के बावजूद इस विज्ञापनी दुनियां में नारी मुक्ति के नाम पर वह और जकड़ती जा रही है। कुछ नारीवादी लेखिकाएं नारी मुक्ति के नाम पर शोर ज्यादा मचाती हैं तो कुछ अपने को स्थापित करने के लिए काफी अपने को खोलकर और खुलकर लिखने में विश्वास करती हैं। पर, आशा प्रभात का पहला कहानी संग्रह इस तरह के आग्रहों (दुराग्रहों) से सर्वथा मुक्त है। यहां नारी मुक्ति के सवाल तीखे ढंग से उठाए गए हैं, लेकिन कबीर की भाषा में नहीं, तुलसी की भाषा में। पढ़ते समय दिखाई तो चिंगारी की तरह पड़ता है पर मन के भीतर शोले का एहसास पैदा करता है। कुल नौ कहानियों के इस संग्रह में आखिरकार नारी ही केंद्र में है। उसके सपने और उसकी आकांक्षा है। मुक्ति की छटपटाहट है तो दहलीज के दलदल से निकल अपना रास्ता तलाशने का सुकून भी। बाढ़ की विभिषिका में भी स्त्री का संघर्ष बहुत सादगी और संजीदगी से एक सर्वथा नए दृष्टिकोण के साथ उभरता है।  
संग्रह की पहली कहानी 'एक्वैरियमÓ हमारे समाज की पतनशीलता पर टिप्पणी करती है, जहां पुरुष के लिए स्त्री महज देह होती है। लेखिका की मान्यता है कि 'महान से महान पुरुष पहले मात्र एक पुरुष होता है बाकी सब भ्रम?Ó आधुनिक समाज की आधुनिकता में पुरुष वहीं खड़ा हैं, जहां हजारों साल पहले था। उसके लिए रिश्ते बेमानी हो जाते हैं। कहानी की नायिका श्वेता अपने पिता के दोस्त के यहां छुट्टियां मनाने गई है, लेकिन एक दिन '...बिस्तर पर वे थे, पापा के विश्वास...मेरी आस्था और उनकी इमेज की धज्जियां उड़ रही थीं। लगा, इस पल वे मात्र पुरुष थे और उनके लिए मैं एक स्त्री...। देवदूत के चेहरे पर शैतान का चेहरा उग आया था।Ó
'पेट प्रलयÓ बागमती नदी के बाढ़ की विभीषिका के साथ हमारे विकास की अवधारणा पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। कहानी, रेणु के रिपोर्ताज कुत्ते की आवाज की याद दिलाती है। बिहार के कई इलाके बाढ़ के विनाश से हलकान होते रहे हैं। बागमती अपने साथ प्रलय लेकर आती है। एक ओर बाढ़ का भीषण बहाव तो दूसरी ओर भूख से आकुल पेट। भैरोकाका भूख को बर्दाश्त नहीं कर पाते और भरी जवानी में अपने बच्चों को छोड़ चले जाते हैं। किस्मत ऐसी कि उन्हें उस बाढ़ में उन्हीं की धोती में बांधकर प्रवाहित कर दिया जाता है। कफन, लकड़ी और चिता भी नसीब नहीं। अत्यंत कारुणिक दृश्य। निहारती हुई पत्नी की पथराई आंखें...बहुत कुछ कह जाती हैं।
'इसे भ्रम ही रहने दोÓ कहानी एक ही समय के दो चेहरे को रेखांकित करती है। दो रिक्शा दो चरित्र। एक का वसूल सही भाड़ा लेने में तो दूसरे का विश्वास अधिक से अधिक भाड़ा वसूल करने में। ऐसे चरित्र हम अपने आस-पास फैले समाज में देख सकते हैं। ऐसे लोगों पर प्राय: कहानियां नहीं लिखी जातीं। लेखिका ने इस उपेक्षित प्राणी पर कलम चलाकर अपनी संवेदना का विस्तार किया है।
'सलाखों के पीछेÓ में हम देखते हैं कि परिवर्तन और क्रांति बहुत आहिस्ता-आहिस्ता भी होते हंै। बिना किसी शोर-शराबे के। बदलाव की यह आहट सुनाई नहीं देती, लेकिन इसका चुप्पा शोर बहुत परेशान करता है। बारह वर्ष के दांपत्य, घर-गृहस्थी, समाज और संस्कारों में सिमटे, सांस लेते, व्यस्तताओं को चक्के की तरह पैरों में बांध घूमती रहने वाली पति की बेवफाई बर्दाश्त नहीं कर पाती। पति डा. महेश बत्रा का जब कामुकता और अपने पंद्रह साल छोटी लड़की के दैहिक आकर्षण में फंसते हैं तो वह बर्दाश्त कर लेती है। लेकिन जब वह मातृत्व पर भी डाका डालती है तो अचला बर्दाश्त नहीं कर पाती। तीन-तीन बच्चों की मां अचला अपने पति को उसी की भाषा में जवाब देती है। जब वह अपने पति से कहती है, बधाई हो, मैं मां बनने वाली हूं। डा. बत्रा का कर्ज वह ब्याज समेत लौटा देती है। सचमुच 'क्या इतना अपरिपक्व होता है मनुष्य, जो हमेशा अपने से छोटी, अपरिपक्व, कच्ची उम्र की औरत की कामना करता है।Ó प्रश्न फिर वही। क्या मनुष्य के लिए स्त्री मात्र देह है?  
हालांकि इन कहानियों में स्त्री मात्र देह नहीं है। उसका हर रूप यहां दर्ज है। 'हौसलाÓ कहानी भले ही एक बेरोजगार युवक की कहानी है, जो बाद में एक मंदिर के सामने पूजा-मिष्ठान की दुकान खोल लेता है। पर, कहानी में एक स्त्री की संवेदना को बखूबी उभारा गया है। प्रतियोगिता की तैयारी के समय एक परिवार से उसकी निकटता बढ़ती है। उसे नौकरी नहीं मिलती तो वह एक तीर्थ स्थल पर जाकर दुकान खोल लेता है। अचानक वह दंपति दर्शन करने जाता है तो उसकी मुलाकात वहां होती है। '...नाहक परेशान रहे आप लोग। मैं इतना बुजदिल हीं कि संघर्षों से हार कर खुदकुशी कर लेता।Ó
अत्यंत रोचक व नाटकीय कहानी है 'वह दिन।Ó छोटी है पर मजेदार। पटना पुस्तक मेले से शाम को लौटते हुए एक महिला को नाहक एक आदमी मिल जाता है। कि मैं सचिवालय में काम करता हूं, कि मैं आपको जानता हूं, कि आइए चाय पी लीजिए न कि मुझे भी उधर ही चलना है? कि रिक्शे पर साथ बैठ जाता है। किसी महिला को कोई अपरिचित आदमी मिल जाए तो क्या कर सकती है? नायिका उस दिन को वह नहीं भूल पाती। 
'आदम और हव्वाÓ। सिद्धार्थ और शिप्रा। प्रेम की चाहत। पर, सिद्धार्थ, जीनियस नहीं खोखला साबित होता है। प्रेम विश्वास की मांग करता है। सिद्धार्थ के पास यही नहीं था। इस कहानी में आज का सच व्यंजित है।
'अपने-पराएÓ की पहचान मुसीबत में होती है। यह कहानी घर-घर की है। मां को जब फाजिल मार देते है तो बेटी भागी-भागी अपनी मां को देखने पहुंचती है लेकिन बेटे और बहू के लिए बीमारी बोझ बन जाती है। ऐसे चरित्र हमारे समाज में अब बढ़ते जा रहे हैं। परिवार का मतलब पत्नी तक सीमित हो गया है। जहां मां-बाप के लिए वृद्धाश्रमों में ही जगह बचा है। जहां वे घर पर हैं, उनकी फिक्र किसे? पर, कहानी एकतरफा निर्णय नहीं सुनाती। यह विषय 'कैसा सचÓ में और विस्तार पाती है।
इस कहानी में भी लेखिका ने एक मां के संघर्ष को दिखाया है। पति की बीमारी में जमीन का बिकना। फिर, मृत्यु। जवान होती बेटी के ब्याह की चिंता अलग से। ऐसे में मां के सामने क्या विकल्प? कहां से लड़का ढूंढे? पेट की विकलता यह सोचने पर मजबूर करती कि, '...पैसा वाला, भले ही लड़का दुहाजू या दो तीन बच्चे का बाप की क्यों न हो?Ó क्या कोई मां इस स्तर पर जा सकती है कि वह अपने बेटी की ब्याह दो-तीन बच्चे के पिता से कर दे? गरीबी को वह बर्दाश्त नहीं कर पाती। ऐसे में तो और नहीं, जहां नवेली बहुओं को आधा पेट खाना दिया जाता हो, ताकि वह दिन में दिशा के लिए न जा सके। पर, एक रिश्ता आ जाता है और बेटी अपनी मां को मना ही लेती है। बेटी कहती है 'शहर के घर में पैखाना तो होता है मां!Ó शादी तो हो जाती है। दामाद दिल्ली में कमाता है। एक दिन सूचना मिलती है कि मां आ रही है। अब बेटी कैसे बताए कि शौचालच के लिए बाहर जाना पड़ता है। आखिर, यह कैसा सच था?
'परदादारीÓ कहानी में रेड लाइट एरिया के जरिए स्त्रियों के विभिन्न चरित्रों को संजोया गया है। एक ओर खाते-पीते घरों की महिलाएं एनजीओ के जरिए समाज सेवा का काम करती हैं। तो दूसरी ओर ऐसी भी स्त्रियां हैं जो भूख के लिए जिस्म का सौदा करती है। पर परदादारी वहां भी है।
अंतिम कहानी 'ठेसÓ में स्त्री के विद्रोही तेवर को सशक्त ढंग से उठाया गया है। शादी के एक माह बाद ही ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं कि सोमा तलाक लेने का मन बना लेती है क्योंकि उसका पति सैडिस्ट है, पर उत्पीड़क है, सेक्स के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। सोमा तलाक लेकर एक नई जिंदगी शुरू करती है।
इन कहानियों से गुजरते हुए यह अहसास होता है कि क्रांति आहिस्ते-आहिस्ते भी हो सकता है। शोर-शराबे के बिना। ये कहानियां ऐसी हैं, जैसे हम दूर से समुद्र का सपाटपन देखते हैं, पर नजदीक जाने पर उसकी लहरे दिखाई पड़ती हैं। आशा प्रभात ने ग्रामीण समाज की विसंगतियों, आत्महंता लोक परंपराओं के साथ आदमी की संवेदनहीनता को भी लक्षित किया है। कहीं कहीं गंवई भाषा के जरिए उस समाज से पाठक को जोडऩे की कोशिश करती हैं, पर अधिकांश कहानियां शहरी मध्यवर्ग से जुड़ी हैं। कहानियों की अधिकतर नायिकाएं कुंभ राशि की हैं। लेखिका को ज्योतिष का अच्छा ज्ञान है। यह ठेस कहानी से भी बोध होता है। 
हंस में प्रकाशित

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