मिथिलेश्वर tजी उन कथाकारों में हैं, जिनके यहां गांव अपनी पूरी प्रामाणिकता के साथ बोलता है। गंवई मन मिजाज के होते हुए भी वे गांव को स्थितप्रज्ञ दृष्टि से देखते हैं। यह देखने की दृष्टि ही उन्हें अन्य कथाकारों से अलग और विशिष्ट बनाती है। वे कहानियां लिखते नहीं, सुनाते हैं। सत्तर के बाद वे कहानी के मंच पर उपस्थित होते हैं और अब तक बने बने हुए हैं। बार-बार वे गांव की ओर देखते हैं और हर बार वे गांव से कंकड़-पत्थर ही नहीं मोती भी चुन कर ले आते हैं।
जरा याद करें सत्तर के बाद का समय। देश एक नई आजादी की ओर झुक रहा था। पटना से संपूर्ण क्रांति की चिंगारी उठी थी और उसी के एक साल पहले मिथिलेश्वर की कहानी 'अनुभवहीनÓ सारिका के नवलेखन अंक में छपी। एक नवविवाहित बेरोजगार युवक की कथा, जिसने बिहार पब्लिक कमिशन के आवेदन शुल्क के लिए नसबंदी कराया। इस सच्ची घटना ने 'अनुभवहीनÓ को जन्म दिया। इस तरह की अनेक घटनाएं ही आखिरकार संपूर्णक्रांति की जमीन तैयार कर रही थीं। यह वह दौर था जब आम आदमी तल्ख और खुरदुरे हकीकत से रूबरू हो रहा था। शहर ही नहीं, गांव की संस्कृति और आबोहवा भी बदल रही थी। शहरों में एक नया मध्यवर्ग उभर रहा था। राजेंद्र यादव, रवींद्र कालिया, कमलेश्वर, मोहन राकेश इसे ही अपना उपजीव्य बना रहे थे। शहर कहानियों में आ रहा था, पर गांव अपेक्षाकृत उपेक्षित था, जबकि देश की 75 प्रतिशत आबादी गांवों में बसती है। इनका दर्द कौन सुने?
यह भी सही है कि प्रेमचंद और रेणु का गांव हालांकि तेजी से बदल रहा था। यह बदलाव कई मोर्चे पर दिख रहा था। एक तो शहरी प्रभाव के कारण जातिगत बंधन ढीले हो रहे थे, वहीं जाति चेतना भी विकसित हो रही थी। लोगों का रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पयालन भी बढ़ रहा था। पढ़े-लिखे लोग खेती-किसानी के प्रति उदासीन हो रहे थे। गांव के प्रति जो एक अतिरिक्त आकर्षण था, धीरे-धीरे छीज रहा था। नए मूल्य बन रहे थे तो पुराने टूट रहे थे। यह टूटन-फूटन एक नई संस्कृति को जन्म दे रही थी और मिथिलेश्वर इसी संस्कृति की पहचान कर अपने कथा शिल्प को नया आयाम दे रहे थे।
वे ऐसे दौर में आए जब संस्मरण और यात्रा वृत्तांतों की प्रधानता बढ़ गई थी। जिन कहानियों में गांव उपस्थित था, वहां संवेदना की भारी कमी थी। कुछ अपवाद जरूर थे। डा. शिवप्रसाद सिंह की कहानियों का ताना-बाना गांव से बनता है। उनकी कहानियों में गांव है। वे भी गांव से होते हुए शहर की ओर जाते हैं। फिर शहर के वर्तमान से अतीत की ओर जाते हैं। लेकिन हिंदी जगत में उनकी चर्चा गाहे-बगाहे भी नहीं होती। उस दौर के बाद ग्रामीण परिवेश को लेकर मिथिलेश्वर भी कहानियां लिख रहे थे। उनकी कहानियां बताती हैं कि वे कभी शैली के कायल नहीं रहे। उन्होंने बहुत सीधी-सादी शैली अपनाई-लोककथा की शैली। शायद, यह मां का उनपर प्रभाव था। बचपन में मां द्वारा सुनी गई कथाओं का आकर्षण भी कह सकते हैं। उस जमाने में शायद ही किसी ने इस शैली को अपनाया हो। इस शैली के कारण उनकी कहानियों में सादगी है। और यह सादगी बतौर फैशन नहीं आई है। यह सादगी उन्हीं को हासिल है, जो ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े हैं। गांवों की राजनीति से जिनका पाला पड़ा हो।
मिथिलेश्वर जी की कहानियों की एक और विशेषता है, जिधर ध्यान किसी का नहीं गया। वह है उनका स्त्री के प्रति एक समानता का दृष्टिकोण। स्त्रियों को अपनी कथा की नायिका बनाते समय वे स्त्रीवादी विमर्शों के मोह में नहीं फंसे। आज कितने लोगों की दुकान इसी पर चल रही है। पर, मिथिलेश्वर को दुकान नहीं चलानी थी। सच-सच कहें तो उनकी कहानियों में भारतीय महिलाओं की दयनीय और दुदर्शापूर्ण स्थित बेधक ढंग से उभरी हैं, बिना किसी नारे के। ग्रामीण समाज की महिलाओं के प्रति भेदभाव, अपमान-तिरस्कार, शोषण-उपेक्षा को गांगिया फुआ, जी का जंजाल, वैतरणी भौजी, नए दंपति, भोर होने से पहले आदि में पढ़ा जा सकता है। ये गढ़ी हुई नायिकाएं नहीं, गांवों की जीवंत पात्र हैं। 'माटी कहे कुम्हार सेÓ नामक उपन्यास में भी मुनीला का जो चरित्र गढ़ा है, वह बार-बार याद आती है। उनका लेखन बताता है कि अपने घर से होते हुए, आस-पड़ोस और गांव में स्त्रियों की दशा को जो देखा, वही उनकी कहानियों का आधार बनीं।
मिथिलेश्वर जी की कथा जिस ग्रामीण परिवेश से शुरू होती है, वह भोजपुरिया गांवों के मन-माटी-महक, खेती-किसानी के जटिल संघर्ष को सामने लाता है। जातिवादी मन-मस्तिष्क के साथ-साथ अल्पसंख्यक की पीड़ा को भी बहुत बारीकी से उकेरती हुई कहानियां शहरी आपाधापी के साथ आगे बढ़ती और विस्तार पाती हैं। शहर-गांव का द्वंद्व सिर्फ उनका
बचपन से लेकर युवा होने तक गांव की जो विभिन्न छवियां दिमाग में बनी थीं, वही आगे चलकर कहानी की शक्ल लेती गईं। 'बाबूजीÓ, 'नपुंसक समझौतेÓ, 'बीच रास्ते मेंÓ, ...आदि आदि। 16 सितंबर 1973 के 'धर्मयुगÓ में 'नपुंसक समझौतेÓ कहानी के प्रकाशन पर बहैसियत संपादक धर्मवीर भारती ने जो टिप्पणी की, वह बहुत कुछ कह जाती है। भारती की टिप्पणी थी, 'क्या गांवों के विकास के लक्षण नई पीढ़ी का पढ़-लिख जाना, अच्छी नौकरियां पाना और मिट्टïी के मकानों का ईंट की बिल्डिंगों में परिवर्तित हो जाना ही है? गांव में ऐसे भी तो पात्र यदा-कदा देखने को मिल जाते हैं, जिनके फैलते दृष्टिïकोण अपने घर के खंडहर तक हो जाने की प्रक्रिया प्रभावित हैं। विकास आखिर कहां हैं और किनके लिए? ...युवा कथाकार मिथिलेश्वर की यह कहानी आज के गांव की अंदरूनी हालात का सशक्त खाका खींचती है। धर्मयुग में यह उनकी प्रथम कहानी है।Ó
इस छोटी सी टिप्पणी के बाद कुछ और कहने को नहीं रह जाता है। आज भी गांव हाशिए पर है। हमें गांव के अंदरुनी हालातों का जायजा लेना होगा तो निश्चय ही हमें मिथिलेश्वर के पास जाना होगा। उनकी कहानियों से दोस्ती करनी होगी। उनके पात्रों से बोल-बतियाना होगा।
निजी द्वंद्व नहीं, समय का द्वंद्व बनकर उभरता है। गांवों के प्रति एक अतिरिक्त भावनात्मक आकर्षण, लेकिन बदलते दौर में गांव की सीमित भूमिका के मद्देनजर रोजी-रोजगार के कारण खींचता निष्ठुर शहर भीतर चल रहे द्वंद्व को एक तार्किक जामा पहनाता है। इस तरह गांव से शुरू हुई उनकी यात्रा शहर में आकर विराम लेती है। पर, गांव उनके अंतर्मन से बेदखल नहीं होता है। उनकी कहानियां, उनके उपन्यास या उनका कथेतर गद्य इसके प्रमाण हैं। सब कुछ सादगी-सरलता में लिपटा हुआ।
जरा याद करें सत्तर के बाद का समय। देश एक नई आजादी की ओर झुक रहा था। पटना से संपूर्ण क्रांति की चिंगारी उठी थी और उसी के एक साल पहले मिथिलेश्वर की कहानी 'अनुभवहीनÓ सारिका के नवलेखन अंक में छपी। एक नवविवाहित बेरोजगार युवक की कथा, जिसने बिहार पब्लिक कमिशन के आवेदन शुल्क के लिए नसबंदी कराया। इस सच्ची घटना ने 'अनुभवहीनÓ को जन्म दिया। इस तरह की अनेक घटनाएं ही आखिरकार संपूर्णक्रांति की जमीन तैयार कर रही थीं। यह वह दौर था जब आम आदमी तल्ख और खुरदुरे हकीकत से रूबरू हो रहा था। शहर ही नहीं, गांव की संस्कृति और आबोहवा भी बदल रही थी। शहरों में एक नया मध्यवर्ग उभर रहा था। राजेंद्र यादव, रवींद्र कालिया, कमलेश्वर, मोहन राकेश इसे ही अपना उपजीव्य बना रहे थे। शहर कहानियों में आ रहा था, पर गांव अपेक्षाकृत उपेक्षित था, जबकि देश की 75 प्रतिशत आबादी गांवों में बसती है। इनका दर्द कौन सुने?
यह भी सही है कि प्रेमचंद और रेणु का गांव हालांकि तेजी से बदल रहा था। यह बदलाव कई मोर्चे पर दिख रहा था। एक तो शहरी प्रभाव के कारण जातिगत बंधन ढीले हो रहे थे, वहीं जाति चेतना भी विकसित हो रही थी। लोगों का रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पयालन भी बढ़ रहा था। पढ़े-लिखे लोग खेती-किसानी के प्रति उदासीन हो रहे थे। गांव के प्रति जो एक अतिरिक्त आकर्षण था, धीरे-धीरे छीज रहा था। नए मूल्य बन रहे थे तो पुराने टूट रहे थे। यह टूटन-फूटन एक नई संस्कृति को जन्म दे रही थी और मिथिलेश्वर इसी संस्कृति की पहचान कर अपने कथा शिल्प को नया आयाम दे रहे थे।
वे ऐसे दौर में आए जब संस्मरण और यात्रा वृत्तांतों की प्रधानता बढ़ गई थी। जिन कहानियों में गांव उपस्थित था, वहां संवेदना की भारी कमी थी। कुछ अपवाद जरूर थे। डा. शिवप्रसाद सिंह की कहानियों का ताना-बाना गांव से बनता है। उनकी कहानियों में गांव है। वे भी गांव से होते हुए शहर की ओर जाते हैं। फिर शहर के वर्तमान से अतीत की ओर जाते हैं। लेकिन हिंदी जगत में उनकी चर्चा गाहे-बगाहे भी नहीं होती। उस दौर के बाद ग्रामीण परिवेश को लेकर मिथिलेश्वर भी कहानियां लिख रहे थे। उनकी कहानियां बताती हैं कि वे कभी शैली के कायल नहीं रहे। उन्होंने बहुत सीधी-सादी शैली अपनाई-लोककथा की शैली। शायद, यह मां का उनपर प्रभाव था। बचपन में मां द्वारा सुनी गई कथाओं का आकर्षण भी कह सकते हैं। उस जमाने में शायद ही किसी ने इस शैली को अपनाया हो। इस शैली के कारण उनकी कहानियों में सादगी है। और यह सादगी बतौर फैशन नहीं आई है। यह सादगी उन्हीं को हासिल है, जो ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े हैं। गांवों की राजनीति से जिनका पाला पड़ा हो।
मिथिलेश्वर जी की कहानियों की एक और विशेषता है, जिधर ध्यान किसी का नहीं गया। वह है उनका स्त्री के प्रति एक समानता का दृष्टिकोण। स्त्रियों को अपनी कथा की नायिका बनाते समय वे स्त्रीवादी विमर्शों के मोह में नहीं फंसे। आज कितने लोगों की दुकान इसी पर चल रही है। पर, मिथिलेश्वर को दुकान नहीं चलानी थी। सच-सच कहें तो उनकी कहानियों में भारतीय महिलाओं की दयनीय और दुदर्शापूर्ण स्थित बेधक ढंग से उभरी हैं, बिना किसी नारे के। ग्रामीण समाज की महिलाओं के प्रति भेदभाव, अपमान-तिरस्कार, शोषण-उपेक्षा को गांगिया फुआ, जी का जंजाल, वैतरणी भौजी, नए दंपति, भोर होने से पहले आदि में पढ़ा जा सकता है। ये गढ़ी हुई नायिकाएं नहीं, गांवों की जीवंत पात्र हैं। 'माटी कहे कुम्हार सेÓ नामक उपन्यास में भी मुनीला का जो चरित्र गढ़ा है, वह बार-बार याद आती है। उनका लेखन बताता है कि अपने घर से होते हुए, आस-पड़ोस और गांव में स्त्रियों की दशा को जो देखा, वही उनकी कहानियों का आधार बनीं।
मिथिलेश्वर जी की कथा जिस ग्रामीण परिवेश से शुरू होती है, वह भोजपुरिया गांवों के मन-माटी-महक, खेती-किसानी के जटिल संघर्ष को सामने लाता है। जातिवादी मन-मस्तिष्क के साथ-साथ अल्पसंख्यक की पीड़ा को भी बहुत बारीकी से उकेरती हुई कहानियां शहरी आपाधापी के साथ आगे बढ़ती और विस्तार पाती हैं। शहर-गांव का द्वंद्व सिर्फ उनका
बचपन से लेकर युवा होने तक गांव की जो विभिन्न छवियां दिमाग में बनी थीं, वही आगे चलकर कहानी की शक्ल लेती गईं। 'बाबूजीÓ, 'नपुंसक समझौतेÓ, 'बीच रास्ते मेंÓ, ...आदि आदि। 16 सितंबर 1973 के 'धर्मयुगÓ में 'नपुंसक समझौतेÓ कहानी के प्रकाशन पर बहैसियत संपादक धर्मवीर भारती ने जो टिप्पणी की, वह बहुत कुछ कह जाती है। भारती की टिप्पणी थी, 'क्या गांवों के विकास के लक्षण नई पीढ़ी का पढ़-लिख जाना, अच्छी नौकरियां पाना और मिट्टïी के मकानों का ईंट की बिल्डिंगों में परिवर्तित हो जाना ही है? गांव में ऐसे भी तो पात्र यदा-कदा देखने को मिल जाते हैं, जिनके फैलते दृष्टिïकोण अपने घर के खंडहर तक हो जाने की प्रक्रिया प्रभावित हैं। विकास आखिर कहां हैं और किनके लिए? ...युवा कथाकार मिथिलेश्वर की यह कहानी आज के गांव की अंदरूनी हालात का सशक्त खाका खींचती है। धर्मयुग में यह उनकी प्रथम कहानी है।Ó
इस छोटी सी टिप्पणी के बाद कुछ और कहने को नहीं रह जाता है। आज भी गांव हाशिए पर है। हमें गांव के अंदरुनी हालातों का जायजा लेना होगा तो निश्चय ही हमें मिथिलेश्वर के पास जाना होगा। उनकी कहानियों से दोस्ती करनी होगी। उनके पात्रों से बोल-बतियाना होगा।
निजी द्वंद्व नहीं, समय का द्वंद्व बनकर उभरता है। गांवों के प्रति एक अतिरिक्त भावनात्मक आकर्षण, लेकिन बदलते दौर में गांव की सीमित भूमिका के मद्देनजर रोजी-रोजगार के कारण खींचता निष्ठुर शहर भीतर चल रहे द्वंद्व को एक तार्किक जामा पहनाता है। इस तरह गांव से शुरू हुई उनकी यात्रा शहर में आकर विराम लेती है। पर, गांव उनके अंतर्मन से बेदखल नहीं होता है। उनकी कहानियां, उनके उपन्यास या उनका कथेतर गद्य इसके प्रमाण हैं। सब कुछ सादगी-सरलता में लिपटा हुआ।
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