नक्सलवाद में सरोकार थे, माओवाद में फिसलन

'पुरस्कार अच्छा लगता है।Ó यह प्रतिक्रिया है सुपरिचित कथाकार जयनंदन की। वे मंगलवार को रांची आए थे राजभाषा पुरस्कार लेने। पर, मलाल यह था कि वरिष्ठ लेखक नहीं आए पुरस्कार लेने। आते तो अच्छा लगता। 26 फरवरी, 1956 को नवादा (बिहार) में जन्मे जयनंदन की अब तक तेरह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। 'श्रम एव जयतेÓ, 'ऐसी नगरिया में केहि विधि रहनाÓ, 'सल्तनत की सुनो गांव वालोÓ। ये सभी उपन्यास है। आठ कहानी संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं और दो नाटक। 1983 में पहली कहानी 'नागरिक मताधिकारÓ छपी सारिका में। तब से छपने का सिलसिला रुका नहीं। कहानी लिखना चुनौतीपूर्ण है अपेक्षाकृत उपन्यास के। ऐसा जयनंदन मानते हैं। कहते हैं, कहानी में सब कुछ समेटना होता है। थोड़े में बहुत कुछ कहना। उपन्यास में विस्तार की गुंजाइश होती है। शाखाएं, उपशाखाएं, प्रतिशाखाएं...निकलती रहती हैं। कहानी में यह अवकाश नहीं है। फिलहाल, जयनंदन टाटानगर पर उपन्यास लिख रहे हैं। युवा कथाकारों की आई नई पौध को लेकर संतुष्ट हैं। वे कहते हैं, उनकी प्रतिभा, लेखन शैली और विषय की विविधता ध्यान आकर्षित करती है। नक्सलवाद व माओवाद को लेकर कहते हैं, नक्सलवाद में वैचारिक प्रतिबद्धता थी, सामाजिक सरोकार थे। माओवाद में विकृति है। सैद्धांतिक फिसलन है। हिंसा का अतिरेक है। जयनंदन कहते हैं, इनसे सत्ता ही टकरा सकती है, लेकिन सत्ता का जो चरित्र है, वह संदेह पैदा करता है। कई नेता उन्हीं की बदौलत विधायक-सांसद बनते हैं। फिर, वे कैसे कार्रवाई करेंगे? दूसरी ओर, साहित्य केवल दिशा दे सकता है। सीधे टकरा नहीं सकता। वह वायुसेना की तरह हवाई हमला ही कर सकता है। वायुसेना थल सेना की मदद करती है। वैसे ही लेखक मदद कर सकता है। आपरेशन ग्रीन हंट से माओवाद का खात्मा हो सकता है? कहते हैं, इससे कुछ नहीं होगा। सिस्टम बदले। भ्रष्टाचार रुके। बेरोजगारी दूर हो। तभी इस नासूर बन चुकी समस्या का स्थाई समाधान हो सकेगा। अन्यथा बालू में लकीर खींचते रहेंगे। जयनंदन सधे कथाकार हैं। टाटा स्टील की गृह पत्रिका का संपादन करते हैं। राधाकृष्ण पुरस्कार, विजय वर्मा कथा सम्मान, बिहार सरकार राजभाषा सम्मान और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा युवा लेखक प्रकाशन सम्मान पा चुके हैं। कहानियों का कई भाषाओं में अनुवाद और नाटकों का आकाशवाणी और विभिन्न संस्थाओं द्वारा प्रसारण व मंचन हो चुका है। असहमति लिखने को प्रेरित करती है। ऐसा जयनंदन मानते हैं।
                                                                                                                                           संजय कृष्ण

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