सेरेंगसिया के शहीद

सेरेंगसिया घाटी शहीदों की याद दिलाती है। यह अतीत का एक पन्ना है, जिस पर बहुत कम चर्चा होती है। यह उस आंदोलन की याद दिलाता है, जिसमें अंग्रेजों को हो आदिवासियों ने अपनी बहादुरी से पस्त कर दिया था।  
घटना सन् 1820-21 की है। अंग्रेजों के खिलाफ कोल्हान में चले विद्रोहों पर काबू पाने में ब्रिटिश अफसरों को सफलता मिल चुकी थी। कोल्हान क्षेत्र में हुए दर्जनों विद्रोहों पर काबू पाने के बाद कोल विद्रोह को शांत करना उनके लिए बड़ी उपलब्धि मानी गई। लेकिन, अंग्रेजों को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। ईस्ट इंडिया कंपनी के जरिए सत्ता हासिल करनेवाली ब्रिटिश सरकार को ही आदिवासियों से समझौता करना पड़ा। तब के कमिश्नर थामस विल्किंसन से औपचारिक समझौते के बाद विल्किंसन रूल बना। इसके तहत स्थानीय स्वशासन व्यवस्था की स्वायत्तता को संवैधानिक मान्यता मिल गई, लेकिन, उनका दमन चक्र चलता रहा। जब इस दमन का दायरा बढ़कर बच्चों और महिलाओं तक आया तो स्वभावगत लड़ाके हो आदिवासी इसे कबूल नहीं कर पाए। इसक बाद 1831-32 में विद्रोह फूट पड़ा, जिसे इतिहास में कोल विद्रोह के नाम से दर्ज किया गया। इस विद्रोह में अंग्रेजों का काफी नुकसान हुआ। हालांकि अंग्रेजों ने पूरी ताकत से इस कोल विद्रोह भी दबा दिया। 
इसके बाद 18 जनवरी 1833 को सरायकेला में हिल असेंबली बुलाई गई। इसमें कुछ मुंडा मानकी सरदारों ने कंपनी शासन की अधीनता स्वीकार कर ली। फरवरी 1837 तक अंग्रेजों ने पुलिसिया कार्रवाई की बदौलत बाकी बचे गांवों में अपनी हनक कायम कर ली। इसके बाद दक्षिण-पश्चिम सीमांत एजेंसी की स्थापना हुई और थामस विल्किंसन को एजेंसी का एजेंट बना दिया गया। इसके बाद तो विद्रोह की ज्वाला धधक उठी। इस आग ने इस घाटी को अपनी चपेट में ले लिया। 
सेरेंगसिया घाटी की कहानी यहीं से शुरू होती है। राजबासा पीड़ (इलाका) के पोटो सरदार के नेतृत्व में 22 पीड़ों के लोगों ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया। कंपनी की सेना कई मौकों पर मुंह छिपाकर भागी। इससे हो लड़ाकों का हौसला बढ़ा। वालंडिया में गुप्त सभा हुई। इसमें सेरेंगसिया और बागलिया घाटियों को अपने अधिकार में लेने का निर्णय लिया गया। ग्राम प्रधानों को तीर भेजकर विद्रोह में शामिल होने का निमंत्रण दिया गया। बगावत हो चुकी थी। अंग्रेजों को इसका भान भी नहीं था कि हो आदिवासी इतनी मुस्तैदी से विरोध करेंगे। इससे विचलित विल्किंसन ने 12 नवंबर 1837 को चाईबासा में अपने अफसरों के साथ बैठक की। विरोध को दबाने के लिए 17 नवंबर को कैप्टन आर्मस्ट्रांग के नेतृत्व में 400 सशस्त्र सैनिक 60 घुड़सवार सिपाहियों और दो तोपों के साथ बाढपीड़ रवाना गुए। इसकी खबर पोटो सरदार को लग गई। 19 नवंबर को पोटो सरदार की विद्रोही सेना ने आर्मस्ट्रांग की टुकड़ी पर हमला बोल दिया। भीषण लड़ाई हुई और कंपनी की सेना को हार का मुंह देखना पड़ा। इसके बाद अंग्रेजों ने पोटो सरदार के गांव पर हमला कर दिया। उनके पिता को कैद कर लिया गया. तड़ागहातु, रुईया, जयपुर आदि गावों पर भी हमला किया गया। महिलाओं तक को बंदी बना लिया गया। तड़ागहातु गांव में आग लगा दी गयी। बर्बर दमन किया गया। आठ  दिसंबर को पोटो सरदार गिरफ्तार कर लिए गए। उनके सहयोगियों की भी गिरफ्तारी हुई। एक जनवरी 1838 को जगन्नाथपुर में हजारों लोगों के बीच सेरेंगसिया घाटी के लड़ाके पोटो सरदार, नारो हो और बड़ाय हो को फांसी दे दी गई। एक दिन बाद 2 जनवरी को बोड़ो हो और पंडुआ हो को सेरेंगसिया गांव में सार्वजनिक तौर पर फांसी पर लटका दिया गया। 
इतनी भीषण लड़ाई के बावजूद इतिहास के पन्नों में इन हो लड़ाकों को सम्मान देने में थोड़ी कंजूसी की गई। किसी एक इलाके के पांच-पांच लोगों को एक साथ फांसी पर चढ़ा देना कोई सामान्य घटना नहीं थी. आज भी सेरेंगसिया के लोग इस शहादत की तारीखों पर मेला लगाते हैं। एक-एक महीने तक कार्यक्रम होता है। अपने स्तर से चंदा कर यह कार्यक्रम लोग करते हैं। 
हो किसी राजतन्त्र के अधीन कभी भी नहीं रहे। इनका जीवन स्वाधीन था। इनकी पहचान पराक्रमी योद्धाओं के रूप में थी। इनके धनुष से निकला तीर का निशाना कभी नहीं चूकता था। पोड़ाहाट के राजा तथा कई अन्य राजाओं ने इन क्षेत्र को अपने अधीन करने के लिए कई-कई बार प्रयास किये पर 'होÓ समुदाय के लोगों ने इन्हें खदेड़कर इनके छक्के छुड़ा दिए तथा इन राजाओं को हमेशा मुंह की खानी पड़ी। अंग्रेजों के साथ भी ऐसा ही हुआ। हो कभी शांत नहीं हुए। बीसवीं सदी में भी इनकी लड़ाई अपनी स्वतंत्रता के लिए जारी रही। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें