सिदो और कान्हू पालकियों पर
(हैं),
चांद और भायरो घोड़ों पर
(हैं),
ऐ चांद, देखो, ऐ भायरो,
देखो,
घोड़े (अब) मलिन हो रहे
हैं।।
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सिर गड़ धंस (ढह) गया,
शिखर गढ उजड़ गया,
शिखर के सिपाही (सैनिक)
तितर-बितर हो गए,
वैसे ही, हे बड़ी बहन (दीदी)
हमलोग भी,
माता-पिता के नहीं रहने पर
तितर
बितर हो गए।
यह गीत आज भी संताल में
गूंजता है। उस ऐतिहासिक हूल की याद दिलाता है, जो भारत के पहले
स्वतंत्रता संग्राम 1857 से पहले 1855 में फूट पड़ा था। हालांकि सही
अर्थों में देश का पहला स्वतंत्रता संग्राम आदिवासी क्षेत्रों में ही
फूटा था और 1855 का यह हूल इस अर्थ में पहला था, क्योंकि इसका
क्षेत्र काफी व्यापक था। छोटानागपुर के रामगढ़ से लेकर संताल परगना
तक। यह कोई एक दिन की घटना नहीं थी। महीनों की तैयारी थी। उस समय चार
सौ किमी दूर तक सूचना देना और एक तिथि को एक जगह एकत्रित होना, बड़ी
घटना था। इस हूल के पीछे ऐतिहासिक कारण थे और जिसके नायक थे चार भाई
सिदो-कानू, चांद-भैरव।
कहा जाता है कि दामिन ई-कोह
का निर्माण 1833 में अंग्रेजों ने किया। यही आज संताल परगना है।
अंग्रेजों ने छोटानागपुर से संतालों को जंगल साफ करने और कृषि योग्य
भूमि बनाने और बाद में रेल की पटरियां बिछाने के लिए 1800 ई के
आस-पास बसाना शुरू किया था। इसका मुख्य कारण संताल कठिन परिश्रमों और
कठिन कार्य करने में निपुण थे। संतालों को इस क्षेत्र में बसाने का
एक और प्रमुख कारण था, पहाडिय़ा जनजाति द्वारा लगातार विद्रोह। उसे भी
कम करने की अपनी नीति के चलते अंग्रेजों ने संतालों को इस क्षेत्र
में बसाना शुरू किया। चालीस-पचास सालों में अच्छी-खासी संख्या में
संताल बस गए, लेकिन अंग्रेजों ने संतालों के साथ भी वही अत्याचार
शुरू कर दिया। इसका नतीजा यह रहा कि सन् 1855 में बंगाल के
मुर्शिदाबाद तथा बिहार के भागलपुर जिलों में स्थानीय जमींदार, महाजन
और अंग्रेज कर्मचारियों के अन्याय अत्याचार के शिकार संताल जनता ने
एकबद्ध होकर उनके विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूंक दिया था। इसे संताल
विद्रोह या संताल हूल कहते हैं। संताली भाषा में हूल शब्द का शाब्दिक
अर्थ है विद्रोह। यह अंग्रेजों के विरुद्ध पहला सशस्त्र जनसंग्राम
था। सिदो-कान्हू, चांद-भैरो भाइयों और फूलो-झानो जुड़वा बहनों ने
संताल हूल का नेतृत्व, शाम टुडू (परगना) के मार्गदर्शन में किया।
1852 में लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा आरम्भ किए गए स्थाई बंदोबस्त के
कारण जनता के ऊपर बढ़े हुए अत्याचार इस विद्रोह का एक प्रमुख कारण
था।
इसका जिक्र उस समय के एक
अंग्रेज अधिकारी राबर्ट कार्टियर्स की किताब हाड़मा विलेज में भी
किया है। उसने अपनी इस किताब में दो महाजनों के नाम का भी उल्लेख
किया है- केनाराम भगत और बेचाराम भगत। महेशलाल दारोगा के अत्याचार से
विद्रोह की शुरुआत होती है। महाजन सूदखोर शुरू में ऋण देते थे और
उसका तीन सौ गुना वसूलते थे।
संताली लोकगीत में भी देख
सकते हैं-
सिदो, तुमने ख्ूान में
क्यों नहा लिया है
कान्हू तुम हूल हूल क्यों
चिल्लाते हो।
अपने लोगों की खातिर हमने
खून में नहाया है।
हालांकि अंग्रेजों की क्रूर
नीति के कारण 1854 में असंतोष फैलने लगा था। संतालों के मुखिया इन
दिकुओं को उखाड़ फेंकने का उपाय सोचने लगे। संतालों पर अत्याचार बढ़
गया। खेत बंधक रख कर अपने कब्जे में कर लेते थे। गरीब संताल खेत नहीं
छुड़ा पाते थे। शोषण अत्याचार का बदला लेने के लिए संताल मांझियों ने
राय सलाह कर बड़े-बड़े महाजनों के घर डाका डाला और वे पकड़े गए।
इसमें संतालों को सजा दिलाने में महेश लाल दारोगा का हाथ था। संताल
बदला लेना चाहते थे।
इसी बीच बरहेट के भोगनाडीह
में सिदो-कान्हू, चांद, भैरव, झानो-फूलों, भाई बहनों ने संघर्ष छेड़
दिया। 30 जून 1855 को एक सभा बुलाई और जिसमें दस हजार संताल जमा हुए।
जाहेर एरा ने बताया है कि सिदो तुम सूबा (राजा) हो और कान्हू सब
सूबा। यह धरती तुम लोगों का है। अब तुम लगान वसूल करो। तब भोगनाडीह
में मिट्टी का जाहेर थान बना कर पूजा पाठ शुरू हो गया। दूसरे दिन
पंचकटिया बाजार में स्थित देवी मंदिर में पूजा की। एके पंकज ने लिखा
है, 'यह कोई आकस्मिक युद्ध नहीं था, बल्कि यह ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ
एक सुनियोजित हूल था, जिसकी तैयारियां भोगनाडीह गांव के सिदो मुर्मू
अपने भाइयों कान्हू, चांद व भैरव, इलाके के प्रमुख संताल बुजुर्गों,
सरदारों और पहाडिय़ा, अहीर, लुहार आदि अन्य स्थानीय कारीगर एवं खेतीहर
समुदायों के साथ एकताबद्ध होकर कर रहे थे। जब सारी सामरिक तैयारियां
पूरी हो गई, सैन्य दल, छापामार टुकडिय़ां, सैन्य भर्ती-प्रशिक्षण दल,
गुप्तचर दल, आर्थिक संसाधन जुटाव दल, रसद दल, प्रचार दल, मदद दल आदि
गठित कर लिए गए, रणनीतिक योजना को अंजाम दे दिया गया, तब 30 जून को
विशाल सभा बुला कर अंग्रेजों को देश छोडऩे का 'सम्मनÓ जारी कर दिया
गया। इस सम्मन यानी 'ठाकुर का परवानाÓ को सिदो परगना के निर्देश पर
किरता, भादू और सुन्नो मांझी ने लिखा था। गौर करने वाली बात है कि
हूल संबंधी सम्मन और अन्य प्रचार सामग्रियां हिंदी, बांग्ला, संताली
भाषा तथा कैथी और बांग्ला लिपि में लिखी गई थी। यही नहीं, ब्रिटिश
मुद्रा को अमान्य करते हुए आर्थिक गतिविधियों के लिए विशेष तौर पर
हूल के लड़ाकों ने नए सिक्के जारी किए थे। भागलपुर, बीरभूम के
कमिश्नर और जिला मजिस्ट्रेटों और स्थानीय पुलिस थानों व अन्य प्रमुख
अधिकारियों को जो सम्मन भेजे गए, उसमें स्पष्ट कहा गया था-1. राजस्व
वसूलने का अधिकार सिर्फ संतालों को है। 2. प्रत्येक भैंस-हल पर
सालाना 2 रु., बैल-हल पर एक आना और गाय-हल पर आधा आना लगान लिया
जाएगा। 3. सूद की दर एक रुपये पर सालाना एक पैसा होगा। 4. सूदखोरों,
महाजनों और जमींदारों को तत्काल यह क्षेत्र खाली कर चले जाना होगा।
5. 'ठाकुर जिउÓ (संतालों के सर्वोच्च ईश्वर) के आदेश पर समूचे
क्षेत्र पर संतालों का राज पुनस्र्थापित किया जाता है और सिदो परगना
'ठाकुर राजÓ के शासन प्रमुख नियुक्त किए गए हैं। 6. सभी ब्रिटिश
अधिकारी और थानेदार को सूचित किया जाता है कि वे तत्काल आकर सिदो
परगना के दरबार में हाजिरी लगाएं अन्यथा उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की
जाएगी।Ó
जाहिर है कि ब्रिटिश शासन
इसे मानने को तैयार नहीं थी। लिहाजा जुलाई का पहला सप्ताह बीतते ही
संताल और स्थानीय जनता ने युद्ध छेड़ दिया। बाजार, महाजनों-सामंतों
के ठिकानों, थानों, ब्रिटिश प्रशानिक केंद्रों और थानों पर हमला बोल
दिया गया।
फोटो साभार |
हूल की सूचना पाकर महेश लाल
दत्ता नामक दारोगा दीघी थाना का दारोगा वहां पहुंचा। विद्रोहियों ने
उस दारोगा की हत्या कर दी। यह हूल की पहली कारगर घटना थी। यह घटना
सात जुलाई, 1855 की है। शीघ्र ही विद्रोहियों ने बरहेट बाजार को लूट
लिया, क्योंकि यह महाजनों का गढ़ था। चारों तरफ आतंक मच गया। डाक एवं
संचार व्यवस्था नष्ट हो गई। 12 जुलाई को सिदो-कानू और भैरव ने
सलामपुर लूटने के बाद पाकुड़ के जमींदार को लूटा। पाकुड़ छोडऩे के
बाद संतालों ने पाकुड़ की पूर्वी सीमा पर स्थित बल्लमपुर व अन्य
गावों को लूटा। इसके बाद मुर्शिदाबाद जिले की सीमा पर बढ़े। वीरभूम
में भी यह आग फैल चुकी थी। 13 जुलाई को पीरपैंती के निकट एक गांव में
रेल कर्मचारी जख्मी हुए। 16 को पीरपैंती के निकट हथियारबंद संतालों
के एक दल के साथ मेजर बर्रोस की सैनिकों के साथ मुठभेड़ हुई। जिसमें
कुछ अधिकारी समेत 25 सैनिक मारे गए। विद्रोह संताल दामिन-ए-कोह क
उत्तर मुर्शिदाबाद की सीमा पर तथा गंगा के दक्षिण तट पर कहलगांव से
राजमहल के बीच भी फैल गया था। 17 अगस्त को एक घोषणा की गई कि सभी
विद्रोहियों को माफी दे दी जाएगी। पर विद्रोही नहीं माने। लगभग तीन
हजार संतालों का जत्था भागलपुर जिले की रक्षादंगल नामक स्थान को
लूटा। अक्टूबर में चारों भाइयों के नेतृत्व में दो सौ संतालों ने
दुमका के दक्षिण स्थित अंबा हरना को लूटा। अंतत: दस नवंबर, 1855 को
मार्शल लॉ की घोषणा कर दी गई। 30 नवम्बर 1855 को विश्वासघातियों ने
सिदो को पकड़ कर भागलपुर की सेना को सौंप दिया। 20 फरवरी को कान्हू
को जामताड़ा के पास ऊपर बंधा नामक स्थान पर कुजरों का घटवार सरदार ने
कानू को पकड़ कर अंग्रेजों को सौपा और उसे 23 फरवरी 1856 में फांसी
दी गई। चांद-भैरव सहित अन्य नेताओं की यही दशा हुई।
हूल का क्षेत्र
संताल हूल केवल संताल तक
सीमित नहीं था। एक व्यापक आंदोलन ने कई जिलों को प्रभावित किया था।
ब्रिटिश शासन क्षेत्र के विद्रोह दबाने के लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ी
थी। कलकत्ता, बहरामपुर, सूरी, रानीगंज, देवघर, भागलपुर, पूर्णिया,
मुंगेर, बाढ़ यहां तक कि पटना के अफसर, सेना को हूल पर नियंत्रण के
लिए प्रयास करने पड़े। हजारीबाग के संताल संताल परगना के संताल को
अपना सगा मानते थे, क्योंकि वे यहीं से ले जाए गए थे। हजारीबाग में
भी संताल सक्रिय थे। वीरभूम में भी हूल का प्रभाव था। मुर्शिदाबाद के
नवाब विद्रोह से परेशान था। जाहिर है कि हूल के नेताओं ने हूल को एक
व्यापक क्षेत्र में फैलाने का काम किया था। इसलिए, इसके व्यापक
क्षेत्र को देखते हुए इसे आसानी से देश का पहला स्वतंत्रता संग्राम
मानना चाहिए। यह एक जन आंदोलन था। संताल परगना के डिप्टी कमिश्नर के
रिकार्ड आफिस में जो संताल कैदियों से संबंधित दस्तावेज मिले हैं,
उनमें 251 कैदियों की सूची मिली है। इनमें 191 संताल, 34 नाई, पांच
डोम, 6 धांगड़, सात कोल, एक ग्वाला, 6 भुइयां, एक रजवार पाए गए हैं,
जो विभिन्न गांवों के रहने वाले थे। यही नहीं, एक और महत्वपूर्ण बात
है। भागलपुर के कमिश्नर ने 28 जुलाई, 1855 को बंगाल सरकार के
सेके्रटरी को लिखा कि ग्वाले, तेली व अन्य जातियां संतालों का
नेतृत्व कर रही हैं। इससे साबित होता है कि इस आंदोलन में हर जाति
सक्रिय थी। तेली, कुम्हार, लोहार, मोमिन, चमार, डोम भी सक्रिय थे।
डोम गुप्तचर एवं संवाद वाहक का काम बड़ी कुशलता से करते थे। और,
लोहार क्रितू व सूना नामक डोम ने परवाना लिखने का काम किया था और
गुप्तचर का काम भी। इसलिए, इस हूल में सभी जातियों का योगदान था और
यह एक जनक्रांति थी।
संजय कृष्ण
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