नागार्जुन कवि थे, कैडर नहीं

 नागार्जुन को क्या किसी बद्ध आंखों से देखा जा सकता है, क्या उन्हें विचारधारा के कठघरे मे खड़ा कर उनकी कोई मुकम्मल तस्वीर बनाई जा सकती है। क्या कविकर्म और दुनियादारी में कोई फर्क है। जब हम नागार्जुन के रचना संसार पर दृष्टि डालते हैं,तो ऐसे असहज सवालों का सामना करना पड़ता है। हिंदी के प्रख्यात आलोचक व वागर्थ के संपादक विजय बहादुर सिंह ने इन्हीं सवालों के जवाब ढूंढऩे की कोशिश शुक्रवार को सीसीएल के विचार कक्ष में की। दूरदर्शन, रांची द्वारा आयोजित नागार्जुन पर दो दिवसीय विचार गोष्ठी का समापन करते हुए डा. सिंह ने कहा कि नागार्जुन को देखना हो तो निगाहें खोलकर देखिए। अक्सर होता यह है कि हम अपने-अपने चश्मे से देखने लगते हैं। ऐसे में उन सात अंधों की तरह हम हाथी की तरह अपने-अपने ढंग से व्याख्या करने लगते हैं। नागार्जुन विचारधारा के कायल कभी नहीं रहे। कवि और कैडर में अंतर होता है। कवि अपने दिल की आवाज सुनता है और कैडर की। नागार्जुन कवि थे, कैडर नहीं। उनके लिए विचारधारा से पहले राष्ट्र था। यही, वजह है कि चीन आक्रमण पर उन्होंने उसके खिलाफ कविताएं लिखी।
विषय प्रवेश कराते हुए डा. खगेंद्र ठाकुर ने नागार्जुन के जीवन की कई घटनाएं सामने रखीं। डा. ठाकुर ने बताया कि साहित्य का कथ्य समाज में पैदा होता है और फिर साहित्य में स्थान पाता है। बलचनमा प्रेमचंद के गोदान से आगे की कथा है, जहां नायक खेत मजदूर है। नागार्जुन  लिखते ही नहीं, लड़ाई में शरीक भी होते हैं। अमवारी में किसान आंदोलन की अगुवाई हो या फिर जेपी आंदोलन...। उन्होंने कहा कि नागार्जुन का साहित्य चिंतन को प्रेरित करता है। और उनके पात्र अंधेरे में रोशनी पैदा करने वाले हैं। इस मौके पर रांची के सिद्दीक मुजीबी, अशोक प्रियदर्शी, अलीगढ़ से आए डा. वेद प्रकाश, दिल्ली से विष्णु नागर, पटना से आए अलोचना के संपादक अरुण कमल ने भी अपने विचार रखे। अरुण कमल ने कहा कि नागार्जुन की रचनाओं को ध्यान में रखते हुए उनकी जीवनी लिखी जानी चाहिए।

नक्सलवाद में सरोकार थे, माओवाद में फिसलन

'पुरस्कार अच्छा लगता है।Ó यह प्रतिक्रिया है सुपरिचित कथाकार जयनंदन की। वे मंगलवार को रांची आए थे राजभाषा पुरस्कार लेने। पर, मलाल यह था कि वरिष्ठ लेखक नहीं आए पुरस्कार लेने। आते तो अच्छा लगता। 26 फरवरी, 1956 को नवादा (बिहार) में जन्मे जयनंदन की अब तक तेरह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। 'श्रम एव जयतेÓ, 'ऐसी नगरिया में केहि विधि रहनाÓ, 'सल्तनत की सुनो गांव वालोÓ। ये सभी उपन्यास है। आठ कहानी संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं और दो नाटक। 1983 में पहली कहानी 'नागरिक मताधिकारÓ छपी सारिका में। तब से छपने का सिलसिला रुका नहीं। कहानी लिखना चुनौतीपूर्ण है अपेक्षाकृत उपन्यास के। ऐसा जयनंदन मानते हैं। कहते हैं, कहानी में सब कुछ समेटना होता है। थोड़े में बहुत कुछ कहना। उपन्यास में विस्तार की गुंजाइश होती है। शाखाएं, उपशाखाएं, प्रतिशाखाएं...निकलती रहती हैं। कहानी में यह अवकाश नहीं है। फिलहाल, जयनंदन टाटानगर पर उपन्यास लिख रहे हैं। युवा कथाकारों की आई नई पौध को लेकर संतुष्ट हैं। वे कहते हैं, उनकी प्रतिभा, लेखन शैली और विषय की विविधता ध्यान आकर्षित करती है। नक्सलवाद व माओवाद को लेकर कहते हैं, नक्सलवाद में वैचारिक प्रतिबद्धता थी, सामाजिक सरोकार थे। माओवाद में विकृति है। सैद्धांतिक फिसलन है। हिंसा का अतिरेक है। जयनंदन कहते हैं, इनसे सत्ता ही टकरा सकती है, लेकिन सत्ता का जो चरित्र है, वह संदेह पैदा करता है। कई नेता उन्हीं की बदौलत विधायक-सांसद बनते हैं। फिर, वे कैसे कार्रवाई करेंगे? दूसरी ओर, साहित्य केवल दिशा दे सकता है। सीधे टकरा नहीं सकता। वह वायुसेना की तरह हवाई हमला ही कर सकता है। वायुसेना थल सेना की मदद करती है। वैसे ही लेखक मदद कर सकता है। आपरेशन ग्रीन हंट से माओवाद का खात्मा हो सकता है? कहते हैं, इससे कुछ नहीं होगा। सिस्टम बदले। भ्रष्टाचार रुके। बेरोजगारी दूर हो। तभी इस नासूर बन चुकी समस्या का स्थाई समाधान हो सकेगा। अन्यथा बालू में लकीर खींचते रहेंगे। जयनंदन सधे कथाकार हैं। टाटा स्टील की गृह पत्रिका का संपादन करते हैं। राधाकृष्ण पुरस्कार, विजय वर्मा कथा सम्मान, बिहार सरकार राजभाषा सम्मान और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा युवा लेखक प्रकाशन सम्मान पा चुके हैं। कहानियों का कई भाषाओं में अनुवाद और नाटकों का आकाशवाणी और विभिन्न संस्थाओं द्वारा प्रसारण व मंचन हो चुका है। असहमति लिखने को प्रेरित करती है। ऐसा जयनंदन मानते हैं।
                                                                                                                                           संजय कृष्ण

संघर्ष की भूमि पर खड़ा है बाबा का साहित्य

बाबा नागार्जुन की जन्मशती पर रांची दूरदर्शन द्वारा आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी 'नागार्जुन का रचना संसारÓ के पहले दिन गुरुवार को सीसीएल के विचार कक्ष में रचना और कविताओं को लेकर लंबी चर्चा चली। वरीय पत्रकार हरिवंश से लेकर शीन अख्तर, अरुण कमल, विश्वनाथ त्रिपाठी, विजय बहादुर सिंह, मदन कश्यप, रामदयाल मुंडा, वीपी केशरी, रविभूषण, विष्णु नागर सहित दर्जनभर से ऊपर कवि-समालोचकों ने नागार्जुन के रचना संसार पर हर ओर-छोर से दृष्टि डाली। शीन अख्तर ने शुरुआत की और बहस की जमीन हरिवंश ने तैयार की। कहा, साहित्य-संस्कृति के बिना कारपोरेट कंपनियां भी नहीं चल सकतीं। इसके बाद दिल्ली से आए वरिष्ठ आलोचक डा. विश्वनाथ त्रिपाठी ने कई कोणों से नागार्जुन को देखने की कोशिश की। बताया कि वे जनकवि थे। उनकी प्रतिबद्धता आम जनता के प्रति थी। अध्यक्षता करते हुए 'आलोचनाÓ के संपादक व कवि अरुण कमल उनकी कविता, यात्रावृत्तांत, उपन्यास आदि पर चर्चा करते हुए यह स्थापित करने का प्रयास किया कि बाबा का संपूर्ण साहित्य संघर्ष की भूमि पर खड़ा है।
 बताया, सरहपा से होते हुए कबीर, नजीर अकबराबादी, मुकुटधर पांडेय, निराला के नए पत्ते की पूरी परंपरा नागार्जुन में मौजूद है। कमल ने बहुत विस्तार से अपने विचार रखते हुए उनकी संस्कृत, बांग्ला, मैथिली कविताओं की प्रासंगिकता उद्धरण के साथ रेखांकित की। उन्होंने इस ओर भी ध्यान दिलाया कि वे हिंदी के ऐसे जादूगर हैं, जहां भाषा के कई रूप मौजूद हैं। तुम खिलो रात की रानी और मंत्र कविता से लेकर बाकी बच गया अंडा तक...।
निष्कर्ष यह कि वे निरंतर प्रतिपक्ष के कवि थे। कमल ने उनके उपन्यास बलचनमा के बारे में बताया कि इसमें गोदान से आगे की कथा है, जहां भूमिहीन खेतिहर मजदूर हैं। बाबा बटेसर नाथ, जमनिया क बाबा की भी चर्चा की। पहले सत्र का संचालन नाटककार विनोद कुमार ने किया।
दूसरा सत्र नागार्जुन की कविताओं को समर्पित था। रविभूषण ने विषय प्रवर्तन किया। अपने 40 मिनट के व्याख्यान में नागार्जुन के अड़सठ सालों की रचनायात्रा की चर्चा करते हुए कहा कि नागार्जुन की कविताओं के कई पाठ हो सकते हैं। दलित, स्त्री, आदिवासी, उत्तर आधुनिक आदि-आदि। किसी ने प्रश्न उठाया था कि झारखंड में नागार्जुन क्यों? रविभूषण ने बड़ा सटीक जवाब दिया। कहा, नागार्जुन ने मुंडा, उरांव को तब याद किया जब उनकी चर्चा कहीं नहीं थी। पद्मश्री डा. रामदयाल मुंडा ने राहुल के बाद नागार्जुन को सबसे बड़ा यायावर बताया। मौके पर एक मुंडारी गीत भी सुनाया, जिसका आशय था सब एक हैं। सबको समन्वित करो। भोपाल से आए ओम भारती ने परंपरा और आधुनिकता के बरक्स उनकी कविताओं को देखा-परखा। वहीं, कवि व द पब्लिक एजेंडा के साहित्य संपादक मदन कश्यप ने व्यापक जन सरोकारों का उल्लेख किया। मुुंबई से आए आलोचक विजय कुमार ने नागार्जुन को फकीर और साधु कहा। कई तरह के अंत की घोषणा के बरक्स विजय ने नागार्जुन की कविताओं को समझने की कोशिश की। बीपी केशरी ने हिंदी कवियों और आलोचकों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि आप गरीबों पर भी नजर डालिए। नागार्जुन की परंपरा को आगे बढ़ाइए। 'वागर्थÓ के संपादक व विशिष्ट अतिथि विजय बहादुर सिंह, जो बाबा के बहुत निकट रहे हैं, बहुत स्पष्ट कहा कि बाबा को कवि-लेखक के दायरे से बाहर निकल कर देखने की जरूरत है। किताबी तौर पर बाबा को नहीं देखा जा सकता। इससे हम खंडित नागार्जुन को देख पाएंगे। समग्र रूप से देखने के लिए उनकी हर कविता को पढ़ा जाना चाहिए। अध्यक्षीय उद्बोधन विष्णु नागर ने दिया। इस सत्र का संचालन माया प्रसाद ने किया। इसके पूर्व सभी अतिथियों को पुष्पगुच्छ व शॉल ओढ़ाकर सम्मानित किया गया।