मखमली घास पर ओस बन टपकी गजल

संजय कृष्ण : खुले आकाश में शरद की छिटकी चांदनी और जमीन पर फैली मखमली घास से टकराती गजल सम्राट जगजीत सिंह की कशिश भरी आवाज। कंपकंपाते होठों से झरते शब्द और हारमोनियम से खेलती उनकी उंगलियां। और, गीत-संगीत की लयबद्धता से टूटती खामोशी...। शनिवार की शाम कुछ ऐसी ही मदहोशी लेकर आई थी। रांची के जिमखाना क्लब का विशाल प्रांगण ही नहीं इस मदहोशी में झूम रहा था, पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा भी खामोशी से गजल का लुत्फ उठा रहे थे। अलाप से जगजीत ने गजल की शुरुआत की। गजल के बोल थे..ये इनायतें गजब की, ये बला की मेहरबानी, मेरी खैरियत भी पूछी किसी और की जुबानी।...ये घटा बता रही है, कि बरस चुका है पानी। गजल की इन पंक्तियों श्रोता झूम रहे थे। मानो नशे में हो। शायद श्रोताओं का मूड देख जगजीत ने उनकी पसंद की गजल सुनाई...ठुकराओ कि अब प्यार करो, मैं नशे में हूं, जो चाहो मेरे यार करो, मैं नशे में हूं...। और इस नशे से जमीं भी झूम रही थी और आसमां भी। पर, प्यार में तकरार न हो तो प्यार का मजा नहीं। बदले-वदले की बात भी प्यार में होती है। अपनी मखमली आवाज में जगजीत पूछते हैं, तुमने बदले हमसे गिन-गिन के लिए, क्या तुम्हें चाहा था इस दिन के लिए...। यह चाह ऐसी कि वस्ल का दिन भी मुख्तसर हो गया था। पूछना लाजिमी है, चि_ी न कोई संदेश, जाने वो कौन सा देश...। माहौल में थोड़ी हरकत हुई। तालियों की गडग़ड़ाहट ने सन्नाटे को तोड़ा। इस हौसलाफजाई से जगजीत ने वही सुनाई जिसकी चाह थी..बात निकली है तो दूर तलक जाएगी...। यकीनन, बात दूर तक गई। तभी, दौलत और शोहरत भी देने की बात जुबां पर आई। वाकई, क्या कोई बीते समय को लौटा सकता है। ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, मगर मुझको लौटा दे...। माहौल की रूमानियत में गजलप्रेमी सुर-समंदर में गोते लगाते हुए भीग रहे थे। चांद था, रात थी चांदनी थी... तारों की बारात भी थी और था जगजीत का साथ। और इस साथ से श्रोताओं की खुमारी बढ़ती जा रही थी। भूख ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकलता जा रहा था...हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले। और फिर जब अपनी मशहूर गजल सुनाई...कल चौदहवीं की रात थी ...तो फिर पूरा प्रांगण तालियों से गूंज उठा। इसके बाद उन्होंने एक से बढ़कर अपनी चर्चित नज्में सुनाकर रांचीवासियों को मंत्रमुग्ध कर दिया। रात जैसे-जैसे जवां हो रही थी, महफिल भी वैसे-वैसे गजल के सागर में गोते लगा रही थी। तुमको देखा तो ये ख्याल आया..आग का क्या पल दो पल का....बुझते-बुझते एक जमाना लगता है।