जनजातीय वेदना की जुबां है 'जोहारÓ

संजय कृष्ण :  गुरुवार को हुई राष्ट्रीय अवार्ड घोषणा में झारखंड की रचनात्मकता को सम्मान मिला। इनमें दो झारखंड के हैं और एक कोलकाता के। मेघनाथ भट्टाचार्य व बिजू टोप्पो रांची हैं, जिनकी दो डाक्यूमेंट्री एक रोपा धान व लोहा गरम है को अवार्ड मिला। वहीं कोलकाता के फिल्ममेकर नीलांजन भट्टाचार्च की जोहार को भी बेहतर पटकथा के लिए अवार्ड दिया गया।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ। श्रीप्रकाश के कई वृत्तचित्रों को पुरस्कार मिला, देश-दुनिया के फिल्मोत्सव में वाहवाही बटोरी। फिर भी कहीं कोई हलचल नहीं। सरकार का कोई प्रयास नहीं। इस बाबत श्रीप्रकाश कहते हैं, जो भी फिल्में बनती हैं, व्यक्तिगत प्रयास से। संस्थागत या सरकारी मदद किसी भी स्तर पर उपलब्ध नहीं है। बंगाल को छोड़कर पूर्वी भारत में यह झारखंड ने यह मिसाल कायम किया है कि उसने अपने बूते देश-दुनिया में जगह बनाई है, पुरस्कार जीते हैं।
मेघनाथ लंबे समय से फिल्म निर्माण  से जुड़े हैं। रचनात्मक और आलोचनात्मक दोनों तरह की फिल्में बनाते हैं। एक रोपा धान उनकी रचनात्मक फिल्म है और लोहा गरम है मुद्दापरक। दोनों ने राष्ट्रीय अवार्ड जीते। 'लोहा गरम हैÓ को बनाने में तीन साल लगे। झारखंड, उड़ीसा, बंगाल आदि राज्यों में शूटिंग की गई। कई तरह की दिक्कतें भी आईं। स्पंज आयरन इंडस्ट्रीज के प्रदूषण से आस-पास की जिंदगियां कैसे प्रभावित हो रही है, इसे दिखाने का प्रयास किया गया है। बताया गया कि जहां १९८५ में इसके तीन प्लांट थे, २००५ आते-आते २०६ प्लांट लग गए। अब यह संख्या ४३० से पार कर गई है। ये छत्तीसगढ़, झारखंड, पं बंगाल और कुछ-कुछ गोवा, महाराष्ट्र व कर्नाटक में हैं। इन पर प्रदूषण बोर्ड का नियंत्रण है न सरकार का। स्वास्थ्य, कृषि, पर्यावरण कैसे प्रभावित हो रहे हैं, प्लांट के आस-पास देखा जा सकता है।
'एक रोपा धानÓ अलबत्ता झारखंड की दूसरी तस्वीर पेश करती है। बिजू टोप्पो कृषि-जल संकट के बीच धान की खेती कैसे करें, पैदावार कैसे बढ़ाएं, इसे ग्रामीणों को बताते हैं। आज से पचीस साल पहले मेडागास्कर में हेनरी डे लौलीने ने धान की खेती के लिए एसआरआई (सिस्टम आफ राइस इनटेंसीफिकेशन) विधि की खोज की। ग्रामीण इसे एक रोपा धान कहते हैं। इस विधि से कैसे खेती कर पैदावार बढ़ा सकते हैं, इसे ग्रामीणों को बताती है। बिजू टोप्पो बताते हैं, पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण पैदावार कैसे बढ़ाई जाए, इसको लेकर इसका निर्माण किया गया है। नीलांजन भट्टाचार्य की 'जोहार : वेलकम टू अवर वल्र्डÓ जनजातीय दर्द को जुबां देती हैं। इसे कोलकाता के नीलांजन भट्टाचार्य ने बनाया है। इसे बेस्ट पटकथा का पुरस्कार मिला है। वृत्तचित्र देखने पर महसूूस होता है कि यह दर्शकों को जनजातीय वेदना की जुबां बनकर कथा सुना रहा हो। नीलांजन ने बताया कि आदिवासी समाज के प्रति एक अतिरिक्त आकर्षण ने इस फिल्म को बनाने के लिए प्रेरित किया। झारखंड पड़ोस में था। कई मित्र रांची में हैं। इसलिए झारखंड को ही चुना। नीलांजन कहते हैं, आदिवासी समाज अपनी गुरबत में भी अपनी संस्कृति को नहीं भूलता। जंगल उजाड़े जा रहे हैं। आजीविका का संकट लगातार घना हो रहा है। ट्राइबल फूड के साथ उनकी ट्राइबल मेडिसिन भी धीरे-धीरे खत्म हो रही है। जोहार में इन्हीं समस्याओं को कैद करने का प्रयास किया गया है। ग्रामीण वन अधिकारी, वन माफिया और माओवादी तीनों से त्रस्त हैं। वन कानून है, लेकिन कागज पर। बीपीएल के लिए आदिवासियों को सड़क जाम करना पड़ता है। नीलांजन आदिवासियों की जिजीविषा से सलाम करते हैं। कहते हैं, गांव में बहुत दिक्कते हैं। फिर भी वे नाचना-गाना नहीं भूलते। उनकी संस्कृति बहुत गहरी है। अब उनका खान-पान प्रभावित हो रहा है। माइनिंग ने वातावरण को प्रदूषित कर दिया है, फिर भी वे जी रहे हैं।

उसकी कहानी

राधाकृष्ण

एक ठूंठ खड़ा था और उसके खोड़हर में घोंसला बना कर एक चिडिय़ा रहती थी।

वह भी कोई दिन था, जब इस ठूंठ ने पृथ्वी के ऊपर खड़े होकर अपने लाल-लाल पत्तों के इशारे से वसंत को बुलाया था और उसके स्वागत में अपनी सुगन्ध-भरी मदमाती मंजरियां भेंट की थीं।

लेकिन अब वे दिन अतीत में अस्त हो गए थे। समय श्वेत और श्यामल चरण-चिह्न छोड़ता हुआ बहुत दूर तक चला गया था। यदि वह ठूंठ याद कर सकता, तो अनेकों वसन्त, अनेकों बरसात और शरद की असंख्य चांदनी रातों को याद कर सकता।

अब भी वसन्त आता था, अब भी भौंरे गुन-गुन गाते थे, अब भी विगह-कूजन से निस्तब्ध सन्ध्या चंचल हो उठती थी; किंतु वहां अब इसका कुछ प्रभाव नहीं पड़ता था; क्योंकि वह एक ठूंठ था। इने-गिने पत्र-पुञ्ज ही उसकी सजीवता की साक्षी देते थे।

समीप ही एक झरना झर रहा था। वह एक स्वर और एक रागिनी में न जाने क्या गा रहा था। यह वही जाने। वहां फेनिल लहरें उछल-उछल कर, नाच-नाच कर क्रीड़ा किया करती थीं। आसपास हरे-भरे झुरमुट थे, पृथ्वी पर तृणों की शैया थी, बहुतेरे फूल हंस-हंस कर खेल रहे थे; किंतु वह ठूंठ जैसे सबसे पृथक, अकेला और असुन्दर होकर खड़ा था।

रात हो आई थी। तृतीया का बंक शशि रूप की नौका के समान तैरता हुआ आकाश के नील महासागर को पार कर रहा था। बिखरे हुए तारे ऐसे जान पड़ते थे, जैसे किसी महाकाव्य में पड़ी हुई उपमाएं। शीतल पवन मन की भांति इधर-उधर दौड़ता हुआ अठखेलियां कर रहा था।

ठूंठ खड़ा था औ अपने घोंसले से सिर निकाल कर चिडिय़ां झांक रही थीं।

सहसा पूरब की ओर से कुछ मेघ दौड़ पड़े। हवा की चंचलता क्षुब्धता में बदल गई। आकाश में छितराये हुए प्रकाश के मोती अलोप हो गये। चांद बादलों के बीच उलझ गया। चारों ओर एक स्याही सी फिर गई। एक भीषण गरज से पृथ्वी कांप उठी। ...फिर बिजलियों की तड़पन, मेघों की गरज, वृष्टि की बौछार और हवा का हाहाकार!...आखिर थोड़ी देर के बाद सब थम गया। बादल दौड़ते हुए आए थे, दौड़ते हुए चले गये। चांद खिलखिलाता हुआ निकल आया। तारे हंसने लगे।

सब हुआ; लेकिन वह ठूंठ गिर पड़ा। उसकी डालें टूट गई थीं और उसमें रहने वाली चिडिय़ां चें-चें करके उस अंधकार में उड़कर न जाने कहां चली गई थीं। ठूंठ निस्सहाय, निरावलंब पृथ्वी पर पड़ा हुआ था।

अब भी झरना वही अपना मुक्त, प्रवाहमय और अविराम गीत गाने में व्यस्त था, फेनिल लहरें क्रीड़ा कर रही थीं, वृक्षों की द्रुमावलियां डोल रही थीं, फूल हंस-हंसकर लोट रहे थे, पर वह ठूंठ नहीं था और उसमें बसने वाली चिडिय़ां भी नहीं थीं।

सब कुछ वही था, केवल रह-रह कर हवा ठंडी सांसे ले लिया करती थी।

हंस के फरवरी, 1935 अंक में प्रकाशित।

गाजीपुर में गुरुदेव

संजय कृष्ण :  साहित्य के इकलौते नोबेल पुरस्कार पाने वाले कविंद्र-रवींद की 150 वीं जयंती देश-दुनिया में मनाई जा रही है। उनकी कविताओं, उनके व्यक्तित्व, राष्ट्रवाद पर उनके विचार आदि को खंगाला जा रहा है। पर, रवींद्र नाथ टैगोर उत्तरप्रदेश के गाजीपुर में भी प्रवास किया था, वहां रहकर मानसी की अधिकांश कविताएं लिखीं थी, नौका डूबी के कई अंश गाजीपुर में लिखे गए या उससे संबंधित हैं, यह बहुतों को नहीं पता। कई टैगोर के अधिकारी विद्वानों से भी चर्चा की तो उन्होंने अनभिज्ञता प्रकट की। जबकि रवींद्र नाथ टैगोर गाजीपुर में छह मास रहे। वहां का एक छोटा सा इतिहास भी लिखा। गाजीपुर वे क्यों गए, आइए सुनते हैं, उन्हीं की जुबानी।   
रवींद्र नाथ टैगोर ने मानसी की सूचना में लिखा है, बचपन से ही पश्चिमी हिंदुस्तान मेरे लिए रूमानी कल्पना का विषय था। यहीं विदेशियों के साथ इस देश का लगातार संपर्क और संघर्ष होता रहा है। यहां ही सदियों से इतिहास की विराट पट भूमि पर बहुत से साम्राज्यों के उत्थान-पतन की और नए-नए ऐश्वर्यों के विकास-विलय अपने विचित्र रंगीन चित्रों की कतार बनते जा रहे हैं। बहुत दिनों से सोच रहा था कि इसी पश्चिमी हिंदुस्तान की किसी एक जगह कुछ दिन रहकर विराट, विक्षुब्ध अतीत का स्पर्श दिल में महसूस करूं। आखिर में एक बार सफर के लिए तैयार हुआ। इतनी जगहों के बावजूद गाजीपुर को ही क्यों चुना- इसके दो कारण हैं। सुन रखा था कि गाजीपुर में गुलाब के बगीचे हैं। मैंने मन ही मन जैसे गुलाब-बिलासी सिराज का चित्र बना लिया था। उसी का मोह मुझे बहुत जोरों से खींचता रहा। वहां जाकर देखा-व्यापारियों के गुलाब के बगीचे। वहां न तो बुलबुलों को बुलावा है न कवियों को। खो गई वह छवि। दूसरी ओर, गाजीपुर के महिमा मंडित प्राचीन इतिहास के कोई बड़े निशान देखने को नहीं मिले। मेरी निगाहों में उसका चेहरा एक सफेद साड़ी पहनी विधवा सा लगा, वह भी किसी बड़े घर की नहीं।
फिर भी गाजीपुर ही रह गया। इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि मेरे दूर के रिश्तेदार गगनचंद्र राय यहीं अफीम विभाग में बड़ अफसर थे। उनकी मदद से मेरे लिए यहां रहने का इंतजाम बड़ी आसानी से हो गया। एक बड़ा सा बंगला मिल गया, गंगा-तीर पर ही, ठीक गंगा तीर पर भी नहीं। करीब मिल भर का लंबा रेत पड़ गया है। उसमें जौ, चने और सरसों के खेत हैं। गंगा की धारा दूर से दिखती है। रस्सी से खींची जा रहीं नावें मंद गति से चलती हैं। घर से सटी काफी जमीन परती पड़ी है। बंगला देश की मिट्टïी होती तो जंगल हो जाता। निस्तब्ध दोपहर में कुएं से कलकल शब्द करती हुई पुर चलती है। चंपा की घनी पत्तियों में से दोपहर की धूप जली हवाओं से होती हुई कोयल कूंक आती है। पश्चिमी कोने पर एक बहुत बड़ा और पुराना नीम का-सा पेड़ है। उसकी पसरी हुई घनी छाया में बैठने की जगह है। सफेद धूलों से भरा रास्ता घर के बगल से चला गया है? दूर पर खपरैल के घरों वाला मुहल्ला है। 
 गाजीपुर दिल्ली-आगरा के समकक्ष नहीं है। सिराज-समरकंद से भी इसकी तुलना नहीं चलती। फिर भरी अबाध अवकाश में मन रम गया। अपने एक गीत में मैंने कहा है-'मैं सुदूर का प्यासा!Ó परिचित दुनिया से यहां आकर मैं उस दूरी से ही घिर गया। आदत के भारी हाथों की पकड़ के बाहर होते ही मन को आजादी मिल गई। इस वातावरण में मेरी काव्य रचना का एक नया पर्व अपने आप ही उभर आया। अपनी कल्पना पर नये-नये परिमंडलों का प्रभाव पड़ते मैंने बार-बार देखा है। इसी से जब अल्मोड़ा में था, मेरी कलम ने शिशु कविताओं की ओर हठात नई राह ली। हालांकि उस तरह की कविताओं की प्रेरणा का कोई उपलक्ष ही वहां नहीं था। यह पहले की रचना धारा से स्वतंत्र एक नये काव्य रूप का प्रकाश था। मानसी भी वैसी ही है। नये वातावरण में मानो इन कविताओं ने सहसा नई देह धारण कर ली है। ...मानसी में ही छंदों के नए-नए रूप आने लगे। कवि के साथ जैसे एक कलाकार आ मिला।
 रवींद्र नाथ टैगोर की मानसी व अन्य कविताओं के अनुवादक डा. सरजू तिवारी ने लिखा है, कवि प्रवास की कोई खास छाप गाजीपुर के जन-जीवन पर पडऩे के उदाहरण नहीं मिलते। किंतु कवि मन पर यहां के जन-जीवन की गहरी छाप पड़ी थी। उनकी अन्य रचनाओं में भी इनका विस्तृत उल्लेख मिलता है। उनके विख्यात उपन्यास नौका डूबी के कथानक का एक तृतीयांश गाजीपुर पर ही केंद्रित है। गाजीपुर प्रवास के चौवालिस साल बाद कवि का पुनश्च काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ। इसमें स्मृति नामक कविता कवि के गाजीपुर वास के बिंबों को पुन: उकेरती है।
कविता की पंक्तियों पर गौर करें
पश्चिम में शहर/ उसी के एक किनारे निर्जन में / दिन की धूप जकड़े है एक अनादृत घर/ झुके हुए छज्जे चारों ओर/ कमरों में चिर काल की छाया पड़ी है मुंह के बल,
और चिरबंदी पुरनियों की गंध।
फर्श पर पीला जाजिम,
किनारों पर ठप्पा मारी बंदूकधारी बाघ शिकारी की तस्वीर।
उत्तर ओर शीशम के नीचे से
चली गई है कच्ची राह, उड़ रही है धूल
प्रखर धूप की देह पर, हल्की ओढऩी जैसे।
सामने के रेते पर गेहूं, अरहर, ककड़ी, तरबूजों के खेत,
दूर में झलमल करती गंगा,
बीच बीच में गोन-बंधी नावें
स्याही की लकीरों से चित्र बन रहे हों जैसे।
कविता लंबी है, लेकिन एक चित्र उकेरा है गुरुदेव ने।
बिजनकष्ण चौधरी ने लिखा है कि मानसी की कविताओं की रचना का समय 1887 से 1890 के बीच है। इन पर गौर करने से पता चलता है कि इनकी शुरुआत कलकत्ते में हुई थी। फिर गाजीपुर, महाराष्ट्र में शोलापुर-खिड़की, कलकत्ता, शांतिनिकेतन होते हुए इंग्लैंड जाने की जहाज म्योसेलिया और अपने देश लौटने की जहाज टेम्स में पूरी हुई। गाजीपुर में कवि सन 1888 के फागुन से क्वार की शुरुआत तक रहे। इस बीच बैसाख से आषाढ़ के दरम्यान 28 कविताओं की रचना की।
गाजीपुर में रहते हुए गुरुदेव ने गाजीपुर का इतिहास नामक एक रोचक इतिहास भी लिखा। इतिहास के अंत में उन्होंने लिखा, केवल 1888 ई में ऐसी एक घटना यहां घटी जो गाजीपुर के इतिहास में अमर रहेगी।
यह घटना कुछ और नहीं, गाजीपुर में गुरुदेव का प्रवास ही था।