कला में अश्लीलता और हुसेन

संजय कृष्ण :  मकबूल फिदा हुसेन ने लंदन में अपनी अंतिम सांसें लीं। वे कई सालों से अपने वतन से दूर रह रहे थे। कारण था, दक्षिणपंथियों की धमकी। उनके निधन से भारतीय कला जगत का एक महासूर्य अस्त हो गया। भारतीय कला को बेशक, एक अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई। अपनी खुद की एक ऐसी शैली विकसित की, जिसे देखकर सहसा उनका नाम कौंध जाता है। यह बिरल कलाकार  कुछ दक्षिणपंथी कट्टरपंथियों के डर से अपने देश से दूर चला गया। इन कट्टरपंथियों का सामना करने की हिम्मत उनमें नहीं थी। सरकारें भी उनकी सुरक्षा को लेकर उन्हें कोई आश्वासन नहीं दे सकीं। हमारी सरकारें, केंद्र की हों या राज्य की, कुछ कट्टरपंथियों के आगे झुक जाया करती हैं। हुसेन मामले में भी यही हुआ। अपनी जान की परवाह करते हुए हुसेन ने देश छोड़ दिया। उनके देश छोडऩे पर कागजी लेखकों, कला समीक्षकों ने खूब कागज काले किए। उनके निधन पर यह सिलसिला फिर शुरू हो गया है। कोई इसे राष्ट्रीय शर्म बता रहा है तो कोई इस शर्म से इतना दुखी है कि उसके दिल में कोई दूसरा भाव टिक नहीं पा रहा है। जब वे देश बदर थे तो किसी ने केंद्र सरकार पर दबाव नहीं बनाया। उनके निधन पर भी उनके शव को भारत में लाने की कोशिश नहीं की गई। उन्हें वहीं दफना दिया गया। एयर कंडीशन में बैठ कर शियापा करने वाले लेखक अब जार-जार रो रहे हैं। अजीब स्थिति है।
एक सवाल तो यह उठता है कि हुसेन गए ही क्यों? उन्हें यहां की अदालत का सामना करना चाहिए था। यह सब जानते थे कि जो भी मुकदमें थे, वे ज्यादा दिनों तक टिकते नहीं। फिर भी वे चले गए और कतर की नागरिकता ले ली। लोग कह रहे हैं कि उन्हें देश से बहुत प्रेम था। अंतिम समय में भी वे अपने वतन को नहीं भूले। पर, देश भी उन्हें कहां भूला?
कहते हैं, कला को उन्होंने ऊंचाई दी। भारतीय कला को पहचान दी। विवाद और लोकप्रियता साथ-साथ चली। जिन कारणों से उन्हें अपने देश से दूर जाना पड़ा, कट्टरपंथियों का कोपभाजन बनना पड़ा, उनमें उनके कुछ विवादित चित्र थे, जो हिंदू आस्तिकता पर आघात करते हैं। उनके विवादित चित्रों को लेकर के. बिक्रम सिंह ने लिखा है, 'यह सोचने वाली बात है कि जिन चित्रांकनों के कारण हुसेन विवादों में घिरे, वे भारतीय कला के लिए नए नहीं थे। हिंदू मंदिरों से लेकर बौद्ध स्तूपों तक में देवी के चित्र पाए गए हैं। जहां तक नग्न और कामोद्दीपक चित्रण की बात है, भारतीय परंपरा के लिए यह नई बात नहीं थी, अजंता, गुप्तकाल और चोलकाल की कला से लेकर खजुहारों में भी इस कला को विभिन्न रूपों और शिल्पों में चित्रित किया गया है। रीतिकाल में भी इसकी चिन्हारियां दिख जाती हैं।Ó  के बिक्रम ने यह नहीं बताया कि इन मंदिरों में क्या देवी दुर्गा, पार्वती, सरस्वती, भारत माता के नग्न चित्र बनाए गए हैं? चलिए मान लें, कला में अश्लीलता नाम की कोई चीज नहीं होती। पर, मदर टेरेसा, अपनी मां की तस्वीर, एक मुसलमान को क्यों कपड़ों में रखा? जबकि एक तस्वीर में एक ब्राह्मण को नंगा दिखाया है।    
 कहने वाले कह रहे हैं, ...'असल में बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक भारतीय समाज के सदस्य होने के नाते हिंदू, मुसलिम, ईसाई उनके लिए साझा विरासत के अंग थे। इसीलिए उनकी कला में सभी विश्वासों और परंपरा ने जगह पाई। इतना ही नहीं, दुनिया के दस प्रचलित धर्मों को भी उन्होंने अपने रचना कर्म में जगह दी थी।Ó पर यहीं आकर उनकी सोच दगा दे जाती है। हिंदू प्रतीकों के साथ जो वे बर्ताव करते हैं, वह अपने ही धर्म के साथ कतई नहीं करते। मैं नहीं कहता है कि वे इन चित्रों को बनाते समय किसी प्रकार के पूर्वग्रही थे। लोहिया के आग्रह पर उन्होंने रामायण पर पेंटिंगें बनाई। हिंदू धर्म का उन्हें गहरा ज्ञान था। पर, देवियों को नंगा चित्रित करने के पीछे कभी अपनी मंशा को जाहिर नहीं किया। उनके चाहने वालों ने भी यह सवाल उनसे नहीं पूछा? मध्यकाल में कबीर ने दोनों धर्मों की खूब लानत-मलानत की। वे 125 बरस जीए। बनारस में रहे और कट्टरपंथियों से लड़ते रहे। अंत समय काशी छोड़ मगहर गए तो कट्टरपंथियों के डर से नहीं...उन्हें ललकारते हुए गए। उनकी कथित आस्था व विश्वास को चुनौती देते हुए गए। यह समय तो मध्यकाल जितना बुरा नहीं है। पर हुसेन साहब  कतर की नागरिकता ले ली। वे कबीर की भूमिका में होते तो यह सवाल नहीं उठता...। वे एक महान कलाकार थे... भारत के पिकासो थे, इसमें किसी को शक नहीं। वे बेहद उदार थे... उनका साधु स्वभाव था, इसे मानने में भला किसे गुरेज हो सकता है? पर...।  

बदहाल धरती आबा की धरती

खूंटी जिले के उलिहातू गांव में बिरसा मुंडा के पोते सुकरा मुंडा का मकान
संजय कृष्ण : तमाड़-खूंटी मार्ग से होते हुए उलिहातू पहुंचे तो दस से पार हो चुका था। सूरज तप रहा था। सपीर्ली सड़कों से होते हुए गांव पहुंचे। सड़क के दोनों ओर बसे जंगल निस्तब्ध थे। सड़कें भी शांत थीं। उसके किनारे पथरीले ईंटों से बने इक्का-दुक्का घर भी चुपचाप थे। रास्ते में एकाध मुंडारी महिलाएं लाल पाड़ की सफेद साड़ी में सड़क पर ही धान कूट रही थी। रास्ते पार करती बकरी और भेंडें भी दिख जातीं। प्रकृति के अपूर्व सौंदर्य को निहारते, गांवों की बेबस जिंदगी को देखते हुए हम अपने मुकाम पर पहुंचे। पुरुष समय पास करने के लिए गपबाजी कर रहे थे। वे मुंडारी में बातचीत कर रहे थे, जो अपने पल्ले नहीं पड़ रही थी। महिलाएं अलबत्ता महुआ की डोरी निकाल रही थीं, जिसे सुखाकर तेल निकाला जाता है। धरती आबा बिरसा मुंडा के पोते सुकरा मुंडा की पत्नी लखीमनी भी एक पेड़ की छाया तले यही काम कर रही थी। बिरसा के जन्म स्थल के पीछे उसका मकान है। ऊपर खपरैल। बांस के फट्टे का दरवाजा। क्या आप उम्मीद कर सकते हैं कि राज्य के सबसे बड़े नायक बिरसा मुंडा के वंशज सुकरा के पास एक ढंक का मकान भी नहीं होगा। मकान के आगे लगा चापाकल भी सालभर से बेकार है। वैसे गांव के अधिकांश चापाकल बेकार हैं। बिजली की तो पूछिए मत। दो साल से ट्रांसफार्मर जला है। डीसी से लेकर एसडीओ से भी शिकायत की गई, लेकिन बेकार। मैट्रिक पास सामयल पूर्ति दुभाषिए का काम करता है। गांव के लोग मुंडारी बोलते हैं। हिंदी बहुत मुश्किल से कोई-कोई बोलता है। कहता है, गांव में कोई सुविधा नहीं। नौ जून और 15 नवंबर को अधिकारी दिखाई देते हैं। समस्याएं सुनते हैं, आश्वासन देते हैं। खूंटी जाते ही समस्याओं को 'खूंटीÓ पर टांग देते हैं। नेता इन दो अवसरों के अलावा चुनाव के समय आते हैं, फिर इधर का रास्ता भूल जाते हैं। बरनावास पूर्ति 70 को छू रहे हैं। बुनियादी अस्पातल दिखाते हुए कहते हैं, तीन कमरों वाला यह अस्पातल सालों से बंद है। न कोई डाक्टर, न कोई नर्स। यहां से सबसे नजदीक अस्पताल अड़की दस किमी दूर है और खूंटी 25 किमी दूर। कोई साधन नहीं। एक कमांडर ही चलता है। सुबह-शाम। जरूरत पड़ी तो पैदल ही एकमात्र उपाय। विकास के नाम पर एक सड़क ही दिखाई पड़ती है। 812 लोगों की आबादी वाले इस गांव में महिला-पुरुष संख्या में कोई ज्यादा अंतर नहीं। पुरुष 408 और महिलाएं 404। गांव से सटे बना आवासीय विद्यालय और अस्पताल भी खस्ता हो रहे हैं। अस्पताल में बुध के बुध डाक्टर आते हैं। आवासीय विद्यालय में कक्षा आठ तक 280 बच्चे हैं और शिक्षक महज चार। गर्मी की छुट्टी होने के कारण आवासीय विद्यालय में ताला लटका था। पास बने बिरसा कांप्लेक्स में लगे शिलापट्ट टूट चुके हैं। कांप्लेक्स देखकर रोना आता है। बिरसा अपने की गांव में उपेक्षित हैं। उनके जन्म स्थल को भी मामूली छप्पर से से बनाया गया है। नेताओं के शिलापट्ट जरूर मजबूती से खड़े हैं।