मन कांच माटी क घरिला ए बाबा....

जमानियां की एक याद : माला पहने पाठक जी
संजय कृष्ण : श्री हरिवंश पाठक गुमनाम पिछले छह दशकों से काव्य जगत में सक्रिय हैं-रह-रह कर। आरंभिक दिनों को छोड़ दें तो बाद के दिनों में उनका लेखन साहित्य की दुनिया में अनुपस्थित ही रहा-यानी गुमनामी के अंधेरे में। पारिवारिक जिम्मेदारियों ने एक तरह से उन्हें साहित्य की दुनिया से काट दिया था। इस बीच मंच पर काव्य वाचन का सिलसिला शिथिल नहीं हुआ। पिछले दिनों अंधेरे को चीरते हुए साहित्य की रौशन दुनिया में आए। एक गजल संग्रह आया-दर्दों के छंद। पोर-पोर पीड़ा को महसूस करने वाले गजलगो का यह पहला संग्रह था। करीब अड़तीस गजलों के इस संग्रह में जुनूनेइश्क, परस्तारे हुस्न, लज्जते दर्द के साथ इश्केहकीकी को भी साथ-साथ पढ़ा जा सकता है। संवेदनाओं के धनी हैं तो इसे महसूस भी कर सकते हैं। तब यहां प्रेम का सूर्ख रंग ही दिखाई नहीं देगा, एक उदासी, एक पीड़ा, एकाकार होने की चाहत-न जाने कितने अनुभवों के रंग यहां दिखाई देंगे।
पाठकजी सुकंठ हैं। उनका कद ही लंबा नहीं हैं बल्कि वे ग्र्रीवी भी हैं। इसलिए पढऩे से ज्यादा उनको सुनना एक अलग अनुभव है। वे कविता लिखते हैं गजल पढ़ते हैं और गीत गुनगुनाते हैं। उर्दू, हिंदी और भोजपुरी में समान गति और समान अधिकार के साथ लिखते हैं। शब्द को भाव जगत में ले आने में उन्हें कोई खास दिक्कत नहीं होती। भावों की गहराई का बोध उन्हें है। गजल के छंद हों या गीतों के-दोनों परंपराओं के अनुज्ञाता है। इसलिए उनकी गजलों में इसकी कमी नहीं खटकती है। अपनी गजलों में तख्लुस का जैसा सार्थक प्रयोग किया है, उसका अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।
आज जब उनकी भोजपुरी की कविताओं पर लिखने बैठा हूं तो तय नहीं कर पा रहा हूं कि बात कहां से शुरू की जाए। वे वटवृक्ष हैं। उनकी छांव में ही हम लोग बड़े हुए हैं। हाथ पकड़कर लिखना सिखाया है। भोजपुरी हमलोगों की मातृभाषा है। सुनने में जितनी यह सहज और मीठी लगती है, लिखने में मुझे असहज लगती है। कहने की जरूरत नहीं कि देश की बोलियों में सर्वाधिक बोली जाने वाली यह लोकभाषा है। विदेशों में भी यह बेहद लोकप्रिय है। खासकर, उन देशों में जहां भोजपुरी भाषी बतौर गिरमिटिया बनकर गए। वे इस भाषा को अब भी संजो रहे हैं। उनकी भोजपुरी आज की भोजपुरी नहीं, बल्कि डेढ़-दो सौ साल पहले की भोजपुरी है। लेकिन अपने देश में भोजपुरी बदलती रही है। आज भोजपुरी पर हिंदी का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इसके साथ ही स्थानीय टोन के कारण भी इसमें बदलाव होते रहे हैं। उप्र, बिहार और झारखंड भोजपुरी के गढ़ हैं, पर जहां-जहां भोजपुरिया गए हैं, इस भाषा को भी साथ लेते गए हैं। इस भाषा को ट्रिनीदाद और सूरीनाम आदि देशों में लाखों की संख्या में लोग मातृभाषा के रूप में इसका व्यवहार करते हैं।
इस भाषा के पास अपना व्याकरण भले न हो, गीतो, मुहावरों, लेखकों, गायकों से यह बहुत ही समृद्ध है। भिखारी ठाकुर से लेकर मनोज भावुक तक, नजीर हुसैन से लेकर रविकिशन तक। शारदा सिन्हा से लेकर भरत शर्मा व्यास और गोपाल राय तक। हजारी प्रसाद द्विवेदी, विवेकी राय, रामजियावन बाबला से लेकर शुकदेव सिंह और मिथिलेश्वर तक। अब तो कबीर को भी भोजपुरी का कवि माना जाने लगा है। राजनीति भी अछूता नहीं है। बाबू राजेंद्र प्रसाद तो खाटी भोजपुरिया थे। इसी कड़ी में पाठकजी को भी शामिल किया जा सकता है।
पाठकजी ने भोजपुरी में बहुत नहीं लिखा है, लेकिन जो लिखा है वह ठोस लिखा है। प्रस्तुत पुस्तक में उनकी कुल दस कविताएं शामिल की गईं हैं, संख्या में छोटी होने के बावजूद अपने विजन में विलक्षण हैं। हमें इन कविताओं को पढ़ते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ये कविताएं साठ-सत्तर के दशक में लिखी गई हैं। इसलिए प्रतीक और प्रतिमान उसी समय के हैं। कुछ कविताओं में संस्कृत के प्रतिमानों की छाया देख सकते हैं, कुछ में माटी की गंध को महसूस कर सकते हैं। एक खास तरह के देशज स्वर को भी लक्षित किया जा सकता है। यहां गीत भी है, गजल भी और कविता भी-वह भी अपनी बोली-बानी में। यहां गोर्की की पंक्तियां कौंध रही हैं। गोर्की ने लिखा है, जन सामान्य के बीच प्रचलित भाषा और साहित्य की भाषा में कोई अंतर नहीं है। भाषा जनता द्वारा निर्मित वस्तु है। जनभाषा कच्चे माल की तरह है। समर्थ साहित्यकार और रचनाकार उसका परिष्कार कर साहित्य में उपयोग करते हैं। कबीर ने ऐसा ही किया, तुलसी ने भी अवधी का संस्कार किया और सूरदास ने ब्रज को साहित्य के संस्कारों से सजाया। पाठकजी ने भी भोजपुरी में रचकर इस भाषा का सम्मान किया है। अपनी बोली बानी में जो भाव संप्रेषण हो सकता है, वह दूसरी भाषा में संभव नहीं है। इसे अफ्रीकी लेखक थ्योंगी ने भी महसूस किया है। यही कारण है कि वे अंग्रेजी भाषा में लेखन छोड़कर अपनी मातृभाषा की ओर लौटे। 
अब उनकी रचनाओं पर लौटते हैं। बात गजल से शुरू करते हैं। गजल उर्दू की विधा है। हिंदी में भी यह विधा बेहद लोकप्रिय है। भोजपुरी में गजल कहने का संस्कार आकार ले रहा है। पाठक जी की इन पंक्तियों पर गौर करें-
आम कऽफांकि कऽ बदल हउवे।
आंखि मछरी ह रूप जल हउवे।
रूप कऽ ताल में खिलत हउवे।
नैन राउर ह कि कंवल हउवे।
इस गजल में तत्सम और देशज दोनों स्वरों को पढ़ा जा सकता है, लेकिन कहीं भी यह शब्द प्रयोग खटकता नहीं है। आंखि हो या नैन या कंवल। इसकी गेयता खंडित नहीं होती। यह अलग बात है यह ये बिंब पुराने हैं। संस्कृत काव्यों में आंख की तुलना कंवल और मछली दोनों से की गई है। महाप्राण निराला ने भी अपनी राम की शक्ति पूजा में कंवल की जगह आंख को देवी के चरणों में समर्पित करने की बात कही है। इसलिए प्रतीक भले पुराने हों, स्वाद नया है। यह गजल जब आगे बढ़ती है तब कवि की पीड़ा का एहसास होता है। प्रेम में इस कदर मजरूह है कि वह निर्णय नहीं कर पाता है कि मन को तज दें या सांस को-
कब न रखलीं परान कऽ पाछे।
मन के बाकिर ई बेकहल हउवे।
एके तजदीं कि सांसि के तज दीं।
ई दरद जान से बेसहल हउवे।
कवि पेशोपेश में भी है। आखिर किसे बताए और क्या बताए कि क्या हुआ है-
का बताईं कि का भयल हउवे। 
कुछ ऐसी ही अनुभूति और संवेदना को आगे बढ़ाती है-'आंखि लागत न बाÓ। कविता में विरह की व्याकुलता है। इस व्याकुलता के कारण ही चांद की शीतलता भी विष जैसी लगती है। नेह से मातल हृदय की प्यास तो तभी बुझेगी जब आंखों की प्रतीक्षा खत्म होगी। इस लंबे गीत में परंपरा के स्वर को पहचाना जा सकता है। भोजपुरी इलाके में 'विरहÓ घर के हर हिस्से में आता है। ऐसा कोई घर नहीं जिसके घर का कोई व्यक्ति परदेस में न हो। और, यह परदेस 'कलकत्ताÓ जैसा कोई भी शहर हो सकता है। डा. राही मासूम रजा ने लिखा है कि 'कलकत्ता किसी शहर का नाम नहीं है। गाजीपुर के बेटे-बेटियों के लिए यह भी विरह का एक नाम है।Ó भिखारी ठाकुर के अनेक नाटक इसी विरह वेदना की व्याकुलता से उपजे हैं। पाठक जी ने इसे अपनी कविता में व्यंजित किया है।  कविता की पंक्तियों पर गौर करें-
आंखि लागति न बा, आंखि में आंखि बा।
तोर छोड़ल न जिनिगी जियल जाति बा।
ई दरद जाई तोसे कही बात कुल्हि।
बाति बस तोरा परतीति के बाति बा।
चान सिथिआ चुवावे कि बिखि बोवेला।
पात पीपर करेजा भइल डोलेला।
इस गीत में विरही का दर्द छलक-छलक आता है। पीपर के पात की तरह करेजा डोल रहा है। सांझ कब भोर में बदल जाती है, उसे पता ही नहीं चलता। कवि कहता है कि विरह की आगे सबसे बड़ी आग है-
ए बिरह आगि से आगि कुल्हि हेठ बा।
और, इस आग में हियरा पपिहरा के प्यास का कोई ओर-छोर नहीं है।
इस कविता को पढ़ते समय इसके पूर्व 'जिनगी क गीतÓ जरूर पढऩी चाहिए। 33 पंक्तियों की इस कविता में जिनगी का पूरमपूर दर्द समाया हुआ है। इस गीत की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि , विरह, शृंगार से होते हुए यह कविता अंत में संसार की निस्सारता को दर्ज करती है। स्वप्न से शुरू होकर स्वप्र के पार की यात्रा करती है। टह-टह लाल कचनार के  फूल जस जिनगी क गीत में नेह के बिरवा से लंबी-लंबी पाती सिंची गई है। पाती के माध्यम से अंकवार में भरने की चेष्टा की गई है। पाती में सब कुछ है। हर कल्पना और स्वप्र को स्थान दिया गया है। दर्द ऐसा कि कभी-कभी नायिका कह उठती है कि हियरा को कहां पठाऊं। जिनगी क रात में मोह की नींद ने ममता के सपना को जवान कर दिया है। इस जवान होते सपने में जब वह कहती है कि मटिया क गगरी पिरितया क उझकुन, जोगवत जिनगी ओराय। इन्हीं  पंक्तियों में कविता अपना प्राप्य और अर्थ ग्रहण करती है। सारी उम्र जब दर्द का बखरा बन जाती है तब जिंदगी धुआं-धुआं हो जाती है-
मटिया क  गगरी पिरितिया का उझकुन
जोगवत जिनगी ओराय।
सगरी उमिरिया दरदिया क बखरा
छतिया क अगिया धुंआय।
एक और गीत जो 'जिनगी क पातीÓ शीर्षक से संग्रहित है। यह गीत पाठकजी की प्रिय रचना है। पाठकजी जब इस गीत को सस्वर पढ़ते हैं तो इसके कई-कई अर्थ खुलते हैं। एक तरफ यह प्रेम और विरह से जुड़ता है, जहां प्रेमी है और प्रेमिका। वहीं दूसरी तरफ जड़ और जीव के पंरपरागत द्वंद्व को भी व्यंजित करता है। उपनिषदों की पंरपरा से लेकर संत परंपरा तक में जड़, जीव, चेतन-अचेतन को लेकर जो द्वंद्व मुखर हुए हैं, वह यहां भी दिखाई पड़ता है। कहने में संकोच नहीं कि कविता की एकहरी व्याख्या नहीं की जा सकती है। लौकिकता से पारलौकिता की यात्रा भारतीय मनीषा की विशेषता रही है। द्वंद्व से पार जाने की छटपटाहट ही इसे दूसरी संस्कृतियों से अलग करता है। शंकराचार्य ने द्वैत की बात नहीं की, अद्वैत की बात की है। वह इस तथ्य से भली-भांति परिचित थे कि जहां द्वैत होगा, वहां द्वंद्व होगा ही, इसलिए वे अद्वैत की बात करते हैं। जहां दोनों न हों। कबीर ने भी लिखा है प्रेम गली अति सांकरी, तामे दो न समाय। पाठकजी भी अपनी परंपरा से कटे व्यक्ति नहीं हैं। इसलिए वे पाती के माध्यम से इस कहानी को आगे बढ़ाते हंै। प्रेमिका कहती है तनवां सउंपि दीं कि मनवां सउंपि दीं।
मतिया, पिरितिया, परनवां सउंपि दीं।
और यह समर्पण भी देखिए कि
पियवा के कुल्हि अरमनवां सउंपि दीं।
लेकिन जब गीत आगे बढ़ता है और इसका संदेश स्पष्ट हो जाता है। इन पंक्तियों में इस गीत का पूरा अर्थ समाया हुआ है-
दिया जरेला राति ताख झरे करिखा।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद अउरि इरिखा।।
आधि-व्याधि घोर घनघेरि करे बरिखा।
सउंसेे गियान के जियान करे तिरिखा॥
इसकी व्याख्या करने की जरूरत नहीं है।
पाठक जी का एक गीत, जिसमें बाप के मर्म और बेटी के दर्द को उड़ेला गया है, ऐसा गीत है जिसे कोई भी सुन ले तो उसकी आंखें भींग आएंगी। 'बाप के भेंटति बेटीÓ में जिन बिंबों-प्रतीकों का प्रयोग किया गया है, उसमें जो नवीनता है, जो दर्द है-वह हृदय को बेचैन कर देता है। बेटी कहती है कि मन तो कांच माटी का घड़ा है। इसमें जो पानी है वह ससुराल का रीत है। वह अपने घर को याद करती है। कहती है पिजड़े का दुख सहते नहीं सहाता है। किससे कहें अपना दुख। तुलसीदास ने लिखा है कि पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं। लड़की जब विदा होकर जाती है और उसके कुछ दिनों बाद पिता जब लड़की के ससुराल जाता है तो लड़की अपनी पीड़ा का बयान करती है। कहती है कि सास बेसहलि चेरी समझती है तो ननद उससे भी हीन। पिया यानी पति द्वंद्व में है। वह नाता निभाता है। एक ओर पत्नी है तो दूसरी और मां और बहन। किसका पक्ष ले, किसको बोले। लड़की का दर्द छलक उठता है जब वह कहती है कि- तोहरे दुलार बाबा चित से न उतरे,
माई क सहज सनेह।
नइहर-सासुर दुई टूक जिनगी
बिधिना का अजब उरेह।
अब लड़कियां नहीं रोतीं। समाज बदल गया। लेकिन लड़की की पीड़ा अब भी वही है। सास, ननद के रिश्ते अब भी सामान्य नहीं हुए हैं। सास भी कभी बहू थी जैसे सीरीयल सालों साल चलते हैं। भले ही उसमें सास-बहू की विद्रूपता चित्रित हुई हो, लेकिन कहीं न कहीं वह टीस मौजूद है।
पाठकजी के दूसरे गीतों को भी पढ़ा जा सकता है। ऊपर जिन गीतों की चर्चा की गई है, वह उनके काव्य-व्यक्तित्व की ऊंचाई को भली-भांति रेखांकित करता है। पाठक जी शब्दों का चयन भी सोच-समझकर करते हैं। वे हड़बड़ी में किसी शब्द का प्रयोग नहीं करते। शब्दों को रखते समय जब तक वह उस शब्द से खुद संतुष्ट नहीं हो जाते, जब तक प्रयोग करते रहते, भले महीनों लग जाएं। उचित शब्द, उचित जगह पर होना चाहिए, तभी अर्थ संप्रेषित हो सकता है-ऐसा वह मानते हैं। ट्राट्स्की ने लिखा है कि कवि या कलाकार किसी भी विषय पर लिखने के लिए स्वतंत्र है, पर उसकी रचना समय की प्रगति और जीवंत विचारों की वाहक होनी चाहिए। पाठकजी को पढ़ते हुए ऐसा महसूस होना स्वाभाविक है। वह लिखते हैं, और डूबकर लिखते हैं।
पाठक जी अब हम लोगों के बीच नहीं रहे। मुंबई में 31 दिसंबर को संध्या साढ़े तीन बजे हम लोगों का साथ छोड़ गए। उनका निधन हम लोगों के लिए पहाड़ गिरने जैसा है। उनकी एक किताब पर लिखा लेख श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत किया जा रहा है।