किसी आईने की तलाश में रांची

संजय कृष्ण
मुंशी प्रेमचंद के सहयोगी रहे व्यंग्य कथा सम्राट राधाकृष्ण के शहर रांची में साहित्यिक तापमान- सूचक कांटा बेशक ऊपर-नीचे होता रहता है किन्तु यह कभी शून्य तक नहीं गिरता। ताजा सरगर्म कथा के अनुसार इंदु जी की दुकान से ही यह खबर फूटी कि रणेंद्र ने महुआ माजी के प्रतीक्षित नवीनतम उपन्यास मरंग गोडा नीलकंठ हुआ की निर्मम शल्य क्रिया कर दी है। समीक्षा छपने से पहले ही कलमघिस्सुओं ने चटखारे ले-लेकर उपन्यास का पोस्टमार्टम शुरू कर दिया। मई में ही चर्चा आम हो गयी थी कि समीक्षा नया ज्ञानोदय में आ रही है। समीक्षा पढने के लिए लोग आकुल- व्याकुल होने लगे। जैसे ही जून चढा, हर रोज लोग इंदु जी दुकान पर हाजिरी लगाते, पत्रिका आई क्या? इंदुजी भी रोज सुबह रेलवे स्टेशन जाते, पता करते और फिर उदास हो चले आते। पाठक- साहित्यकार दोनों बेसब्र हो रहे थे। खैर, आधा महीना गुजर जाने के बाद आखिरकार जून का अंक आया। रणेंद्र की समीक्षा सबने देखी-सबने पढी। वरिष्ठ लोगों की प्रतिक्रिया होती, बतिया त ठीके लिखे हैं। और आहत महुआ ने ज्ञानोदय को लंबी प्रतिक्रिया भेज दी। उदारता दिखाते हुए रवींद्र कालिया ने जुलाई के अंक में महुआ माजी की प्रतिक्रिया छाप दी। हिसाब- किताब बराबर..। लंबे समय से रांची में पसरा साहित्यिक सन्नाटा किसी बहाने टूटा था। खैर, माहौल में अभी भी नमी है। ताप है। रांची की पहाडी तप रही है।
अल्बर्ट एक्का चौक इस बात से बेखर नहीं। न इंदु जी की दुकान। आजकल गप्पबाजी का अड्डा यही है। यदि आप यहां नियमित आते हों तो रविभूषण, विद्याभूषण, वासुदेव, पंकज मित्र, महुआ माजी, रणेंद्र, श्रवणकुमार गोस्वामी, अरुण कुमार आदि से मुलाकात संभव है। झारखंड के दूसरे जिले से आने वाले साहित्यकार, कवि, लेखक, भी यहां टकरा ही जाते हैं। हां, एक्टिविस्टनुमा पत्रकार और पत्रकारनुमा एक्टिविस्ट नामक प्राणी भी यहां आसानी से पाए जाते हैं। यहां ज्ञान की विभिन्न सरणियों से गुजरते हुए आप धर्म की गंगा में भी डुबकी लगा सकते हैं। यह बात अलग है कि इस ज्ञानचर्चा में इंदुजी कभी समाधिस्थ नहीं हुए। समाधि जैसे ही लगती, तंद्रा में जाने लगते कि बगल में मामा चाय वाले को तीन में पांच करने का आर्डर दे देते जोकि तरल ऊर्जा का निकटस्थ स्नोत है। सुबह से शाम तक गुलजार रहने वाला अल्बर्ट एक्का चौक को लोग रांची का दिल कहते हैं। हमें न मानने का भी कोई कारण नहीं। इसी के पास है इंदुनाथ चौधरी की मार्डन बुक नामक किताब की दुकान, जिसे लोग उनके शार्ट नेम इंदुजी पुकारते हैं। यही रांची का साहित्यिक मर्मस्थल है। अब रांची तो कोई बनारस है नहीं कि यहां पप्पू चाय की दुकान मिलेगी, न पटना का काफी हाउस न इलाहाबाद...। रांची तो अपन रांची ठहरी। पीठ पर छौव्वा, माथ पर खांची.. यही है रांची की पहचान..। पर वैश्वीकरण ने इस पहचान को भी धूमिल कर दिया है।
जब रांची में बैठकी और गप्पबाजी के अड्डे की तलाश में भटकते हैं तो अपर बाजार के अपने पुराने मकान में व्यंग्य कथा सम्राट राधाकृष्ण के पुत्र सुधीर लाल मिल जाते हैं। कहते हैं कि 1890 में वनिता हितैषी का प्रकाशन बालकृष्ण सहाय के अमला टोली स्थित प्रेस से हुआ। अब इसे श्रद्धानंद रोड कहते हैं। प्रेस में ही साहित्यिक गोष्ठी और बैठकी होती थी। बालकृष्ण सहाय, ठाकुर गदाधर सिंह, बलदेव सहाय, त्रिवेणी प्रसाद.. आदि की महफिल जमती थी। तब रांची आज जैसी नहीं फैली थी। न कंक्रीट के जंगल ही उग पाए थे। वह एक कस्बाई नगरी थी। बित्ते भर की। दूसरी बैठकी यूनियन क्लब में होती थी। यहां बंग समुदाय के लोग ही शरीक होते थे। आठ साल बाद 1898 में सहाय ने आर्यावर्त साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया। बित्ते भर शहर की पहचान बडी पुख्ता थी। 1924 में छोटानागपुर पत्रिका का प्रकाशन यहां के मारवाडी टोला से प्रारंभ हुआ तो ठाकुरबाडी (गांधीचौक के निकट) मामराज शर्मा के यहां बैठकी शुरू हो गई। मामराज इस पत्रिका के संपादक थे। पत्रिका के कार्यालय में हर रोज बैठक होती थी। मामराज, चिरंजीलाल शर्मा, अयोध्या प्रसाद, जगदीश प्रसाद, देवकीनंदन.. तबके लेखक थे। जगदीश प्रसाद छोटानागपुर पत्रिका के नियमित लेखक थे। गोष्ठी में जगदीश प्रसाद राधाकृष्ण को भी ले जाया करते थे। उनकी आंखें कमजोर थीं। इसलिए जगदीश प्रसाद राधाकृष्ण से बोलकर लिखाते थे। उनके भीतर साहित्य का बीजारोपण यहीं पडा जो बाद में एक सफल कहानीकार और व्यंग्यकार बने। 1926 में अपर बाजार में संतुलाल पुस्तकालय खुला तो अड्डेबाजी यहां जमने लगी। तब युवा लेखक के रूप में अपनी पहचान बना चुके राधाकृष्ण, सुबोध मिश्र, जगदीश नारायण आदि शामिल होते। 1929 में इन युवाओं ने वाटिका नामक हस्तलिखित पत्रिका निकाली।
अपर बाजार में जब सुबोध ग्रंथ माला खुली तो यहीं बैठकी होने लगी। इसके मालिक श्याम सुंदर शर्मा साहित्यिक मिजाज के थे। 1932 में विधा नामक पत्रिका शुरू की। उनके निधन के बाद उनके पुत्र प्रेम नारायण शर्मा भी साहित्यानुरागी थे। बैठकों का दौर जारी रहा। लेकिन सबसे ज्यादा पहचान मेन रोड स्थित फ्रेंड्स केबिन को मिली। यहां की चुस्की के साथ हिन्दी, उर्दू, बांग्ला के साहित्यकार बैठकी करते। राधाकृष्ण, रामकृष्ण उन्मन, मधुकर, प्रफुल्लचंद्र पटनायक, जयनारायण मंडल, रामखेलावन पांडेय, जुगनू शारदेय से लेकर कई राजनीतिज्ञ और पत्रकार भी यहां आया-जाया करते। सत्तर के दशक में राधाकृष्ण के निधन के बाद बैठकी बंद हो गयी। फ्रेण्ड्स केबिन आज भी हैं, लेकिन अब यहां दक्षिण भारतीय व्यंजन परोसे जाते हैं। रातू रोड में भी एक चाय की दुकान थी। मुकुंदी बाबू की। यहां पर भी राधाकृष्ण के अलावा शिवचंद्र शर्मा, भवभूति मिश्र, आदित्य मित्र संताली, नारायण जहानाबादी, डॉ. दिनेश्वर प्रसाद के अलावा रेडियो स्टेशन के कलाकार भी जुटते थे। कचहरी रोड स्थित अभिज्ञान प्रकाशन, स्वीट पैलेस भी अड्डा हुआ करता था।
राधाकृष्ण चाय, बीडी, पान के शौकीन थे। चाय के साथ तो वे घंटों गप्प करते रहते थे। प्रेमचंद के निधन के बाद कुछ महीनों तक बनारस जाकर हंस भी संभाला। रांची आए तो आदिवासी पत्रिका के संपादक हुए। अमृत राय रांची आते तो उन्हीं के यहां महीनों ठहरते। इनके अलावा विष्णु प्रभाकर, कमलेश्वर जैसे रचनाकार भी उनसे मिलने रांची आते रहते। सुधीर एक बात का जिक्र करते हैं। सत्तर के पहले का। रांची में बांग्ला के मशहूर लेखक ताराशंकर बंद्योपाध्याय साल में एक बार राधाकृष्ण से मिलने जरूर आते। लेकिन यह मुलाकात गोपनीय ही रहती। वरिष्ठ साहित्यकार विद्याभूषण कहते हैं कि रांची में वह कल्चर कभी विकसित नहीं हुआ, जो दिल्ली, बनारस, इलाहाबाद और पटना में रहा। लेकिन होटलों और लोगों के आवासों, क्लबों में बैठकें, गोष्ठियां होती रहती थीं। 1960 और 2010 के बीच करीब 31 से ऊपर ऐसी संस्थायें थीं, जहां रचनाशीलता पर बहस होती रही। इनमें प्रतिमान, अभिज्ञान, केंद्र, सुरभि, अभिव्यक्ति, प्रज्ञा, लेखन मंच, तीसरा रविवार, देशकाल, साहित्य लोक प्रमुख हैं। तीसरा रविवार 1986 से 88 तक चला। परिवर्तन बिहार क्लब के बगल में ही सजता था, जिसमें आजके महत्वपूर्ण कथाकार प्रियदर्शन और अश्विनी कुमार पंकज नियमित भाग लेते थे। लेखन मंच से वीरभारत तलवार भी जुडे हुए थे।
चर्चित लेखिका महुआ माजी कहती हैं कि रांची में ऐसी कोई जगह नहीं रही जहां बैठकी होती हो। इसके पीछे गुटबाजी को भी वे कारण बताती हैं जो अपने से ऊपर लोगों को देखना नहीं चाहते। परन्तु वे 1996 में बिहार क्लब में कादंबिनी क्लब का जिक्र करती हैं, जहां माहवार बैठकी होती थी, जिसमें माया प्रसाद, मुक्ति शाहदेव, रेहाना मोहम्मद, अशोक अंचल, आदित्य, प्रभाशंकर विद्यार्थी, बालेंदुशेखर तिवारी शामिल होते थे। हालांकि उषा सक्सेना और ऋता शुक्ला के घर पर भी कुछ लोग जुटते थे। अश्विनी यह सवाल भी उठाते हैं कि पिछले सौ सालों में और इधर झारखंड बनने के बाद भी शहर में कोई सार्वजनिक जगह नहीं है, जहां चाय की दो घूंट के साथ अड्डेबाजी की जा सके। यही मलाल आलोचक रविभूषण को भी है। कहानीकार पंकज मित्र कहते हैं कि बढती माल संस्कृति और बडी-बडी अत्रलिकाओं ने शहर को एक नया चेहरा तो दिया है,लेकिन इस अचानक आई समृद्धि के बीच संस्कृति का दम घुट रहा है। भारत- पाक की साहित्यिक विरासत को संजाने वाले हुसैन कच्छी को भी इस बात का दु:ख है कि शहर का कोई चेहरा नहीं है। मॉल और बडी-बडी बिल्डिगों से शहर नहीं पहचाना जाता, उसकी पहचान उसकी संस्कृति से होती है।